जीव, तू क्यों मरता जीता है?
गत कर्मों का बीज अधम ही,
बन प्रारब्ध पनपा करता है।
क्रियमाण के करम-धरम में,
जो करता है , वो भरता है।
उपनिषद व वेद-ऋचा में,
ज्ञान-गंगा गुंजित-व्यंजित है।
संरक्षण हो कर्मफल का,
जनम-चकर में जो संचित है।
आसक्ति के बंधपाश में,
लोभ, मोह और दम्भ-त्रास में।
भ्रूण-भंवर और काल-ग्रास में,
रहे सरकता चक्र-फाँस में।
सिक्त-परिग्रह, रिक्त और टूटन,
कुंठा, कुटिल-छल, घर्षण-घुटन।
काम, क्रोध, मोह, मद-मत्सर में,
जड़ जंतु तम भव-सागर में।
भ्रमित जीव कबतक भटकेगा,
जगत-गरल जबतक गटकेगा।
आओ रागी, बन वीतरागी,
फल-बंधन, तू छोड़ बड़भागी!
तन-मनुज प्रसाद में पाया,
योग-निमित्त ये सुंदर काया।
उठ परंतप, त्याजो संशय,
हा, धनुर्धर! कण-कण
ब्रह्ममय।
अनासक्ति का भाव जगा ले,
ईश-भक्ति में नेह लगा ले।
छोड़ सब गुण, गुन मुरली की धुन,
कहे कन्हैया, सुन गीता है।
जीव, तू क्यों मरता- जीता है?