आज २०१७ में हम गाँधी के चंपारण
सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. यह ब्रितानी हुकूमत के पैरों तले पिसती
कराहती चंपारण की कृषक जनता की सिसकियों को स्मरण करने का समय है और उस अत्याचार
से सत्य और अहिंसा के शस्त्र से त्राण दिलाने वाले गाँधी की वीर गाथा को नमन करने
का मुहूर्त है. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह समय उस शासन परम्परा के
उत्तराधिकारी ब्रिटेन के वर्तमान शासकों के अपने अत्याचारी पूर्वजों के पाप कर्म
के प्रायश्चित करने का नहीं है ! आज से दो वर्ष बाद हम २०१९ में जालियांवाला बाग़
में जनरल डायर के क्रूर कुकृत्यों से ढेर अपनी हुतात्माओं की सौंवी बरसी मनाएंगे.
क्या उस ब्रितानी बेशर्मी पर पश्चाताप करने अँगरेज़ प्रधानमंत्री उस बाग में घुटनों
के बल बैठेंगे और भारतीय जनमानस से माफ़ी की गुहार लगायेंगे! और शनैः शनैः काल
प्रवाह में ऐसे कितने जयन्ती शतकों का हम साक्षात्कार करेंगे जब हमारा स्वतंत्र
राष्ट्रीय मानस उस तथाकथित सभ्य अँगरेज़ प्रजाति से प्रायश्चित की परम्परा के
निर्वाह के रूप में क्षति पूर्ति की आशा करेगा. इन्ही भावनाओं को अपनी ओजस्वी वाणी
दी है शशि थरूर ने अपने बहुचर्चित व्याख्यान में ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन के समक्ष. और
उससे भी धारदार ढंग से परोसा है अपनी पुस्तक ' AN ERA OF DARKNESS: THE BRITISH
EMPIRE IN INDIA' अर्थात " भारत में ब्रितानी साम्राज्य के तिमिर काल "
में ! इस पुस्तक का ताना बाना उपरोक्त बहुचर्चित 'ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन व्याख्यान' की
पृष्ठभूमि में बुना गया है अद्भुत आंकडों और ऐतिहासिक घटना क्रम के आलोक में. श्री
थरूर ने बड़ी विद्वतापूर्ण ढंग से ब्रितानी हुकूमत के कदमो में कुचलते औपनिवेशिक
हिन्दुस्तान के अद्यतन शोषण का सर्वांग चित्र खींचा है और यह भली भांती प्रमाणित
कर दिया है कि अब समय माकूल है जब ब्रिटेन की वर्तमान सरकार कम से कम अपने पुराने
कुकर्मों पर लज्जा की अनुभूति, प्रायश्चित सम्प्रेषण और क्षमा याचना का ही
मुआवजा दे. थरूर ने पुस्तक की प्रस्तावना
में स्पष्ट किया है कि उनकी प्रस्तुति ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में भारत के अनुभवों
की दास्तान है.
अपनी पुस्तक की भूमिका में थरूर ने
थोड़ा आत्म निरीक्षण और आत्मावलोकन भी किया है कि क्या स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरांत
उन तमाम विसंगतियों से हम उबर पाए हैं जिसका दोषारोपण हम बड़ी सरलता से अंगरेज़ प्रभुओं
पर थोपते रहे हैं! 'टाइम ' पत्रिका में
शिखा डालमिया की टिपण्णी ' शास्त्रार्थ में विजय-श्री संभवतः शशि थरूर को
शिरोधार्य हो किन्तु नैतिक विजय ने भारत को सर्वदा छला ही है.' को थरूर ने बड़ी
आत्मीयता से अंगीकार किया है. साथ ही वह इस तथ्य से भी सहमत नज़र आते हैं कि चाहे
हर्जाने का कितना भी बड़ा मूल्य भारत को सौंप दिया जाय , उसके समुचित उपयोग एवं
जरुरतमंदो तक उसकी पहुँच की आशा स्वतंत्र भारत के अद्यतन सत्ता संचालकों की
कर्तव्यनिष्ठा के आलोक में धूमिल ही है. उदाहरण के तौर पर भारतीय खाद्य निगम के
भंडारों से २०१० में दस हज़ार लाख टन खाद्यान्नों की बरबादी इस बात की पुष्टि करती है कि अतीत के अकाल इन अभिजात्य
सत्ताधीशों की जाहिलता और अक्षमता की ही अभिव्यक्ति थे. राजनितिक पूर्वाग्रहों से
ऊपर उठकर थरूर ने स्वातंत्र्योत्तर शासकों की जम कर खिंचाई की है कि मुलभुत शिक्षा
व साक्षरता की अवहेलना, समाजवाद की सनक, लाइसेंस राज की खनक और चुनिंदे धनकुबेर
औद्योगिक घरानों की गोद में उनकी सर्व समर्पित अपवित्र प्रेम क्रीड़ा ने देश को
दुर्दशा की ऐसी दिशा में धकेल दिया कि १९५० से १९८० के बीच सकल घरेलु उत्पाद के
पैमाने पर यह मेक्सिको और दक्षिण कोरिया से भी पिछड़ गया.
किन्तु, महज़ इन असफलताओं की बुनियाद पर
निस्संदेह हम ब्रितानी हुकूमत को उनके अतीत के काले कारनामों से न तो बरी कर सकते
है और न ही हमारे शासकों की अकर्मण्यता के अंगोछे से ब्रिटिश कलंक को पोंछा जा
सकता है. दीगर है कि आप बीस से भी अधिक दशकों के शोषण से दहकते घाव को छः सात
दशकों में तो नहीं ही भर सकते. इतिहास के भिन्न भिन्न कालखंडो का मूल्यांकन भी उस
काल की अपनी विशिष्टताओं और परिस्थितिजन्य कालगत विलक्षणताओं के विस्तार में ही
किया जा सकता है. फौरी तौर पर ब्रितानी हुकूमत अतीत के अपने काले औपनिवेशिक
कारनामो से मुंह नहीं मोड़ सकती और उसे प्रायश्चित का मूल्य चुकाना ही पड़ेगा. चाहे,
वह सांकेतिक तौर पर २०० वर्षों तक एक पौंड प्रति वर्ष की दर से ही क्यों न हो!
पोलैंड में यहूदियों के सर्वनाशिक
विध्वंस के लिए जर्मनी के चांसलर विलि ब्रांट ने वारसा की यहूदी बस्ती में घुटनों
के बल बैठकर उस कुकृत्य के लिए क्षमा याचना की थी भले ही उस समय तक क्षमा देनेवाला
न कोई यहुदी समुदाय वहाँ बचा था और न ही नाजियों के द्वारा स्वयं सताए गए समाजवादी
ब्रांट का उस यहूदी सत्यानाश की प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध था. किन्तु, ब्रांट की मानवीय मूल्यों से ओत प्रोत
यह तरल भाव-भंगिमा इतिहास की शुष्क बंज़र भूमि में एक ऐसी त्यागमयी ममतावात्सल
भागीरथी का अनुपम अमृत प्रवाह था जो इस
वसुंधरा को सदियों तक आप्लावित करती रहेगी. यह तवारीख की एक अनोखी मिशाल थी जर्मनी
की नैतिक जिम्मेदारी की विनम्र स्वीकारोक्ति की.
ब्रितानी हुकूमत का काल अर्वाचीन न
सही, इतना प्राचीन भी नहीं है कि इसकी स्मृति भारतीय लोक मानस पटल से बिलकुल
विलुप्त हो गयी हो! संयुक्त राष्ट्र संघ की जनगणना से सम्बंधित एक समिति के
प्रतिवेदन में प्राप्त आंकड़े ये दर्शाते है कि हिन्दुस्तान में ८० वर्ष से अधिक वय
के उन व्यक्तियों की संख्या साठ लाख है जिन्होंने विलायत की रानी के विध्वंस
स्वरुप को अपनी बाल स्मृतियों में संजो कर रखा है. उनके बाद की पीढी की ५० से ६०
की उम्र वाली उनकी जिन संततियों ने उनके मुंह से यह खौफनाक दास्तान सूनी है, यदि उनको
भी जोड़ दिया जाय तो यह संख्या दस करोड़ के आसपास पहुँच जाती है जो स्वयं एक इंग्लैंड
की आबादी के करीब है.
आज माकूल समय था जब इंग्लैंड के प्रधान
मंत्री चंपारण की धरती पर जाते और सत्य और अहिंसा की इस पुण्यभूमि में सजदा कर सार्वजनिक
क्षमा याचना करते अपने पूर्वजो के पातक कर्म का और अपनी आत्मा को पवित्र कर लौटते अपने
देश को ! या फिर दो बरस बाद ही सही, जालियांवाला बाग़ के रक्त
रंजित रज का तिलक लगाकर उन शहीद हुतात्माओं की याद में दो मिनट के मौन से माफ़ी मांग
लेते ! २०१३ में डेविड केमरून का कास्मेटिक कथन ' घोर शर्मनाक कुकृत्य ' और १९९७ में
रानी एलिजाबेथ की औपचारिक यात्रा और दर्शक पुस्तिका पर उनका अनुष्ठानिक हस्ताक्षर पश्चाताप
की प्रबल पीड़ा के सम्मुख ऊंट के मुंह में जीरा ही है. एक वृहत राष्ट्रीय सत्ता के रूप
में वर्तमान ब्रितानी साम्राज्य उन क्रूर कारनामों के लिए अवश्य उत्तरदायी है जिनके
विषैले दंशों से इसके अतीत के शासकों ने इस उपनिवेश को छलनी किया. और शायद इसी उत्तरदायित्व
भाव से अनुप्राणित थे कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूड जब २०१६ में ' कामगार मारू'
के मृत भारतीय अप्रवासियों के मामले में उन्होंने माफी माँगी. और नहीं तो कम से कम
ब्रिटिश लेबर नेता जेरेमी कॉरवीन द्वारा सुझाए प्रायश्चित की प्रक्रिया को अमली जामा
पहनाया जा सकता है. ब्रिटेन के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में उपनिवेशों पर ब्रिटिश शासन
के क्रूर कहर के इतिहास को शामिल किया जाय ताकि आज की अंगरेज़ पीढ़ी कम से कम अपनी आँखों
में उन घटनाओं से कुछ पानी भर सके! कम से कम नैतिकता की भाव धरा पर ही सही थेम्स की
धारा बह तो जाय !
थरूर अपने पुस्तक की प्रस्तावना में उन
अभिजात भारत वंशियों का कान उमेठने से भी बाज नहीं आते जिन्होंने अंगरेजों के अत्याचार
कर्म में उनके ताल से ताल मिलाकर अपने सहकार धर्म का पूरी स्वामी भक्ति से पालन किया.
विलायती प्रासाद के प्रसाद की छाया में
पलने विचरने वाले भारतीय राज घराने अपनी शान ए शौकत के संरक्षण के एवज़ में शोषण तंत्र
में शामिल हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध में अपने राजकोष के पैसे से अंगरेजों का खजाना
क्रिकेट कुमार राजा रंजित सिंह ने चापलूसी में इस बात की परवाह किये बिना भर दिया कि
राज्य की जनता भयंकर दुर्भिक्ष में त्राहि त्राहि कर रही थी. और चाटुकारिता की पराकाष्ठा
तो तब हो गयी जब ब्रिटिश विजयोल्लास की आतिशबाजी में उन्होंने जनता के एक महीने का
राजस्व लुटा दिया ! नीरद सी चौधरी जैसे राजसी
साहित्यकारों ने विलायत की बिरुदावली गाने में कोई कसर न छोड़ी. अंगरेजों के इस महा
चारण ने भारत से राज के प्रस्थान पर शोक गीत तक गाया !
थरूर ने ब्रितानी प्रायश्चित की इस क्षतिपूर्ति प्रक्रिया में भारत के साथ साथ बांग्लादेश और पकिस्तान को भी साझेदार बनाकर एक अकाट्य
सत्य का उद्भेदन किया है. आखिर औपनिवेशिक इतिहास के तो ये तीनो देश संयुक्त साझेदार
हैं. और साथ साथ मेरी दृष्टि में यह भी विस्मृत नहीं होना चाहिए कि आज़ादी की लड़ाई हमारी साझी विरासत है औए ये जयंती
शतक भी हम तीनो का साझा त्यौहार है, चाहे वो चंपारण की सत्याग्रह शताब्दी हो . या जालियांवाला
बाग़ की सौंवी बरखी ! ........ याद रखिये , "वह जो इतिहास को भूल जाते हैं इसे दुहराने
को अभिशप्त हैं ( Those who forget the history are condemned to repeat it)"................!
शुक्रिया, शशि थरूर ( Shashi Tharoor) ! सत्य के अन्वेषण के लिए !! यथार्थ के उदघाटन के लिए !!!