ज़िन्दगी की कथा बांचते बाँचते, फिर! सो जाता हूँ। अकेले। भटकने को योनि दर योनि, अकेले। एकांत की तलाश में!
Wednesday 14 March 2018
विश्व विटप, प्राणी पाखी
Monday 12 March 2018
भनसा घर
भनसा घर, कोना,
पीअरी माटी से लीपा
सेनुर से टीकी दीवार,
सजता संवरता
हर तीज त्यौहार.
सुहाग सुहागन
करते पूरी
रसम कोहबर का।
आज ऊँघता मिला!
छिटककर दूर पड़ा,
मुर्छाए दोने के पास
अच्छत वाले चाऊर के,
हल्दी का टुकड़ा ।
फुआजी के अँचरा से,
चाची के खोईंछा का।
सहेजता सोंधी यादों को
कालजयी और धूल-धूसरीत!
सूंघता मिला!
धुल की मोटी जाजीम पर लेटा,
करीने से बुने मकड़जाल.
चंदवे और चादर
आच्छादित चहुमुख.
सरीआ रहे थे अनाज
पुराने ढकने मे,
गण गणपति के.
और हो रहा था मटकोर
सामने अगिन कोन.
सूख चुका था
जल कलसा का.
छोड़कर
धब्बे, धूसरित
अतीत के,
मानो हो आँखें
बेपानी
आज की!
निःस्वाद!
ढब ढब,
दरिया से,
यादों के
लोर.
नयनो के कोर में,
बाबा की.
अब भी छलकता
ज़िंदा था.
भविष्य का भोर!
शब्दार्थ: भंसा घर- गाँव के घर का वह हिस्सा जहाँ रसोई बनती है और घर के कुल देवी/देवता का स्थान होता है.
पिअरी माटी- पीली मिटटी जिससे घर का फर्श लीपा जाता है.
सेनुर- सिंदूर, चाऊर - चावल, अच्छत - अक्षत, खोईंछा -विदायी के समय बेटी के आँचल में दिया जानेवाला सगुन।
कोहबर- विवाह के बाद वह स्थान (कुल देवी/देवता के पास) जहाँ नवविवाहित जोड़ा अपना पहला साथ बिताने की रस्म पूरी करता है.
जाजिम - बिछौना, ढकना - कलश का ढक्कन, कलसा - कलश . गण गणपति के - गणेश के वाहन चूहे ,
सरिआना - सजाना , जमा करना.
मटकोर- विवाह की पूर्व संध्या पर सत्यनारायण भगवान की पूजा करने और महिलाओं द्वारा माटी खोदने की परंपरा. यहाँ पर चूहों द्वारा घर के कोने में मिट्टी खोदने का अर्थ लिया गया है.
अगिन कोन- दक्षिण पूर्व कोना
लोर- आंसू,
Wednesday 14 February 2018
Saturday 3 February 2018
इन्द्रधनुष
Saturday 20 January 2018
फिर! बवाल न हो?
Tuesday 26 December 2017
यूँ समय सरकता जाता है!
यूँ समय सरकता जाता है।
श्वेत-श्वेत-से सात अश्व-से!
घिरनी से घूमते पहिये पर,
घटता घड़ी-घड़ी जीवन घट है।
निशा-दिवा का नयन-मटक्का,
अंजोर-अन्हार की अठखेली।
ठिठुर-ठिठक कर ठहर गई है,
हर्ष-विषाद की अबूझ पहेली।
चाहे सम्मुख दुख हो, सुख हो
समय थाल भला थमता है?
तप्त तुषार तरल जल बहकर,
शीत समय संग फिर जमता है।
हिम तरल का, तरल हिम् का,
जग परिवर्तन का अंकुर है।
मोह-जाल में जकड़े जीव को,
स्वयं काल भी क्षण-भंगुर है।
भ्रूण-भोर से यम-यामिनी,
यातना योनि-दर-योनि।
विषय-वासना, कनक-कामना,
केंचुल में कोमल मृगछौनि।
है संघर्ष पाश से मुक्ति का,
जीव ब्रह्म-योग की युक्ति का।
सतचित-आनंद के आंगन में,
चिर योग जगा अंतर्मन में।
काल बंध के भंजन में
स्थितप्रज्ञ से मंथन में
माया मत्सर मोह महल
सुभीत दरकता जाता है
कल बीता काल, कल नया साल!
Saturday 9 December 2017
तुम्हारे हहराते प्यार की हलकार में
मेरे अहंकार की हूंकार हार जाती है
यूँ जैसे असीम आसमान में अपनी अस्मिता
आहिस्ते आहिस्ते हाशिये पर पसार कर
धीरे धीरे धूमिल हो जाती है
श्वेत वर्णी चांदी सी चमकती
चटकीली सरल रेखीयधूम्ररेखा
गरजते रॉकेट की लमरती पूंछ माफिक
आसमान को पोंछती हुई!
सोचता हूँ
तुम्हारे प्यार का गरजता उपग्रह
स्थिर हो जाएगा किसी की
अनुराग-कक्षा में
प्रशांत, स्थिर!
सदा के लिए छोड़कर पीछे
मुझे अनंत में विलीन होते!
गुम होता !
मेरा क्या?
बिंदु था,
न लंबाई
न चौड़ाई
न मोटाई
न गहराई
भौतिकीय शून्य!
पर नापने से थोड़ा 'कुछ'!
बस उसी थोड़े 'कुछ'
गणितीय अहंकार के
सुरसा से फैलते
एंट्रॉपी में कुलबुला
मैं बनता बुलबुला
और फैलने की जिद
और न रुकने की जद में
फट गया।
देख रहा हूँ
अब तेरे ब्रह्मांड के
विस्फार और विस्तार को।
प्रणव के टंकार से
बिष्फोटित बिंदु के
अनवरत प्रसार को।
असंख्य आकाशगंगाओं
के केन्द्रापसार को!
डरता हूँ
फट न जाये
यह महा विस्तार!
पर सकून है
यह सोचकर
मिलेंगे हम दुबारा
नव सृष्टि के नए विहान में
नव इंद्रियोत्थान में