Sunday, 27 January 2019

अवसाद

छा जाता अंधेरा,
चाँद पर।
रुक जाती किरणें,
सूरज की।
पीठ पर थामे भारी,
बोझिल रश्मिपुंज।
पसर जाता अवसाद,
धरती का।
बन कर चन्द्र ग्रहण,
अंतरिक्ष में।
कराहती कातर राका,
कारावास में।
छा जाती झाँई आँखों में ,
याद की।
चाँद, धरा और रवि,
सीध में।
रोती लहरें सागर की,
उछल उछल।
ग़म के गहरे तम में ऊँघता,
अमावसी अवसाद।
डाले डेरा यह खगोलीय बिम्ब जब ,
मन में।
गूंजता मन की मौन मांद में मंद मंद,
मायूस महानाद।
चेतन-अवचेतन-अचेतन  की ची-ची-पो-पो में,
उगता अवसाद।
हार में हर्ष व विजय में विषाद का छोड़ जाता है,
अहसास अवसाद।
किन्तु घूमते सौरमंडल में क्षणिक है,
ग्रहण काल।
रुकता नहीं राहु ग्रसने को, खो देता,
वक्र चाल।
फट जाते भ्रम, मिट जाता मन का,
उन्मत्त उन्माद।
गूंजता चेतना का अनहद नाद, होता
नि: शेष अवसाद।



4 comments:

  1. Anita Saini's profile photo
    Anita Saini
    +1
    रोती लहरें सागर की,
    उछल उछल।
    ग़म के गहरे तम में ऊँघता,
    अमावसी अवसाद।.....बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय |
    सादर
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    Vishwa Mohan's profile photo
    Vishwa Mohan
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    +Anita Saini आभार!
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    Shashi Gupta's profile photo
    Shashi Gupta
    +1
    बहुत सुंदर, प्रकृति का अवसाद मानव मन को सदैव संदेश देता है कि सुबह कभी तो आएगी।
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    Vishwa Mohan's profile photo
    Vishwa Mohan
    +Shashi Gupta आभार!
    1w
    Sudha Devrani's profile photo
    Sudha Devrani
    +1
    रुकता नहीं राहु ग्रसने को, खो देता,
    वक्र चाल।
    फट जाते भ्रम, मिट जाता मन का,
    उन्मत्त उन्माद।
    गूंजता चेतना का अनहद नाद, होता
    नि: शेष अवसाद।
    अवसाद क्षणिक ही सही पर ग्रहणकाल सा है जीवन में....
    बहुत ही लाजवाब रचना...
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    Vishwa Mohan's profile photo
    Vishwa Mohan
    +1
    +Sudha Devrani
    अत्यंत आभार!
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  2. anuradha chauhan: बहुत ही बेहतरीन रचना
    Vishwa Mohan: अत्यंत आभार!

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  3. आपके एहसास मुजगे बहुत प्रभावित करते हैं

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    1. जी, बहुत आभार आपके आशीष का!

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