Tuesday 22 January 2019

दीदी के भाई जी


'बड़का मामा' चले गए। 'दीदी (हम माँ को ‘दीदी’ ही कहते थे) के भाई जी' चले गए । रात उतर चुकी थी । चतुर्दशी का चाँद पूरणमासी की चौखट पर पहुँच रहा था । तभी इस खबर ने मानों इस धवल धरती को टहकार कजरौटे से लीप दिया और हमारी आँखें अतीत के सुदूर अन्धकार में भटकने लगी । सोचने लगा कि यदि दीदी होती तो कैसे सहती यह वज्रपात! मैं अनायास अपने बचपन में उतर गया था जिसने मुझे दीदी का आँचल ओढ़ा दिया था और उसी आँचल से मुँह तोपे मैं कभी दीदी को निहारता तो कभी उसके भाई जी को ! ‘भाई जी’ और ‘काकाजी’ दो ऐसे किरदार दीदी के जीवन में थे जो उसके अहंकार को पोसने वाले मन और बुद्धि थे । उसके अस्तित्व के ये दो ऐसे अमरज्योति- पुंज थे जो उसकी चेतना के मूलभूत स्त्रोत-से प्रतीत होते थे। इन दोनों के मुख से निकली कोई वाणी उसके लिए कृष्ण के मुख से निकली गीता से ज्यादा प्रासंगिक और तात्विक थी । मुझे याद है कि कैंसर के इलाज़ के लिए उसे जब बम्बई ले जाया गया तो वह बार-बार मुझे बड़े संतृप्त भाव से कहती कि 'काकाजी बोललथिन ह इहाँ आवेला', मानो उसकी रूचि अपने इलाज में कम और काकाजी के इस कथन के गौरव को व्याखायित करने में ज्यादा हो !
मेरा बोझिल तन उस शोक संतप्त भीड़ का हिस्सा था जो ‘बड़का मामा’ की देह को अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर रहा था । लेकिन मेरा बाल मन दीदी  के आँचल में छिपकर 'अंतरिक्ष-समय-स्लाइस' से अतीत के छिलके उतार रहा था...........तब दालान में मकई के बालों का ढेर लगता था। ढेर सारे सहयोगियों के साथ ‘भाई जी’ मकई के बाल के दानों को निकालने में जुट जाते । ढेर सारी कहानियों का दौर चलता । मैं देर रात बैठ बड़ी तन्मयता से कहानियों को सुनता और अपने भविष्य के लिए रचनात्मकता के तिनके-तिनके बटोरता.......... 'एक चिड़ी आयी, दाना ली और... फुर्र',...... जैसी कभी ख़तम न होने वाली कहानी भी पहले इसी बैठक में सुनी थी जो बाद में अंग्रेजी कहानी बनकर मेरे ऊपर की कक्षा में जब आयी तो उसके मूल रचनाकार मुझे दीदी के भाई जी ही लगे और जब पहली बार 'पायरेसी' शब्द से परिचय हुआ तब भी मुझे अंगरेजी की वह 'द एवर लास्टिंग स्टोरी' भाई जी की मूल कहानी का 'पायरेटेड वर्शन' ही लगी.....
.... इसी बीच रुदन का एक तीव्र स्वर उभरता है और मेरी तंद्रा भंग होती है । लोगों के आने का क्रम जारी है। बाँस  की खपाची से बनी शायिका पर उन्हें लिटा दिया गया है । ऊपर से एकरंगा का ओहार भी तान दिया गया है । उनके निष्प्राण किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल पर फूलों के पराग भी निश्चेत लुढ़के हुए हैं और मेरी निश्चेष्ट आँखें एक बार फिर बड़का मामा की धराशायी देह में डूबती अतीत की गहराई में उतर जाती हैं.....
कल दीदी की विदाई है । ससुराल जायेगी । मायके में उसके भाई जी बड़ी बारीकी से उसकी विदाई के इंतज़ाम में एक-एक चीज की निगरानी कर रहे हैं । मेहमान के लिए खैनी की पैकिंग पर उनकी विशेष नज़र है । हवा लगने से खैनी के मेहराने का डर है । रामाशीष साव के साथ मिलकर बड़ी करीने से पुआल में खैनी को लपेटा जा रहा है । फिर उसे सुतरी से बांधकर सरिआया जा रहा है । मुझे देखते ही बताते हैं कि इसको जाते ही पापा को दिखा देना है । चुटकी भी लेते हैं चेताते हुए, 'अपने पापा जी को बता देना कि घीव सत्ताईस रुपये सेर है और खैनी बत्तीस रुपये ।' और विशेष हिदायत कि ' हे, देखिह. कहीं पापा के बदले बाबा ना देख लेस!' आँखों मे लोर और मुख पर मुस्कराहट ढ़ोती दीदी अपने भाई जी के इस तत्व-ज्ञान से हर्षित और गर्वित है । मैं भी उनकी इस सहृदयता पर मन ही मन उनके भगीना होने का गर्व लूट रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि मेरे खपरैल घर के लिए अपने छत-पीट्टा घर की छत भी भेजने की कूबत है तो मेरे इस बड़े दिल वाले बड़का मामा में ही । लेकिन याचना करने में इस बालमन के स्वाभिमान को सहज संकोच होता है और बस मन मसोसकर संतोष कर लेता है……..
 अचानक शोर उठता है, 'राम नाम सत है, माटी में गत है।' ट्रेक्टर बैक हो रहा है । अर्थी सज गयी है । उसे ट्रेक्टर पर लादा जाएगा । बचपन में मुझे कंधे पर लादकर बथान ले जाने वाले शरीर को मात्र ट्रेक्टर पर चढ़ाने  हेतु कंधा देने की कल्पना से मन सिहुर जाता है । नम आँखों में फिर से अतीत के छिलके छलक उठते हैं.....
........ उबहन में लोटा बाँधकर चुपके से मेरे नन्हे पाँव इनार पर पानी भरने चल गये हैं । नन्ही हथेली ने रस्से को कसकर पकड़ कर लोटा डुबा दिया है और उबहन को  गोलाई में नचा-नचा कर लोटा में पानी भरने का उपक्रम कर रहा है । अचानक उबहन में हल्कापन महसूस होता है । तब तक आर्कीमिडीज से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । अगर रहता तब भी कोई फ़ायदा नहीं था । उबहन खींचने पर हाथ में केवल रस्सा था । लोटे ने जल-समाधि ले ली थी । मेरा तो साथ में मानों दिल ही डूब गया । घोर संकट सामने था..... उसी लोटे से प्लेट में चाय ढारकर नानाजी चाय पीते थे......
... अचानक बड़का मामा का वह लोहई लंगर याद आया जो  वह दालान के कोने में रखते थे । जब भी किसी की बाल्टी कुँए में डूबती तो वह मामाजी से माँगने आता और उसे कुँए में डुबाकर उस सामान को फँसाकर  निकाल लिया जाता । मैंने भी धीरे से उसे खोज निकाला और अबकी बार लोटे की बांध से भी मजबूत और कठोर बांध अपने थरथराते कोमल हाथों से उसमें बाँधा और लोटे की दिशा में उबहन को लटका दिया । सूरज देवता भी तेजी से अपनी सहानुभूति की  किरणें समेट रहे थे...... मैं बड़ी तेजी से उबहन से कुँए की छाती को हलकोर रहा हूँ कि वह लोटा उगल दे । किन्तु, इनार ने तो मानों मेरी तकदीर को ही ताकीद कर उसकी भी लुटिया डुबो दी हो! हाथ से उबहन छूट जाता है और पश्चिम का सूरज भी उसी कुँए में डूब जाता है । मेरी आँखों में अन्धेरा छा जाता है । दूर से दीदी मेरी शरारत पर खिसियाती हुई मेरी ओर बढ़ती है । मैं प्रत्याशित पिटाई की आशंका को  अपने रोदन रव से उच्चरित करने का श्री गणेश ही करता हूँ कि बड़का मामा आकर मुझे बचा लेते हैं........
.............. ट्रेक्टर स्टार्ट होने की ध्वनि में मैं वापस लौटता हूँ । 'उबहन' और 'लंगर' दोनों अब मेरे हाथ से   छूट गए हैं और मैं अभी भी अन्दर-अन्दर सिसक रहा हूँ । शवयात्रा प्रारम्भ होकर गाँव के दक्खीन करीब दो कोस पर गंडक के किनारे रुकती है । उत्तरे-दक्खिन शव को लिटा दिया गया है । ज़मीन पर शव के समानांतर ही एक क्यारीनुमा गड्ढा और उसके लम्बवत दो क्यारियाँ ऊपर और नीचे खोदी जाती हैं । करीने से लकड़ी के खम्भे डालकर उस पर लकड़ी की सेज सजा दी गयी है । सेज पर शव को लिटाकर अग्निदाह की क्रिया संपन्न हो रही है.....
...... माटी काटती गंडक की धार में तेज़ी है । तट के पार खर के जंगल में आग लगी हैं । पट-पट की तेज आवाज़ से जीभ लपलपाती उस पार की लपटें मानों इस पार जलते शव से उठती लपटों से लिपट जाना चाह रही हों । क्षितिज पर टँगे सूरज का मुँह  भी रूँआसा-सा  लाल भुभुक्का हो गया है। हवा सनसना रही है और आकाश धुँए  से भर गया है । हम सभी हाथ में चावल-तिल लिए तिलांजलि दे रहे हैं ।
"क्षिति जल पावक गगन समीरा 
पञ्च तत्व रचित अधम शरीरा।"
उधर सूरज गंडक की रेत में समा रहा है, इधर दीदी के भाई जी अपने पञ्च तत्वों को त्याजे पवन की तरंगों पर सवार हो दीदी की दिशा में महाप्रयाण कर रहे हैं....... अचानक झटके से हवा मे आँचल उड़ता है और हमारे दृष्टिपथ पर स्मृतियों की सतरंगी रेखा खींचते अंतरिक्ष में वह आँचल तिरोहित हो जाता है । आज ही के ही दिन तो मेरे सर से वह आँचल भी उड़ गया था । दीदी को भी गए आज सताईस साल हो गए...........!!!!!      

4 comments:

  1. Sudha Devrani: बहुत ही मार्मिक संस्मरणात्मक कथानक....।दीदी (माँ)और और उनके भाई (मामा) दोनो का प्रेम वात्सल्य और अबोध बालपन में बच्चे के सर से उठा दोनों का साया.......बहुत ही भावपूर्ण....।
    Vishwa Mohan: आभार।

    ReplyDelete
  2. Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete
  3. भीगी भावनाओं से सराबोर अत्यंत ह्रदयस्पर्शी संस्मरणात्मक रचना आदरणीय  विश्वमोहन जी   | मृत्यु  जीवन का शाश्वत सत्य है  और हमें अपनों का सदा के लिए विछोह बहुत पीड़ा देता है | किसी के जाने के साथ ही उनसे जुडी  अनगिन स्मृतियाँ भी जीवंत हो,  भीतर असीम वेदना जगाती हैं | भाई -बहनका प्रेम भारतीय संस्कृति का एक शाश्वत संस्कार है जिसमें  बहन का भाई  पर गौरवान्वित होना उसके जीवन की  सबसे बड़ी शक्ति और अभिमान   माना  जाता है |आपने बहुत ही  सुदक्षता से इस स्मृतिचित्र को शब्दांकित किया है |दोनों  के  स्नेहिल सानिध्य में संतुष्ट बचपन  जीने का  बहुत बड़ा सौभाग्य   लिए, एक जिज्ञासु बालक की झांकती छवि  रचना को सार्थकता प्रदान करती है| लोकजीवन की छटा समेटे  कथा में  लोक हास-परिहास के प्रसंग   बहुत  मनभावन हैं , जबकि  संसार से  प्रयाण के समय,  दिवंगत  का   निष्प्राण किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल  , उनके  संतोष से जीवन जीकर जाने  का परिचायक है |सादर -- 

    ReplyDelete