Thursday, 10 January 2019

जल समाधि

सागर के बीच
उसकी छाती पर,
आसमान में चमकते
सूरज के ठीक नीचे,
खो जाती हैं दिशाएं,
अपनी सार्थकता खोकर।
आखिर शून्य के प्रसार की इस
अनंत निस्सीमता
जिसका न ओर
न छोर।
 नीचे जल
अतल।
ऊपर अंतरिक्ष
परिणति से निरपेक्ष।
दोनों हाथों फैलाए नाच जाता हूं
पूरी परिक्रमा
हवा, भर बांह।
चतुर्दिक, अनंत।

बस चमकते थाल की तरह
माथे का सूरज
अहसास कराता है
अस्तित्व का।
वो भी ढुलक रहा
तेजी से
समेटता अपनी किरणों को
लेने को जल समाधि
और छाने को, अन्धकार।
घटाटोप!
सब कुछ अदृश्य!
सिर्फ बचेगा 
अदिशअहसास ,
खुद के होने का।
जिसकी दिशा
उगेगी फिर,
क्षितिज पर सागर के
सूरज के ही साथ।

इस रोज
उगती
डूबती
दिशाओं के बंधन से मुक्त,
होने को बनना
होगा,
मुझे खुद
सूरज।
बस !
मेरा काम होगा
चलना,
अंत की ओर
अपने  अनंत के।
और सब देखेंगे
दिशाएं
मेरी
करवटों में
अनंतता की!

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