Thursday, 31 January 2019

द्वीप

बीच बीच में
उग आते हैं ,
द्वीप।
जड़वत।
हमारे
चिंतन प्रवाह की तरलता
में विचारो के
जड़ तत्व की तरह,
जिन पर छा जाता है
अरण्य  अहंकार का।

चतुर्दिक फैली जलधि
प्रशांत मन की
करती प्रक्षालित
विचार द्वीपों को
चंचल बौद्धिक लहरियों से।
 करती अठखेली
अहंकार की अमर वेलि।
लहरियों के लौटते ही
अपनी शुष्कता में सूख
ठूंठ सा होने लगता अहंकार।

किन्तु चंचल चाल है
मन से लहकी इन लहरों की
ढालती है
 बुद्धि का हलाहल
अहंकार में
मनोरम मायावी ममत्व से!
मन, बुद्धि और अहंकार
यह स्पर्श छल जाल।
सागर, लहर और अरण्य
जीवन देते हैं टापू को,

एक पेड़ की जड़ में
पनपते हैं कई पौधे
छोटे छोटे अहंकार के।
गिरते ही,बड़े के, ठूंठ होकर
फिर तन के खड़ा हो जाता दूसरा!
फिर सुनामी महाकाल का।
धो -पोंछ देता है
इस रक्तबीज वंश अरण्य को।
शेष रहता है प्रशांत सागर, लीलते
हिलती-डुलती लीलावती लहरों को!







12 comments:

  1. वाह्ह्ह.. बेहद सराहनीय... शानदार सृजन...विश्वमोहन जी..👍👌👌

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    1. जी अत्यंत आभार आपका!!!

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  2. वाह अद्भुत रचना आदरणीय सर बेहद उम्दा 👌
    सादर नमन सुप्रभात

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    1. जी अत्यंत आभार आपका!!!

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  3. अहंकार कब शाश्वत होता है। सार्थक अहसासों की खूबसूरत अभिव्यक्ति।

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    1. जी अत्यंत आभार आपका!!!

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  4. Replies
    1. जी अत्यंत आभार आपका!!!

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  5. द्वीप के बहाने समग्र मानव व्यवहार की विसंगतियों का विहंगावलोकन करती सार्थक चिंतन करती रचना। एक बौद्धिक सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏💐💐🙏🙏

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    1. जी, अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का।

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  6. प्रेक्षणीय व्यवहार का अध्ययन...मन, बुद्धि और अहंकार
    यह स्पर्श छल जाल।
    सागर, लहर और अरण्य
    जीवन देते हैं टापू को,....खूबसूरत अभिव्यक्ति।

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    1. अत्यंत आभार, आपकी इतनी सुंदर प्रतिक्रिया का।

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