पुस्तक का नाम - चल उड़ जा रे पंछी (दो खंडों में)
(दूसरे खंड 'चित्रगुप्त कोश' में चित्रगुप्त के सारे गाने और चंद भोजपुरी फ़िल्मों के सारे गानों का संकलन)
दोनों खंडों का सम्मिलित मूल्य - १५०० रुपए
लेखक - डॉ० नरेन्द्र नाथ पाण्डेय
प्रकाशक – कौटिल्य बुक्स, ३०९, हरि सदन, २०, अंसारी रोड , दरियागंज, नयी दिल्ली – ११०००२
अमेजन लिंक https://www.amazon.in/dp/939088568X?ref=myi_title_dp
यह भी अजब इत्तफाक ही है कि आज़ादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष में हम जहाँ अपने गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों की अस्मिता तलाश रहे हैं, आदरणीय नरेंद्र नाथ पांडेय ने अपनी पुस्तक ‘चल उड़ जा रे पंछी’ में हमारे संगीत जगत के एक ‘अनसंग हीरो’ पर पड़ी समय की धूल को झाड़कर उसके दीप्त व्यक्तित्व के अन्वेषण का महती यज्ञ संपन्न किया है। लेखक की यह कृति बहुत मायनों में विलक्षण है। एक तो यह पुस्तक अपने लक्ष्य के केंद्रबिंदु में महान संगीतकार चित्रगुप्त के कृतित्व पर शोधात्मक प्रकाश डालती है; दूसरी ओर, यह समकालीन भारतीय सिनेमा के चाल और चरित्र को भी बख़ूबी पाठकों के समक्ष परोसती है। प्रोफेसर पांडेय का अपना व्यक्तित्व भी इस लेखन में पाठकों के समक्ष सशक्त रूप से उभरकर आता है। लेखक मस्तिष्क से प्रखर वैज्ञानिक प्रतिभा के धनी हैं, लेकिन उनका दिल अद्भुत साहित्यिक संस्कारों से पोषित-पल्लवित है। नाटक, संगीत और कला की दुनिया के अद्भुत अध्येता के साथ-साथ वह स्वयं मँजे हुए रंगकर्मी और रेडियो कलाकार हैं। कला और विज्ञान के मणि-काँचन सुयोग से सुशोभित इस लेखक की कृति में स्वाभाविक है कि जहाँ एक ओर अपने शोध में उन्होंने पूरी वैज्ञानिकता का निर्वाह किया है; वहीं चित्रगुप्त के संगीत-कौशल के मर्म को बड़ी कोमलता और सूक्ष्मता से स्पर्श करने में उनकी बाज़ीगरी अपने पूरे परवान पर चढ़ती नज़र आती है। संगीत के एक निष्णात साधक के जीवन-वृत को जिस कथा-शैली में उन्होंने बाँधा है, उससे पाठक भी उसी तन्मयता से अद्योपांत बँधा रहता है।
इतिवृतात्मक कथा-शिल्प में बहती चित्रगुप्त की जीवन-गाथा भी लेखक की उसी सरल, सुबोध और मीठी शैली में स्वच्छंद सलिला की भाँति बहती है, जिस मिठास के चित्रगुप्त प्रतिनिधि संगीतकार थे। पुस्तक के कहन का ढंग अपने आप में अनोखा है। भारतीय संगीत-कानन की कोयल लता मंगेशकर के आशीष की छाया से पुस्तक की कथा-यात्रा का सगुन होता है। स्वर-साम्राज्ञी के सुर में संगीत के फ़नकार का साक्षात्कार - अद्भुत श्री गणेश है! आनंद-मिलिंद और उदित नारायण की लय को समेटे विशाल भारद्वाज की भूमिका शुरू में ही पाठक के मन की उत्सुकता की साँकल को खोल देती है। फिर तो, उदय भागवत को श्रद्धा-अर्घ्य-समर्पण के पश्चात पांडेयजी अपने पाठकों को इतनी तन्मयता से चित्रगुप्त के जीवन-चरित की गंगा में उतारते हैं कि वह इस कथा सरित्सागर की अतल गहराई की सुधि लेकर ही दम लेता है। पुस्तक के कथ्य का चुंबकीय आकर्षण पाठक को अंतिम छोर पर भी छोड़ने को तैयार नहीं होता और ‘कुछ और’ की लालसा में वह चित्रगुप्त की मीठी धुन में तैरता रह जाता है।
अंत-अंत तक तो यह विश्वास ही नहीं होता कि जीवन की नियति भी ‘नेति-नेति’ के दर्शन से इस क़दर आलोकित है। गोपालगंज के सवरेजी गाँव में कुलीन कायस्थ परिवार में जन्मे एक लड़के को सात वर्ष की आयु में उसके संगीतज्ञ शिक्षक चाचा उसे अपने साथ ले जाते हैं। मैट्रिक तक वह बालक उनकी संगीतमय छाया में अपने जीवन के प्रारंभिक संस्कार बटोरता है। मैट्रिक पास करने के बाद उसके पिता-तुल्य भाई उसे पटना अपने साथ ले जाते हैं। दिनभर कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद अपने भाई के तबले की ताल में उसकी अपनी भावनाओं का भविष्य थिरकता है। पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का व्याख्याता बन जाता है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के व्याख्याता के पद की पेशकश मिलती है। किंतु, मन में रुनझुनाती माँ भारती की वीणा की झंकार उसे शास्त्रीय संगीत की विधा के अध्ययन के लिए भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय लखनऊ ले आती है। संगीत की शास्त्रीय विधा में दीक्षित मन अब गायन के गगन में उड़ान भरने को मचल उठता है। सुमधुर कंठ-स्वर और कवित्व की प्रतिभा से अलंकृत चित्रगुप्त अपनी कल्पनाओं के चित्र के वृहत फलक की तलाश में बंबई पहुँच जाते हैं – अपनी शैक्षणिक पीठिका को पीछे छोड़कर। एक व्यवस्थित थिर जीवन के केंचुल से निकलकर संघर्ष की पथरीली राहों पर रेंगने! कोरस गाने में पहली भूमिका मिलती है, जो उनके आत्मसम्मान को बिलकुल रास नहीं आती। किंतु मन मानकर उसी से शुरुआत करते हैं। विधि का विधान देखिए, उस पहले कोरस में ही उनकी भेंट एक ऐसे नगीने से हो जाती है जो उनके भविष्य के राग का अमर स्वर बन जाता है। अब यह वाक़या लेखक की बोली में ही सुनिए –
“एक दिन की बात है। एक गाने की रिकॉर्डिंग के दरम्यान, चित्रगुप्त ‘कोरस’ की टीम के सदस्यों के साथ खड़े थे। बग़ल में एक लजीला-शर्मीला, सीधा-साधा नवयुवक भी खड़ा था। उन दोनों के बीच बातचीत और परिचय का सिलसिला शुरू हुआ।
‘आपका नाम क्या है?’ – नवयुवक ने पूछा।
‘मेरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव है, और मैं बिहार से आया हूँ। और, आपका परिचय?’ – चित्रगुप्त ने पूछा।
‘जी, मैं कोटला सुलतान सिंह, मजीठा, जिला अमृतसर, पंजाब से आया हूँ‘, नवयुवक ने जवाब दिया, ‘मेरा नाम मुहम्मद रफ़ी है।‘
यह बातचीत कोरस के दो गायकों के बीच हो रही थी, जिनमें एक बहुत बड़ा संगीतकार बना, और दूसरा बहुत बड़ा गायक! प्रकारांतर से चित्रगुप्त और मुहम्मद रफ़ी की मित्रता परवान चढ़ी, और रफ़ी साहब ने चित्रगुप्त के संगीत-निर्देशन में ढाई सौ से अधिक गाने गाए।“
ऐसे अनेक वृतांत लेखक की मोहक शैली में इस पुस्तक में आते हैं कि पाठक उन्हें पढ़कर लहालोट हो जाता है। कहानी सुनाते-सुनाते लेखक अनजाने में भारतीय चित्रपट के इस चित्रगुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व के विश्लेषण में अपने स्वयं के शोधधर्मी वैज्ञानिक संस्कार की छाप छोड़ने में तनिक भी नहीं चूकता। उनके समूचे कृतित्व-काल को लेखक ने छह काल खंडों में विभाजित किया है। यह काल- विभाजन पूरी तरह से लेखक का अपना वस्तुनिष्ठ अवलोकन है जो समकालीन सिनेमा के इतिहास की पड़ताल भी उसी वैज्ञानिक अन्वेषण पद्धति से कर लेता है। चित्रगुप्त के संगीत की धुनों के सफ़र के साथ-साथ समकालीन गायकों की यात्रा का भी बड़ा सरस वर्णन मिलता है। लेखक अपनी इस रोचक कथा-यात्रा में पाठकों को 'पूर्व-राग' से 'उपसंहार' तक अपनी सरस वाचन शैली के आकर्षण-पाश में बाँधे चलता है। वह चित्रगुप्त के साथ-साथ उस काल, फ़िल्म, गीत, गायक, राग, ताल और संगीत के स्केल तक की जानकारी दे देता है। बीच-बीच में उन गायकों के व्यक्तिगत जीवन और उनके आपसी संबंधों की झलकियों से भी पाठकों के मन को मंद-मंद महुआते रहता है।
और तो और, इन संगीतों में प्रयुक्त वाद्य-यंत्रो की ‘इंटरल्यूड’ सरीखी बारीकी को लेखक इतनी प्रवीणता से अपने विश्लेषण में गुथता है कि पाठक अनायास वाद्य-विद्या में स्वयं को दीक्षित होता महसूस करने लगता है। चित्रगुप्त एक प्रयोगवादी संगीतकार के रूप में उभरते नज़र आते हैं। स्वयं शास्त्रीय विद्या का प्रकांड अध्येता होने के कारण भारतीय संगीत की शास्त्रीयता के कुशल चितेरे तो वह हैं ही, साथ ही जिस चतुराई से उन्होंने पश्चिमी वाद्य-यंत्रों का मिश्रण किया, वह आगे के दिनों में भारतीय संगीत की विकास-यात्रा के मील का महत्वपूर्ण पत्थर साबित हुआ। तानपुरा, सितार, वीणा, सरोद, इसराज, सारंगी, बाँसुरी, शहनाई, संतूर, पखावज, झाल, तबला, डुग्गी, ढोलक, घुँघरू – इन सभी भारतीय शास्त्रीय वाद्य-यंत्रों के साथ पश्चिमी यंत्रों पियानो, क्लारीयोनोट, ट्रम्पेट, पिकोलो, चेलो, मैडोलिन , गिटार, अकोर्डियन, बौंगो, कौंगो, ज़ाइलोफ़ोन, सेक्सोफ़ोन के प्रयोग ने चित्रगुप्त की प्रतिभा के विशेष पक्ष को रेखांकित किया। मिठास, सरलता और नवीनता की त्रिवेणी से नि:सृत उनके गीतों में तीन तत्व बड़ी प्रमुखता से उभरते हैं – गीत के शब्द, धुन और सुस्पष्ट गाने की मोहक अदा! अपने पहले गुरु एस० एन० त्रिपाठी से स्वतंत्र होते ही चित्रगुप्त का यह प्रयोगवाद परवान चढ़ने लगा किंतु उन दोनों के बीच के संबंधों की ऊष्मा पर तनिक भी आँच नहीं आयी। बाद में भी उनके संगीत निर्देशन में चित्रगुप्त ने कई गाने गाए। यह इन दो महान कलाकारों के उदात्त व्यक्तित्व की ओर संकेत करता है।
लेखक ने अपनी अद्भुत विवेचना- बुद्धि का परिचय देते हुए चित्रगुप्त की संगीत यात्रा को जिन प्रमुख छह, काल खंडों में बाँटा है, वे १९४६- १९५२, १९५३- १९५७ और १९५८-१९६२, १९६३-१९६८, १९६९-१९७४ और १९७५-१९८९ की अवधि हैं। इन काल खंडों के प्रतिनिधि गीतों को लेखक ने उनके सर्वांगीण पक्षों के साथ सामने रखा है। उदाहरण के तौर पर १९४६-१९५२ के काल खंड के अध्ययन में लेखक की सूक्ष्म शोधधर्मी दृष्टि की बानगी इस तालिका में देखिए :
क्रमांक | गीत | फ़िल्म (वर्ष) | गायक | राग | ताल | स्केल |
१ | वो रुत बदल गयी वो तराना बदल गया | जादुई रतन(१९४७) | गीता रॉय ( दत्त) | भैरवी | दादरा | C |
२ | ए चाँद तारे हमें बेक़रार करते हैं, ए मौत आ, तेरा हम इन्तज़ार | टाइग्रेस (१९४८) | चित्रगुप्त | पहाड़ी और विलावल | दादरा | B |
३ | उजड़ गया संसार मेरा, उजड़ गया संसार | भक्त पुंडलिक (१९४९) | पारुल विश्वास (घोष) | भैरवी | कहरवा | C |
४ | आँखों ने कहा, दिल ने सुना, हो गया निसार | भक्त पुंडलिक (१९४९) | चित्रगुप्त, उमा देवी (टुनटुन) | काफ़ी | दादरा | D |
५ | छंदनी छिटकी हुई है, मुस्कुराती रात है | हमारा घर (१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय | काफ़ी | कहरवा | B |
६ | रंग भरी होली आयी, रंग भरी होली | हमारा घर (१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम | खमाज | दादरा | C + |
७ | चोरी चोरी मत देख बलम, भोली दुल्हन शरमाएगी | हमारा घर(१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम | काफ़ी | कहरवा | B |
८ | कहाँ चले जी सरकार, कहो जी तुम कहाँ चले | हमाराघर (१९५०) | किशोर कुमार, शमशाद बेगम | काफ़ी | कहरवा | D + |
९ | देखो तो दिल ही दिल में जलते हैं जलाने वाले | हमारा घर (१९५०) | गीतारॉय,शांति शर्मा,शमशादबेगम | काफ़ी | कहरवा | B |
१० | सब सपने पूरे आज हुए, चमके आशा के तारे | वीर बब्रुवाहन (१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय | काफ़ी | कहरवा | D + |
११ | आइ पिया मिलन की रात, चंदा से मिली चाँदनी | वीर बब्रुवाहन (१९५०) | अमृतबाइ कर्नाटकी | विहाग और खमाज | कहरवा | B |
१२ | ये तारों-भरी रात हमें याद रहेगी, दो दिन की मुलाक़ात हमें याद | हमारी शान (१९५१) | मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय | काफ़ी | दादरा | C |
१३ | कोई आ करे, कोई वाह करे, दुनिया का यही अफ़साना है | हमारी शान (१९५१) | तलत महमूद | काफ़ी | कहरवा | C + |
१४ | कभी ख़ुशियों के नग़मे हैं, कभी ग़म का तराना है | तरंग (१९५२) | राजकुमारी | काफ़ी | कहरवा | B |
१५ | अदा से झूमते हुए, दिलों को चूमते हुए, ये कौन मुस्कुरा | सिंदबाद द सेलर (१९५२) | मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम | यमनी, विलावल, माँझ खमाज | दादरा | C + |
लेखक ने अत्यंत रोचक ढंग से अपने विश्लेषण में ऐसी कई समानांतर कहानियों का चित्र भरा है जो पाठक-मन को बरबस गुदगुदाते हैं। अपने दूसरे कालखंड में प्रसिद्ध हिंदी कवि, गोपाल सिंह नेपाली, की लिखी कविताओं पर चित्रगुप्त के संगीत का जो जादू चला वह फ़िल्म संगीत की दुनिया में उनकी पैठ को और गहराता चला गया। 'नागपंचमी' के गाने लोगों की जुबान पर चढ़कर बजने लगे। संगीत यात्रा के क्रम में धीरे-धीरे आशा भोंसले, लता मंगेशकर जैसे नामचीन फ़नकारों के जुड़ते जाने के साथ-साथ चित्रगुप्त का संगीत भी अपनी विविधताओं की छटा बिखेरने लगा। फ़िल्मों का ग्रेड भले ही ‘बी’ या ‘सी’ रहा हो, गाने ‘ए’ ग्रेड के रूप में भारतीय मानस पर छाते चले गए। तीसरे और उसके बाद के काल-खंड में चित्रगुप्त की मिठास अपने शिखर का स्पर्श कर रही थी। संतूर, वायलिन और पियानो का संतुलित प्रयोग तबले की ताल पर किल्लोल करने लगा था। लेखक ने बड़ी तन्मयता से इन सभी काल-खंडों के प्रतिनिधि गीतों को उनसे जुड़े रोचक संस्मरणों की चाशनी में डुबोकर अपनी ललित लेखन शैली में इस पुस्तक में उद्धृत किया है।
१९७४ में यह महान संगीतकार पक्षाघात का शिकार हो जाता है। पुत्र आनंद- मिलिंद के अदम्य सहयोग से संगीत का यह पाखी अपनी रचनात्मकता के तिनके-तिनके को सहेजकर फिर से एक ऐसा घोंसला बना लेता है जिससे धुनों की माधुरी की मोहक बहार पुनः मुस्कुराती है और सारा संगीत जगत मस्ती में झूम उठता है। उसी घोंसले से आनंद और मिलिंद नाम के दो मकरंद संगीत के व्योम में अपनी विरासत की तान भी छेड़ देते हैं।
अब इसे लेखक का वैचारिक लालित्य ही कहेंगे कि हिंदी धुनों की इस चित्र-कला का चित्रण करते समय समानांतर लोक-भाषा की लोक-धुनों के उद्भव की कला से वह किंचित बेख़बर नहीं रहता। भोजपुरी फ़िल्म के इतिहास का रचना-काल होता है १९६२। और, इतिहास के इस आँगन को चित्रगुप्त अपने संगीत की रस-माधुरी से सराबोर कर देते हैं। ‘हे गंगा मैया तोहे पीयरी चढ़इबो’ में चित्रगुप्त ने गीत-गंगा को अपने मोहक संगीत की पीयरी ही तो चढ़ायी है। लेखक की ही कलम से,
‘भोजपुरी की इस पहली फ़िल्म के लिए संगीत देने का निमंत्रण चित्रगुप्त को दिया गया, चित्रगुप्त ने इस फ़िल्म के गीतों को लिखने के लिए गीतकार शैलेंद्र के नाम की सिफ़ारिश की। शैलेंद्र के गीतों को चित्रगुप्त ने जिन मीठे सुरों में बाँधा, और जितने मीठे गले से मुहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और सुमन कल्याणपुर ने उन गानों को गाया, उससे तत्कालीन बम्बई का सारा फ़िल्म उद्योग स्तंभित रह गया।‘
अपनी प्रखर वैज्ञानिक दृष्टि के आलोक में लेखक भोजपुरी फ़िल्म में चित्रगुप्त के रचना-काल को भी दो खंडों (१९६२-१९६५ और १९७९-१९९१) में विश्लेषित कर उसकी बड़ी रोचक विवेचना करता है। लेखक पाठकों को एक और दिलचस्प बात बताने से कदाचित नहीं चूकता कि १९६४ में फ़णी मजूमदार के निर्देशन में मगही भाषा की जो पहली फ़िल्म ‘भइया’ बनी उसके गीतों को भी अपने सुरीले संगीत से चित्रगुप्त ने ही सजाया। चित्रगुप्त ने अपने संगीत के सुरों का जो विस्तृत वितान ताना उसमें शास्त्रीय तान से लेकर लौकिक राग, ग़ज़ल, क़व्वाली, होली, ईद, युगल नृत्य-गीत, मुजरा-महफ़िल, भजन-प्रार्थना, लोरी, मार्चिंग सॉंग, पैरोडी और पाश्चात्य धुनों की विविधताओं की बहुरंगी छटा छा गयी।
'पथ के साथी' के रूप में लेखक ने चित्रगुप्त की संगीत-यात्रा के उन तमाम मुख्तलिफ़ साथी अदाकारों का बड़ा ही सरस वृत्तांत सुनाया है जिन्होनें अपने फन के भिन्न-भिन्न साजों में सजकर चित्रगुप्त-संगीत के चित्रपट को पूर्णता प्रदान की। चित्रगुप्त का जीना एक कलाकार मात्र का जीना न होकर कला का अपनी सम्पूर्णता में जीने के रूप में चित्रित हुआ है और इस चित्रांकन में लेखक की कूची भी खूब अव्वल चली है। इन साथी कलाकारों के हमजोलीपन और उनकी आपसी ठिठोली में भी मानों मानवीय संबंधों के राग की कोई बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती पसरी हुई हो! यह उन रागात्मक संबंधों का अद्भुत रसायन ही था कि चित्रगुप्त के संगीत ने मराठी भाषी लता जी और सुरेश वाडेकर, पंजाबी भाषी रफ़ी, पश्चिम बंगाल में पली-बढ़ी और गुजराती भाषी अलका याज्ञनिक तथा मैथिल उदित नारायण के सुरों के रस से भोजपुरी गीतों को सराबोर कर दिया ।
'मील के पत्थर' अध्याय में लेखक के शोधात्मक कौशल ने अपने अर्श का स्पर्श कर लिया है । 'तो चलिए, साल के बावन सप्ताह की तरह चित्रगुप्त के उन ५२ मील के पत्थरों को देखा जाय' की मीठी जुबान में पाठक को फुसलाते हुए लेखक चित्रगुप्त की कालजयी रचनाओं को उसके हाथ में थमा जाता है । सच कहें, तो पाठक लेखक की अनोखी अध्यापन-कला के पाश में बंध जाता है। उदय भागवत, किशोर देसाई, आनंद जी, प्यारेलाल, सुरेश वाडेकर, रोबिन भट्ट, हरि प्रसाद चौरसिया, अलका याग्निक, उदित नारायण और समीर अनजान के साक्षात्कार समकालीन फिल्म के अनेक अनछुए प्रसंगों की रोचकता और सरसता से लबरेज हैं। 'आत्मीयों के संस्मरण' और 'विविध प्रसंग' चित्रगुप्त की शख्सियत को मानवीय मूल्यों के आलोक में पहचानने और परखने के अलिंद हैं। पुस्तक का 'उपसंहार' पाठकों के दिल में यही बात रोप जाता है कि चित्रगुप्त जैसी कला-संस्थाओं, उनके मूल्यों और उनकी स्मृतियों का कभी उपसंहार नहीं होता! वह उस शाश्वत आत्मा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं, जो इस नश्वर देह को त्याजकर भी अपने सुकर्मों और अपनी कृतियों के रूप में शाश्वत बनी रहती हैं। 'अच्छा है कुछ ले जाने से, देकर ही कुछ जाना ...........चल उड़ जा रे पंछी!
और अब लेखक परिचय