वक्त के दर्दों को कबतक संयम से सहलाऊं,
मन के ज़ख्मों को, कौन सा मलहम लगाऊं.
दुख की दरिया में डूबती है जिंदगी,
बता तूँ ही, मुझे, किस साहिल के
सहारे लगाऊं.
अतीत को बिसराऊं, वर्तमान की
वर्त्तिका जलाऊं,
या भविष्य की भरमाती भूल-भुलैया
में, भुला जाऊं.
मुमकिन है, जीवन के बंजर से बियाबान रेगिस्तान में,
कामनाओं की मृग-मरीचिका में कहीं खो ना जाऊं.
डरकर ख्वाब ही न देखुं, कत्तई बुज़दिल नहीं मैं,
देह धंसा रेत के महल ही बनाने के काबिल सही मैं.
होती हर सजावट की शुरुआत, बिखराहट से ही,
और फिर अंत, उजड़ जाने की उदास आहट में ही.
बिखरना, सजना, उजड़ना और और फिर
सज जाना,
अंकुरना, बढ़ना, फुलाना, फिर फल बनकर लरज
जाना.
पुंकेसर प्रणीत पराग-कणों का बीज बन धरती पर झड़ना,
उत्थान-पत्तन, उठना-गिरना और फिर गिरकर बढ़ना-चढ़ना.
मिलना-बिछुड़ना, हंसना-रोना, राग-रंग में सटना-जूटना
पुरुष-प्रकृति की इस कुदरती परम्परा का कभी न टूटना.
प्रकृते, पल-पल तेरे कण-कण
में यहीं संजीवनी पाऊं,
फिर ठहर ज़िंदगी, दीवाली का पहला
दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.
दीवाली का पहला दीया मैं ही
क्यों न जलाऊं.