Sunday 26 July 2020

डिमेंशिया

याद करो !
वह रात बरसाती अंधेरी,
खाँसते-खाँसते और मुझे संभालते,
कितनी विचलित थी, तुम।
कुछ कहती तो लौट जाते शब्द,
अनसुने, अबूझ और खिसीयाए-से।

तैरती-सी शून्य में, जलती बुझती,
तुम्हारी आँखें, ढीबरी-सी ।
भकभकाती पपनियों के नीचे
बुदबुदा रहे थे सूखे होठ,
डिमेंशिया!!!

यही तो बताया था डॉक्टर ने तुझे,
मेरी बीमारी के बारे में।
तुम्हें निर्निमेष निहारती
मेरी पलकों की झील में डूब
कहीं  लुप्त हो गयी थी
मेरी स्मरण-शक्ति!

फिर!
तिनके-तिनके बटोरकर
मेरी भूली-बिसरी यादों को,
और बांधे अपने नयनों के कोर में,
निहारती रही थी तुम,
अग्नि-स्नान मेरा, अपलक।

साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

कितनी रातें, गुज़ारी तबसे, निहारता !
घूरती शून्य को, आँखें तुम्हारी, निस्तेज!
बैठा मुँडेर पर मैं, कौए बैठते थे जहाँ,
और उन्हें दौड़ा-दौड़ा  कर उड़ता मैं,
कहीं जूठे न कर दे, सूखते गेहूँ,
तुम्हारी छठी मैया के परसाद  के!


साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

पीट-पीट कर पानी पड़ा और
बैठा रहा मैं मुँडेर पर।
जानती हो!
अब तो मैं भीज भी नहीं सकता ।
बहने दो तेज़ हवाओं को भी,
हमारी यादों की,
अब जब भींग नहीं सकता
तो,  सूख भी नहीं सकता!

अबकी जाड़े तो निहारता रहा
नयन-भर तुम्हें
अलाव तापते।
बटोर रही थी
मेरी यादों की ऊष्मा तुम,
बाँध रही थी उन्हें
अपने आँचल के कोर।
पलकों में बांधे आँखों के लोर!

मैं भी समा गया
लपलपाती  लौ में,
लपटों की जिह्वा से
भरने जिजीविषा तुममें।
अंगरता  रहा आगी में,
तोपता तुम्हारा चेहरा
अपने एहसास के ताप से।
अब जल भी तो नहीं सकता मैं!

सोचा, बजाय देखने के
सैलाब आँसुओं का,
पीस जाऊँ उस जाँते में ख़ुद,
निकाल रही थी जब आटा तुम!
किंतु, अब काटा भी तो नहीं जा सकता मैं!
उफ़्फ़!

साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

फिर!
क्या करूँ?
अब तो  बंद हो गयी है,
तुम्हारी ज़बरदस्ती भी
घोंटाने की मुझे रोज़-रोज़
दवाइयाँ, डिमेंशिया की!!!


Friday 26 June 2020

वचनामृत

क्यों न उलझूँ
 बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
फटकारती पिताजी को।
और बुदबुदाने लगता है
मेरा बचपन,
धीरे से मेरे कानों में।
"ठीक ही तो कह रही है!
आखिर कितना कुछ
सह रही है।
पल पल ढह रही है
रह-रह, बह रही है।"
सुस्ताता बचपन
उसके आँचल में
सहसा सजीव हो उठता है।
और बुझाने को प्यास
उन यादों की।
मैं  चखने लगता हूँ
तुम्हारे  वचनामृत को !

Monday 15 June 2020

क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम!



नियति ने इतना लाड़ दिया प्यार अपार, परिवार दिया। विधुर पिता ने भी तुम पर अपना जीवन निसार किया। माँ भी रह रह कर हरदम किस्मत में तेरी मुस्काई। सफलता की राहों में सरपट तृण भी तनिक न आड़े आयी। फिर भी न जाने कायर-से किस आहट से सिहर गए। तिनके-तिनके-से अंदर से टूट-टूट कर बिखर गए। पता है क्यों ! जीर्ण-शीर्ण और जर्जर-से तेरे सपने थे। नहीं किसी के गलबहियां तुम नहीं किसी के अपने थे। बस खुद को ही खोद खोद कर खुद को यूँ गँवाते थे। मृग-मरीचिका की माया में कोई अपना नहीं बनाते थे। तुम भी सीख लो दुनियावालों नहीं केवल तुम अपने हो। रिश्ते-नाते, अपने-दूजे प्राण-प्राण के सपने हो। 'मेरा-मेरा' रट ये छोड़ो यह 'मेरा' वह 'मेरा' है। ये मत भूलो तन-मन-धन और प्राण नहीं कुछ 'तेरा' है। क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम लड़ो समर में जीवन के। करो आहुति जीवन अपना वीरगति आभूषण-से।

Thursday 4 June 2020

आर्त्तनाद (लघुकथा)

रात भर धरती गीली होती रही। आसमान बीच बीच में गरज उठता। वह पति की चिरौरी करती रही। बीमार माँ को देखने की हूक रह रह कर दामिनी बन काले आकाश को दमका देती। सूजी आँखों में सुबह का सूरज चमका। पति उसे भाई के घर के बाहर ही छोड़कर चला आया। घर में घुसते ही माँ के चरणों पर निढाल उसका पुक्का फट चुका था। वर्तमान की चौखट पर बैठा अतीत कब से भविष्य की बाट जोह रहा था। दो जोड़ी कातर निगाहें लाचारी के  धुँधलेपन में घुलती जा रही थी। सिसकियों का संवाद चलता रहा। दिन भर माँ को अगोरे रही।

पच्छिम लाल होकर अंधेरे में गुम हो गया था। अमावस का काजल धरती को लीपने लगा था। उपवास व्रत के अवसान का समय आ गया था।  बरगद के नीचे पतिव्रताओं का झुंड शिव-पार्वती को नहलाने लगा था। कोयल कौए के घोंसले से अपने बच्चे  को लेकर अपने घर के रास्ते निकल चुकी थी। कालिंदी अपने आर्त्तनाद का पीछा करती सरपट समुंदर में समाने भागी जा रही थी।

Sunday 24 May 2020

पद-तल, मरु थल के!

मनुष्य :

पिता, दान तेरे वचनो का, लेकर आया जीवन में,
संग चलोगे पग-पग मेरे , जीवन के मरु आँगन में।

तेरी अंगुली पकड़ मचला मैं, सुभग-सलोने जीवन में,
हरदम क़दम मिले दो जोड़ी, जैसे माणिक़ कंचन से।

किंतु, यह क्या? हे प्रभु! कैसी है तेरी माया !
घेरी विपदा की जब बदरी, चरण चिह्न न तेरी पाया!

भीषण ताप में दहक रहा था, पथ की मैं मरु-ज्वाला में,
रहा भटकता मैं अनाथ-सा, तप्त बालुकूट  माला में।

हे निर्मम ! निर्दयी-से निंद्य! क्यों वचन बता, तूने तोड़ा?
तपते-से सैकत  में तुमने, मुझे अकेला क्यों छोड़ा?

देख! देख! मरुस्थल में, तू मेरा जलता जीवन देख!
देख घिसटती  संकट में , पाँवों की  यह मेरी रेख!

देख, मैं कैसे जलूँ  अकेला! मरु के भीषण ज्वालों से,
सोंचू! कैसे ढोयी  देह यह, छलनी-से पग-छालों से।

अब न पुनर्जन्म, हे स्वामी,! नहीं धरा पर जाऊँगा,
परम पिता,  तेरी प्रवंचना! नहीं छला अब जाऊँगा।



ईश्वर:

छल की बात सुन,  भगवन के नयनों में करुणा छलक गई।
छौने की निश्छल पृच्छा पर,  पलकों से पीड़ा  ढलक गई।


छोड़ूँ साथ तुम्हारा मैं ! किंचित न सोचना सपने में!
हे वत्स! मरु में पद-चिह्न वे,  नहीं तुम्हारे अपने थे।

डसे   चले,  जब दुर्भाग्य के, कुटिल करील-से डंकों ने,
पुत्र !  सोए तुम रहे सुरक्षित,  मेरी भुजा के अंकों में।

चला जा रहा,  मैं ही  अकेला!  तुम्हें उठाए बाँहों में,
पद तल वे मेरे ही, बेटे!  मरु थल की धिपती राहों में!






Tuesday 19 May 2020

'प्रवासी' मज़दूर

बचपन से ही माँ को देखता रहा,
 गूंधती आटा, आँखों से लोर बहा,
अपनी मायके की यादों के।
फिर रोटियाँ सेकती आगी पर
विरह की, नानी से अपने।
'जननी, जन्मभूमि:च
स्वर्गात अपि गरियसी ।'
प्रथम प्रतिश्रुति थी मेरी,
'प्रवास की परिकल्पना' की!
क्योंकि पहली प्रवासी थी
मेरी माँ ! मेरे जीवन की!
आयी थी अपना मूल स्थान त्याज्य
वीरान, अनजान और बंजर भूमि पर
जीवन का नवांकुर बोने।
फिर  बहकर आयी पुरवैया हवाएँ ,
ऊपर से झरकर गिरी बरखा रानी।
पहाड़ों से चलकर नदी का पानी।
पछ्छिम से छुपाछिपी खेलता
पंछियों का कारवाँ।
सब प्रवासी ही तो थे!

आज राजधानी के राजपथ पर पत्थर उठाते
नज़रें टिकी पार्लियामेंट पर।
सारे के सारे 'माननीय' प्रवासी निकले।
बमुश्किल एक दो खाँटी होंगे दिल्ली के।
उनके भी परदादे फेंक दिए गए थे किसी 'पाक' भूमि से !
मंत्रालय, सचिवालाय, बाबुओं का विश्रामालय
छोटे बाबू से बड़े बाबू तक! सब प्रवासी निकले।
और तो और,  वह भी! गौहाटी का मारवाड़ी!
और दक्षिण अफ़्रीका गया वह कठियाबाड़ी !
मनाता है 'भारतीय प्रवासी दिवस'
जिसके देस  लौटने को सारा भारतवासी ।
लेकिन मेरी ही यादों में बसी रही
अहर्निश मेरी रोटी पकाती और घर लीपती
पियरी माटी में लिपटी मेरी माँ।
जिसने ले वामन अवतार आज माप ली है
लम्बाई अहंकार की, 'राष्ट्रीय उच्च पथ' के।
हे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
बेशर्म, निर्लज्ज, दंभ  के दर्प में चूर!
हौसलों को पंख लग जाते हैं मेरे
जब कहते हो मुझे 'प्रवासी' मज़दूर'!!!












Sunday 17 May 2020

सर, प्रणाम!!!

१५ मई २०२० को हमारे प्रिय शिक्षक प्रोफेसर एस के जोशी नहीं रहे। उनका जाना हमारे मन में अनुभूतियों के स्तर पर एक विराट शून्य गहरा गया। अतीत का एक खंड चलचित्र की भाँति मानस पटल पर कौंध गया। कुछ बातें मन के गह्वर  में इतनी गहरायी से पैठ जाती हैं कि न केवल गाहे-बेगाहे यादों के गलियारों में अपनी चिरंजीवी उपस्थिति का अहसास दिलाती रहती हैं, बल्कि अचेतन में बैठकर हमारे चैतन्य व्यवहार को संचालित भी करती हैं। डॉक्टर जोशी से हमारा सान्निध्य भी कुछ ऐसा ही रहा। १९८३ में अपने घर (उस समय डाल्टनगंज, आज का मेदिनीनगर, झारखंड, तब मेरे पिताजी वहीं पदस्थापित थे) से रुड़की के लिए निकला था ‘पल्प ऐंड पेपर इंजीनियरिंग’ में अपना  नामांकन रद्द कराने। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि मुझे ‘मकैनिकल’  इंजीनियरिंग मिल गया है और मेरे इंटर के मित्र शांतमनु भी मिल गए जिन्हें ‘सिविल’ मिल गया था। अब हमने तय कर लिया कि  रजिस्ट्रेशन करा लेना है। रजिस्ट्रेशन के वक़्त मेरा विभाग ‘सिविल’ हो गया और शांतमनु का ‘मकैनिकल’! हमें छात्रावास भी आवंटित हो  गया – गंगा भवन, कमरा संख्या बी जी ८। मेरे पास कोई सामान तो था नहीं क्योंकि हम तो एड्मिशन रद्द कराने पहुँचे थे। ठीक अगले दिन से सेमेस्टर की नियमित कक्षाएँ प्रारम्भ हो जानी थी। रैगिंग का कार्यक्रम भी बदस्तूर जारी था। मैं अपने कमरे में प्रवेश कर अभी खिड़की-कुर्सी-मेज़  देख ही रहा था कि एक सौम्य आकृति ने कमरे में हल्के से प्रवेश किया और मुझसे औपचारिक परिचय से बात-चीत शुरू की। उस कम उम्र में अपने घर से इतनी दूर बाहर निकलने पर विरह विगलित चित्त की वेदना को उनकी मधुर वाणी ने बड़े प्यार से सहलाया। मुझे वापस घर लौटना था अपने आवश्यक सामान लेकर लौटने के लिए। वे मुझे वार्डन के पास लेकर गए और मुझे घर जाने की तत्काल अनुमति उन्होंने दिलायी। मुझे यथाशीघ्र लौटने की सलाह दी और  विलम्ब होने पर मेरी पढ़ाई में होने वाली मेरी क्षति का पूर्वानुमान कराया। मेरा कोमल मन उनके इस अपनेपन से आर्द्र हो गया। यह थे भारत के प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी ‘डॉक्टर श्री कृष्ण जोशी’ जो उस समय प्रथम वर्ष  के नव नामांकित छात्रों के समन्वयक हुआ करते थे।

फिर मेरे घर से लौटने के बाद भी कई दिनों तक नियमित रूप से मेरे कमरे में वह आते रहे और अपने पिता-सुलभ वात्सल्य की वाटिका में हमें घुमाते रहे। कभी कभार फ़िज़िक्स प्रैक्टिकल के दौरान लेबोरेटरी में उनकी मधुर और सौम्य मुस्कान का सामना हो जाता और वे बड़ी आत्मीयता से हमारा कुशल-क्षेम पूछ लेते। १९८५-८६  में मैं छात्र संघ का सिनेटर और कोषाध्यक्ष चुना गया। सीनेट की हर मीटिंग में वह संस्थान के डीन की हैसियत से सिरकत करते और हमारा रचनात्मक मार्गदर्शन करते। फिर अचानक वह दौर भी आया जब हमारी  उनसे एक छात्र नेता के तौर पर भिड़ंत हो गयी। ‘इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग' में एक छात्रा के परीक्षा फल में अप्रत्याशित और अनियमित उछाल पर गहराते रोष ने आंदोलन का रूप ले लिया और उस आंदोलन के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में मैं  खड़ा था। कई छात्र भूख हड़ताल पर चले गए। सिंचाई अभियांत्रिकी  की जानी-मानी अन्तर्राष्ट्रीय हस्ती डॉक्टर भरत सिंह वाइस-चांसलर थे। उनकी ओर से मुख्य निगोशिएटर की भूमिका में  डॉक्टर जोशी थे। औपचारिक मीटिंग के बाद कई बार हम दोनों ने अकेले में उस मसले पर लम्बी और गम्भीर मंत्रणायें की और उस घटना क्रम को अंततः एक तार्किक परिणती के मुक़ाम पर पहुँचाया। सही कहें, तो उन दिनों के हमारे गहराए रिश्तों ने मेरे  ऊपर न केवल जोशी सर के मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत एक निष्पक्ष और पवित्र  व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी, प्रत्युत हमारे अचेतन  मन में चारित्रिक  आदर्शों के कई प्रतिमानों का बीजारोपण भी चुपके-से वह कर गए। सम्भवतः उसी के बाद वह नैशनल फ़िज़िकल लेबोरेटरी के निदेशक बनकर दिल्ली चले गए थे और फिर हमारा सम्पर्क-विच्छेद हो गया।

कुमायूँ के एक सुदूर गाँव में जन्मे जोशी सर ने बचपन में न जाने कठिनाइयों की कितनी पहाड़ियाँ लाँघकर  अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की।अपने गाँव से प्रतिदिन तीन घंटे की पहाड़ी रास्ते की दूरी तय कर वह पैदल स्कूल आते थे। उनका स्कूली जीवन अत्यंत विपन्नता में कटा। ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही उनके माथे से पिता का साया उठ गया। अपने हाथों से अपने फटे कपड़ों  को वह  सिलकर  और टाँके लगाकर पहनते थे। अपने हाथों से ही खाना बनाते थे। ट्यूशन पढ़ाकर अपने तथा अपने छोटे भाई की पढ़ाई और जीविकोपार्जन का ख़र्चा बड़ी मुश्किल से वह जुटा पाते थे। रात में मिट्टी के तेल के दीये से फैलते प्रकाश और उनके अद्भुत जीवट ने धीरे-धीरे  उनके जीवन में ज्ञान का आलोक भरना शुरू किया। उन्हें प्रतिभा छात्रवृत्ति मिलने लगी। मितव्ययी जोशी सर ने उसमें से पाई-पाई बचाकर जी आई सी अल्मोड़ा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक में अपने नामांकन का जुगाड़ किया।  

बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से फ़िज़िक्स में स्नातकोत्तर में स्वर्ण-पदक प्राप्त किया। मात्र ३२ वर्ष की आयु में रुड़की विश्वविद्यालय (आज का आइआइटी रुड़की) में फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर बने। उससे पहले दो वर्षों तक वह कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में विज़िटिंग लेक्चरर रहे। ‘इलेक्ट्रॉनिक बैंड स्ट्रक्चर’ और ‘डी-इलेक्ट्रॉन वाले धातुओं’ के ‘लैटिस-डायनामिक्स’ पर उनके द्वारा किए गए शोध अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं। उन्हें  शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, मेघनाथ साहा पुरस्कार और न जाने कितने पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म-श्री और पद्म-भूषण से सम्मानित किया। वह भारतीय विज्ञान कोंग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और अन्य कई वैज्ञानिक संस्थानों के अध्यक्ष रहे। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) के महानिदेशक के रूप में उन्होंने भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को गति देने में अहम भूमिका अदा की। बाद में भारतीय प्रयोगशालाओं के मानकीकरण की शीर्ष संस्था एनएबीएल के अध्यक्ष  रहे।
अपनी सरलता और निश्छलता से हज़ारों हृदय पर राज करने वाले, अपनी करिश्मायी मुस्कान से मन की पीड़ा हर लेने वाले और अपने जादूयी  व्यक्तित्व से विस्मित कर देने वाले इस माटी के महान भौतिक वैज्ञानिक  हमारे प्रिय जोशी  सर, भले अपने भौतिक रूप में आज आप हमारे बीच नहीं रहे,  किंतु  आपकी आध्यात्मिक  और दार्शनिक उपस्थिति को हमारा मन अपने समय के अंत तक सर्वदा महसूस करते रहेगा! सर, प्रणाम!!!

           

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Friday 24 April 2020

नमन दिनकर, नमन दिनकर!!!

आज  राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि है। कहते हैं, मृत्यु से पूर्व दिनकरजी ने रामेश्वरम के सागर तट पर अंतिम बार रश्मिरथी का पाठ किया था। भारतीय साहित्य के  इस देदीप्यमान नक्षत्र को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ,शत शत नमन और विनम्र शब्दांजली : -

अक्षर अंगारे, शब्द ज्वाल,
स्वर टंकार, भयभीत काल।

प्रकम्पित-से,  पर्वत गह्वर,
प्रवहमान कविता निर्झर।

रामेश्वरम का सागर तट,
उड़ेला रश्मि रथी का घट।

उछली उर्मी, उल्लसित धार
पुलकित पयोधि, न पारावार।

अहके अर्णव,  क्या दूँ मैं वर?
करबद्ध कोविद, कहें कविवर।

थाम जलधाम,  ये शब्द वीणा
मृत्यु दक्षिणा, मृत्यु दक्षिणा!

नि:सृत नयनन, नीरनिधि नीर
उठे  उदधि  उर  लिए  चीर।

मुख लाल क्षितिज किये रत्नाकर
समेटे रश्मि, डूबे दिवाकर।

कालजयी कवि  अजर-अमर
नमन दिनकर, नमन दिनकर।



Thursday 23 April 2020

स्मृति दिवस : पुस्तक!

समय के आरम्भ में,
विवस्वत ने सुना था।
शब्दों का नाद !
गूँजता रहा अनंत काल तक,
आकाश के विस्तार में।
श्रुतियों में,
स्मृतियों में,
कुरुक्षेत्र की वीथियों में ।
ज्ञान, कर्म और भक्ति।
अमर प्रवाह-सा,
निर्झरणी के।
सत्व, रजस और तमस,
त्रिपिटक-सा।

मस्तिष्क के पटल पर,
व्यंजन में स्वर भर,
अंकित अक्षर-अक्षर,
शब्दों में उतर,
लेते आकार,   
तालपत्र  पर।
भोजपत्र, चर्मपत्र।
हाशिए पर चित्र पट ,
सजती पांडुलिपियाँ।
काग़ज़ों पर मुद्रण में,
समेटती गाथा मानवी,
सभ्यता और संस्कृति की ,
सजिल्द प्रकाशनों में।

सजी-धजी पुस्तक,
उर्वशी-सी !
खोती जा रही है,
होकर सवार ‘भेड़-चाल’,
डिजिटल स्क्रीन पर।
घिसटाती उसकी जिजीविषा,
और मेरी पिपासा।
मानों! खड़ा हूँ मैं,
निर्वस्त्र, ज्ञान से।    
समय के अंतिम छोर पर।
और स्मृति दिवस बन
आयी है  पुस्तक आज,
मिलने अपने पुरुरवा से!

Tuesday 21 April 2020

कैर, बैर और कुमट।


फैले अम्बर के नीचे
प्यासी आकुल अवनि।
किया कपूतों ने माता के
दिल को छल से छलनी।

सूनी माँ की आंखों में
सपने सूखे-सूखे-से।
पड़े लाले प्राणों के प्राणी
तड़पे प्यासे-भूखे से।

उधर निगोड़ा सूरज भी
बस झोंके तुम पर आगी।
और कपट प्रचंड पवन का
रेत में ज्वाला जागी।

ताप पाप से दहक-दहक
धिप-धिप धँस गयी धरती।
परत-परत बे पर्दा करके
सुजला सुफला भई परती।

मत रो माँ !  मरुस्थल में हम
अजर, अमर और जीवट।
जाल, खेजड़ी, रोहिड़ा
कैर, बैर और कुमट।