कविताओं के
संग्रह के साथ कुछ साहित्य-साधकों से अलग-अलग मिलने का सुअवसर मिला. कवितायें
बहुरंगी और अलग-अलग तेवरों में थी. कुछ आध्यात्मिक, कुछ मानवीय संबंधों पर , कोई
मांसल श्रृँगार का चित्र खींचने वाली, कोई प्रकृति के सौन्दर्य की छवि उकेरने
वाली, कोई सामाजिक विषमता और व्यवस्था के पाखण्ड पर प्रहार करने वाली, कोई
राष्ट्रीयता में रंगी, कोई सुफियाना तराना, कोई उत्तम, कोई मध्यम, कोई अधम
आदि-आदि. प्रतिक्रियाओं का रंग भी बहुरुपिया. कुछ उत्साहवर्धक. कुछ निराशाजनक.
उत्साहवर्धक
वहाँ, जहाँ भाषा, व्याकरण, छंद-रचना, शब्दों के चयन एवं भाव-प्रवाह की प्रांजलता
की दिशा और दशा पर विद्वतापूर्ण आलोचनायें की गयी. लेकिन, निराशा वहाँ हाथ लगी जहाँ
आलोचना के सुर किसी साज और वाद विशेष में उलझ गये. अर्थात कविता का कथ्य उस ‘वाद’
के ताल में है या नहीं जिसके वादक आलोचक-साहित्यकार हैं. जहाँ अपने ‘वाद’ की ताल
नहीं मिली उसे अप्रासंगिक, प्रपंच, अपरिपक्व, कुछ और बचे रह जाने की गुंजाइश
इत्यादि व्यंजनाओं से अभिहित किया गया.
एक पंथ को
अध्यात्म, दर्शन एवं राष्ट्रीयता से लबरेज कविताओं में दूसरे पंथ के पाज़ेब की
खनक या फिर प्रकृति, प्रेम और श्रृँगार के
गीतों में शब्दों की फिज़ूलखर्ची दिखायी दी.
तो दूसरे पंथ को
भी असमानता, शोषण और पाखण्ड पर चोट करने वाली कविताओं में सिवा प्रपंच और
‘रौंग-नंबर’ के कुछ नहीं मिला. दो पंथ, दोनों अलग-अलग ,उलटे ध्रुवों पर सवार. धुर
विरोधी और विपरीत-गामी. हमारी वैज्ञानिक पद्धति से बिल्कुल दूर.
विज्ञान में दो
विपरीत ध्रुवों में आकर्षण होता है, दोनों चिपक जाते हैं. साहित्य में विपरीत
ध्रुवों में प्रबल विकर्षण होता है. चिपकने की तो दूर, देखने से भी परहेज़ . यहीं
विज्ञान और साहित्य में मौलिक अंतर है. राजनीति साहित्य की सहेली भले बन जाये,
लेकिन विज्ञान पर उसका रंग नहीं चढ़ पाता.
मैं ठहरा विज्ञान
का छात्र और पेशे से अभियंता. हमारा विज्ञान में ऐसे कतिपय सिद्धांतों से पाला पडा
है जो प्रतिगामी होते हुए भी परस्पर पूरक रुप में वैज्ञानिकों एवम इंजीनियरों
द्वारा स्वीकारे और लिये गये हैं. सिद्धांतों का सामंजस्य और इंटीग्रेशन विज्ञान
का मूल दर्शन है जिसकी भावना है ज्ञान की तलाश और मानव का विकास. न्यूटन के बल
नियम पदार्थ के कणिका स्वरुप सिद्धांत पर आधारित हैं.बल रेखाओं को हम एक कणिका
बिन्दु पर आरोपित मानते हैं. यथार्थ मे ऐसा होता नहीं. किंतु हम न्यूटन के नियम को नाजायज माने बिना उस पदार्थ का एक
द्रव्यमान केन्द्र निकाल लेते हैं और उसी केन्द्र बिन्दु से सभी सक्रिय बल रेखाओं
को गुजारते हैं. फिर बल और आघूर्ण नियमों के आलोक में संतुलन की अवस्थाओं का
विश्लेषण कर गगनचुम्बी से लेकर पातालगामी
संरचनाओं का डिजाइन तैयार कर उनका सफल निर्माण कर लेते हैं.
दूसरी ओर पदार्थ
का तरंग स्वरुप भी उतना ही सत्य है . अर्थात एक ही वस्तु के दो स्वरुप – पदार्थ
रुप और ऊर्जा रुप. हमारा विज्ञान दोनों रुपों में प्रकृति के सत्य का न केवल दर्शन
करता है अपितु उनके सहारे नयी ऊंचाइयों में छलांग भी मारता है. कोई खेमेबन्दी
नहीं, कोई वाद नहीं, कोई पंथ नहीं. कोई प्रहार नहीं , कोई विवाद नहीं. पदार्थ और
ऊर्जा दोनों अपनी मौलिकता में आगे बढ़ रहे एक दूसरे का आलम्ब बन के , सहकार बन के.
एक दूसरे में बन के . पदार्थ ऊर्जा बन के तथा ऊर्जा पदार्थ बन के. एक तारतम्य में
एक व्यवस्था में .
ऊर्जा = द्रव्यमान(पदार्थ) * (प्रकाश का वेग) का वर्ग
हेज़ेनवर्ग ने
सिद्धांत दिया कि यह जानना अस्म्भव है कि किसी समय उस पदार्थ की स्थिति और वेग
कितना है. अर्थात ऐसे मिले कि कितना पदार्थ और कितनी ऊर्जा जानना असम्भव ! कितना
सामंजस्य है वैज्ञानिक सिद्धांतों में - स्वरुप में प्रतिकूल और व्यवहार में
अनुकूल!
तभी तो विज्ञान
ने जो तेजी पकड़ी वहां अराजकता बिल्कुल नहीं. यहाँ वाद के आधार पर हम किसी को
स्वीकार या अस्वीकार नहीं करते. प्रत्युत, आवश्यकता, उपयोगिता, गुणवत्ता एवम तथ्य
के आधार पर सभी स्वीकार्य है. सबका मूल परमाणु है, चेतना है.
गनीमत है कि
विज्ञान को साहित्यिक आलोचना की इन विषम गलियों से गुजरना नही पड़ता या ऐसा कहें कि
अब तक आलोचकों के इस वर्ग को अपने कार्य क्षेत्र में विस्तार कर विज्ञान की चौखट
तक जाने की सुधि न रही. नहीं तो , आलोचना के इस विलक्षण पद्धति की तथाकथित
प्रगतिवादी भाषा में समूचे विज्ञान को एक दोगला सम्प्रदाय घोषित कर दिया जाता. फिर
विज्ञान में भी एक आन्दोलन के शक्ल की कुछ घटना होती. एक कणिकावाद का खेमा बनता.
दूसरा तरंगवाद होता. बात आइस्टीन से होते होते सत्येन्द्र नाथ बसु तक आती.
सापेक्षपंथियों में विभाजन होता. एक भारतीय सापेक्षवादी खेमा (बसु) के रुप में टूटकर बाहर आ जाता. परमाणु से भी तेज़ परमाणु वैज्ञानिकों के विखन्डन की प्रक्रिया
होती . पदार्थ के सारे गुण पदार्थपंथी ओढ़ लेते. फिर वैज्ञानिक आगे बढते और विज्ञान
रुक जाता. ठीक वैसे ही, जैसे आज साहित्य से आगे साहित्यकार और समाज से आगे
समाजवादी भागे जा रहे हैं. साहित्य और समाज रुक गये हैं. उनको पूछने और पूजने वाले
पुरोधा को अभी आपस में फरियाने से फुरसत नहीं है.
कम से कम अकादमिक
स्तर पर साहित्य राजनीति से अछूती रहे, ऐसी
संस्कृति विकसित होनी चाहिये साहित्य में आलोचना की. आलोचना मात्र के लिये शब्द बाणों
से किसी रचना को बेध देना स्वस्थ परम्परा नहीं है. यह माटी शास्त्रार्थों की माटी है.
यहाँ भिन्न मत-मतांतरों के उद्भट्ट विद्वानों का एक मंच पर उपस्थित होकर विद्वत पूर्ण
आलोचना, समालोचना एवम विवेचना की गौरवमयी संस्कृति रही है. वैदिक काल से ही पुष्ट से
पुष्टतर होती यह परम्परा अद्यतन कायम रहनी चाहिये थी. आलोचना और विमर्श की कला को तर्क
और सहिष्णुता से सुसज्जित होना चाहिये. आलोचना की अपनी एक स्पष्ट और तीक्ष्ण दृष्टि
होनी चाहिये. आलोचक को एक संतुलित नायक के रुप में उभर कर आना चाहिये. साहित्यकार
समाज को सम्बल देता है.
जुमले की शक्ल ले चुके एक
वाकया में ऐसा बताते हैं कि कभी दिनकरजी और नेहरुजी संसद भवन की सीढ़ियों पर साथ साथ चढ़ रहे थे. नेहरुजी के पाँव
अचानक डगमगाये और गिरने-गिरने को हुए. तत्क्षण, बलिष्ट दिनकर ने उनको थाम लिया और नेहरु गिरने से बचे. नेहरु के आभार प्रकट
करने पर दिनकरजी ने अपने खास अन्दाज़ में कहा कि ‘जब भी राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे सम्भाल
लेता है’. अब न नेहरु रहे न दिनकर. हाँ, ट्रेंड जरूर नया हो गया है. खेमेबंदी में बँटे साहित्य के चाल की रिमोट अब राजनीति के हाथों
में प्रतीत होती है. यह स्थिति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.
इसलिये मेरा
मानना है कि समाज और साहित्य के सभी अंग विचारों में वैज्ञानिकता लायें. सारी
धारायें साथ बहें. साहित्य का सर्वांग पुष्ट हो. हर क्षेत्र पर सम्पूर्ण और समेकित
दृष्टि हो. नारी विमर्श भी हो. दलित विमर्श भी हो. राष्ट्रीय सरोकार भी हो.
आध्यात्म और दर्शन का उद्बोधन भी हो. समाजवाद की जड़ें भी सिंचित हो. श्रृंगार,
सौन्दर्य और प्रणय पाठ भी हो. लेकिन सब कुछ वैसा ही दिखे जैसा हो. आत्मनिष्ठ भाव
भी वस्तुनिष्ठता के कश पर निखरें. समाजशास्त्रीय परम्परा समृद्ध हो. सामंजस्य और
सहकार की भावना हो. आपस में तलवारें न खींचे. जोड़क हो, तोड़क नहीं. एक दूसरे का हाथ थामने वाले सम्पुरक बनें. अपना
स्कोर सेट्ल न करें. आलोचना की इस नयी दृष्टि में वैज्ञानिकता , सहकारिता,
सर्वांगिकता और सम्पुरकता का सामंजस्य हो. अपनी माटी की परिपाटी का सुगन्ध हो:
सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयः
सर्वे भद्राणी पश्यंती, मा कश्चिद्दुख
भागवेत
शाखायें हो,
खेमेबन्दी नहीं. विभाजन हो, अलगाववाद नहीं .
दूसरी व्यथित करने वाली बात है
पश्चिम की नकल और उसकी साहित्य धारा का अन्धानुकरण. हर समाज की अपनी भूमि होती है.
अपनी आबोहवा, अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज, अपनी जीवन पद्धति , अपनी उपज ,अपना
अर्थशास्त्र, अपना आध्यात्म ,अपना दर्शन , अपनी नदी, अपना आकाश, अपना मौसम, अपना
पर्यावास और अपने लोग!
यहाँ पर साहित्य
विज्ञान से थोड़ा अलग हो जाता है. विज्ञान विशुद्ध पदार्थवादी है किंतु साहित्य
नहीं. विज्ञान का तंतु पूर्णतः दिमाग से जुड़ा है. साहित्य का रास्ता दिल से निकलता
है. हर संस्कृति की अलग अलग गति और अलग अल्ग रास्ते भी है. पर सभ्यता का एक ही
रास्ता है. विज्ञान सभ्यता का सखा है और संस्कृति साहित्य की सहेली. सहेलियों के
रंग अलग अलग होते हैं चटख, नीले, पीले, लाल, गुलाबी, इन्द्रधनुषी, सतरंगी, बहुरंगी
आदि-आदि. इसलिये विज्ञान के क्षेत्र मे अनुकृति तो प्रतियोगी, वांछित और प्रगतिवादी
है किंतु साहित्य की अनुकृति हीनता की विकृति से इतर कुछ नहीं. पश्चिम का साहित्य
अपने आवेग में बहे , हम अपना संवेग धारण करें. हाँ, अपने से इतर के समाज की हलचलों
से हिलते रहें, वेदनाओं से विह्वल होते रहें, परिवर्तनों से आंदोलित होते रहें ,
पर अपनी मौलिकता से महरूम होकर उनकी धारा
में अपने को प्रवाहित न कर दें. ऐसे प्रवाहित होने की प्रवृति रखने वाली रचनाओं को
समाज स्वयं समय की रेत में गाड़ देता है.
समाज को साहित्यकारों से बड़ी अपेक्षा है. साहित्यकार अपने को पथ-प्रदर्शक की
भूमिका में लायें. वह समय की समकालीन धारा को अपने साहित्य से आलोड़ित करें.
संस्कृति की रक्षा करें, आचरण की नवीन सभ्यता का विकास करें, राष्ट्रीय मूल्यों का
सम्वर्धन करें, विषमता और भेद-भाव के खिलाफ बिगुल बजायें. आध्यात्म की समरसता और
सद्भाव का शोध-पत्र पढें, दिल से दिल को जोड़ें, समाज का मार्गदर्शन करें और अपनी
रचना धर्मिता का निर्वाह कर आलोचना की नयी संस्कृति का सुत्रपात करें.