Wednesday, 11 August 2021

अकेलेपन

 दिन के कोने में दुबकी संझा

पोत देती है काजल 

मुंह पर समय के,

और ओढ़ लेता है वह,

चादर काली रात की।

उधर उस ओर उषा भी

मल देती है सिंदूर

 क्षितिज के आनन पर।

............      ..........


फिर चढ़ जाता है

आवरण आलोक का।

भला देख पाता कोई?

कि रात- दिन, 

अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को 

उतारता-पहनता वक़्त,

अंदर से कितना नंगा होगा

हमारे अकेलेपन की तरह!

Sunday, 25 July 2021

देहरी से द्वार तक




पुस्तक का नाम – देहरी से द्वार तक

                       बिहार की महिला विभूतियाँ

                        (रेडियो रूपक एवं डॉक्यु-ड्रामा) 

लेखक – डॉक्टर नरेंद्र नाथ पांडेय 

प्रकाशक – कौटिल्य  बुक्स, ३०९, हरि सदन, २०, अंसारी रोड ,  दरियागंज, नयी दिल्ली – ११०००२

पुस्तक का अमेजन लिंक :

https://www.amazon.in/dp/8194823307?ref=myi_title_dp




प्रोफ़ेसर पांडेय की यह कृति ‘देहरी से द्वार तक’ कई मामलों में एक विलक्षण कृति है। पहली बात तो यह कि यह पुस्तक हमारी नयी पीढ़ी को उनकी  उस महान विरासत से परिचित कराती है जो इस पुस्तक के मुख्य किरदार के रूप में उनके सामने उपस्थित हुई  है। और, दूसरी एक और महत्वपूर्ण बात यह कि पुस्तक का कथ्य रेडियो  रूपक की रोचक शैली में है जो पाठकों का परिचय एक नयी विधा से भी कराती है। पुस्तक के वर्ण्य-विषय के रूप में लेखक ने परतंत्र भारत में जन्मी उन नारी चरित्रों को चुना है जिन्होंने समकालीन पुरुष-प्रधान समाज के रूढ़ आडंबरो, मिथ्या दंभ, प्रतिगामी परम्पराएँ  और जड़तापूर्ण मिथकों  को मुँह चिढ़ाते हुए सार्वजनिक जीवन में अपनी मेहनत, लगन, निष्ठा, अदम्य साहस और दृढ इच्छा-शक्ति के दम पर  न केवल अपनी उपस्थिति का दमदार अहसास दिलाया है बल्कि आनेवाली संततियों के लिए आशा के नए बीज का रोपण कर उसे प्रेरणा  की भागीरथी से सिंचित भी किया है।  इन नारियों का जन्म-क्षेत्र या कर्म-क्षेत्र बिहार रहा है। 


  आर्यावर्त की सनातन परम्परा नारियों की गरिमामयी उपस्थिति से सदा सिंचित रही है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तंत्र रमंते  देवा:’ इस भूमि की संस्कृति का सूत्र वाक्य रहा है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विवाह सूक्त की रचना अपने ही परिणय संस्कार में पढ़े जाने के लिए सावित्री के द्वारा की गयी थी जो अद्यतन विवाह संस्कार में मंत्र के रूप में उच्चरित होते चले आ रहे हैं। गार्गी, मैत्रेयी, लोपमुद्रा, अपला, अहल्या, आम्रपाली, भारती, विद्योतमा, संघमित्रा  आदि ऋषिकाओं  एवं विदुषियों ने अपनी अद्भुत विद्वता एवं कृतित्व  से इस भारत भूमि को चमत्कृत किया है। आदि काल में समाज के ताने-बाने में शीर्ष स्थान पर आसीन सबला नारियों की स्थिति तदंतर काल के प्रवाह में धूमिल होती चली गयी और मध्य काल के आते-आते उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। सामाजिक कुरीतियों और छद्म पौरुष के दम्भी आचरण में जकड़ी  नारी ‘असूर्यपश्या’ और ‘अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी’ की स्थिति में पहुँच गयी। विद्वत सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी की संततियाँ अब देहरी के भीतर सिमट कर रह गयीं। वेद की ऋचाओं को रचने वाली सृजन की देवियाँ अब अज्ञानता और अशिक्षा के तिमिर गह्वर में सिसकने लगी। पर्दा, सती और बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं के छल-जाल में समष्टि-रथ का यह पहिया उलझ गया। 


 किंतु काल के प्रतिकूल थपेड़ों में भी नारी चेतना सुप्त  नहीं हुई और झंझा को चुनौती देती दीपशिखा की तरह उन्होंने अपनी लौ की तेजस्विता को जीवित बनाए रखा।  इस उद्योग में नारियों को संघर्ष की किन-किन दुर्गम उपत्यकाओं से गुज़रना पड़ा और इस पुरुष प्रधान दंभी  समाज से कैसे लोहा लेना पड़ा,  आज की सूचना क्रांति और अन्तर्जाल में पली-बढ़ी  पीढ़ी के लिए यह तथ्य कल्पना के बाहर की ही वस्तु है। सोचिए उस  कोमल अबला  ‘कमल कामिनी’  के सबल साहस को जो पहली बार दक़ियानूसी समाज के ज़ंजीरों को काट कर परदे से बाहर निकली होगी और पहुँच गयी होगी परीक्षा केंद्र पर मैट्रिक की परीक्षा देने! उसे देखने के लिए लोगों का मजमा उमड़ पड़ा था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से आई ए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद वह  ‘फ़र्स्ट फ़ीमेल ग्रैजूएट ऑफ बिहार’ बनी। उस कमसीन ‘कमरुन्निसा’ की कल्पना कीजिए जिसने  अत्यंत कम उम्र में ही बेवा होने के बावजूद रूढ़ियों के बंधन काट और परदे की सीमा को पार कर बिहार, बंगाल और उड़ीसा मिलाकर बी ए की परीक्षा में टॉप किया। ‘प्रभावती’ की उस दिव्य प्रभा का आभास कीजिए जिसने अपने पूरे जीवन को ही  विवाह के तुरंत बाद ब्रह्मचर्य की अग्नि में तपाकर राष्ट्र की बलिवेदी पर आहूत  कर दिया। न्याय तंत्र को धर्म की शिला पर परखने वाली उस पहली लेडी बैरिस्टर  ‘धर्मशिला’ की कल्पना कीजिए जिसके लिए ‘द सर्चलाइट’ अख़बार ने लिखा, ‘इंडीयन पोर्शिया एंटर्स कोर्ट-रूम’। जितवारपुर गाँव की मिट्टी की दीवारों को  ‘वेजिटेबल-कलर्स’  में रंगी अपनी कूची से खचित सांस्कारिक बिंबों की  अपनी अद्भुत मधुबनी चित्रकला में सजीव करने वाली ‘सीता देवी’ का समर्पण और त्याग आधुनिक पीढ़ी के लिए एक किंवदंती के समान ही है। कल्पना कीजिए क्रांति का सुर बिखेरने वाली उस वीरांगना ‘वीणापाणि’ का जो १९४२ में पटना जंक्शन पर रेल की पटरियों को उड़ाने के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर  बम फेंक आयी  थीं। बिना किसी बाहरी सहायता के नारियों को संगठित कर नारी शक्ति के बल बूते उस ज़माने में पटना शहर में ‘वर्किंग वीमेंस हॉस्टल’ खोलना  कामकाजी नारियों के लिए रिहायश का इंतज़ाम मात्र नहीं था बल्कि यह ‘शेफालिका’ के द्वारा नारी स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता की विजय यात्रा का पांचजन्य-नाद  था। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही बिहार की दूसरी मेडिकल ग्रेजुएट और  स्वर्ण पदक प्राप्त ‘डॉक्टर मारी क्वाड्रस’ का मानव सेवा को समर्पित सादगी और त्याग से परिपूर्ण जीवन एक ऐसा दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है जो भविष्य की पीढ़ियों  का पथ अनंत काल तक आलोकित करता रहेगा। घोर अशिक्षा और पर्दानशीन समाज की प्रपंची परम्पराओं से तपते उपवन को अपने कोकिल-स्वर  से हरित करने वाली ‘विंध्यवासिनी’ को लोकगायन और संगीत की कला में शिक्षित होने के लिए किन-किन पापड़ों को बेलना पड़ा होगा – यह तत्कालीन समाज के परिवेश  के परिप्रेक्ष्य में कल्पना की ही बात हो सकती है! नर्सिंग को अपना करियर बनाकर ‘मूक-बघिर-संस्था’, ‘रेड-क्रौस-सोसायटी’ और ‘अखिल भारतीय महिला परिषद’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से   ‘ऐनी मुखोपाध्याय’  ने न केवल मानव सेवा का अलख जगाया बल्कि ‘ऑल पटना वन ऐक्ट प्ले फ़ेस्टिवल सॉसायटी’ के पटल पर  महिलाओं को रंगमच की दुनिया में प्रवेश भी दिलाया। चालीस के दशक से शुरू होकर अस्सी के दशक तक  अपनी विशिष्ट मनोरंजक शैली में  सामाजिक कुरीतियों और अंध परम्पराओं  पर चोट करते प्रसिद्ध रेडियो धारावाहिक नाटक ‘लोहा सिंह’ में ‘खदेरन को मदर’ के नाम से प्रसिद्ध प्रमुख नेत्री ‘शांति देवी’ आज एक किंवदंती बन चुकी हैं। यह भी एक संयोग ही है कि इस पुस्तक के लेखक इसी नाटक में  एक प्रमुख किरदार ‘फाटक बाबा’ की भूमिका भी निभा चुके हैं। आकाशवाणी पटना से प्रसारित ‘नारी जगत’  और ‘बाल मंडली’ की प्रोड्यूसर, ‘निवेदन है’ की पत्र वाचिका’, कई रेडियो नाटकों की प्रमुख किरदार और प्रसिद्ध कार्यक्रम ‘चौपाल’ की  ‘गौरी बहन’ के रूप में ख्यात ‘पुष्पा अर्याणी’ की लगन, निष्ठा, मानवीय संवेदना और संघर्षशीलता एक अद्भुत मिसाल के रूप में चिर काल तक अविस्मरणीय रहेंगी। अपने जीवन की अंतर्व्यथा से तन्तुओं को समेटकर समकालीन समाज की रूढ़ियों के मौन का उच्छेदन करती पाँच सौ से अधिक कहानियों, पाँच उपन्यास और अनेक नाटकों एवं लघुकथाओं को रचने वाली महिला कथाकार ‘बिंदु सिन्हा’ ने इस पारम्परिक मान्यता को चुनौती दी कि बेटियाँ दान की वस्तु होती हैं और अपनी तीन पुत्रियों के विवाह में उन्होंने ‘कन्यादान’ के रिवाज का निषेध किया। उपरोक्त तेरह मनीषियों के रेडियो रूपक को तैयार करने हेतु सामग्रियों को जुटाने में लेखक ने जो अथक प्रयास किए वह किसी भागीरथ की गाथा से कम रोचक नहीं है। प्रामाणिक तथ्यों के संकलन के साथ-साथ लेखक ने वाचक और उद्घोषक के रूप में उन हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया है जिनका सीधा संबंध इन किरदारों से रहा है और उनके संस्मरणों ने किताब के कथ्य में जान डाल दिया है। 


पुस्तक की चौदहवीं नायिका के रूप में ‘कैप्टन मिस दूर्वा बनर्जी’ के जीवन-वृत्त को एक आलेख के रूप में इस पुस्तक में शामिल किया गया है। बिहार की बेटी ‘दूर्वा बनर्जी’ भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की पहली महिला पायलट थी, जिसने वर्ष १९५८ से वर्ष १९८८ तक, बिना किसी रुकावट के हवाई जहाज़ उड़ाकर १८५०० ‘फ़्लाइंग आवर्स’ पूरे किए और विश्व कीर्तिमान स्थापित किया।


रेडियो रूपक या डॉक्यु-ड्रामा एक ऐसी विधा है जिसमें ध्वनि और संगीत के समन्वित प्रभाव में सजे कथ्य के केंद्र में व्यक्ति विशेष, स्थान या घटना होते हैं। लेखक ने बड़े ही विलक्षण शिल्प में अपने रूपक के ताने-बाने को बुना है। लेखक का नैतिक उद्देश्य साफ़ है – इन मनीषियों  के कृतित्व को आज की पीढ़ी के सामने रखना ताकि वह प्रेरणा के तन्तुओं को बटोर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु लेखक ने रेडियो की इस रचनात्मक रूपक शैली को गीत, संगीत ध्वनि-प्रभाव और अत्यंत आकर्षक तरीक़े से इसमें कतिपय अभिराम नाटकीय तत्वों का समावेश कर  अत्यंत जीवंत बना दिया है। इस तरह ‘एक पंथ दो काज’ के मुहावरे को चरितार्थ करती हुए यह पुस्तक एक ओर जहाँ  नारी विभूति की हमारी महान विरासत से हमारा परिचय कराती है, वहीं दूसरी ओर लुप्तप्राय होने की कगार पर खड़ी रेडियो रूपक की रचनात्मक विधा को संजीवनी प्रदान की है। 

लेखक के इस संजीवन यज्ञ में आकाशवाणी पटना के कार्यक्रम अधिशासी श्री किशोर सिन्हा  जैसे कुशल प्रोड्यूसर  ने अपनी कुशल रेडियो  प्रस्तुति से  सोने में सुहागा लगा दिया है। महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों के साक्षात्कार के संकलन से लेकर इस रूपक-सह-डॉक्यु ड्रामा की प्रस्तुति तक दोनों के मणि-कांचन संयोग ने इस यज्ञ को अपने सम्पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचा दिया है। 'हमीं सो गए दास्ताँ कहते.....कहते ...!' शीर्षक से इस पुस्तक की भूमिका में श्री किशोर सिन्हा जी ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि  "सोलह दिनों के रिकार्ड-समय (११ मार्च २००८  से २७ मार्च २००८) में यह धारावाहिक रिकार्ड हुआ और ४ अप्रैल २००८ से २७ जून २००८ के बीच प्रसारित हुआ।

अपने अद्भुत कथ्य, विषयवस्तु, शिल्प और शैली के आलोक में यह पुस्तक पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की कसौटी पर पूरी तरह से खरी उतरती है। ‘सोद्देश्यता कला की आत्मा होती है’ इस कथन के मर्म की अनुगूँज पुस्तक को आद्योपांत पढ़ने के पश्चात हमें विशुद्धानंद जी द्वारा लिखे गए इसके शीर्षक गीत में सुनायी देती है जिससे हरेक रूपक का श्री गणेश होता है :

‘रोशनी फैलाएगी जो दीपिका संसार तक,

क्यों समेटे हम उसे इस देहरी के द्वार तक!

रोज़ की ताज़ा हवा परदे से टकराकर फिरे क्यों?

वर्जनाएँ, बंदिशें कुहरा घना बनकर घिरे क्यों?

जो सहज ही दूर कर सकती अँधेरा ज़िंदगी का,

वही क्यों है आज चौखट में फँसी घर-बार तक!

क्यों समेटे हम उसे इस देहरी से द्वार तक!’


और अब लेखक परिचय 

नेतरहाट विद्यालय और पटना साइंस कॉलेज से शिक्षा प्राप्त पूर्णिया जिले के 'सरसी' ग्राम में अवतरित हुए प्रोफेसर नरेंद्र नाथ पांडेय अनेक मामलों में एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं। पटना विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर रहे अद्भुद वैज्ञानिक सूझ-बूझ के धनी डॉ पांडेय ने 'रंगमंच एवं फिल्मों का एक-दूसरे पर प्रभाव एवं इनकी सामाजिक जिम्मेवारी' जैसे गूढ़ साहित्यिक और समाजशास्त्रीय विषय पर अनूठा शोध प्रबंध रच डाला, जिसके लिए पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें डी लिट् की उपाधि से विभूषित किया। रेडियो, टेलीविजन, रंगमंच एवं फिल्मों में अभिनय और निर्देशन के वृहत अनुभवों को समेटे डॉ पांडेय ने सम्पूर्ण भारत में एक साथ अनेक भाषाओं में प्रसारित, सबसे लंबी रेडियो श्रृंखला 'मानव का विकास' की सर्वाधिक किस्तों का सफल लेखन किया। 'रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानियाँ और मेरे रेडियो नाटक' इनकी बहुचर्चित प्रकाशित पुस्तक रही है।
'राज्य शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान , बिहार' के निदेशक रह चुके डॉ पांडेय अखिल भारतीय स्तर पर अनेक नाट्य प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं निर्देशक के पुरस्कार सहित 'शिखर सम्मान' के आभूषण का गौरव बटोर चुके हैं। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के संचालन से लेकर डॉक्यु ड्रामा, रेडियो पर बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं के निर्माण और प्रसारण, शिक्षाप्रद वार्ताएँ और  रेडियो रूपक की रचना तक का इनका सफर बड़ा ही रोचक और प्रेरक रहा है।
और अंत में, यह भी बताते चले कि इनकी धर्मपत्नी प्रो०डॉ० सुषमा मिश्रा, विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, ने पटना साइंस कॉलेज में हमें पढ़ाया भी है। इस नाते अत्यंत मृदुभाषी और आत्मीय प्रो० पांडेय हमारे 'गुरूपति' भी हुए। इस गुरुयुगल को सादर चरण स्पर्श।


 



Thursday, 22 July 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२५

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२५

(भाग – २४ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (फ)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)



८ – गायों का साक्ष्य 

अब अंत में हम उस मवेशी की बात करते हैं जो भारोपीय जनजीवन की आत्मा में बसता है और जो घोड़ों से भी अधिक  अहम है। वह पशु है – गाय। ‘आर्य’ और उनके घोड़ों के बारे में तमाम शोर-गुल और वक्रवाक्पटुताओं के बावजूद गाय ही वह पशु है जो उनके जीवन में एक केंद्रीय भूमिका निभाती आयी है। घूमंतु और चरवाहे आर्यों के जन-जीवन की गाय एक मुख्य पहचान रही है। किंतु, सबसे हैरत की बात यह है कि आर्यों की मूलभूमि के प्रश्न पर जितने भी विद्वानों ने अपनी वाकपटुता और तर्कों का ताना-बाना बुना है उन्होंने  वनस्पति और जंतु-जगत के सभी तन्तुओं को तो समेट लिया है, लेकिन लगता है कि जानबूझकर इन गायों को छोड़ दिया है। पालतू कुत्तों के सिवा प्राक-ऐतिहासिक काल में गाय/बैल/साँड़ एकमात्र ऐसे पशु हैं जिनके नाम के कोई न कोई अपभ्रंश रूप आद्य-भारोपीय परिवार की सभी शाखाओं में  पाए जाते हैं। आद्य-भारोपीय – गॉस, भारतीय-आर्य संस्कृत – गौ, ईरानी अवेस्ता – गौश, अर्मेनियायी – कोव, ग्रीक (यूनानी) – बोऊस, अल्बेनियायी – का, अनाटोलियन हीर, लुव – ववा, टोकरियन – क्यू, इटालिक लैटिन – बोस, सेल्टिक प्राचीन आइरिश – बो, जर्मन – कुह, बाल्टिक लिथुयानवी – गुओव्स, स्लावी ओसीएस – गोवेदो।

'अनाटोलियन मूल-भूमि-अवधारणा' के हिमायती गमक्रेलिज का कहना है कि, ‘दूध देने वाली गाय के आर्थिक महत्व के आलोक में इसे उस पुरातन काल की अमूल्य निधि के रूप में समझा जा सकता है (गमक्रेलिज १९९५:४८५)। पालतू जानवर के रूप में गाय, बैल और साँड़ का समय जंगली घोड़ों को पालतू बनाए जाने से काफ़ी पहले तक जाता है। नव-पाषाण युग के आदि काल में ही पालतू गाय, बैल और साँड़ के सबूत मिल जाते हैं (गमक्रेलिज १९९५ : ४८९)।‘ लेकिन बाद में कुछ बेमेल बातें उनके 'अनाटोलियन मूलभूमि अवधारणा' के परिप्रेक्ष्य में प्रवेश कर जाती हैं।गमक्रेलिज हमें बताते हैं कि, ‘यूरेशिया में जानवरों के पालतू बनाए जाने के दो प्रमुख केंद्र हैं : एक यूरोप का वह क्षेत्र जहाँ वंशानुगत जंगली गायों के रूप में विशाल आकृति वाले यूरोपीय जंगली भैंस (बोस प्राइमिजिनियस बोज) थे, और दूसरा पश्चिमी एशिया का वह भूभाग जहाँ वंशानुगत जंगली गायों की अपनी एक विशिष्ट प्रजाति थी [………….] पश्चिमी एशिया को ही वह जगह माना जाता है जहाँ सबसे पहली बार जंगली गायों को पालतू बनाया गया (गमक्रेलिज १९९५ :४८९-४९०)।‘ वह इसका  बार-बार ‘जानवरों को पालने-पोसने के दो बड़े केंद्र’ के रूप में उल्लेख करते हैं (गमक्रेलिज १९९५ :४९०)। बाद में वह तुरुप का इक्का फेंकते हैं, ‘भारोपीय बोलियाँ एक ही स्त्रोत से अपने शब्द गढ़ती हैं -*ठौरो-। भारोपीय भाषाओं में इसका मूल अभिप्राय ‘जंगली गाय/बैल/साँड़’ है जो क़रीब-क़रीब एक ‘पूरबिया घूमंतु शब्द’ है। यह इस बात को दर्शाता है कि इन बोलियों को बोलने वाले लोग विशेष रूप से पूरब के पास पाए जाने वाली जंगली गायों से वाक़िफ़ थे (गमक्रेलिज १९९५:४९१)।

ऊपर की बातों में भ्रम और मिथ्या का इतना विशद जाल है जिनका शीघ्र ही स्वतः उच्छेदन हो जाएगा और सही तथ्यों के उद्घाटन से फिर एक बार भारत की मूल भूमि होने की अवधारणा को बल मिलता दिखायी देगा :

– यह बात विवादों से बिल्कुल परे है कि गायों (अर्थात पालतू पशुओं) के पालने-पोसने के दो बड़े केंद्र थे। मवेशियों को समर्पित विकिपीडिया के स्तम्भ में कहा गया है कि “जंतु-विज्ञान और आनुवंशिकी के पुरातात्विक विद्वानों का इस बात की ओर संकेत है कि सबसे पहले क़रीब ईसा से १०५०० वर्ष पूर्व जंगली औरोक्स (बॉस पराइमिज़िनियस) को पालतू जानवर बनाया गया। औरोक्स जिसे यूर या युरस भी कहा जाता है,एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में रहने वाले जंगली जानवरों की एक विलुप्त प्रजाति है। १६२७ तक यह प्रजाति यूरोप में देखी गयी, जब पोलैंड के जाकटोरो जंगल में अंतिम औरोक्स के दम तोड़ने की घटना को दर्ज किया गया। इस जंगली जानवर को पालने के दो बड़े केंद्र थे। पहला केंद्र आज का टर्की था जहाँ से ‘टौरस-वंश (tauras line)’ का उदय हुआ। दूसरा केंद्र आज का पाकिस्तान था जहाँ से ‘इंडिसाइन वंश (indicine line)’ का उदय हुआ। यूरोपीय मवेशी बहुधा टौरस वंश से संबंधित हैं।“ बाक़ी के शोध इस बात को दर्शाते हैं कि ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ इन जानवरों को पालने के महत्वपूर्ण केंद्रों में एक थी। (यह घूमंतु चरवाहे ‘आर्यों’ और सभ्य नागरिय हड़प्पा निवासियों के बीच के एक महत्वपूर्ण अंतर को उजागर करता है)।

– ऋग्वेद गायों की चर्चा से भरा-पूरा ग्रंथ है। न केवल गाय का उल्लेख घोड़े सहित बाक़ी किसी भी मवेशी की तुलना में सबसे अधिक बार हुआ है, बल्कि ‘गौ/गो’ शब्द का प्रयोग अनेक चमत्कारिक अर्थों में भी हुआ है। कहीं सूरज की किरणों के लिए, कहीं पृथ्वी के लिए, कहीं तारों के लिए तो कहीं प्रकृति के अन्य रहस्यमय उपादानों के अर्थ में यह शब्द ऋग्वेद में यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। ऋग्वेद के धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक जीवन के मुख्य संबल के रूप में गाय चित्रित होती दिखती है। किंतु भाषायी दृष्टिकोण से सबसे प्रमुख बात तो यह है कि गाय से संबंध रखने वाले वे सारे साझे भारोपीय शब्द तो संस्कृत भाषा में मिल जाते हैं लेकिन गमक्रेलिज के शब्दों में यहूदियों से उधार लिए गए वे ‘पूरबिया घूमंतु शब्द’ कहीं नहीं पाए जाते। पुरब की तीनों शाखाओं में इस शब्द का नहीं पाया जाना इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि इन बोलियों को बोलने वाले लोग विशेष रूप से पूरब के निकट पाए जाने वाले जंगली गायों से वाक़िफ़ नहीं थे (गमक्रेलिज १९९५ :४९१)।  


मेल्लोरी ने बताया है कि भारोपीय भाषाओं में गाय के लिए तीन अलग-अलग शब्द हैं – *ग़ोऊस- (*gwous-), *हे- (*h1egh-),  और *वोकेह- (*wokeh-)। पहले दोनों  शब्द सभी बारह शाखाओं में पाए जाते हैं। गाय, बैल और साँड़ के लिए भारतेय आर्य भाषाओं में अन्य शब्दों का वृतांत  इस प्रकार है :

- *हे- (*h1egh-), ‘गाय’। संस्कृत - *अहि-, अर्मेनियायी – एज्न, सेल्टिक (प्राचीन आइरिश) – अग 

- *वोकेह-  (*wokeh-) ‘गाय’। संस्कृत – वसा। इटालिक (लैटिन) – वक्का।

– ‘फेखु’ – ‘मवेशी’। संस्कृत – पशु। ईरानी (अवेस्ता) – पसु। इटालिक (लैटिन) – पेचु। जर्मन (प्राचीन अंग्रेज़ी) – फेओह।   बाल्टिक (लिथुयानवी) – पेकुस।

- *उक्सेन- ऑक्स (बैल)। संस्कृत – उक्षाम। ईरानी (अवेस्ता) – उक्षाम। टोकारियन – औक्षो। जर्मन (अंग्रेज़ी) – ऑक्स। सेल्टिक (प्राचीन आइरिश) – औस्स।

– वृसेन ‘साँड़ (बुल)’। संस्कृत – वृष्णि। ईरानी (अवेस्ता) – वरेष्ण।

– *उश्र- ‘गाय/साँड़’। संस्कृत – उस्त्र/उस्त्रा। जर्मन – ऊरो (ऊरोच्सो से)।

- *डोम्ह्योस- ‘बछड़ा’। संस्कृत – दम्य। सेल्टिक (प्राचीन आयरिश) – डैम। अल्बानियन – डेम।  ग्रीक (यूनानी) – डमलेस।

ऊपर की अंतिम पंक्ति में दी गयी जानकारी ध्यान आकर्षित करती है। गमक्रेलिज इस बात की ओर संकेत करते हैं कि, “ जंगली जानवरों को पालतू बनाने वालों में प्रोटो भारोपीय भाषी लोगों के भी होने की झलक इस बात में स्पष्ट दिखायी देती है कि इनकी भाषा में साँड़ के लिए एक अलग से शब्द है,  जो  ‘*टेम्ह-‘ क्रिया से व्युत्पन्न है। इसका अर्थ होता है – पालना (tame), अपने मातहत करना (subdue), लगाम कसना (bridle), ज़बरन (force)। वैदिक संस्कृत – ‘दम्य’ का अर्थ बछड़े को पालना है या बधिया किए जाने योग्य पशु से है। अल्बेनियायी : ‘डेम’ – बछड़ा (मेयरहोफ़र १९६३ :II.३५)। जर्मन : ‘डमालेस’ – शिशु बछड़ा जिसका बधिया किया जाना है, ‘डमाले’ – जवान बछिया जो अभी ब्यायी नहीं (गमक्रेलिज १९९५:४९१)।

उपलब्ध साक्ष्यों का प्राबल्य, तथापि, इसी बात को पुष्ट करता है कि पशुओं को वश में करने और उनको पालने-पोसने का काम वैदिक लोगों के इलाक़े में ही हुआ। यह सिंधु सरस्वती का क्षेत्र था न कि पश्चिमी एशिया का भूभाग जिसे बार-बार गमक्रेलिज ने साबित करने की कोशिश की है। इसके अलावा दो और ऐसे शब्द हैं जो आद्य-भारोपीय दुनिया में दुग्धालयों या गव्यशालाओं के जन्म लेने या फिर डेरीकरण की प्रक्रिया के प्रचलन के विकास की कहानी की ओर संकेत करते हैं।

- संस्कृत के शब्द ‘गोष्ठ-‘ (वैदिक काल में पशुओं को चारागाह से निकालकर सुरक्षा की दृष्टि से एक जगह पर एकत्र करने के लिए प्रयुक्त शब्द ‘गोष्ठी’ था) और सिलतिक भाषा की एक लुप्त प्रायः बोली, सेल्टीबेरियन का शब्द ‘बुस्टम’ (जानवरों को रखने का स्थान)।

– आद्य-भारोपीय भाषाओं का साझा शब्द ‘अडर’ (थन, udder)। संस्कृत – ‘उदर’, ग्रीक (यूनानी) – ‘ओऊथर’, लैटिन – ‘ऊबर’, जर्मन (अंग्रेज़ी) – ‘अडर’। यहाँ फिर यहीं दिखता है कि भारतीय आर्य तत्व सभी भाषाओं में साझे रूप से विद्यमान है। 

– उत्तर-पश्चिमी भारत में अपनी स्थिति से संबंधित उपलब्ध प्राचीनतम ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से स्पष्ट है कि वैदिक भारतीय-आर्य और ईरानी शाखाओं ने मूल क्रिया ‘दूहना’ (to milk) को संजो कर रखा है : वैदिक संस्कृत – ‘दूह-‘/’दुग्ध-‘ और ईरानी – ‘दोक्ष-’। यह क्रिया बाक़ी सभी शाखाओं में विलुप्त हो गयी है। किंतु इसके मूल ‘क्रिया’ होने का प्रमाण यह है कि प्रोटो- भारोपीय संसार की दुग्ध-संस्कृति में प्रचलित शब्दों की व्युत्पति के केंद्र में यह मूल सर्व व्यापी है। इस मूल को समझने के लिए ‘डॉटर’ (daughter) शब्द के लिए भिन्न-भिन्न बोलियों में प्रचलित शब्दों पर ध्यान देना रोचक होगा। संस्कृत – ‘दुहितर-‘, अवेस्ता –‘दगेडर-‘, अर्मेनियायी – ‘दत्र-‘, यूनानी – ‘तगाटेर-‘, अंग्रेज़ी – ‘डॉटर-‘, …. आदि (गमक्रेलिज १९९५:४८६, fn ४१)। बहुत दिनों तक इस शब्द का अर्थ दूध दुहनेवाली महिला से लिया जाता रहा जो इस बात की ओर संकेत करता है कि प्रोटो-भारोपीय घरों में महिलाओं की दैनंदिनी में गायों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था। दूध के लिए वैदिक भारतीय-आर्य भाषा भी अपना शब्द इसी मूल ‘दुग्ध-‘ से ही ग्रहण करती है।

ईरानी भाषा,दूसरी ओर, दो शब्दों का प्रयोग करती है। अवेस्ता में ‘श्विद-‘ (आधुनिक पारसी  भाषा में ‘शिर-‘) और ‘पिमां-‘ (आधुनिक पारसी भाषा में ‘पिनु-‘)। इन दोनों के समानार्थी शब्द वैदिक भाषा में ‘क्षीर’ और ‘पायस’ हैं जिसका अर्थ दूध होता है।इन शब्दों के समानार्थक शब्द अन्य शाखाओं में भी हैं, जैसे - अल्बानी भाषा में ‘हिर्रे’ (मट्ठा) तथा बाल्टिक लिथुयानवी भाषा में ‘स्विस्ता’ (मक्खन) और ‘पिनास’ (दूध)। अन्य वैदिक शब्द ‘घृत’ (घी, मलाई या मक्खन) सेल्टिक भाषा में ‘गर्त’ के रूप में पाया जाता है। एक अन्य उदाहरण ‘दध्न’ से व्युत्पन्न वैदिक शब्द ‘दधि-‘ (दही, खट्टा दूध) है जो बाल्टिक में ‘ददन’ (दूध) और अल्बानी में ‘दाती’ (मक्खन) रूप में पाया जाता है।

फिर भी, आठ शाखाओं में ‘’दूहना’ क्रिया के लिए दूसरे  व्यापक शब्द हैं : प्रोटो-भारोपीय –‘मेल्क’, टोकारियन – ‘माल्क्लन’, सेल्टिक आइरिश – ‘ब्लिगिम’, इटालिक (लैटिन) – ‘मुल्गेओ’, जर्मन (अंग्रेज़ी) – ‘टु मिल्क’, बाल्टिक (लिथुयानवी) – ‘मेल्ज़ती’, स्लावी (प्राचीन रूसी) – ‘म्लेस्टि’, यूनानी – ‘अमेलगो’, अल्बानी – ‘म्जेल’। उसमें से चार में दूध के लिए संज्ञात्मक  शब्द की व्युत्पति भी इसी मूल से हुई है : टोकारियन – ‘मल्के’/मल्क़वे’, सेल्टिक (पुराना आइरिश) – ‘मेल्ग’/’म्लीच’/’ब्लिच’, जर्मन (अंग्रेज़ी) –‘मिल्क’, स्लावी – ‘म्लेको’, रूसी – ‘मोलोको’। इन परिस्थितियों में गमक्रेलिज ने इसी मूल को ‘मिल्क’ अर्थात दूध शब्द की व्युत्पति का मूल माना है। वह लिखते हैं – ‘यह उल्लेखनीय है कि भारतीय-ईरानियों ने दोनों मूल क्रिया शब्द ‘मिल्क’ और ‘*मेल्क-‘ तथा मूल संज्ञा शब्द ‘मिल्क’ के बदले दूसरे शब्दों को ले लिया है। इसका मुख्य कारण इन लोगों के अन्य भारोपीय जनजातियों से अलग होने के बाद ‘दुग्ध-संस्कृति’ के उद्भव की अपनी विशेष गति की अवस्था हो सकती है(गमक्रेलिज १९९५ : ४८६)। किंतु, उनकी यह धारणा कि मूल क्रिया और संज्ञा शब्द वही थे, इस आधात पर पूरी तरह ध्वस्त हो जाती है कि :

– ईरानी शाखा के साथ-साथ भारतीय-आर्य शाखा में यह  पूरी तरह से अनुपस्थित है, जबकि इन शाखाओं ने पशु-पालन और दुग्ध-उद्योग से संबंधित समस्त साझे शब्दों को संजो कर रखा है। यहीं नहीं, यह क्षेत्र दो सबसे बड़े पशु-पालन केंद्रों के मध्य में भी अवस्थित है (जैसा कि गमक्रेलिज, १९९५:४८५, ने स्वयं स्वीकारा है कि संस्कृत और प्राचीन ईरानी भाषा में हम गायों और उनके दुग्ध उद्योग से जुड़े अत्यंत विकसित शब्दावलियों को पाते हैं)। फिर तो, यह बड़ी ही विचित्र बात होगी कि वे (भारतीय-आर्य और ईरानी)   ‘मिल्किंग’ और ‘मिल्क’ शब्दों को पूरी तरह भूल बैठें।

– सबसे पहले अपनी जगह छोड़ने वाली अनाटोलियन (हित्ती) भाषा-शाखा में यह पूरी तरह से ग़ायब है। 

– भारतीय शब्द-बीज  ‘दूह’  ‘डॉटर’ शब्द की भी व्युत्पति का बीज है। इसका अर्थ भारोपीय जनजाति में गाय का दूध निकालने वाली महिला से लिया जाता था। यह प्रमाणित हो चूका है कि बीज-शब्द ‘दूह’ अपेक्षाकृत ज़्यादा पुराना और सबसे पहले प्रयोग हुआ तथा गहरे तक पैठा हुआ शब्द है। अतः यह स्पष्ट है कि प्रोटो भारोपीय शब्द ‘मेल्क’ अपेक्षाकृत नया शब्द है जो आगे चलकर प्रोटो भारोपीयों के पश्चिमोत्तर भारत से बाहर निकलने पर मध्य एशिया की उनकी  नयी बसावट में बाद में विकसित हुई।

दूध के लिए अन्य शब्द भी मिलते हैं। ग्रीक (यूनानी) में ‘गाल-‘ (व्युत्पति – गालक्टोस) और इटालिक (लैटिन) में ‘लक-‘ (व्युत्पति -लैक्टिस), इन दोनों का अर्थ दूध ही होता है। इस संदर्भ में ‘गेलेक्सी’ अर्थात आकाशगंगा शब्द का हठात् ध्यान आ जाता है। हित्ती भाषा में ‘गलट्टर’ शब्द का अर्थ सुंदर स्वाद वाले पौधों के रस से लिया जाता है। यूनानी भाषा में ‘गाल-‘ का अर्थ पौधों का रस भी होता है, जैसा कि लैटिन में ‘लक हरबारम’ (lac herbarum) का होता है। यह शब्द भी संभवतः स्वतंत्र रूप से मध्य एशिया में हाई जनमा होगा। हालाँकि यह पूरी तरह से एक काल्पनिक बात होगी, किंतु संस्कृत के ‘गोरस’ शब्द से यह ज़्यादा दूर नहीं दिखता जिसका अर्थ भी ‘गो’ अर्थात गाय और ‘रस’ अर्थात पौधे के तने के अंदर का जल होता है। 

इन सबमें, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मवेशियों और पशुओं पर हुए आनुवंशिक (जेनेटिक) शोधों से यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि आर्यों का भारत से बहिर्गमन हुआ था। इन जेनेटिक पड़तालों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि ऊपर मांसल लोथड़े की कूबड़ वाले भारतीय जानवर, ’जेब्यू’, हड़प्पा के पालतू मवेशी थे। ये २२०० ईसापूर्व के आस-पास पश्चिमी और मध्य एशिया में भी अचानक प्रकट होने लगे थे। २००० ईसापूर्व के आते-आते भारतीय ‘जेब्यू’ की प्रजाति ‘बॉस इंडिकस (bos indicus)’ का बड़े पैमाने पर अपने से आनुवांशिक पैमाने पर बिलकुल भिन्न पश्चिम एशिया में मवेशियों की पश्चिमी प्रजाति, ‘बॉस टौरस (bos taurus)’ के साथ विलय होने लगा। इस तरह से हमारे सामने भारत के घरेलू मवेशियों और जानवरों की तीन विशिष्ट प्रजातियाँ आती हैं – हाथी, मोर और पालतू भारतीय जेब्यू पशु। इन तीनों की उपस्थिति के चिह्न भी बाद में पश्चिमी एशिया में उसी काल में मिलते हैं जब वहाँ मित्ती जनजाति की बसावट का समय होता है। इससे यह बात तो बिलकुल साफ़ हो जाती है कि मित्ती जनजाति भारत से ही निकलकर २२०० ईसापूर्व के आस-पास पश्चिम एशिया में जा बसी थी। 

अब आइए हम एक अपराजेय और निर्विवाद साक्ष्य की बात करें। आज तक भारत में पाए जाने वाले मवेशी, जेब्यू, की एक ही शुद्ध प्रजाति, ‘बॉस इंडिकस’ मौजूद रही है। इसमें किसी भी प्रकार से पश्चिम एशिया की अन्य प्रजाति, ‘बॉस टौरस’ की कोई मिलावट नहीं पायी गयी है। यह दूसरी प्रजाति यूरोप और रूस के मैदानी भागों में ही पाए जाते रहे हैं। अब यह बात पूरी तरह से हैरत में डालने वाली है कि यूरोप के उन मैदानी भागों से जब आर्य भारत की ओर विस्थापित होकर चले तो दूध से संबंधित केवल शब्दावली लेकर तो वे भारत में प्रवेश कर गए लेकिन अपने दुग्ध उत्पादक पशुओं  को या तो वे वहीं छोड़कर चले आए या फिर अपनी हज़ार से भी अधिक मीलों की लम्बी यात्रा में उन जानवरों को रास्ते में ही मारकर खा गए! यहाँ तक कि उनकी हड्डियाँ भी वे चबाते चले गए ताकि उनका भी उस यात्रा पथ पर कोई अवशेष न मिले! भारत में जैसे ही उन्होंने प्रवेश किया, हड़प्पा के सारे पशु उन अप्रवासियों के पशु में बदल गए जो कथित तौर पर उनके साथ अकस्मात् प्रकट हो गए!

जहाँ तक आनुवांशिक शोधों और उनसे प्राप्त निष्कर्षों का सवाल है, तो ये भिन्न-भिन्न लोगों या प्रजातियों के भ्रमण और विस्थापन की दिशा और दशा पर तो प्रकाश डाल सकते हैं किंतु उनकी भाषा और बोली पर इनसे कुछ नहीं निकल सकता है। अगर यह मान  भी लिया जाय की अलग-अलग क्षेत्रों के जानवरों की भाषाएँ या उनके कंठ से निकलने वाले स्वर की कम्पन-आवृतियाँ या तीव्रताएँ एक दूसरे से भिन्न होती हैं तो इस तरह का भी कोई आनुवांशिक निष्कर्ष उपलब्ध नहीं है। अबतक डीएनए के परीक्षण से प्राप्त जेनेटिक साक्ष्यों के आधार पर ऐसा कोई सूत्र हाथ नहीं लग पाया है जिससे यह पता चल सके कि ‘बॉस टौरस’ प्रजाति के पश्चिमी मवेशियों का कभी भारत में प्रवेश हुआ हो। लेकिन इस बात के संकेत अवश्य मिले हैं कि ईसापूर्व तीसरे  सहस्त्राब्द के उत्तरार्द्ध में भरातीय मवेशी, ‘बॉस इंडिकस’ का प्रवेश मध्य और पश्चिमी एशिया में हुआ था। यही संभवतः वह काल था जब भारोपीय अपनी मूलभूमि भारत से अपने उत्प्रवासित स्थलों की ओर उत्प्रवासन के पहले चरण में थे। जैसे ही इन अप्रवासियों को नए क्षेत्र में ‘बॉस टौरस’ बहुतायत में मिलने शुरू हो गए इन्होंने ‘बॉस इंडिकस’ को ले जाना बंद कर दिया।

कुल मिलाकर वनस्पति और जंतु-जगत के इन तमाम सूत्रों की भारतीय-आर्य, भारोपीय क्षेत्रों तथा उनके भूगोल के संदर्भ में पड़ताल करने पर हम भारत को ही आर्यों की मूल भूमि के रूप में पाते हैं जहाँ से वे बाहर निकलकर  पश्चिमोत्तर में अफ़ग़ानिस्तान, मध्य एशिया और आगे अन्य क्षेत्रों की ओर गए। तथ्यों के इस समूचे प्रोटो-भारोपीय परिदृश्य में भारत का हाथी एक अनमोल संकेत के रूप में व्याप्त है।

#ऋग्वेद #विश्वमोहन 


Thursday, 15 July 2021

दीपशिखा

आशाओं की दीपशिखा,

रुक-रुक कर काँप रही थी।

पवन थपेड़ों से लड़-लड़ कर,

हर हर्फ पर हाँफ रही थी।


प्राणों के कण-कण को अपने,

प्रिय पर वह वार रही थी।

हो आलोकित पथ प्रियतम का,

सब कुछ अपना हार रही थी।


आने की उनकी मधुर कल्पना,

लौ को लप-लप फैलाती थी।

सूखा तिल-तिल, तेल भी तल का,

प्रतिकूलता अकुलाती थी।


अहक में अपनी बहक-बहक जो,

कभी बुझी-सी,  कभी धधकती।

नेह राग का न्योता लेकर,

झंझा को देती चुनौती।


आस सुवास में कभी महकती,

और दहकती पिया दाह में।

तन्वंगी टिमटिम-सी रोशनी,

लगी सिमटने विरह राह में।


दमन वायु की निर्दयता ने,

दीपशिखा का तोड़ा दम है।

सूखा दीपक, बुझ गयी बाती

अब तो पसरा गहरा तम है।


Sunday, 11 July 2021

बरसाती आवारा !

अगिन विरह की पवन जो बोता,
दुबकी दुपहरी सूख गया सोता।

जले खेत हो, मिट्टी राखी,
मुरझाये हो मन के पाखी।


तड़पे वनस् पति और पक्षी,
प्रेम पाती को तरसी यक्षी।

दिवस उजास और रातें काली,
आकुल, व्याकुल, वसुधा व्याली। 


प्यासी नदियाँ, सूखे कुएँ,
चील चिचियाती, उठते धुएँ।
धनके सनके, सूरज पागल,
अब भी भला, न बरसे बादल!


सूरज तपता, धरती जलती
कण-कण माटी का रोया।
बादल मैं! आंसू से मैंने
धरती का आँचल धोया।


रिस-रिस कर मैं रसा रसातल
रेश-रेश रस भर जाता हूँ।
यौवन जल छलकाकर के,
सरित सुहागन कर जाता हूँ।


उच्छ्वास मैं घनश्याम का,
चेतन की धारा अविरल ।
प्राण पीयूष पा आप्लावन,
चित पुलकित प्रकृति पल -पल।


प्राणतत्व मै,  मनस तत्व मै
जीव संजीवन धारा हूँ,
विकल वात, वारिद बादल बस !

बरसाती आवारा हूँ !

Thursday, 8 July 2021

गौतम की आत्म-ग्लानि

 हिम शिला की गहन गुफा थी,

पसरा था नीरव निविड़ तम।

प्रस्तर मूर्ति मन में उतरी,

खिन्न मन खोए थे गौतम।


यादों में उतरी अहल्या,

शापित इंद्र सहस्त्र-योनि तन।

गहन ग्लानि में गड़ा चाँद था,

कलंक से कलुषित कृष्ण गगन।


आँखों में अवसाद का आतप,

मन में विचारों का घर्षण।

आत्मच्युत अपराध भाव से,

लांछित लज्जित न्याय का दर्शन!


मन के मंदिर के आसन से,

चकनाचूर मैं च्युत हुआ।

अपने ही दृग के कोशों से,

अहिल्ये! मैं अछूत हुआ।


अनजाने अभिसार को तेरे,

वक्र शक्र ने ग्रास लिया।

मद्धिम बूझा फीका शशि,

निज कर्मों का नाश किया।


धवल चाँदनी की आभा ही,

सोम व्योम का सेतु है।

हो रीता इससे सुधाकर,

हीन भाव ही हेतु है।


राहु का स्पर्श मयंक को,

ज्यों ही कलंकित करता है।

ग्रसित मृत-सा गोला मात्र यह!

राकेश न किंचित रहता है।


पतित पत्र भी पादप का,

बस धरा-धूल ही खाता है।

चिर सत्य,  कि टहनी पर,

नहीं लौट वह पाता  है।


च्युत छवि से पतित पुरुष भी,

कथमपि न जीवित रहता है।

मर्दित  कर्दम आत्मग्लानि में,

पड़ा मृत ही रहता है।


कहूँ कासे! जो कह न सका,

हाय! लाज शर्म से गड़ा हुआ।

अब तो नित नियति यही,

मैं रहूँ मरा-सा पड़ा हुआ।


Monday, 5 July 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२४

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२४

(भाग – २३ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (प)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


२ – हड़प्पा में  अश्वों के जीवाश्म नहीं पाए जाने के आधार पर घोड़ों से अपरिचित होने की दलील में भी कोई ख़ास दम नहीं है। सच तो यह है कि हड़प्पा स्थलों की खुदाई और भारत के अंदरूनी हिस्सों की खुदाई से भी आर्यों के कथित आक्रमण-काल (१५०० ईसापूर्व के बाद) से भी पहले के समय के अश्व-जीवाश्म मिले हैं। ब्रयांट इस बात का उल्लेख करते हैं कि ‘४५०० ईसा पूर्व में भारत में घोड़ों के उपस्थित होने के प्रमाण राजस्थान में अरावली पहाड़ी की गोद में बसे बागोर की खुदाई में मिलते हैं (घोष १९८९a, ४)। बलूचिस्तान के  रन घुंडई में ई जे रौस के द्वारा करायी गयी खुदाई में घोड़े के दाँत मिलने की सूचना है (गुहा और चटर्जी १९४६, ३१५-३१६)। सबसे रोचक बात तो यह है कि इलाहाबाद के पास मगहर की खुदाई घोड़े की हड्डियाँ  मिली हैं जिनके छह नमूनों की कार्बन डेटिंग करने पर उनकी अवस्था २२६५ ईसापूर्व से लेकर १४८० ईसा पूर्व तक की मिलती है (शर्मा, १९८०, २२०-२२१)। उससे भी ख़ास बात तो यह है कि कर्नाटक के हल्लर नामक उत्खनन स्थल से नव पाषाण काल के १५००-१३०० ईसा पूर्व के घोड़ों की अस्थियों के अवशेष प्राप्त हुए  हैं। इसकी पहचान के आर अलूर (१९७१, १२३) नामक प्रसिद्ध पुरा-जंतुविज्ञानी ने करायी। सिंधु घाटी और इसके आस-पास फैले  क्षेत्रों में १९३१ की शुरुआत में सेवल और गुहा ने असली घोड़ों की उपस्थिति के प्रमाण की सूचना दी। ख़ासकर  मोहन-जो-दारो में ही ‘एक़ूस केबेलस (equus caballus)’ प्रजाति के उपलब्ध होने के अवशेष मिले हैं। आगे चलकर १९६३ में हड़प्पा, रोपर और लोथल  के क्षेत्रों से इनके होने के प्रमाण की पुष्टि फिर भोलानाथ ने की।  मौरटाइमर ह्वीलर  तक ने इस क्षेत्र से मिली घोड़ों की आकृतियों की पहचान की है और यह स्वीकारा है कि इस बात के प्रबल संकेत हैं कि सिंधु घाटी और इसके आस-पास के क्षेत्रों में ऊँट, घोड़े और गदहे बहुतायत में पाए जाते थे। इस बात का दूसरा सबूत १९३८ में मैके ने दिया। उन्होंने मोहन-जो-दारो से मिली चिकनी मिट्टी की बनी घोड़े की एक अनुकृति का हवाला दिया। प्रारंभिक डयनेस्टिक काल (यूनान के संदर्भ में ऊपर और नीचे के प्राचीन यूनान के एकीकरण का काल जो ३१५० ईसापूर्व से २६८६ ईसा पूर्व का है और मेसोपोटामिया या सूमर के संदर्भ में २९०० से २३५० ईसा पूर्व का वह काल जब सूमेर एक से अन्य वंशानुगत प्रणाली पर शासित  राज्यों में विभाजित होकर राजाओं के अधिकार क्षेत्र में आ गया) और अक्कडियन काल (२३४० और २२५० ईसापूर्व का वह काल जब अक्कड अर्थात अगेड शहर के शासकों ने फिर से सूमेर का एकीकरण किया) के बीच के समय की एक अश्वाकृति की सूचना  पीगौट (१९५२, १२६,१३०) ने दी है जो सिंधु घाटी के पेरियानो घुंडई नामक स्थल से प्राप्त हुई है।  हड़प्पा से प्राप्त कथित गधों की हड्डियों की फिर से जाँच की गयी है और इस बात की पुष्टि की गयी है कि ये हड्डियाँ गधों की न होकर घोड़ों की हैं (शर्मा १९९२-९३, ३१)। इसी तरह के और भी सबूत अन्य  सिंधु-घाटी-स्थलों से भी मिले हैं जैसे कालिबंगा (शर्मा १९९२-९३, ३१), लोथल (राव १९७९), सुरकोटदा (शर्मा १९७४), माल्वाँ (शर्मा १९९२-९३, ३२)। बाद में चलकर अन्य स्थलों यथा स्वात घाटी (स्टैकुल १९६९), गुमला (संकालिया १९७४, ३३०), पिरक (जैरिज १९८५), कुंतसि (शर्मा १९९५, २४) और रंगपुर (राव १९७९, २१९) से भी इस बात के प्रचुर सबूत मिले हैं (ब्रयांट २००१:१६९-१७०)। मध्य प्रदेश की चम्बल घाटी के कायथ क्षेत्र से मृणमूर्त्ति या टेराकोटा (एक इतालवी शब्द जिसका अर्थ पकी मिट्टी होता है) की बनी अश्व-आकृतियाँ मिली हैं। यह २४५० से २००० ईसापूर्व के ताम्र युग की मूर्तियाँ हैं। लोथल में शतरंज की विसात पर चलने वाले घोड़े की आकृति मिली है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र के सुरकोटदा से मिली आकृति के बारे में प्रामाणिक अश्व विशेषज्ञों ने भी पुष्टि की है, “जे पी जोशी ने १९७४ में सुरकोटदा से खुदाई कर आकृतियाँ निकाली। उसके तुरंत बाद ए के शर्मा ने इन हड्डियों सहित इस स्थल के भिन्न-भिन्न स्तरों से प्राप्त हड्डियों के बारे में उनके घोड़ों की हड्डी होने की पुष्टि की और इनका काल २१००-१७०० ईसापूर्व निर्धारित किया। ‘एक़ूस एसिनस’ और ‘एक़ूस नेमियोनस’ प्रजाति के घोड़ों की हड्डियों और खुरों के अवशेष के साथ-साथ अंगुलियों और टखनों की हड्डी, उनके सामने के कृंतक दाँत (इन्साइज़र) और दाढ़ों के चवर्ण दाँत के भी अवशेष मिले हैं। साथ-साथ ‘एक़ूस केबेलस लीन’ प्रजाति की हड्डियों के अवशेष भी मिले हैं (शर्मा १९७४, ७६)। बीस वर्षों के बाद भारतीय पुरातत्व परिषद (Indian Archeological  Society) के वार्षिक समारोह के उद्घाटन में मंच पर यह उद्घोषणा की गयी कि हंगरी के रहने वाले दुनिया के एक जाने माने पुरातत्वविज्ञानी जो घोड़ों के विशेषज्ञ थे, श्री सेंडर बोकोंयी, ने दिल्ली के एक अधिवेशन में भाग लेने के बाद घोड़ों की इन अस्थियों के अवशेष का गहन परीक्षण किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ये अस्थियाँ ‘एक़ूस केबेलस’ प्रजाति के पालतू घोड़ों की थीं – “इन प्रजाति के असली घोड़ों की पहचान उनके ऊपरी और निचले जबड़े के दाँतों की आकृति और कृंतक एवं चवर्ण दाँतों की बनावट के आधार पर प्रामाणिक रूप से की गयी है। पृथ्वी की नवीनतम भौगोलिक परतों के निर्माण के बाद से भारत में जंगली घोड़ों के पाए जाने के कोई चिह्न नहीं मिलते हैं। इस आधार पर इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि सुरकोटदा के घोड़े पूरी तरह से पालतू और घरेलू प्रकृति के थे (१९९३बी, १६२; लाल १९९७, २८५)”।

‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार विद्वान या तो इस बात पर पूरी चुप्पी साध लेते हैं या इसे सिरे से नकार देते हैं। हॉक ने मध्य मार्ग का सहारा लिया है और वह स्वीकारते हैं कि “जहाँ तक पुरातात्विक सबूतों के आधार पर पालतू घोड़ों के हड़प्पा की पहचान होने का प्रश्न है, अभी भी सवालों के घेरे में है। इस विषय में चेंगप्पा (१९९८) द्वरा संग्रहित तर्कों के सार को देखा जा सकता है।“ हॉक इस बात को और विस्तार देते हुए कहते हैं कि “सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जहाँ तक मेरे ज्ञान का विस्तार है, हमारे संज्ञान में हड़प्पा के स्थलों से प्राप्त ऐसे किसी भी पुरातात्विक सबूत का वजूद नहीं है जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी। कुल मिलाकर घोड़ों के साक्ष्य की बात आर्यों के भारत में घुसने की ओर ज़्यादा संकेत करता है बनिस्पत इस बात के कि वे भारत से निकलकर बाहर की ओर गए (हॉक १९९९a :१२-१३)।“

लेकिन ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के समर्थकों और यहाँ तक कि ख़ुद हॉक का भी यही कहना है कि आर्य यूक्रेन और दक्षिणी रूस के मैदानी भागों से अपने साथ दो पहिए वाले युद्धक रथ और घोड़े लेकर चले थे। बहुत दिनों तक वे मध्य एशिया के बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र (Bactria Margiana Archaeological Complex/BMAC) में जमे रहे जहाँ उन्होंने भारतीय-ईरानी संस्कृति का विकास किया और  उस क्षेत्र के ढेर सारे स्थानीय शब्दों से अपनी शब्दावली को समृद्ध किया। उसके बाद वहाँ से १५०० ईसापूर्व वे पंजाब में घुसे, १२०० ईसापूर्व में उन्होंने ऋग्वेद रच डाली, पूरब की ओर गंगा के मैदानी भागों में प्रवेश किया, वहाँ यजुर्वेद लिख ली और फिर धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में वे पसर गए। अब यहाँ वे किसी भी पुरातात्विक सबूत को सामने लाने में पूरी तरह असफल हो जाते हैं जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी! 

क - इस बारे में एक ख़ास बात ग़ौर करने लायक़ है कि आर्यों के तथाकथित भ्रमण पथ पर यूक्रेन से लेकर मध्य एशिया और पंजाब होते हुए उत्तरी भारत में भीतर पूरब की ओर बढ़ने तक के रास्ते में अभी तक घोड़ों या रथों को लेकर  किसी भी तरह के ऐसे पुरातात्विक सबूत काल की उस परिधि में उपलब्ध नहीं हो पाए हैं जिसमें ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ का पहिया घूम सके। 

ख - दूसरी बात ब्रायंट (२००१:१७३-१७४) की ध्यान देने वाली है। वे कहते हैं कि “एक दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है जिसे अधिकांश विद्वानों ने भी मान लिया है। सभी इस बात को मानने के लिए तैयार हैं कि बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे,  मूलतः भारतीय-आर्य-संस्कृति का क्षेत्र है। इस संस्कृति में घोड़े क़ब्र में शव के साथ दफ़नाए जाने वाले संकेतों के रूप में सामने आते हैं। फिर भी, भले ही ढेर सारे जानवरों की हड्डियाँ खुदायी में मिली हों लेकिन उनमें घोड़ों की हड्डियाँ कभी नहीं मिली। यह फिर से इस बात को बल देता है कि घोड़ों की हड्डियों का खुदाई में नहीं पाया जाना घोड़ों का ‘नहीं होना’ नहीं है। और हड्डियों के इस नहीं होने के आधार पर क्या हम यह कह सकते हैं कि इस क्षेत्र के वाशिंदे भारतीय-आर्य ही नहीं थे। तो फिर यह तर्क भला कैसे गले उतर सकता है कि खुदाई में घोड़ों की हड्डियों के नहीं होने के बावजूद मध्य एशिया के इस क्षेत्र के वाशिंदों को आप भारतीय-आर्य स्वीकार लें और थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर सिंधु घाटी की वैदिक भूमि में इन्हीं परिस्थितियों को सिरे से नकार दें। तो फिर सबूत तो यही दर्शाते हैं कि मध्य एशिया के इस  ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र’ में घोड़ों के साथ रहने वाले आर्य भारत से निकले ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजाति के आर्य थे न कि भारत की ओर आने वाले आर्य!

ग – ‘आर्यों’ के द्वारा दक्षिण एशिया और यूक्रेन से लाए गए जिन वैदिक रथों की चर्चा हॉक करते हैं उनमें से कोई एक भी नमूना उस काल गणना में भारत के किसी भी क्षेत्र से पुरातात्विक अवशेष के रूप में नहीं मिला है। रथों को प्रदर्शित करता सबसे प्राचीन पाषाण उत्कीर्णन ३५० ईसापूर्व  के बाद का मौर्य काल का मिला है।

घ – सही बात तो यह है कि १५०० ईसापूर्व से ३५० ईसापूर्व के बीच में पंजाब और हरियाणा के किसी भी क्षेत्र से घोड़ों की हड्डियों के अवशेष मिलने का दृष्टांत नगण्य ही है। एक- दो छिटपुट मामले ज़रूर हैं जैसे हरियाणा के पूर्वोत्तर भाग में भगवानपुर और भागपुर से १००० ईसापूर्व काल की हड्डियाँ मिली हैं। किंतु, इससे यह बात नहीं बन जाती “जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी।“ और ना इससे १२०० ईसापूर्व के बाद की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन ही इंगित होता है। यह भी ग़ौरतलब है कि घोड़ों की हड्डियों के जो सबसे प्राचीन अवशेष मिले वे पश्चिमोत्तर भारत के पूरबी इलाक़े (पूर्वोत्तर हरियाणा) और दक्षिणी इलाक़े (कच्छ) से मिले। ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र’ से लेकर वृहत पंजाब तक किसी भी प्रकार के कथित ‘आर्य अश्व अस्थि’ के मिलने की कोई जानकारी नहीं है। इस बारे में ‘ब्रितानिका एंसाइक्लोपीडिया’ के १५ वें संस्करण में खंड ९ के पृष्ट ३४८ पर भारतीय पुरातत्व के विषय में प्रकाशित तथ्य भी ध्यान खिंचने वाला है, “फिर भी, यदि ठीक-ठीक कहें तो सबसे हैरत में डालने वाली बात यह है कि भारत के उन क्षेत्रों में आर्य-भाषा नहीं पहुँच पायी जहाँ लोहे और घोड़ों का प्रचलन था। आज तक ये क्षेत्र द्रविड़ भाषा समूह के ही भू-भाग हैं।“

विजेल भी शुरू में तो दावा करते हैं कि ‘ग्रंथ और भाषाओं के अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय आर्य तत्वों से इतर कुछ बाहरी भाषायी और सांस्कृतिक लक्षण हैं जो घोड़ों और आरेदार पहिए वाले रथों के साथ बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र (बीएमएसी) के रास्ते दक्षिणी एशिया के पश्चिमोत्तर प्रांतों में प्रवेश कर गए थे।‘ किंतु, शीघ्र ही अपने दावों को यह कहते हुए ख़ारिज करते दिखते हैं कि “फिर भी, आज के पुरातत्व-ज्ञान का अधिकांश इस धारणा को नकारता है […………] अभी तक इस बात के कोई पुख़्ता पुरातात्विक प्रमाण नहीं पाए गए हैं (विजेल २०००a:$१५)।

इसलिए जब तक इसी बात को स्वीकारने की इच्छा-शक्ति न हो कि इस धरा पर ‘वैदिक-आर्य’, ‘वैदिक अश्व’ और ‘वैदिक रथों’ का कोई अस्तित्व था, तब तक हड़प्पा की खुदाई से अश्व-अस्थियों की तथाकथित अनुपस्थिति के इन तमाम तर्कों के जाल की बुनावट न केवल बेमानी है, बल्कि बौद्धिक धोखाघड़ी और बेमतलब की भी है। ‘घोड़ों की हड्डियों के नहीं पाए जाने के बावजूद काल के एक खंड में बीएमएसी और पंजाब में आर्यों की उपस्थिति पर अड़ियल रूख अपनाना और ठीक ऐसी ही परिस्थिति में हड़प्पा में इन हड्डियों के नहीं पाए जाने पर उनकी उपस्थिति को सिरे से नकार देना’ इसे विमर्श की किस कसौटी पर बौद्धिक कहा जाय!

३ – भाषायी सबूत इस बात को पूरी तरह नकारते हैं कि जब तक ‘आर्य’ यूक्रेन के मैदानी भाग से अपने साथ घोड़ों को लेकर नहीं आए थे तब तक भारत के अनार्य-भाषी लोगों को घोड़ों की जानकारी नहीं थी। इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि ये घोड़े जिन्हें चाहे पश्चिमोत्तर की सरहदों के पार के अजूबे जानवर कह लें या घरेलू और पालतू मवेशी, पूरी तरह से भारत के ‘अनार्य’ निवासियों की ज़िंदगी में रचे बसे थे। तलगेरी जी ने अपनी पहली पुस्तक में इस रोचक बात का ख़ुलासा किया है कि “यदि घोड़ों के लिए संस्कृत भाषा में प्रयुक्त कुछ ख़ास नामों की चर्चा करें तो हमें कई नाम मिल जाते हैं जैसे – अश्व, अर्वंत या अर्व्व, हय, वाजिन, सप्ति, तुरंग, किल्वी, प्रचेलक और घोटक। आज तक इन शब्दों से उधार लिए गए घोड़े के किसी भी समानार्थक शब्द का द्रविड़ भाषाओं में लेश मात्र भी नहीं मिलता। ख़ास शब्द कुडिरय, परी, और मा [….]। संथाली और मुंडारी  भाषाओं ने  कोल-मुंडा भाषा के मौलिक शब्द ‘साड़ोम’ को संरक्षित कर लिया है। भाषाविदों द्वारा आज तक द्रविड़ और कोल-मुंडा भाषाओं में घोड़े के लिए किसी ‘आर्य शब्द को उधार लेने के दावे की बात तो दूर रही, उलटे इस बात को मानने पर ज़ोर ज़्यादा रहा कि संस्कृत का ‘घोटक’ शब्द जिससे आधुनिक आर्य भाषाओं में घोड़े के लिए अनेक शब्दों का जन्म हुआ है, स्वयं कोल-मुंडा भाषाओं से उधार लिया गया है (तलगेरी १९९३:१६०)।“ 

ऊपर की बातों की प्रतिध्वनि यहाँ तक कि विजेल के वक्तव्य में भी सुनायी देती है, “पालतू  जानवरों के लिए भारतीय-आर्य और द्रविण  भाषाओं के शब्द एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। जैसे – तमिल (इवली, कुडिरय), तमिल (परी – दौड़नेवाला, मा – जानवर, घोड़ा,हाथी), तेलगु (मावु – घोड़ा), नहली (माव -घोड़ा) आदि। इन शब्दों का भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत के समानार्थी शब्दों अश्व (घोड़ा) या दौड़ने वाला (अर्वंत, वाजिन आदि) से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं दिखायी देता है। स्पष्ट तौर पर घोड़ों के इश्तेमाल का कोई ताल्लुक़ भारतीय-आर्य भाषा बोलने वालों से कतई नहीं है (विजेल (२०००:१५)।“  अतः यह बात साफ़ है कि आर्यों का आक्रमण अनार्यों के द्वारा घोड़ों के इश्तेमाल की वजह कभी नहीं बना। 

२००२ में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समाचार पत्र में अपने एक लेख में विजेल ने यह दावा किया कि भारत की अनार्य-भाषाओं के शब्द पश्चिम एशिया के भिन्न-भिन्न भागों, यहाँ तक कि चीन से उधार लिए गए हैं। ज़ाहिर है, इस बात पर उन्होंने रहस्यमय चुप्पी साध ली कि इस उधारी की प्रक्रिया के क्या कारण थे और द्रविड़ जीवन में उनके प्रवेश के  वे कौन से तरीक़े, चरण या रास्ते थे जिनके आधार पर उन्होंने वैसे शब्दों को उधारी के शब्द घोषित कर दिया जो द्रविड़ भाषाओं के आम-जीवन के केंद्र में रच-बस गए थे। हालाँकि, इन तमाम बातों के बावजूद यह सत्य बना ही रहा कि अनार्य-भाषी भारतीय घोड़ों के इश्तेमाल से पहले से परिचित थे और इसका कारण जो कुछ भी रहा हो, आर्यों का आक्रमण कदापि नहीं रहा।

४ – ऋग्वेद के साहित्य इस इतिहास-बोध का पूरा सबूत देते हैं कि पुराने मंडलों के काल से ही घोड़े आम जीवन में एक महत्वपूर्ण और आदर के पात्र पालतू जानवर थे। स्वाभाविक तौर पर यह भी लाज़िमी है कि ‘अणु’ और ‘दृहयु’ के इलाक़ों में पाए जाने वाले अनोखे और बेशक़ीमती घोड़ों से वैदिक आर्य भी ३००० ईसापूर्व पूरी तरह वाक़िफ़ अवश्य होंगे। आगे चलकर आरेदार पहिए वाले रथ का अविष्कार होते ही नए मंडलों के रचे जाने तक ये घोड़े आम जीवन के हिस्से बन गए थे:

क – ‘स्पोक’ के लिए ‘अरा’ शब्द का प्रयोग नए मंडलों (५, १, ८, ९ और १०) में ही मिलता है।

पाँचवाँ मंडल – १३/६, ५८/५

पहला मंडल – ३२/१५, १४१/९, १६४/(११, १२, १३, ४८)

आठवाँ मंडल – २०/१४, ७७/३

दसवाँ मंडल - ७८/४


ख – उसी तरह ‘अश्व’ और ‘रथ’ शब्द भी पहली बार नए मंडलों में ही प्रकट होते हैं।

पाँचवाँ मंडल – २७/(४, ५, ६), ३३/९, ३६/६, ५२/१, ६१/(५, १०), ७९/२

पहला मंडल – ३६/१८, १००/(१६, १७), ११२/(१०, १५), ११६/(६, १६), ११७/(१७, १८), १२२/(७, १३)

आठवाँ मंडल – १/(३०, ३२), ९/१०, २३/(१६, २३, २४), २४/(१४, २२, २३, २८, २९), २६/(९, ११), ३५/(१९, २०, २१), ३६/७,                      

                   ३७/७, ३८/८, ४६/(२१, ३३), ६८/(१५, १६)

नवाँ मंडल – ६५/७

दसवाँ मंडल – ४९/६, ६०/५, ६१/२१


ग – ऋचाओं के रचनाकारों के नाम में भी ये शब्द पाए जाते हैं।

पाँचवाँ मंडल – सूक्त ४७, सूक्त ५२ – ६१, सूक्त ८१ -८२।

पहला मंडल – सूक्त संख्या १००।

दसवाँ मंडल – सूक्त – १०२, सूक्त – १३४।

माना जाता है कि इंद्र को पश्चिमोत्तर के रहस्यों से अवगत कराने वाले भृगु ऋषि, दध्यांच के पास घोड़े का सिर था (पहला मंडल - ११६/१२, ११७/२२, ११९/९)। भृगु (४/१६/२०) और अणु (५/३१/४) को ही इंद्र के लिए रथ बनाने का श्रेय दिया जाता है। यह अपने आप में घोड़ों और रथों से संबंधित अनुसंधान और अविष्कार के प्रवाह की दिशा दर्शाता है। भले ही, ज़ाहिर तौर पर यह वैदिक आर्यों के ख़ुद के भ्रमण की दिशा न दिखलाता हो। 

भले ही, घोड़े भारत की मिट्टी के न हों, प्रोटो-भारोपीय लोगों को उनकी मूल भूमि में ये उनसे भली-भाँति परिचित थे। और साथ ही, इस तथ्य की पटरी भी  ‘भारत-भूमि-अवधारणा’ से बैठ जाती है। 


Thursday, 24 June 2021

भोजपुरी और अश्लीलता (भोजपुरी दिवस पर विशेष)


 कबीर जयंती को भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है। कबीर की रचनाओं ने भक्ति आंदोलन को एक नया कलेवर प्रदान किया। कुरीतियों एवं अंधविश्वास पर कबीर ने गहरा प्रहार किया। सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करने वाले कबीर की भोजपुरी आज स्वयं अश्लीलता और गंदगी का शिकार बन गयी है। भोजपुरी गाने और फिल्मों के संवाद कुरूप और बदरंग होते जा रहे हैं। इन कुसंस्कारों और विसंगतियों से त्राण पाने हेतु यह भाषा छटपटा रही है। 'चकोर' नामक सामाजिक मंच इस दिशा में एक आंदोलन को आकार देने के लिए प्रयासरत है। भोजपुरी सहित अन्य भाषाओं को भी इस गंदगी से मुक्त कराने की महती आवश्यकता है। इस दिशा में 'चकोर' मंच से हमारे उद्बोधन पर विचार करें। साथ ही भोजपुरी में लिखे  मेरे इस गीत  का रसास्वादन करें:


मैना करेली निहोरा अपना तोता से,

तनी ताक न गल थेथरु अपना खोता से।


बाहर निकलअ,

देखअ कइसन,

उगल बा भिनसरवा।

चिरई-चिरगुन,

चहक चहक के,

छोड़लेन आपन डेरवा।

मैना करेली.....


खुरपी कुदारी,

हाथ में लेके

चालले खेत किसान।

पिअरी माटी,

अंगना लिपस,

तिरिया बर बथान।

मैना करेली...


घुनुर घुनुर,

गर घंटी बाजे,

बैला खिंचे हर।

आलस तेज,सैंया 

बहरा निकलअ,

चढ़ गइल एक पहर।

मैना करेली निहोरा..


धानी चूड़ी,

पिअरी पहिनले,

और टहकार सेनुर।

दुलहिन बाड़ी,

 पेड़ा जोहत,

सैंया बसले दूर।

मैना करेली...


तोहरो कब से

असरा देखी,

बलम बाहर कब अइब।

नेह के पाँखि,

अपना हमरा,

मंगिया पर छितरईब।


मैना करेली,निहोरा अपना तोता से

तनी ताकअ न गलथेथरु अपना खोता से।





Thursday, 17 June 2021

तनहा चाँद

 कब तक जगता चाँद गगन में,

तनहा था, वह सो गया।

थक गई आंखे, अपलक तकती,

सूनेपन में खो गया।


किन्तु सपनों में भी उसकी,

प्रीता पल-पल पलती थी।

मन के सूनेपन में उसके,

धड़कन बन कर ढलती थी।


आएगी सुर ताल सजाकर,

राग प्यार का गायेगी।

अभिसार घनघोर घटा बन,

साजन पर छा जाएगी।


मन का आँगन इसी अहक में,

मह-मह महका जाता।

खिली कल्पना की कलियों में,

मन साजन इठलाता।


बाउर बयार भी बह-बह कर,

पत्तों में झूल जाती।

विस्फारित वनिता की अलकें,

हसरत में खुल जाती।


चूनर चाँदनी का चम-चम,

चकवा-चकई सब  नाचे।

कुंज लता में कूके कोयल,

पपीहा पीहु-पीहू बांचे।


चंदन में लिपटी नागिन भी,

प्रीत सुधा फुफकारे।

अवनि से अम्बर तक प्राणी,

प्यार ही प्यार पुकारे।


सागर के मन में भी लहरें,

ले-ले कर हिलकोरे।

सूखे शून्य-से सैकत तट में,

भाव तरल झकझोरे।


देख प्रणय के पागलपन को,

बादल भी हुआ व्याला।

घटाटोप घनघोर जलद को,

अम्बर घट में डाला।


निविड़ तम के गहन गरल ने,

धरती पर डाला डेरा।

विरह वेदना की बदरी में,

चाँद का मुँह भी टेढ़ा।


उष्ण तमस का तिरता वारिद,

धाह अधर का धो गया।

कब तक जगता चाँद गगन में,

तनहा था, वह सो गया।












Thursday, 10 June 2021

अहंकार

 जमीन से उठती दीवारों

ने भला आसमान कहीं बांटा है!

या अहंकार के राज मिस्त्रियों ने

कभी हवाओं को काटा है!

भेद की भित्तियों के वास्तुकार! 

दम्भ के शोर-गुल में तुम्हारे

 सिमटा जा रहा समय का सन्नाटा है।

तू-तू, मैं-मैं की तुम्हारी 

तुरही की तान ने

हमेशा जीवन के संगीत 

 व लय को काटा है।

ज्वार में अहंकार की

धंसती फुफकारती भंवर-सी

तुम्हारी क्षुद्रता की भाटा है।

उठो, झाड़ो धूल अपने अहं की,

गिरा दो दीवार और महसूसो,

अपनी धरती की एकता को।

एक ही आसमान के नीचे।

Saturday, 5 June 2021

एक ऋषि से साक्षात्कार


( विश्व पर्यावरण दिवस पर पुनः प्रस्तुत)




(मैगसेसे पुरस्कार
, पद्मश्री और पद्मभुषण अलंकृत, चिपको आंदोलन के प्रणेता, प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद और अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री चंडी प्रसाद भट्ट को समर्पित उनसे पहली मुलाकात का संस्मरण)




पोथियों में ऋषियों की गाथा पढ़ता  आया हूँ। उनके आर्ष अभियानों में आकर्षण का भाव होना स्वाभाविक है। मन करता, किसी ऐसे पुरोधा से साक्षात्कार हो और यह जन्म कृत्य-कृत्य हो जाय!  विगत  दिनों एक ऐसे ही मनीषी के दर्शन हुये जिनसे बातचीत के क्रम में ऐसा आभास  हुआ मानों जेठ की तपती दुपहरी में किसी सघन वृक्ष की छाया में उनकी अमृत वाणी की शीतल बयार का झोंका मेरे मन प्रांतर को गुदगुदा रहा हो! ये युग पुरुष थे – 'चिपको' आंदोलन के प्रणेता, श्री चंडी प्रसाद भट्ट जी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्वी क्षेत्र मुख्यालय, पटना  केंद्र के चौदहवें स्थापना दिवस (२२ फरवरी २०१४)  पर मेरी मुलाकात रात्री भोज में उनसे हुई। माननीय निदेशक महोदय ने हम दोनों  का परिचय करा अपने कक्ष में हमें बड़ी आत्मीयता से बिठाया।
औपचारिक परिचय के उपरांत थोड़ी ही देर में  बातचीत की मिठास में ऐसे घुल गये मानों  उनसे हमारा दीर्घ परिचय रहा हो। उत्तराखंड के गोपेश्वर के इस संत में योगेश्वर की छवि भाषित हो रही थी। पर्यावरण प्रकरण पर उनके प्रकांड पांडित्य पर मन लट्टु हो रहा था। प्रकृति के प्रत्येक परमाणु मे पल-पल पलनेवाली  परिवर्तन की प्रक्रिया,  पर्यावास पर उसकी प्रतिक्रिया और इसके प्रतिगामी प्रभाव से उनका संगोपांग परिचय उनके विद्वत-व्यक्तित्व की विराटता बखान रही थी।
बातचीत की शुरुआत ग्लेशियर के उर्ध्व-विस्थापन विषय से हुई। ग्लेशियर का ऊपर  की ओर  सिमटना उनसे निःसृत नदियों  के अस्तित्व के विगलन के खतरे की घंटी है। अगर यह चलन जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं  जब हमारी विरासत  को ढ़ोने वाली विशालकाय नदियाँ कृशकाय बरसाती नाले का रुप ग्रहण कर लें। यमुना नदी में होनेवाले ह्रास पर मेरा मन अनायास चला गया जिसका स्वरूप दिल्ली में  कमोवेश नाले की तरह ही है।  और तो और, शहर के गटर के गंदे जल और कारखानों से उत्सर्जित अवशिष्टों को समाहित करने के पश्चात तो कालिंदी अपने भाई यमराज के साथ  ही विचरण करती प्रतीत होती है।
ग्लेशियर के उपर खिसकने से ऐसे प्रदेश में पनपने और पलने वाले जंतु भी ऊपर  की ओर सिमटते चले जायेंगे। रिक्त स्थान मे वनस्पतियों का उद्भव होगा जिससे हिमखंडों के उर्ध्व-गमन को और गति मिलेगी और  पर्यावासीय पतन को बल मिलेगा। ढ़ेर सारी प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का संकट गहरा जायेगा। उन्होने उदाहारण के तौर पर हिम प्रदेश में रहने वाले याक और एक विशेष प्रकार के चूहे का भी उल्लेख किया।
ग्लेशियल-शिफ्ट तो ऐसे एक वैश्विक घटना है, किंतु दक्षिण एशिया और मुख्यतः हिंदुस्तान की सभी प्रमुख नदियों का अस्तित्व अपने उद्गम-स्थल हिमालय की हलचलों से ज्यादा प्रभावित होता है। गंगा और ब्रह्मपुत्र भारत को जलपोषित करने वाली सबसे बड़ी नदियाँ  हैं, जिसमें  गंगा की भागीदारी २६% और ब्रह्मपुत्र की भागीदारी ३३% है। ग्लेशियर के उपर खिसकने का प्रभाव साफ-साफ इन नदियो में दिखने लगा है और अब ये बरसाती नदियों  की तरह व्यवहार करने लगी हैं।  उत्तराखंड की तुलना में नेपाल  का हिमालय बिहार से नजदीक है जहां से निकलने वाली तमाम नदियाँ  बरसात मे बाढ़ का कहर ढा रही हैं।  कोशी की  प्रलय-लीला  इस प्राकृतिक विपर्ययता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। माउंट एवरेस्ट के उत्तर में कोशी की उद्गम-स्थली है। नेपाल मे वनों की कटाई का दुष्प्रभाव सीधे-सीधे वहाँ  के ग्लेशियरों पर पड़ता है।  और, सच तो यह है कि प्रकृति हमारे दंश से ज्यादा अभिशप्त है जिसे समय-समय पर अपने प्रकोपों के रुप में हमें चुकता  कर  रही है। इस बात को भली-भाँति  समझने का माकूल मौका आ गया है। क्षेत्रों को सदाबहार बनाये रखने में ग्लेशियर की अहम भूमिका है। इस हकीकत से अब और मुंह  मोड़ना मारक साबित  हो  सकता है। इसलिये इस तथ्य पर और अध्ययन एवम संधान की आवश्यकता है। यदि सही वक्त पर समुचित कदम उठा लिये जायें तो केदारनाथ जैसी घटनाओं को रोक न सही , कम-से-कम उनकी मारक क्षमता पर  तो अंकुश लगाया ही जा सकता है। नदियों के सिकुड़ने का धरती की जल-धारण-क्षमता पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
बात बढ़ते-बढ़ते नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना पर आ गयी। इस योजना पर उन्होनें सतर्कता बरतने की सलाह दी। बरसात में तो बात बन जायेगी, परंतु असली समस्या तो गर्मियों की है जब पीने के पानी के भी लाले पड़ जाते हैं। उन्होने कर्नाटक और तमिलनाडु के जल विवाद की ओर ध्यान खींचा। मैंने उनका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया कि एक ही मौसम में जब बिहार की नदियाँ  उफनती रहती हैं,  बिहार के ही कुछ भाग और झारखंड की धरती सूखे से दरकती रहती है। तो, क्यो नहीं नदियों मे बहने वाली जलराशि का एक समेकित क्षेत्रीय नक्शा तैयार किया जाय और एक क्षेत्र की अतिरिक्त जलराशि को जलहीन क्षेत्रों में  ले जाया जाय?  उनका मंतव्य था कि जब नदियों को जोड़ने के लिये भूमि के सतह पर या भूमिगत जलमार्ग बनाये जायेंगे तो उस मार्ग से जल का प्रवाह होगा जो कभी सूखे थे। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र के पर्यावरण एवम पर्यावास पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखना होगा। साथ ही, विस्थापन की सामाजिक त्रासदी से निपटने की ठोस रुपरेखा तय करनी होगी। फिर, अतिरिक्त जलराशि को परिभाषित करते समय जल बहुल क्षेत्र के पीने के पानी और सिंचाई की स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा।
स्थानीय जल प्रबंधन की आवश्यकता के संदर्भ में उन्होनें बिहार  का विशेष उल्लेख करते हुए इसके कुप्रबंधन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जल के समुचित प्रबंधन के आलोक  में समझाया। १८५७ में गंगा नहर के निर्माण के उपरांत सिंचाई की समुचित व्यवस्था से वहां की भूमि हरी-भरी हो गयी और मेरठ , मुज़फ्फरनगर एवम पड़ोसी क्षेत्रों के किसान करोड़पति! ठीक इसके उलट बिहार में  प्रचुर उर्वरा शक्ति की माटी और जल का अकूत भंडार होने के बावजूद यहां के किसानों के पास सिर्फ बदहाली और गरीब मज़दूरों का पलायन!  गंगा नहर में गंगा के पानी को स्थानीय उपयोग में ले लिये जाने के बाद तो इस नदी की हालत कानपुर से लेकर इलाहाबाद और कमोवेश वाराणसी तक तो पतली ही रहती है।  बिहार में आने तक ढेर सारी नदियों  का समागम गंगा के हिस्से आ जाता है और वह गर्भवती ललना के लावण्य से लबरेज़ हो जाती है। यहां आते-आते उसे घाघरा से २०%, यमुना से १६% और गंडक से ११% की अतिरिक्त जलराशि  प्राप्त  हो  चुकी  रहती है। इसके अलावे पुनपुन, सोन एवम अन्य जलधाराओं  का  भी  सान्निध्य इसे प्राप्त होता है। कुल मिलाकर ५०% अतिरिक्त जलराशि का कोष होता है बिहार में गंगा की गोद में। फिर, देश की समूची बेसीन का कोशी का बेसीन १% है जबकि कोशी की जलराशि  १३%। अब जल के इस अक्षय कोष के बावजूद जल कुप्रबंधन से शापित इस प्रदेश और इसके कृषकों की कहानी करुणा से सिंचित है। दूसरी तरफ,  नहरों का जाल बिछा जल के समुचित प्रबंधन से पाँच नदियों का प्रदेश, पंजाब, अपनी कृषि उपलब्धियों के कसीदे काढ़  रहा है। इसलिये इस बात पर बल देने की जरुरत है कि पहले स्थानीय कमी की पुर्ति की जाये फिर अतिरिक्त जल को परिभाषित कर विस्थापन और वातावरण, पुनर्वास और पर्यावास इन सभी तथ्यों को ध्यान में  रखकर इस महत्वाकांक्षी योजना पर अमल किया जाय। उन्होने इस संदर्भ में  शासन की लापरवाही पर खेद जताया।  कुल १८ नहरों में  बिहार के हिस्से मात्र दो या तीन नहरे हैं। अगर यहाँ  नहरों का जाल बिछा रहता तो पंजाब के खेतों में काम करने  के  बजाय बिहार के लोग अपने ही  खेतों  में  काम  क्यो  नहीं करते? हालांकि इस  बात पर उन्होनें गर्व करने  से  गुरेज नहीं किया कि लोग बाहर  देश-विदेश  जायें  और सम्मानजनक पदों पर काम करें।  उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां भागीरथीगंगा और अलकनंदा जैसी नदियां ३००० मीटर की ऊँचाई पर बहती हैं जबकि सिंचाई के क्षेत्र ६००० मीटर की ऊँचाई तक अवस्थित हैं,  वहां १४% सिंचित क्षेत्र की बात तो पचाई जा सकती है लेकिन बिहार में  तो शत प्रतिशत से नीचे बात नहीं  बनती।
बाढ से जुड़े इंजीनियरिंग पक्षों पर उन्होने बडे मनोयोगपुर्वक मेरी राय जानी।  नदियों की तलहटी मे  गाद के निरंतर जमाव से होने वाले दुष्प्रभाव को मैंने उनके समक्ष रखा. गाद  के  जमा होने से नदियों की गहराई घटती है और त्रिज्या के बढ़ने से जलधारा घटे हुए  यानि कम  क्रांतिक वेग पर ही अपने समरेखीय प्रवाह को छोड़कर आराजक (टर्बुलेंट) हो जाती है और तटीय मर्यादाओं का अतिक्रमण करती बाढ के रुप में अपनी वीभत्सता परोसने लगती है। कभी-कभी अपनी अनुशासनहीन अल्हड़ता में आकुल जल-संकुल भुगोल भी बदल  देता  है। बाढ़ में इस गाद का परिमाण और  बढ़ जाता है। इस तरह बाढ़  एक ऐसा प्राकृतिक कैंसर है जो अपने साथ अपने भविष्य को भी लेकर आती है।  जरुरत इस बात की है कि गाद को काछा जाय और नदियों को गहरा बनाया जाय। पनामा और  स्वेज नहरों  में ऐसी व्यवस्था है। काछे गये गाद को किनारों पर पसारा जाय। इस उर्वर गाद  में सघन वन लगाये जायें।
उन्होनें उत्साहित  स्वर में गहरी बना दिये जाने के उपरांत नदियों को जल परिवहनके माध्यम के रुप मे विकसीत किये जाने पर भी जोर दिया। किंतु साथ ही मनीषी के आर्ष वचन में नैराश्य भाव गुंजित हुए – “ इसके लिये प्रबल राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है जो यहां दिखता नहीं है।  स्थानीय स्तर पर छोटी बड़ी ऐसी नहरें जिनके तल एवम सतह पक्के नहीं हैं ( अनलाइंड कैनल),  उनसे भी गाद निकालने के काम को प्राथमिकता दी  जानी चाहिये। मनरेगा जैसे कार्यक्रमों में समुचित नियोजन ऐसे ही उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु होने चाहिये।  उन्होनें लोगों में जल संचयन, जल के सदुपयोग एवम जल को संसाधन के रुप मे विकसित करने के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता को प्राथमिकता देने पर बल दिया। दिन-ब-दिन इस क्षेत्र में  आम जनों की बढ़ती रुचि  और  जागरुकता पर उन्होनें  संतोष तो व्यक्त किया, किंतु शासन के  स्तर  पर दृष्टिगोचर उदासीनता पर अवसाद प्रकट  किया।
प्राकृतिक त्रासदियों की ये विडम्बना है कि वो मानव शरीर और उसके अवयवों की तरह समग्रता में  आचरण  करती हैं।  जैसे पेट के  गैस से सिर में दर्द हो सकता है , वैसे ही एक क्षेत्र के लोगों की गलती का खामियाजा दूसरे क्षेत्र में घटित प्राकृतिक त्रासदी के  रुप  में भुगतना पड़ सकता है। इसलिये  पर्यावरणीय असंतुलन की उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख अवस्था को समेकित रुप में समझने और  हल करने की आवश्यकता है।
हम दोनों बातचीत में तल्लीन थे। इसी बीच खाने की बुलाहट आ गयी और हमने अपनी बात को विराम  दिया। इस महान तपस्वी के सान्निध्य में ऐसा  प्रतीत  हो  रहा  था  मानों उनके विचार-प्रसूत ऋचाओं की चिन्मय ज्योति में मन चैतन्य हो उठा हो और उनकी मृदुल वाणी के प्रांजल प्रवाह से अंतस सिक्त हो गया हो। भोजन की मेज पर हमने बिहार की मिथिला संस्कृति की मिठास की चर्चा की। विदा लेने का वक्त आ गया था।  बड़े अपनेपन से हमने अपने चलभाष क्रमांक की अदला-बदली की और फिर मिलने की आशा जगाकर प्रणाम निवेदित किये।
------------------------------  विश्वमोहन





Tuesday, 1 June 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३

(भाग – २२ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (न)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत 

शुरुआती दौर में प्रोटो-भारोपीय शाखाओं पर प्रोटो-यहूदी प्रभाव के अपने दावे को मज़बूत करने के सिलसिले में गमक्रेलिज और इवानोव ने ऐसे सत्रह सम्भावित ‘शब्द-ऋणों’ की सूची बनायी है जो यहूदी से अनुदान स्वरूप आए हैं। इन शब्दों की भारोपीय शाखाओं की बोलचाल में सीमित प्रचलन के लक्षणों के आलोक में मैलरी और आडम्स ने इस सूची को और संघटित कर चार भागों में संक्षिप्त कर दिया है और ये महत्वपूर्ण तुलनाएँ इस प्रकार हैं :

प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ (शहद) : प्रोटो-यहूदी ‘*म्वतक-‘ (मीठा)

प्रोटो-भारोपीय ‘*टौरोस-‘ (जंगली साँड़) : प्रोटो-यहूदी ‘*टाव्र-‘ (साँड़, बैल)

प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ (सात) : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम- (सात), और 

प्रोटो-भारोपीय ‘*वोईनोम-‘ (वाइन) :प्रोटो-यहूदी ‘*वायन-‘ (वाइन) (मैलरी-आडम्स २००६:८२-८३)।


इसमें से तीन तुलनाएँ ऐसी हैं जो समानताओं का अद्भुत संजोग दिखाती हैं। शहद अर्थ वाले प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ और मीठा अर्थ वाले प्रोटो-यहूदी शब्द ‘*म्वतक-‘ के बीच की तुलना तो हम पहले ही देख चुके हैं। ठीक उतनी ही गले नहीं उतरने वाली सात (प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम-‘) वाली तुलना है कि यह बात समझ में नहीं आती है कि दोनों परिवारों ने सात के लिए एक ही शब्द का ऋण एक दूसरे से कैसे ले लिया? उसमें भी तब जब यहाँ पर इस बात की वकालत करने वालों के समक्ष  प्रोटो-भारोपीय और प्रोटो-औस्ट्रोएशियायी संख्या प्रणाली के पहले चार अंकों की एक अत्यंत विश्वसनीय तुलना  रखी जाती है तो उसे वह सिरे से नकार देते हैं। [{प्रोटो-भारोपीय - *सेम, *द्वोउ/द्वय, *त्रि और क्वेत्वोर : टोकारियन –‘सस’/’से’ (एक), रोमानियन – ‘पत्रु’ (चार), वेल्श – ‘पेडवर’ (चार)} और  प्रोटो-औस्ट्रोएशियन { ‘*एस’, ‘*देव्हा’, ‘*तेलु’ और ‘*पति’/’*एपति’ :मलय ‘स’/’सतु’ (एक), ‘दुअ' (दो), ‘तिगा’ (तीन), ‘एपत’ (चार)}]

परंतु, अन्य दो शब्द ऐसे हैं जो भारोपीय भाषा में यहूदी शब्दों के लिए जाने की कहानी को पक्के तौर पर साफ़ कर देते हैं। लेकिन वह भी तब, जब अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय भाषा अभी अपने उद्भव के प्रारम्भ काल में ही थी! तो चलिए इस स्थिति की भी हम जाँच कर लेते हैं :

प्रोटो(आद्य)-यहूदी शब्द ‘*टाव्र’ (साँड़, बैल) सभी प्रमुख यहूदी भाषाओं में अपना स्थान पाता है – अक्कडियन (‘शुर’), युगारिटिक (‘त्र’), हीब्रू (‘शोर’), सीरियायी (‘तव्रा’), अरबी (‘टाव्र’), दक्षिणी अरबी (‘ट्व्र’)।

जहाँ तक भारोपीय भाषाओं की बात है, वहाँ इसकी उपस्थिति इस प्रकार है – इटालिक (लैटिन ‘तौरस’), सेल्टिक (गौलिश ‘तर्वोस’), आइरिश (तर्ब), जर्मन ( पुरानी आइसलैंड की बोली ‘पज़ोर्र’), बाल्टिक (‘ताऊरस’),  स्लावी (पुरानी स्लावी ‘तरु’), अल्बानी (‘तरोक’), और ग्रीक अर्थात यूनानी (ताऊरोस)। ‘साँड़’ के लिए कोई हित्ती शब्द उपलब्ध नहीं है क्योंकि यह एक ऐसी यहूदी चित्रलिपि द्वारा निर्दिष्ट होती है जिसका हित्ती अनुवाद नहीं पढ़ा जा सका है (गमक्रेलिज १९९५ :४८३)। अर्मेनियायी भाषा ने ‘साँड़’ के लिए एक कौकेसियन  शब्द (‘त्सुल’) उधार ले रखा है। संक्षेप में कहें, तो हमें यहाँ फिर से एक बार पश्चिमी शाखाओं पर ही यहूदी प्रभाव दिखायी पड़ता है, जबकि भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन, इन तीनों पूर्वी शाखाओं में यहूदी प्रभाव के लेशमात्र भी लक्षण नहीं दिखते। एक बार फिर से यह दृष्टांत भारतीय-यूरोपीय (भारोपीय) शाखाओं के पूरब से पश्चिम की यात्रा की कहानी को ही कहता है। 

‘शराब’ (वाइन) शब्द से संबंधित साक्ष्य तो ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ केलिए और अधिक प्रतिघाती है। यह शब्द या तो एक यहूदी ‘शब्द-ऋण’ है या फिर एक ‘पुरातन अप्रवासी प्राच्य’ शब्द के आस-पास है (गमक्रेलिज १९९५ : ५५९)। यह यहूदी और दक्षिणी कौकेसियन, दोनों भाषाओं में पाया जाता है।

यहूदी भाषा – ‘*वायन-‘, अक्कडियन (‘*ईनु-‘), युग्रेटिक (‘*यं-‘), हीब्रू (‘*यायीं-‘) हमीटिक-मिस्त्र (‘*वंश-‘)।

दक्षिणी कौकेसियन – ‘*विनो-‘ (वाइन), जौरजियन (‘*विनो-‘), मिंग्रेलियन (‘विन’), पुराने जौरजियन (वेनाक)।

गमक्रेलिज ने ट्रान्स-कौकेसस क्षेत्रों में अंगूर की खेती और शराब बनाने की तकनीक के विकास की भी चर्चा की है (गमक्रेलिज १९९५:५६०)। हालाँकि, वह यह भी मानते हैं कि प्रोटो-भारोपीयों ने इस शब्द का इजाद पश्चिमी-एशिया और ट्रान्सकौकेसस क्षेत्रों में ही किया।

अब चाहे यह मूल रूप से यहूदी शब्द हो या कौकेसियन शब्द, इसका भूगोल निस्सन्देह पश्चिम एशिया और ट्रान्स-कौकेसियन क्षेत्रों का ही भूगोल है। 

और फिर – 

१ – यह शब्द पूरब की तीनों शाखाओं, भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन में नहीं पाया जाता, जबकि पश्चिम की सभी नवों शाखाओं में पाया जाता है।

२ – स्वर-साधना (वोकालिज़्म) के दृष्टिकोण से पश्चिम की नवों शाखाओं में पाए जाने वाले इस शब्द की तीन श्रेणियाँ हैं (गमक्रेलिज १९५५:५५७-५५८)।  ‘*वीयोनो-‘ में स्वर-साधना शून्य स्तर का है,  ‘*वेनो-‘ में स्वर-साधना ‘ए’ स्तर का है, ‘*वोईनो- में स्वर-साधना ‘ओ’ स्तर का है। ये सभी भारीपीय शाखाओं के कालानुक्रमी समूह हैं :

क – शुरू की शाखाएँ जो पश्चिम की ओर चली गयीं, उनमें शब्दों की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – अनाटोलियन (वीयोनो), हित्ती (वियन), लुवियन (विनियंत), हाईराटिक लुवियन (वीयन)।

ख – पाँच पश्चिमी शाखाओं में इस शब्द की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – वीयोनो : इटालिक (लैटिन ‘उईनुम’), सेल्टिक (पुरानी आइरिश ‘फ़िन’, वेल्श ‘ज्विं’), जर्मन (जर्मन ‘वेन’ और अंग्रेज़ी ‘वाइन’), बाल्टिक (लिथुयानियन ‘व्यंस’, लात्वियन ‘वींस’), स्लावी (रूसी ‘विनो’, पोलिश ‘विनो’)

ग – तीन अंतिम शाखायें जो पश्चिम की ओर चली गयीं उनमें  इस शब्द की व्युत्पति का विज्ञान इस प्रकार है – ‘*वोईनो-‘ : ग्रीक अर्थात यूनानी (माइसेनियन ग्रीक ‘वो-नो’, होमेरिक ग्रीक ‘ओईनोस’), अल्बानी (वीन), अर्मेनियायी (जिनी)।

पश्चिम की ओर बढ़ाने के क्रम में भारोपीय शाखाओं के तीनों समूह में अलग-अलग प्रकार के शब्दों का इजाद हुआ, जबकि जो शाखाएँ पूरब में ही रुक गयीं, उनमें किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ।


७ – घोड़ों का साक्ष्य  

अब हम उन सबूतों अर्थात ‘घोड़ों’ की बात कर लें जिसे दक्षिणी रूस के मैदानी भाग को आर्यों की मूल भूमि मानने की अवधारणा के प्रबल पक्षकार अपना अचूक और अमोघ अस्त्र मानते हैं, हालाँकि उनका यह हथियार भी तर्कों की टकसाल पर काग़ज़ी घोड़ा-सा ही है। सही मायने में  दोनों  पक्षों के बीच इतने बड़े-बड़े और निरर्थक दावे, सिद्धांतों और अवधारणाओं की बौछार तथा आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला है कि सबसे पहले हमारे लिए भी यही उचित होगा कि हम भली-भाँति तथ्यों की गहराई से पहले जाँच-परख कर लें, फिर इसकी विवेचना करें।  कुल मिलाकर तीन ऐसी बातें है जो हर तरह के विवादों से ऊपर उठकर है।

१ – प्रोटो-भारोपीय लोगों को घोड़े के बारे में जानकारी थी और घोड़े का सजातीय शब्द कमोवेश प्रत्येक शाखा में पाया जाता है : प्रोटो भारोपीय ‘*एख्वोस’, अनाटोलियन (हाईरेटिक लुवियन) ‘आ-सु-व’, टोकारियन ‘युक/यक्वे’, भारतीय-आर्य (वैदिक) ‘अश्व’, ईरानी (अवेस्ता) ‘अस्प’, अर्मेनियायी ‘एश’ (खच्चर), ग्रीक या यूनानी (माइसेनियन) ‘इको’, (होमेरिक) ‘हिप्पोस’, जर्मन (पुराने अंग्रेज़ी) ’एओह’, (गोथिक) ‘ऐहवा’, सेल्टिक (पुराने आइरिश) ‘एच’, (गौलिश) ‘एपो-‘, इटालिक (लैटिन) ‘एक़ूस’ और बाल्टिक (लिथुयानियन) ‘एश्व’। यह भी एक संयोग ही है कि जिस एकमात्र शाखा में यह शब्द नहीं मिलता है वह है दक्षिणी रूस के उसी मैदानी भाग में बोली जाने वाली भाषा, स्लावी। और अल्बानी भाषा में भी इसका कोई सजातीय शब्द अब नहीं बचा है। लेकिन यह बात तो साबित हो जाती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय लोग घोड़े से बड़ी अच्छी तरह परिचित थे और यहीं वह समय भी था जब भिन्न-भिन्न शाखाएँ उस मूलभूमि से भिन्न-भिन्न दिशाओं में छिटकने लगी थीं। 

२ – ग्रंथो के पूरे रचना-काल के दौरान वैदिक लोगों को घोड़े की पूरी जानकारी थी।

३ – भारत घोड़ों का पुश्तैनी वतन तो नहीं था लेकिन उनका यह वतन उत्तरी यूरेशिया के एक वृहत क्षेत्र में फैला था जो पश्चिम में दक्षिणी रूस के मैदानी भाग से लेकर पूरब में मध्य एशिया तक था।

सामान्य तौर पर पहली दो बातों पर कोई विवाद नहीं है। बस तीसरी बात को ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के विरोधी नहीं स्वीकारते हैं। उनका विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित घोड़े मैदानी भागों के उत्तरी घोड़े नहीं हैं, बल्कि देशी प्रजाति के हैं। इस सम्बंध में वे शिवालिक में मिलने वाले ‘एक़ूस सिवालेंसिस’ प्रजाति की चर्चा करते हैं जो प्राचीन काल में उत्तर भारत में पायी जाने वाली तगड़े घोड़ों की एक प्रजाति थी। यह माना जाता है कि ८००० ईसापूर्व या इसके आसपास यह प्रजाति विलुप्त हो गयी। ऋग्वेद के १/१६२/१८ और शतपथ ब्राह्मण के १३/५ में ऐसे घोड़े की बलि की चर्चा है जिसकी पसलियों की ३४ हड्डियाँ  थीं। आम तौर पर घोड़ों की पसली में ३६ हड्डियाँ होती है लेकिन शिवालिक क्षेत्र के घोड़ों की कुछ क़िस्मों में ३४ हड्डियाँ होने की बात भी मिलती है। इसी बात को वैदिक युग  में भारत में शिवालिक-घोड़ों के होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जहाँ तक इनके जीवाश्मों से संबंधित साक्ष्य का सवाल है तो असली घोड़ों का भी जिस काल और जिस क्षेत्र में बहुतायत में होने की बात कही जाती है, उन दोनों स्थितियों में ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। इसी आधार पर शिवालिक घोड़ों के संदर्भ में भी जीवाश्म संबंधी साक्ष्यों को अप्रासंगिक कहकर टाल दिया जाता है। ऐसा भी सम्भव है कि ‘*एखोव-‘ शब्द किसी समान प्रजाति के पशु के लिए प्रचलित हो। ये पशु बहुत तेज़ भागने वाले ओनगा या खच्चर जैसे जंगली गदहों की प्रजाति के हो सकते थे जो अधिकांशतः पुरातन क़ालीन उत्तर भारत में पाए जाते थे और आज भी कच्छ और लद्दख के शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं। साथ ही ऋग्वेद में यदा-कदा ‘अश्व’ शब्द का प्रयोग सवारी करने वाले पशु के रूप में हुआ है न कि उन घोड़ों के लिए जो रथ खिंचते थे। चौथे मंडल के ३७/४ में ‘मोटा अश्व’ का निहितार्थ हाथी हो सकता है जब कि ‘दाग़धारी अश्व’ का संकेत मरुत के रथ की ओर है। निश्चित तौर पर इस रथ का मतलब ‘दागधारी हिरण’ से ही लिया गया है। १/(८७/४, ८९/७, १८६/८), २/३४/३, ३/२६/६, ५/४२/१५ और ७/४०/३ के उल्लेखों से हालाँकि  यहीं प्रतीत होता है कि धारीदार ‘घोड़े’ का दागधारी ‘हिरण’ में काव्यातक रूपांकन हो गया है। ३४ हड्डियों वाली ये तमाम बातें पक्के तौर पर न केवल अत्यंत रोचक हैं, बल्कि  और अधिक छानबीन भी किए जाने लायक़ है।  फिर भी तर्कों की इस रोचकता को फ़िलहाल हम तिलांजलि देकर अभी मैदानी भाग के उन असली घोड़ों पर गहरायी से अपनी नज़रें टिकाएँगे जिनका मादरे वतन हिंदुस्तान की ज़मीन नहीं था। 

घोड़ों से संबंधित ऊपर के तीनों तथ्यों के आधार पर ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल लेते हैं :

 चूँकि न तो हड़प्पा से मिली मुहरों में घोड़ों की कोई उपस्थिति है और न ही हड़प्पा की खुदायी में घोड़ों की हड्डियाँ मिली है, इसलिए यह तय है कि आर्यों के आगमन से पूर्व न तो भारत में घोड़ों की उपस्थिति थी और न ही भारत के लोगों को घोड़ों के बारे में कोई जानकारी थी। इसी आधार पर यह भी तय है कि हड़प्पा की सभ्यता ‘अनार्यों’ की सभ्यता थी और ये आर्य ही थे जो दक्षिण रूस के मैदानी भागों की अपनी मूल भूमि से घोड़ों को लेकर भारत आए। उदाहरण के तौर पर हॉक इसे कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं कि ‘कुछ छोटी-मोटी बातों पर भले ही असहमति हो लेकिन भारोपीय भाषा विज्ञान और जीवाश्मिकी से जो भी परिचित हैं वे इस बात को मानते हैं या फिर यूरेशिया में जो भी  पुरातात्विक सबूत मिले हैं उनसे भी इसी बात का  संकेत  मिलता है कि यूक्रेन के मैदानी भागों से ही पालतू घोड़ों का और साथ-साथ युद्ध में प्रयोग होने वाले घोड़ों से खींचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों का प्रचलन फैला। पुरातन भारोपीय संस्कृति और धर्मों में घोड़ों का बड़ा अहम स्थान है। यूरेशिया के पुरातत्व और भारोपीय ज्ञान की विशेष जानकारी रखने वाले विद्वानों की इसलिए इस बात पर पूरी सहमति है कि भारतीय-आर्यों के आने के साथ-साथ ही घोड़े से संबंधित इन सारे लक्षणों का भारत में फैलाव हुआ।‘ (हॉक १९९९अ :१२-१३)

समूचे ‘आर्य’ विवाद में उपरोक्त निष्कर्ष से ज़्यादा धोखा देने वाली और भ्रम पैदा करने वाली कोई दूसरी बात नहीं हो सकती।

१- पुराने ज़माने में घोड़े भारत में नहीं पाए जाते थे, किंतु अफगानिस्तान के उत्तर मध्य एशिया में मिलते थे। आज तक जो स्थिति बनी हुई है, उसके अनुसार दुनिया में पूरी तरह से पालतू बना लिए गए घोड़ों का पहला सबूत कजकस्तान की बोटाई संस्कृति में मिलता है। इसके मिलने का काल भी उस समय से १००० साल और पहले चले जाता है जिस काल में इनके पाए जाने की मान्यता है। क़रीब ३५०० ईसापूर्व की यह बोटाई संस्कृति पूरी तरह से घोड़ों के प्रजनन की संस्कृति का काल था, जब घोड़ों की नस्लों का जनन होता था, उन्हें दूहा जाता था और फिर उनसे छुटकारा भी पा लिया जाता था। ( उत्खनन क्षेत्रों से प्राप्त जबड़ों की हड्डियों और दाँतों के परीक्षण से यही पता चलता है कि लगाम और नाल भी उस समय चलन में थे।)

यदि थोड़ी और गहरायी से देखें तो इस बात के प्रबल साक्ष्य मिलते हैं कि उससे भी पुराने समय में अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर उज़्बेकिस्तान में घोड़ों को आदमी की बस्तियों में भली-भाँति पाला जाता था और उनसे घरेलू काम लिए जाते थे। संदर्भ लसोटा-मोसकलेवस्का २००९ (अ प्रॉब्लम औफ द अर्लीएस्ट हॉर्स डोमेस्टिकेशन: डाटा फ़्रोम द नियोलीथिक कैम्प अयकाज्ञतमा ‘द साइट’, उज़्बेकिस्तान, सेंट्रल एशिया पृष्ट १४-२१, अर्कियोलौजिया बाल्टिका खंड -११, कलैपेडा विश्वविद्यालय, लिथुयानिया २००९)।  

बुखारा शहर से क़रीब १३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित उत्खनन-स्थल से प्राप्त सामग्रियों की पुरातत्व एवं पुराजंतु विज्ञानियों ने बड़ा गहन वैज्ञानिक परीक्षण किया है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर विकास की दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है –

 पहला चरण है प्रारम्भिक नव पाषाण काल। कार्बन समस्थानिक १४  के आधार पर यह काल अंशांकित ८०००-७४०० साल  पूर्व (ca 8000-7000 cal. BP) का है। 

दूसरा चरण है अंशांकित ६०००-५००० साल पूर्व (ca 6000-5000 cal. BP)। आगे बढ़ने के पहले हम आपको समस्थानिक कार्बन १४ के आधार पर अंशांकित काल cal BP (Before  Present) के बारे में बता दें कि काल गणना की इस पद्धति में १४ परमाणु भार वाले समस्थानिक कार्बन परमाणु के किसी वस्तु में बचे अवशेष के आधार पर उसकी आयु निकालने की कार्बन-डेटिंग पद्धति के आविष्कार हो जाने पर एक मानक तिथि, एक जनवरी १९५०, से पूर्व के समय को इस अंशांकित पैमाने पर व्यक्त किया जाता है।

   स्थल के बाढ़ से प्रभावित होने के कारण इस काल गणना में १५०० वर्षों तक के अंतराल का अनुमान भी हो सकता है। इस काल के जानवरों के बड़ी मात्रा में अवशेष इस स्थल से प्राप्त हुए हैं जो नव पाषाण युग की परतों से निकले हैं। अस्थि और दाँतों के अवशेषों के मामलों में घोड़ों की उपस्थिति यहाँ काफ़ी अहम रही है। सबसे पुरानी परतों से प्राप्त अवशेषों में तीस से चालीस प्रतिशत अश्ववंश (equidae family) के ही अवशेष हैं। नव पाषाण युगीन अन्य यूरेशियायी स्थलों की तुलना में यह संख्या अपने आप में अनूठी है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१४-१५)। अश्व वंश के अवशेषों की बहुत अधिक मात्रा (यहाँ तक कि कहीं-कहीं ४१ प्रतिशत से भी अधिक अवशेष अश्व-वंश के ही हैं), उनके कंधों की ऊँचाई और खुरों की चौड़ाई जैसे अनेक  ढेर सारे कारकों और सबूतों के आधार पर यहीं स्थापित होता है कि ये अवशेष किसी ऐसे जानवर के हैं जिनकी ऊँचाई आम जंगली जानवरों की औसत ऊँचाई से काफ़ी अधिक होती थी। बहुत हद तक इनकी आकृति  पालतू घोड़ों से मिलती जुलती थी। इन अश्ववंशी जानवरों के साथ-साथ पालतू स्तनपायी अन्य जानवरों यथा – भेड़, बकरी, सुअर और कुत्तों के जीवाश्म के अवशेष भी इन स्थलों से निकाले गए हैं। ये सारे तथ्य इसी बात को स्थापित करते हैं कि घोड़े मध्य एशिया के निचले भागों में नव पाषाण काल के प्रारम्भ से ही पाले जाने लगे थे और यह काल ९००० से ८००० अंशांकित काल पूर्व (cal BP) का समय है। साथ ही हमारे लिए आज की तिथि में घोड़ों को पालतू बनाए जाने के  सबसे शुरू के समय के रूप में यही काल स्थापित है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१९-२०)।

कहने का तात्पर्य यह है कि इस बात में कोई जान नहीं है कि ३००० साल ईसा पूर्व दक्षिण रूस के मैदानी भागों को छोड़कर आने वाले ‘आर्यों’ के साथ घोड़ों का प्रवेश यहाँ हुआ। चाहे पूरी तरह से घरेलू और पालतू पशु के रूप में हों या फिर पालतू और घरेलू बनाने की प्रक्रिया में हों – अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्र में बसी सभ्याताओं में  ये घोड़े ईसा से ६००० साल पहले से ही पाए जाते रहे हैं। यहाँ यह भी बात उतनी ही ध्यान देने लायक़ है कि भारतीय मूलभूमि का तात्पर्य भारत के अंदरूनी हिस्सों तक ही सिमटा हुआ नहीं है। इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं कि ऋग्वेद के समय से भी काफ़ी पहले ‘दृहयु’ और ‘अणु’ जनजातीय समुदाय भारत के भीतरी इलाक़ों से निकलकर मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी भागों तक फैल चुके थे।  ऋग्वेद के पुराने मंडलों का रचना काल ईसा से ३००० साल से भी पीछे तक जाता है। उस काल तक ‘प्रोटो-अनाटोलियन’ और ‘प्रोटो-टोकारियन’ आबादी के साथ-साथ ‘दृहयु’ जनजाति की पहली पंक्ति की बसावट मध्य एशिया में बस चुकी थी। दृहयु-अणु-पुरु आबादी के उत्तर में फैले वितान के दृहयु छोर तक के भूभाग घोड़ों से भरे-पूरे क्षेत्र थे और इस क्षेत्र में पालतू बनकर घोड़े घरेलू जानवर के रूप में रच-बस चुके थे। पालतू घोड़ों का यह काल ३००० साल ईसा पूर्व से पहले तक का काल है। इसलिए उस समय के एक ऐसे अनोखे पशु, चाहे वह जंगली हो या पालतू, के लिए एक ही तरह  के प्रोटो भारोपीय नामों के अपनाए जाने या विकसित होने के दृष्टांत यदि मिलते हैं तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।

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