Tuesday, 6 June 2023

शंकर सागर और यादों के दरीचे



१९८४ का साल। आई आई टी रूड़की तब का विख्यात रूड़की विश्वविद्यालय। अखिल भारतीय युवा महोत्सव ‘थोम्सो-८४’ का आयोजन। समूचे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों की युवा कला-प्रतिभाओं का विशाल जमघट। संस्कृति कर्मियों का अद्भुत समागम। नाटक, शास्त्रीय गायन, ग़ज़ल, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अद्भुत कलाकारों की विलक्षण प्रस्तुति। युवा दर्शकों से खचाखच हॉल। शोरगुल से सराबोर फ़िज़ा। कोई मनचला सीटी बजा रहा है, कोई काग़ज़ का हवाई जहाज़ उड़ा रहा है। अचानक मंच से आवाज़ गूँजती है – ‘हम पटना विश्वविद्यालय से शंकर प्रसाद बोल रहे हैं।‘ माइक में घुसती नियंत्रित साँसों के हल्के झीने स्वर परिधान में लिपटी एक मीठी आवाज़ पूरे हॉल को अपनी चाशनी में ऐसे भिगो देती है कि पूरे प्रेक्षागृह में मानों वक़्त एकबारगी समूचे दर्शकों के साथ चकित-विस्मित-सा ठहर जाता है। सारा वातावरण स्तंभित! सन्नाटा! जो जहाँ जिस स्थिति में, उसी स्थिति में हतशून्य-सा! आवाज़ों के जादूगर से यह पहला परिचय था हमारा। तब मैं युवा महोत्सव की इस आयोजन समिति का संयोजक सदस्य था। पटना सायन्स कॉलेज से इंटर पास कर मैं  रूड़की में सिविल  इंजीनियरी का छात्र था। हम बिहारियों की आदत होती है कि  हर जगह विशेषकर बिहार के बाहर किसी भी मंच पर हम अपने को हमेशा अगुआ के रूप में देखना चाहते हैं। हमने विशेष प्रयास कर इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय को आमंत्रण भेजवाया था। शंकर प्रसाद के नेतृत्व में इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय की टीम ने जो जलवा बिखेरा वह अब एक स्वर्णिम इतिहास है। उनके शानदार प्रदर्शन ने हमारे अंदर के बिहारीपन के भाव को पूरी तरह संपुष्ट किया। आगे कई दिनों तक रूड़की का प्रांगण शंकर प्रसाद और उनकी टीम की गाथाओं से गुंजित होते रहा और हम आपने भाग्य को अनथक सराहते रहे।

शंकर सर से मुलाक़ात फिर कई दशकों के बाद  दूरदर्शन की साठवीं जयंती पर एक पैनल चर्चा में हुई। पीछे का पूराना दृश्य अचानक चलचित्र की तरह घूम गया। बिलकुल नहीं बदले थे शंकर सर! अदाओं की वहीं लटक, आवाज़ में वहीं खनक और व्यक्तित्व में वहीं मिठास! तबतक डुमराँव से पटना के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका था। ज़िंदगी के अनेक दुरूह ऊबड़-खाबड़ को समतल बनाती  उपलब्धियों का विजय-केतन थामे उन्होंने एक ऐसे मुक़ाम को छू लिया था जो न केवल दर्शनीय ही था प्रत्युत बहुत लोगों के लिए ईर्ष्य भी था।

अल्पायु में ही यतीम हो गया एक  बालक अपने अदम्य संघर्ष बल और जीवट जिजीविषा से किस तरह जीवन के झंझावातों  को चीरता हुआ नवोंमेष  और सफलता का एक चमकता सूरज रोप लेता है अपनी अंगनाई में – यह सत्यकथा है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉक्टर शंकर  प्रसाद के जीवन-चरित की। इनके व्यक्तित्व को किस रूप में परिचय कराएँ आपसे – अभिनेता, प्रोफ़ेसर, प्रशासक, लेखक, उद्घोषक, संपादक, पत्रकार, गीतकार, फ़नकार, संगीतकार, नाट्य-कलाकार, ग़ज़लकार!!! इनके जीवन के आँगन में अनुभवों और उपलब्धियों की धूल जमती ही रही। जीवन पथ पर आनेवाले सभी तत्वों को इन्होंने बड़ी संजीदगी से समेटा। हर उपलब्धि इनके व्यक्तित्व में नम्रता का एक नया नगीना जड़ देती और इनका व्यक्तित्व और अधिक दमक उठता। भले ही, इन्होंने अध्यापन में अपना देहांतरण कर लिया हो, इनकी आत्मा कला और रेडियो में ही बसती रही। संगीत और नाटक इनके दिल में अहरनिश धड़कते रहे। लिखने को इनकी कलम कुलबुलाती रही। ग़ज़ल में इनका मन मचलता रहा। आवाज़ की माधुरी इनके होठों से अविरल झरती रही। इनका वैदुष्य पल-पल बिंबित होते रहा। इनकी वाग्मिता बहती रही। और, इनकी हर अदा पर माँ सरस्वती मुस्कुराती रही।

 शंकर की जटा से निकली गंगा की पतली धारा पर्वतीय उपत्यकाओं की बीहड़ता और दुर्गम  चट्टानों से  दो-दो हाथ करती, घाट- घाट को पानी पिलाती, विशाल भूभाग में पसरी परंपराओं, आर्यावर्त के अंगना के लोक मूल्यों, जीवन-संस्कृति, भू-संपदा और सभ्यताओं को अपने में समाहित करती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है। सच कहूँ, तो कुछ ऐसी ही फ़ितरत वाले हैं  संगीत नाटक अकादमी के भूतपूर्व अध्यक्ष और बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान उपाध्यक्ष अपने  ‘शंकर-सागर’ भी!  ‘सजना के अंगना’ वाले शंकर की जटा से स्मृतियों की गंगा हहराती हुई फूटती है। यह जीवन की दुरूह पथरीली घाटियों में लहालोट होती है। चट्टानों और शिला-खंडों से टकराती-रगड़ाती है।  अपने अनुभवों के कांकड-पाथर समेटती है। घाट- घाट का स्पर्श करती है। रास्ते की माटी के कण- कण का स्वाद चखती है। हर मोड़ पर उठने वाली नयी तरंगों से निकले सुर ताल से अपने सरगम की लय साधती है। अंत में, अपने विश्राम की कला को उद्धत होती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है।

स्मृतियों के लेखा के इस विशाल सागर में शंकर की लेखनी ने अपनी रोशनाई के अद्भुत वर्ण को बिखेरा है। इस स्मरणीय स्मृतिका को बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने चार खंडों में प्रकाशित किया है। ‘यादों के दरीचे’ पहला खंड है। शंकर के इस सरस सागर का श्री गणेश शंकर सागर की धुन पर ‘सजना के अंगना’ से होता है। इसी फ़िल्म से कला जगत में इस नायक, लेखक और संगीत के फ़नकार की बोहनी होती है। धीरे-धीरे ‘यादों के दरीचें’  में जीवन के इस सौंदर्य-उपासक के  संस्मरणों की सुरीली तान का जादुई वितान जब फैलना शुरू होता है, पाठक बरबस मुग्ध हो उठता है। उसकी तन्मयता का आलम तो यह है कि लेखक की सरल सरस बातचीत की शैली में बहता हुआ पाठक लेखक के बहुआयामी व्यक्तित्व के चित्र में यूँ रंग जाता है कि उसकी आँखें  एक साथ इस जादुई व्यक्तित्व में गायक, संगीतज्ञ, उद्घोषक, पत्रकार संपादक, लेखक, शायर, प्रशासक, अध्यापक, नाटककार, लोककर्मी, लोक संस्कृति का सूत्रधार और न जाने किन किन चमत्कृत आभाओं से चकाचौंध हो जाती हैं। लेखक का बहुआयामी व्यक्तित्व अत्यंत सशक्त रूप में पाठकों के समक्ष उभरकर आता है। समूचा वृतांत इतिवृतात्मक  और बातचीत की शैली में है। लेखक के कहने के ढब में एक कलाकार की कोमलता, एक बालक-सी सरलता, भारतीय आँचलिक जीवन का भोलापन, आत्मीयता का ठेठ गँवईपन, अभिव्यक्ति का टटकापन,  और जीवन समर की तपिश है। किस्सागोई के अद्भुत मीठे प्रवाह की गति में गुदगुदाती कहानियाँ पाठक को कभी हंसाती हैं, कभी रुलाती हैं और फिर अपने बतरस से बरबस ऐसे नहला जाती हैं कि पाठक को यह बतियाना छोड़ने का मन नहीं करता। समूची बातचीत में एक विस्तृत कालखंड का इतिहास बिखरा हुआ है।  लेखक के शब्दों में ही, “जब से होश संभाला यह अनुमान मुझे हो गया था कि मुझे बहुत कुछ मिलेगा इस संसार में। छोटी उम्र में ही वह सब कुछ होने लगा जिसकी उम्मीद वह बेटा तो नहीं कर सकता, जिसका पिता दो वर्ष की उम्र में ही चला गया। इसलिए यह आशा जाग उठी थी कि मुझे कुछ अलग होना ही चाहिए।“

लेखक ने अपनी स्मृतियों के लेखे-जोखे को चार सोपानों में बाँटा है- ‘माया नगरी की धूप-छाँह’, ‘डुमराँव की गलियों से लंबी उड़ान’, ‘आकाशवाणी से मंच और पत्रकारिता में चकाचौंध की ज़िंदगी’ तथा ‘सफ़र में डॉक्टर शंकर प्रसाद’। पाठक भी लेखक के साथ उसकी कथा-यात्रा में यूँ आगे बढ़ता चला जाता है, मानों कोई पक्षी किसी सीढ़ी पर फुदक-फुदक कर सोपान-दर-सोपान चढ़ता जा रहा हो और हर सोपान पर आगे ‘और कुछ’ पाने का आकर्षण उसमें फिर से फुदकने की ललक पैदा करते जा रहा हो! फ़िल्म ‘सजना के अंगना’ और इसके निर्देशक अकबर बालन के प्रसंग से कथा का श्री गणेश होता है। इस फ़िल्म के निर्माण में शंकर ‘प्रसाद’ शंकर ‘सागर’ बन जाते हैं और  इस सागर से समकालीन रंगीन दुनिया की तमाम धाराओं का मिलन होता है। उन सभी धाराओं का अपना अलग  राग, अलग ताल, अलग छंद और अलग उछाह है। फ़िल्मी दुनिया के कई नामचीन किरदार और उनकी ज़िंदगी के अनछुए प्रसंग बड़े रोचक ढंग से उभरते चले आते है। प्रसंगों को इतनी मिठास से पिरोया गया है कि पाठक को लगता है कि वह भारत के चित्रपट के इतिहास का चलचित्र ही देख रहा है।

‘’१ अगस्त १९३३ को दादर में मीना जी अली बख़्श के घर पैदा हुई - उनके पिता अली बख़्श पारसी थिएटर में काम करते थे और डान्सर थे।उनकी पत्नी इक़बाल बेगम थीं यानि मीना जी की माँ। बहुत छोटी उम्र में मीना जी ने काम करना शुरू किया- महजबी  नाम था उनका।……….अली बख़्श बहुत नाराज़ हुए क्योंकि कमाल अमरोही  की ऊम्र ५० वर्ष थी और मीना जी की ऊम्र १६ वर्ष ………………….     मोहब्बत ऊम्र नहीं देखती …………………  वह बूढ़े थे और उनको मीना जी पर भरोसा नहीं था ………… एक  दिन कमाल अमरोही  ने गुंडों को भेजकर धर्मेन्द्र जी पर हमला करवा दिया…….. उधर वहीदा जी बढ़ती गयीं और गुरुदत्त बिखरते गए……….यह संस्मरण बहुत ख़तरनाक है ………….सुनील दत्त के लिए ‘मुझे जीने दो’ फ़िल्म शूट कर रही थीं तब शूटिंग स्थल पर गुरुदत्त ने जाकर वहीदा जी को एक थप्पड़ मारा और पलट कर सुनील दत्त ने गुरुदत्त को थप्पड़ मारा…………………….         रेणु जी शादी शुदा थे और उन्हें टीबी की बीमारी थी। मुँह से ख़ून आता था और जिस हॉस्पिटल में भर्ती हुए, वहीं लतिका जी नर्स थीं। प्रेम संबंध बढ़ा। यह अलौकिक प्रेम संबंध है। प्रेमिका जान रही है कि जो बीमारी है, वाह जानलेवा है। प्रेमी जान रहा है कि कभी भी मर सकता है। फिर भी, यह प्रेम हुआ और ख़ूब हुआ। जब  फेरे लग रहे थे तब रेणु जी ख़ून की उल्टियाँ कर रहे थे। यह सब जया जी सुन रही थीं और रो रही थीं………………………उन्होंने बताया कि उनका रिश्ता बिहार से है, दानापूर में रहती थीं। यहीं रेलवे स्टेशन पर उनके पिताजी काम करते थे,इसलिए जब बिहारी उपन्यासकार का नाम आया तब उन्होंने ‘हाँ’ कर दिया।“ 

इस तरह के अनगिन प्रसंगों से यह स्मृतिका लबरेज़ है। मौरिशस यात्रा की कहानी बहुत ही रोचक और मन को मिठास से भर देनेवाली है – “उस समय राष्ट्रपति थे, शिवसागर रामगुलाम।………………..वह भोजपुरी में बात कर रहे थे और वह भी विंध्यवासिनी देवी को मौसी की जगह भौजी कह रहे थे और बोल रहे थे कि, ‘आप ऐसन लागी ले, जय सन हमार भौजी लागत रही। असहीं घूँघटा में रहत रही।“  अपनी आत्मा को रेडियो की दुनिया में छोड़कर अध्यापन के संसार में लेखक की देह के  अंतरण की कथा मन को छू जाती है। लेखक की यह संस्मरण-कथा जीवन के दर्शन का अद्भुत दस्तावेज़ है। सचमुच में,

“यह जो ज़िंदगी की किताब है

यह किताब भी क्या किताब है

कहीं एक हसीन-सा ख़्वाब है

कहीं जानलेवा अजाब है।“


Wednesday, 24 May 2023

बड़े घर की बेटी ( लघु कथा )


सरकारी नौकरी लगते ही बड़े-बड़े घरों की बेटियों के रिश्ते आने लगे। और, एक दिन एक बड़े घर की बेटी इस सरकारी बाबू की बहू बनकर आ भी गयी। आते ही बहू ने अपनी सतरंगी आभा का विस्तार किया। नौकर, चाकर, मुवक्किल, मुलाजिम, ठेकेदार, देनदार, अमले, फैले, भूमि, जनसंख्या, सरकार, सब साहब के। लेकिन, संप्रभुता बहू की! और, सबकी आज्ञाकारिता का भाव बहू के प्रति समर्पित। अरमान और फरमान दोनों बहू के। साहब तो इस व्यवस्था के 'श्री कंठ' मात्र थे जिससे मेमसाहब के स्वर निःसृत होते थे।  सारा कंट्रोल बड़े घर की इस बेटी के हाथ में ही था। दिन पर दिन घर की इकॉनमी और मेम साहब का शारीरिक शौष्ठव शेयर मार्किट की तरह उछाल पर आने लगा था।
दुर्भाग्य ने अचानक साहब के शरीर में सेंध लगा दी। उनके किडनी ख़राब हो गए। बदलने की नौबत आ गयी। सत्रह लाख रुपयों  की दरकार थी। साहब ने चारों तरफ नज़रें घुमा ली। एड़ी चोटी एक कर दी। हाथ पाँव मार लिए। सबसे चिरौरी कर ली। कहीं दाल न गली। हाथ पाँव फूलने लगे। कहाँ से जुगाड़े इतनी रकम! सात लाख तक ही जुटा पाए थे। भाई लाल बिहारी ने दिलासा दी। उसने खेत बेचे। मंगेतर के गहने गिरवी रखे और किसी तरह भीड़ा ली जुगत अतिरिक्त दस लाख रुपयों की। ऑपरेशन सफल रहा। साहब की जान बच गयी।
सरकार ने अचानक बिजली गिरा दी। नोटबंदी की घोषणा हो गयी। अफरा-तफरी मच गयी जमाखोरों में। मेमसाहब ने भी सत्रह लाख रुपये मजबूरी में साहब के हाथों में धर दिए। साहब ने पथराई आँखों से कागज़ के उन टुकड़ों को बिखेर दिया।
आज कचहरी की दहलीज़ से हाथों में तलाक़ का अदालती फरमान लिए साहब सामने घंटा घर की बंद घड़ी  की सुइयों को  निहार रहे थे और उन सुइयों पर प्रेमचन्द की 'बड़े घर की बेटी' लटकी हुई थी!  


Monday, 1 May 2023

रेस्जुडिकाटा!

जिंदगी की फटी पोटली से झांकती,
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
.......    ......     .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले  गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और  तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
.....    ......       .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!

Wednesday, 22 March 2023

देश मेरा रंगरेज



 देश मेरा रंगरेज 

(व्यंग्य संग्रह)

पुस्तक समीक्षा



पुस्तक का नाम – देश मेरा रंगरेज 

लेखक – प्रीति ‘अज्ञात’

प्रकाशक – प्रखर गूँज, एच ३/२, सेक्टर- १८, रोहिणी,  दिल्ली -११००८९, 

दूरभाष – ०११-४२६३५०७७, ७९८२७१०५७१, ७८३८५०५८९९

मूल्य- २५० रुपए 



हमारे अध्यात्म का आसव है – आनंद! जब अस्तित्व (सत) में चेतना (चित) खिल उठे तो अंतर्भूत आनंद का आविर्भाव होता है।  इसे ही सच्चिदानंद की स्थिति कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने का सौभाग्य  प्राणी जगत में मात्र मनुष्य योनि को ही प्राप्त है। ऐसा हो भी क्यों नहीं! विवेक और भाव की जुगलबंदी  तथा तदनुरूप माँसपेशियों की हरकत अर्थात मन की मुस्कान के साथ होठों के संपुट खुलकर दाँतों का हठात् चीयर जाना मनुष्य होने की एकमात्र कसौटी है। मुस्कानविहीन मुख ख़ालिस मुर्दानिगी  है । अक्सर कोई बड़ी सहजता से कुछ  बात कह जाता है। उसकी बात  अंतस के तार को गहरे में जाकर यूँ छेड़ देती है  कि मुख पर एक सहज मुस्कुराहट और उस मुस्कुराहट के हर हर्फ़ में बातों की गंभीरता का मिसरा बिखरा रहता है। उस मुस्कुराहट से  न केवल मन का पोर-पोर भीग जाता है बल्कि कभी कभी तो  नयनों के कोर तक भी नम हो जाते हैं। कथन या लेखन  की इसी विधा को व्यंग्य कहते हैं जहाँ अन्योक्ति और वक्रोक्ति से उसके  सीधे सपाट अर्थ  ऐसे लहालोट हो जाते हैं कि पाठक या श्रोता का मन आनंद  से अचानक चिंहुक उठता है। बातों का तीर अपने लक्ष्य को चीरते हुए निकल जाता है। बातों  के मर्म को पकड़े पाठक  का अकबकाया मन तो कभी-कभी साँप-छछून्दर की दशा प्राप्त कर लेता है। और, लहजे में यदि मुहावरों को दाख़िला मिल जाय तो फिर कहना ही क्या! न केवल व्यंग्य के ये प्रखर बाण विसंगतियों को छलनी कर देते हैं बल्कि दमघोंटू वातावरण में समाज को प्राण वायु भी सूँघा जाते हैं। प्रीति ‘अज्ञात' का व्यंग्य-संग्रह ‘देश मेरा  रंगरेज’ भी बहुत कुछ ऐसा ही है।


ऋग्वेद में इंद्र और अहल्या के कथित संवाद  व्यंग्यालाप के अद्भुत नमूने हैं। पिता के बंजर सिर पर बाल, आश्रम की बंजर भूमि और अपनी बंजर कोख में हरियाली की माँग!  इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी का दुर्योधन पर व्यंग्य महाभारत रच जाता है। गोपियों की उलाहना में घुले  व्यंग्य के प्रहार से उद्धव के ज्ञान का दंभ भरभरा कर धूल चाटने लगता है। देखिए न, ‘मृछकटिकम’ में  जनेऊ को शुद्रक ने क़सम खाने और चोरी करने के लिए दीवार लाँघने में काम आने वाले एक उपयोगी उपकरण के रूप में माना है। अपने मायके पर शिव के व्यंग्य से बिफरी पार्वती विद्यापति  के मुख से महादेव को भली भाँति धो देती हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब सैयद अहमद साहब की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी के शब्दों की धार देखिए :

“शैख़ ने गो लाख बढ़ाई सन की सी 

मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी।“

‘दांते’ के  ‘डिवाइन कॉमेडी’ में व्यवस्था के मज़ाक़ की गूँज सुनायी देती है।  भारतेंदु, अकबर इलाहाबादी, क्रिशन चंदर, काका हाथरसी, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्री लाल शुक्ल, रविंद्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के पी सक्सेना, लतीफ़ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, विवेकरंजन श्रीवास्तव, हरिमोहन झा, गोपेश जसवाल, के के अस्थाना आदि अनेक नाम ऐसे हैं जिनकी लेखनी ने लेखन की इस विधा में अपने-अपने रंग भरे हैं। किसी भी समाज, समुदाय या साहित्य में हास्य-व्यंग्य तत्व की उपथिति की प्रचुरता उसकी  प्रगतिवादी, विकसीत, आधुनिक और सुसंस्कृत सोच को दर्शाती  है। व्यंग्य बाणों को उदारता से देखना एक उर्वर आध्यात्मिक दृष्टि का लक्षण है।  जैसे हास्य-विहीन जीवन शमशान-तुल्य है वैसे ही व्यंग्य के प्रति उदारता और स्वस्थ दृष्टिकोण का अभाव एक मृत समाज का भग्नावशेष  है। समय-समय पर ये तत्व हममें  ख़ुद पर हँसने की चेतना भरते हैं और आत्म-निरीक्षण हेतु तैयार करते हैं। 


वैदिक युग से अद्यतन भारतीय साहित्य में हास्य-व्यंग्य के तत्वों की एक समृद्ध परम्परा का अनवरत प्रवाह होता रहा है। इस प्रवाह की चिरंतनता को गति देने की दिशा में प्रीति ‘अज्ञात’ रचित ‘देश मेरा रंगरेज’ एक महत्वपूर्ण और सशक्त कृति बनकर उभरी है। हमारे देश की  लोकजीवन-शैली  ने हमारी राष्ट्रीयता को नित-नित नए रंगों में रंगने की अपनी कला को शाश्वत बनाए रखा है। उन रंगों को प्रीति जी ने एक प्रखर समाज सचेतक की भाँति सहेजकर बड़ी कुशलता से अपनी कूँची में भरा है। उनके कैन्वस का वितान अत्यंत विस्तृत है। व्यवस्था की त्रुटियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ, फ़ैशन परस्ती, जीवन शैली की विद्रूपता, गिरते सामाजिक मूल्य, बढ़ता भ्रष्टाचार, भौतिक विकास से चोटिल सामाजिक जीवन, नागरिक मूल्यों का निरंतर क्षरण, साहित्य में जुगाड़ तंत्र, लेखकों की दयनीय दशा, मुँहज़ोर मुँह के जुमलों का ज़ोर, समय के सफ़र में स्पेस में घुलता ज़हर, कमर तोड़ती महँगाई, कुर्सी पर क़ब्ज़े की क़वायद, रिश्तों की चुहलबाज़ी, बीते दिनों के स्कूली दिनों की मर्मांतक किंतु आज गुदगुदाती गाथाएँ, बचपन के पिता की ख़ौफ़नाक तस्वीर, ‘मर्द का दर्द’, कोरोना काल का समाजशास्त्र, मास्कपरस्ती का मनोविज्ञान, आशिक़ों के अगणितीय समीकरण – इन तमाम वर्णों को अत्यंत  बलखाती मोहक वर्णमाला में अपने चित्रपट पर उन्होंने पसार दिया है। भावों के हास्य-तत्व से उनके शब्द गलबहियाँ करते दिखते हैं। अनूठे शब्दों के औज़ार से उनके व्यंग्य  की तीव्रता मारक बन जाती है। शब्दों की छटा का अवलोकन कीजिए – ‘खिलंदड़पना’, ‘परवरिशपंती’, ‘जलीलत्व’, ‘सेल्फ़ियाने’,  ‘इश्कियाहट’, घिघियावस्था आदि, आदि! उनके बतरस में समकालीन समाज की बोली की पांडुलिपि का रूह-अफ़जा है। 


उनके कुछ वाक्यों की धार देखिए, “अच्छा! गिरे हुए इंसान (जमीन पर, ज़मीर से नहीं) को चोट से अधिक  चिंता और दुःख पहले इस बात का होता है कि उसे किसी ने गिरते हुए तो नहीं देखा!”, “छरहरा होना राष्ट्रीय स्वप्न है”, “वो तो अच्छा है कि प्रश्वास के समय कार्बन डाई आक्सायड निकलती है। कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमण्डलीय ऑक्सिजन से मिलकर सब किए-कराए पर पानी फेर देती।“, “जी, हाँ अतृप्त लेखकीय आत्मा प्रायः पुस्तक मेले में भटकती पायी जाती है।“, “पर, जो मान  जाए तो वह कवि ही क्या!”, “दुर्गति वही, जगह नयी।“, “ये टीवी का अकेला चैनल तब सबको जोड़ता था। आज सैकड़ों चैनल मिलकर एकता स्थापित नहीं कर पा रहे।“, “चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते।“, उस दिन आपके नसीब से वो रायता/गुलाबजामुन ऐसे उड़ जाता था जैसे कि ग़रीबों के घर से शिक्षा, नेताओं से नैतिकता और समाज से मानवता उड़ चुकी है।“, “विकास तो हो रहा है बस ज़रा दिशा बदल गयी है।“, होता क्या है कि जैसे बहू गृहप्रवेश के साथ ही घर संभालने लगती है, इसके ठीक उलट दामाद जी के चरण पड़ते ही पूरा घर उन्हें संभालने लगता है।“,  “आज के ज़माने में जहाँ लोग घर के अंदर से ही बाय कर मुँह पर दरवाज़ा बंद कर देते हैं वहाँ यह ‘कुत्ता’ ही है जो आपको स्पीड के साथ गंतव्य तक छोड़कर आता है।“  इस तरह के लज़ीज़ ‘व्यंजनों’ से यह पूरी पुस्तक पटी हुई है। 


नवपरम्परावाद  की चाशनी में पगे  समाज  का स्वाद प्रीति की  लेखनी के हास्य-तत्व को एक अप्रतिम कलेवर देता है। पुस्तक की कथावस्तु के केंद्र में पिछली सदी के आठवें दशक से आजतक अर्थात पिछले तीस चालीस वर्षों के भारतीय समाज का जीवन चरित है। यही वह  कालखंड है जब विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों पर आरूढ़ एक पीढ़ी  हौले-हौले अपने बचपन की चुहलबाज पगडंडियों पर उछलते-कूदते कैशोर्य  के राजमार्ग होकर यौवन के इक्स्प्रेस्वे पर पहुँच जाती है। किंतु पगडंडी की धीमी गति की मिठास के आगे इक्स्प्रेसवे की द्रुत गति बड़ी ठूँठ-बाड़ और अराजक-सी लगती है। व्यंग्य के इस कुशल चितेरे ने उन मनभावन यादों से अपनी ‘प्रीति’ को ‘अज्ञात’ नहीं होने दिया है। स्मृतियों को सहेजना ही बुद्धि और विवेक की चिरंजीविता के लक्षण हैं। जैसा कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, “स्मृति भ्रंशात बुद्धि नाश:, बुद्धि नाशात प्रणश्यति ।“  अतीत की स्मृतियों के आलोक में वर्तमान की विसंगतियों पर अचूक निशाना साधने में प्रीति अत्यंत खरी उतरी हैं। उनकी लेखनी की प्रांजलता, विचारों का  प्रवाह, चिरयौवना भाषा का अल्हड़पन, शब्दों का टटकापन, भावों की मिठास, हास्य का सुघड़पन, व्यंग्य की धार और दृष्टि की तीव्रता किताब की छपाई के फीकेपन को पूरी तरह तोप  देती है और पाठक शुरू से अंत तक प्रीति के बंधन से बँधा रह जाता है।

--------- विश्वमोहन


Sunday, 22 January 2023

आँचल

तेरे आँचल से भी छोटा,

चाहे जितना फैले अंबर।

सारी सृष्टि से भी संकुल

माँ घनियारा तेरा आँचर।


सात समुंदर भी डूब जाते,

नील नयन माँ तेरे घट में।

बेचारी नदियाँ  बंध जाती,

मैया तेरे नेह के तट में।


पवन प्रकंपित थम जाता माँं!

लट में तेरे अलकों के।

और दहकती अग्नि ठंडी,

तेरी शीतल पलकों में।


ब्रह्मा-विष्णु-शिव शिशु-से,

अनुसूया के आँगन में।

माँ के कान पकड़ते मिट्टी,

विश्व मोहन के आनन में।


अब दुनिया ये छोड़ गई तुम,

नेह से नाता तोड़ गई तुम।

ममता से मुँह मोड़ गई तुम,

मन का घट हिलोड़ गई तुम।


माँ, शव  मैने ढोया तेरा,

शोक नहीं ढो पता।

नहीं मयस्सर आँचल तेरा,

पल भर को खो जाता!

Tuesday, 17 January 2023

गंगा को सागर होना है।

 काल चक्र के महा नृत्य में,

नहीं चला है किसी का जोर।

जितना नाचें उतना जाने,

जहाँ ओर थी, वहीं है छोर।


 जिस बिंदु से शुरू सड़क थी,

है पथ का अवसान वही।

अभी निकले थे, अभी पहुंच गए,

होता तनिक भी भान नहीं।


यात्रा के अगणित चरणों में

इस योनि का चरण भी आता।

पथ अनंत पर जब निकले थे,

जन्मदिवस है याद दिलाता,


पथ वृत पर पथिक भ्रमित है,

गुंजित गगन, ये कैसा शोर!

बजे बधाई, मंगल वाणी,

संगी साथी मची है होड़।


सत्य यही, इस गतानुगतिक का,

जड़ चेतन सब काल के दास।

एक बरस पथ छोटा होकर,

गंतव्य और सरका पास।


अब तक मन है बहुत ही भटका,

अब न और भ्रमित होना है।

सच जीवन का समझ में आया,

गंगा को सागर होना है।





Friday, 30 December 2022

काल प्रवाह

साल यूँ  ही जब जाना तुझको,

क्यों हर साल चले आते हो।

साल-दर-साल सरक-सरक कर,

बरस -बरस  बरसा जाते हो।


नया बरस बस कहने का है,

धारा बन जस बहने का है।

आज नया, कल बन पुराना

काल-प्रवाह में दहने का है।


मौसम की फिर वही रीत है,

और जीवन का वही गीत है।

अवनी आलिंगन अंबर के,

सूरज पट और धरती चित है।


गोधूलि  में धूल-धूसरित-सा,

तेजहीन हो रवि विसरित-सा।

औंधे मुँह  सागर में गिरता,

फिर तिमिर से जग यह घिरता।


अर्द्धरात्रि के अंधियारे में,

एक साल काल का डूबता।

क्षण में दूर क्षितिज से उसके,

नये साल का सूरज उगता।


समय अनादि और अनंत है,

यहाँ  तो बस भ्रम की गिनती है।

साल! बनो न नए पुराने,

तुमसे यह ख़ालिस विनती है।



🙏🙏

Sunday, 30 October 2022

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर

आज फिर थाम लिया है माँ ने,
छोटी सी सुपली में,
समूची प्रकृति को।
सृष्टि-थाल में दमकता पुरुष,
ऊंघता- सा, गिरने को,
तंद्रिल से क्षितिज पर पच्छिम के,
लोक लिया है लावण्यमयी ने,
अपने आँचल में।
हवा पर तैरती
उसकी लोरियों में उतरता,
अस्ताचल शिशु।
आतुर मूँदने को अपनी
लाल-लाल बुझी आँखें।
रात भर सोता रहेगा,
गोदी में उसके।
हाथी और कलशे से सजी
कोशी पर जलते दिए,
गन्ने के पत्तों के चंदवे,
और माँ के आंचल से झांकता,
रवि शिशु, ऊपर आसमान की ओर।
झलमलाते दीयों की रोशनी में,
आतुर उकेरने को अपनी किरणें।
तभी उषा की आहट में,
माँ के कंठों से फूटा स्वर,
'केलवा के पात पर'।
आकंठ जल में डूबी
उसने उतार दिया है,
हौले से छौने को
झिलमिल पानी में।
उसने अपने आँचल में बँधी
सृष्टि को खोला क्या!
पसर गया अपनी लालिमा में,
यह नटखट बालक पूर्ववत।
और जुट गया तैयारी में,
अपनी अस्ताचल यात्रा के।
सब एक जुट हो गए फिर
अर्घ्य की उस सुपली में
"क्षिति जल पावक गगन समीर।"


Sunday, 16 October 2022

दंभ दामिनी

 खुद कपटी थे, क्या समझो तुम!

निश्छलता क्या होती है।

तेरी हर खुदगर्जी पर,

बस टीस-सी दिल में होती है।


मेरी तो हर बात में तुमको,

केवल व्यंग्य झलकता है।

जबकि हर हर्फ वह तेरा,

मुझको पल-पल छलता है।


बात बात तेरी घुड़की कि,

मुझे छोड़ तुम जाओगे।

मेरी यादों की गलियों में,

नहीं कभी तुम आओगे।


तुम भी सुन लो, नहीं मिटेगी,

गलियों की पद जोड़ी रेखा।

मेरा रंग तो सदा एक-सा,

रंगहीन नेह तेरा देखा।


हम कहते, छोड़ो हठात हठ,

और दंभ का दामन अपना!

अहंकार को आहूत कर दो,

हसरतों का बुनों सपना।


हुई दग्ध तुम, दर्प निदाघ में

और न दहको, दंभ दामिनी।

देखो, दूधिया दमके चांदनी

राग यमन में झूमे यामिनी।









Saturday, 8 October 2022

पगले बादल!

हाँ, हाँ, गरजो,

बादल, गरजो!

बरस भी रहे हो,

अब तो! 

मूसलाधार! 

और असमय भी! 

बेमौसम ।

हो गयी है  अब तो,

धरती भी,

शर्म से पानी-पानी।



'गरजना' तुम्हारी भावनाएँ हैं ।

और फ़ितरत है, तुम्हारी।

'बरसना', 

उन भावनाओं में।

कहना क्या  चाह रहे हो? 

कोई अवस्था नहीं होती 

भावोद्वेग की! 

कोई उम्र नहीं होती,

वश में करने और 

बहने बहकने की! 



तो जान लो!

एक भाव होता है,

हर 'अवस्था' का भी।

और एक पड़ाव,

हर 'भाव' का भी!

पहले पैदा करो

मन में अपने,

भावना, नियंत्रण की! 

पाओगे नियंत्रण तब,

अपनी भावनाओं पर!



नहीं बरसोगे, 

फिर  बेमौसम, ग़ैर उम्र।

ना ही तड़पोगे तब,

और ना ही गरजोगे।

पहले बीज तो डालो, 

करने को क़ाबू में,  ख़ुद को।

नहीं होता नाश कभी, 

कर्म के बीज का!

यही तो योग है।

पगले बादल!


Sunday, 11 September 2022

उगना के मालिक - विद्यापति

"घन घन घनन घुँघर कत बाजय
हन हन कर तुअ काता
बिद्यापति कवि तूअ पद सेवक
पुत्र बिसरी जनु माता..."
 श्री हनुमान सतबार पाठ समारोह में कीर्तन गायन की तैयारी के क्रम में 'माइक चेक' करते मेरे शतकवय बाबा (दादाजी) ने बिना किसी साज-संगीत के जब इन पंक्तियों की तान भरी तो मैं अनायास पवन तरंगों पर तैरती इन मधुर स्वर-लहरियों में गोते लगाने लगा। भक्ति की अद्भुत भाव भंगिमा में पगी इन पंक्तियों ने मानो सहज साक्षात माँ भवानी को सम्मुख उपस्थित कर दिया हो ! विद्यापति की रचनाओं का भक्ति रस बरबस अपनी मिठास  से मन प्रांतर के कण-कण को आप्लावित कर देता है। बाद में, मैंने उनसे विद्यापति के कुछेक दूसरे भजन भी बड़े चाव से सुने।
ये गीत अब भी मेरे कर्ण-पटल को अपनी स्वाभाविक मधुरता और भक्ति-भाव से झंकृत करते रहते हैं।
      इसीलिए, जब दरभंगा से सीतामढ़ी जाने के क्रम में मेरी दृष्टि सडक पर लगी पट्टिका पर पड़ी " विद्यापति जन्म स्थान 'बिसपी' 7 किलोमीटर " तो भला मै उस पुण्य भूमि को देखे बिना आगे न बढ़ जाने का लोभ कैसे न संवरण कर पाता ! तबतक गाडी थोड़ी आगे सरक चुकी थी। मैंने वाहन चालक को आग्रह किया कि वह गाड़ी को पीछे लौटाए और बिसपी गाँव की ओर मोड़ लें। चालक महोदय मिथिलांचल के ही थे। उनकी आँखों में मैंने एक अदृश्य गर्व भाव के दर्शन किये कि कोई व्यक्ति उनकी भूमि की महिमा को आत्मसात कर रहा है।
 रास्ते में एक डायवर्सन को पार कर हम प्रधानमंत्री सड़क-निर्माण योजना के तहत एक नवजात वक्रांग सड़क पर रेंगते हुए करीब बीस मिनट की यात्रा कर भवानी के इस भक्त बेटे महाकवि बिद्यापति के अवतार स्थल पर पहुंचे. चाहरदिवारियों से घिरा एक अलसाया परिसर और उसके बड़े गेट पर लटका ताला ! गेट की दूसरी ओर परिसर के अन्दर विद्यापति की पाषाण मूर्ति साफ़ साफ़ दिख रही थी। हम बाहर से ही दर्शन कर अघाने की प्रक्रिया में थे, किन्तु भला ड्राईवर साहब कहाँ मानने वाले थे इस बात से कि वो बाहर से ही हुलका के हमें लौटा ले जाएँ ! वह मुझे झाँकते  छोड़ गाँव की ओर निकल गए और करीब दस मिनट बाद चाभी लिए एक अर्धनग्न कविनुमा व्यक्ति को लेकर पहुंचे, जिन्होंने बड़ी आत्मीयता से हमारा दृष्टि-सत्कार किया और गेट खोलकर हमें अन्दर ले गए।  हमारे इस ग्रामीण गाइड ने  धाराप्रवाह अपनी मीठी बोली में हमें विद्यापति की कहानी सुनानी शुरू की। मेरे मानसपटल पर शनैः शनैः उनकी साहित्यिक आकृति उभरनी शुरू हो गयी।
     दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में विद्यापति से मेरा नाता बस अंक बटोरने तक रहा था। किन्तु, बाद में जब उनकी सृजन-सुधा का पान करने का अवसर फुर्सत में मिला तब जाके लगा कि साहित्य की सतरंगी आभा क्या होती है! सरस्वती के इस बेटे ने विस्तार में बताया कि भक्ति, श्रृंगार और लोक जीवन आपस में किस कदर गूँथ जाते है और इस बात का तनिक आभास भी नहीं मिलता कि भावनाएँ  जब अपनी प्रगाढ़ता के अंतस्तल में मचलती हैं, तो कब श्रृंगार-भावना भक्ति के परिधान में सज जाती हैं!  उनकी रचनाएँ भावनाओं के विशुद्धतम फलक पर अवतरित होती हैं, जो पांडित्यपूर्ण पाखण्ड और बौद्धिक छल से बिलकुल अछूती रहती हैं। राधा-कृष्ण का श्रृंगार जब वे रचते हैं,  तो पूरी तन्मयता से वह स्वयं उसमे रच बस जाते हैं।  जब वह राधा का चित्र खींचते हैं, तो कृष्ण बन जाते है:
' देख देख राधा रूप अपार।
अपरूब के बिहि आनि मेराओल खित-तल लावनि सार॥
अंगहि अंग अनंग मुरछाएत हेरए पड़ए अथीर।
मनमथ कोटि-मथन करू जे जन से हेरि महि-मधि गीर॥"

चढ़ती उम्र की बालिकाओं में  शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य उन्नयन की भौतिक प्रक्रिया के साथ-साथ उनकी बिंदास अल्हड़ता में नित-नित  नवीन कलाओं के कंगना खनकते रहते हैं और तद्रूप मनोभाव  उनके श्रृंगारिक टटके नखड़े में नख-शिख झलकते रहते हैं। कवि की दिव्य दृष्टि से राधारानी के ये लटके झटके अछूते नहीं रहते और उनकी अखंड सुन्दरता अपनी सारी सूक्ष्मताओं की समग्रता के साथ उनके सौन्दर्य वर्णन में समाहित हो जाते हैं, मानों ये वर्णन और कोई नहीं, स्वयं प्रियतम कान्हा ही अपनी प्रेयसी का कर रहे हों!
" खने-खने नयन कोन अनुसरई;खने-खने-बसन-घूलि तनु भरई॥
खने-खने दसन छुटा हास, खने-खने अधर आगे करु बास॥
.............................................................................................
बाला सैसव तारुन भेट, लखए न पारिअ जेठ कनेठ॥
विद्यापति कह सुन बर कान, तरुनिम सैसव चिन्हए न जान॥ "

विद्यापति की रचनाओं में राधा की सौन्दर्य सुधा का पान करते साक्षात् कृष्ण ही नज़र आते हैं।
सहजि आनन सुंदर रे, भऊंह सुरेखलि आंखि।
पंकज मधु पिबि मधुकर रे, उड़ए पसारल पांखि॥
ततहि धाओल दुहु लोचन रे, जेहि पथममे गेलि बर नारि।
आसा लुबुधल न तजए रे, कृपनक पाछु भिखारी॥ "

 और, जब विद्यापति  कृष्ण की छवि उकेरते हैं तो राधा की आँखे ले लेते हैं। अपने प्रिय के अलौकिक सौन्दर्य पर रिझती राधा कान्हा को अपने नयनों में बसाए घुमती रहती हैं:

  " ए सखि पेखलि एक अपरूप। सुनईत मानब सपन-सरूप॥
कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजल तरुन तमाला॥
तापर बेढ़लि बीजुरि-लता। कालिंदी तट धिरें धिरें जाता॥
साखा-सिखर सुधाकर पांति। ताहि नब पल्लब अरुनिम कांति। "

राधा-कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन पर ही कवि का चित्रकार चित विराम नहीं लेता। एक दूसरे के अपूर्व प्रेम में छटपटाते प्रेमी युगल के साथ प्रकृति की सहभागिता में भी कवि ने मानवीय प्राण डाल दिए हैं। यहाँ मौसम की छटा प्रेम का वितान नहीं तानती, प्रत्युत गगन में गरजती घटा अपने विघ्नकारी रूप में उपस्थित होकर प्रिय से मिलने निकली प्रेयसी का रास्ता रोक लेती है और प्रिय-दर्शन को आकुल-व्याकुल आत्मा विरह-व्यथा में चीत्कार कर उठती है:

"  सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर सुन मंदिर मोर॥
झांपि घन गरजति संतत, भुवन भरि बरंसतिया।
कन्त पाहुन काम दारुन, सघन खर सर हंतिया।
कुलिस कत सत पात, मुदित, मयूर नाचत मातिया।
मत्त दादुर डाक डाहुक, फाटि जायेत छातिया।
तिमिर दिग भरि घोरि यामिनि, अथिर बिजुरिक पांतिया।
विद्यापति कह कैसे गमाओब, हरि बिना दिन- रातिया॥"

फिर, जब मिलन की वेला आ जाती है तो प्रेयसी के सारे उपालंभ तिरोहित हो जाते हैं।  मन में इसी प्रकृति के प्रति उसके मन में अभिराम भाव अंकुरित हो उठते हैं:  
   "    हे हरि हे हरि सुनिअ स्र्वन भरि, अब न बिलासक बेरा।
गगन नखत छल से अबेकत भेल, कोकुल कुल कर फेरा॥
चकबा मोर सोर कए चुप भेल, उठिअ मलिन भेल चंद।
नगरक धेनु डगर कए संचर, कुमुदनि बस मकरंदा। "
मैंने विद्यापति का अवलोकन सर्वदा एक आम लोक गायक के रूप मे ही किया है।  उनके गीतों या पदावलियों में एक आम आदमी का उछाह है। कहीं कोई कृत्रिमता या वैचारिक प्रपंच नहीं दिखता। सब कुछ सजीव! सब कुछ टटका ! जैसा है वैसा है. बिकुल जीवंत! लगता है, कोई जीता जागता चित्र सामने से गुजर रहा है। 
 मानवीकरण से ओत प्रोत. भगवान् शिव को एक गृहस्थ शिव के रूप में खडा कर दिया है उन्होंने जहाँ  गृहिणी गौरा उपालंभ के तीर मारती हैं। अपने निकम्मे-से पति को हल-फाल लेकर खेती करने जाने को उकसाती हैं। घर में हाथ पर हाथ धर बैठने से कुछ होने वाला नहीं! खटंग को हल और त्रिशूल को फार बनाकर बसहा बैल लेकर खेती करने वे जाएँ अन्यथा उनकी निर्धनता और आलस्य लोगों के उपहास का विषय बन जायेगी! अब मै कोई साहित्य समीक्षक या सामजिक चिन्तक तो हूँ नहीं कि इन पंक्तियों में मैं वामपंथ की प्रगतिवादी जड़ खोज लूँ,  किन्तु इतना अवश्य है कि अपने आराध्य भोले और गौरा के प्रकारांतर में कवि ने आम लोक जीवन में निर्धनता का दंश झेल रही एक गृहिणी के उसके नशेड़ी आलसी पति के प्रति व्यथित उद्गारों को वाणी प्रदान की है:

बेरि बेरि सिय, मों तोय बोलों
फिरसि करिय मन मोय
बिन संक रहह, भीख मांगिय पय
गुन गौरव दूर जाय
निर्धन जन बोलि सब उपहासए
नहीं आदर अनुकम्पा
तोहे सिव , आक-धतुर-फुल पाओल
हरि पाओल फुल चंदा
खटंग काटि हर हर जे बनाबिय
त्रिसुल तोड़ीय करू फार
बसहा धुरंधर हर लए जोतिए
पाटये सुरसरी धार.
यहाँ कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकृति रूपिणी शक्ति अपने पुरुष में प्रेरणा के स्वर भर सृष्टि का सन्देश दे रहीं हो ! शक्ति के बिना शिव शव मात्र रह जाते हैं।  कहीं इसीसे सृजन का बीज लेकर कामायनी में जयशंकर प्रसाद की ' श्रद्धा ' अपने मनु को यह सन्देश देते तो नहीं दिखती कि :
"कहा आगंतुक ने सस्नेह , अरे तुम हुए इतने अधीर
हार बैठे जीवन का दाँव , मारकर जीतते जिसको वीर."
 जो भी हो, इन लोक लुभावन लौकिक पंक्तियों में विद्यापति ने एक ओर भक्ति की सगुन सुरसरी की धारा बहायी है, तो फिर उसमें उच्च कोटि के आध्यात्मिक दर्शन की चाशनी भी घोल दी है ।
हमारे ग्रामीण गाइड महोदय हमें महत्वपूर्ण सूचनाएँ  दे रहे थे। अभी हाल में बिहार सरकार के सौजन्य से विद्यापति महोत्सव का आयोजन होने लगा है।  उनके जन्म के काल के बारे में कोई निश्चित मत तो नहीं है लेकिन यह माना जाता है कि चौदहवीं शताब्दी के उतरार्ध में उनका जन्म हुआ था।  कपिलेश्वर महादेव की आराधना के पश्चात श्री गणपति ठाकुर ने इस पुत्र रत्न को पाया था। उनकी माता का नाम हंसिनी देवी था।  बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के स्वामी विद्यापति को अपने बालसखा और राजा शिव सिंह का अनुग्रह प्राप्त हुआ। उनके दो विवाह हुए।  कालांतर में उनका परिवार बिसपी से विस्थापित होकर मधुबनी के सौराठ गाँव में बस गया। उनकी कविताओं में उनकी पुत्री ' दुल्लहि ' का विवरण मिलता है।
 हमारे सरस मार्गदर्शक बड़ी सदयता से हमें विद्यापति से जुडी किंवदंतियों की जानकारी दे रहे थे। धोती-गमछा लपेटे ऊपर से साधारण-से  दिखने वाले सज्जन की आतंरिक विद्वता अब धीरे धीरे प्रकाश में आने लगी थी। उन्होंने बताया कि विद्यापति शिव के अनन्य भक्त थे।  उनकी भक्ति की डोर में बंधे शिव उनके दास बनने को आतुर हो उठे। वह 'उगना' नाम के सेवक के रूप में उनके यहाँ नौकरी मांगने आये। विद्यापति ने अपनी विपन्नता का हवाला देकर उन्हें रखने से मना कर दिया। उगना बने शिव कहाँ मानने वाले! उन्होंने उनकी पत्नी सुशीला की चिरौरी कर मना लिया और उनके नौकर बन उनकी सेवा करने लगे।  एक दिन उगना अपने मालिक के साथ चिलचिलाती धुप में राजा के घर जा रहा था। रास्ते में मालिक को प्यास लगी। आसपास पानी नहीं था। उन्होंने उगना को पानी लाने को कहा। उगना पानी लाने गया। थोड़ी दूर जाकर उगना बने शिव ने अपनी जटा से गंगा जल निकाला और पात्र में लेकर मालिक को पीने के लिए दिया। माँ सुरसरी के अनन्य सेवक, भक्त और पुजारी बेटे विद्यापति को गंगाजल का स्वाद समझते देर न लगी।  उन्हें दाल में कुछ काला नज़र आया और लगे जिद करने कि 'बता! ये गंगा जल कहाँ से लाया!'  मालिक की जिद के आगे उगना की एक न चली।  उसे अपने सही रूप में आकर रहस्योद्घाटन करना पड़ा, लेकिन एक शर्त पर कि मालिक भी यह भन्डा किसी के सामने नहीं फोड़ेगा। नहीं तो,  शिव अंतर्धान हो जायेंगे ! दिन अच्छे से कटने लगे।  मालिक भक्त और सेवक भगवान !  एक दिन मालकिन सुशीला ने उगना को कुछ काम दिया। ठीक से नहीं समझ पाने से वो काम उगना से बिगड़ गया। फिर क्या! मालकिन भी बिगड़ गयी और 'खोरनाठी' (आग से जलती लकड़ी) से उगना की पिटाई शुरू हो गयी।  विद्यापति ने ये नज़ारा देखा तो रो पड़े. उनके मुँह  से बरबस निकल पड़ा " अरे ये क्या कर डाला? ये तो साक्षात शिव हैं!" बस इतना होना था कि शिव अंतर्धान हो गए।  उगना के जाते ही विद्यापति विक्षिप्त हो गए और महादेव के विरह में पागलों की तरह विलाप करने लगे। निश्छल भक्त की यह दुर्दशा देखकर महादेव की आँखों में आँसू आ गए। वह फिर प्रकट हुए और भक्त से बोले " मैं तुम्हारे साथ तो अब नहीं रह सकता लेकिन प्रतीक चिन्ह में लिंग स्वरुप में तुम्हारे पास स्थापित हो जाउंगा। मधुबनी जिले के भगवानपुर में अभी भी उगना महादेव अपने भक्त शिष्य को दिए गए वचन का निर्वाह कर रहे हैं।
हमें इस कहानी को सुनाने के बाद ग्रामीण महोदय ने एक लोटा मीठा जल पिलाया । इसे  हमने मन ही मन उगना का गंगाजल ही माना। फिर उन्होंने विद्यापति के माँ गंगा से अनन्य प्रेम और उत्कट भक्ति की अमर कथा सुनायी। काफी वय के हो जाने के बाद विद्यापति ठाकुर (मिथिला के इस कोकिल कवि का पूरा नाम) रुग्ण हो चले थे । अपना अंतिम समय अपनी परम मोक्षदायिनी माँ भागीरथी के सानिद्ध्य में वे बिताना चाहते थे। इसे यहाँ गंगा सेवना कहते हैं। कहारों ने विद्यापति की पालकी उठायी और सिमरिया घाट की ओर चल पड़े । पीछे-पीछे पूरा परिवार। रात भर चलते रहे। भोर की वेला आयी। अधीर विद्यापति ने पूछा "कितनी दूर और है"? कहारों ने बताया "पौने दो कोस". पुत्र विद्यापति अड़ गया. "पालकी यहीं रख दो. जब पुत्र इतनी लम्बी दूरी  तय कर सकता है तो माँ इतनी दूर भी नहीं आ सकती?"  पुत्र की आँखों से अविरल आँसू बह रह थे।  माँ भी अपनी ममता को आँचल में कब तक बाँधे  रह सकती थी!  हहराती हुई पहुँच गयी अपने लाल को अपने आगोश में लेने ! अधीर पुत्र ने अपनी पुत्री दुल्लहि से कहा:
दुल्लहि तोर कतय छठी माय
कहुंन ओ आबथु एखन नहाय
वृथा बुझथु संसार-बिलास
पल पल भौतिक नाना त्रास
माए-बाप जजों सद्गति पाब
सन्नति काँ अनुपम सुख पाब
विद्यापतिक आयु अवसान
कार्तिक धबल त्रयोदसी जान.
पुत्र विद्यापति को उसके जीवन का सर्वस्व मिल चुका था। उसका पार्थीव शरीर अपनी माँ की गोद में समा चुका था। उसके अंतस्थल से माता के चरणों में श्रद्धा-शब्दों का तरल प्रवाह फूट रहा था:
बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे
छोड़इत निकट नयन बह नीरे
करजोरी बिलमओ बिमल तरंगे
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे
एक अपराध छेमब मोर जानी
परसल माय पाय तुअ पानी
कि करब जप ताप जोग धेआने
जनम कृतारथ एकही सनाने 
माँ गंगा अपने बेटे को गोदी में लिए बहे जा रही थी। नयनों में स्मृति-नीर लिए हम वापस अपने गंतव्य को चले जा रहे थे............." उगना के मालिक, विद्यापति, अपनी अंतिम गति को प्राप्त कर रहे थे!" 

Sunday, 4 September 2022

सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।

'मनोहर-पोथी' के ककहरा से माथापच्ची करने के उपरांत हमारा मासूम बालपन  'रानी,मदन अमर' के साथ हिंदी की शब्द-रचना और वाक्य-विन्यास की उलझनों में हुलसता। किसी सुगठित साहित्यिक पद्य-रचना से सामना तो स्कूल में होने वाली नित्य प्रातर् कालीन प्रार्थना से ही हुआ। ये बात अलग है कि बाल मन उस प्रार्थना के मर्म को नहीं समझता पर उसके कोरस के सरस  और लय की ललित धारा में नहाकर अघा जरुर जाता! वे दो छात्र और छात्राएँ,  जो इस कोरस गान का नेतृत्व करते मेरे मन में अपनी आराध्य छवि बना लेते। बाद की कक्षाओं में प्रतिभा मूल्याङ्कन के दो ही पैमाने चलन में देखे गए। एक, गणित के प्रश्नों को कौन पहले सुलझा लेता और दूसरा, क्लास में खड़ा होकर अपने शुद्ध उच्चरित स्वर में बिना किताब देखे कौन कविता पाठ कर अपने अद्भुत आत्मविश्वास का शंखनाद कर दे?  बाद में इन कतिपय आत्मविश्वासी वीरों और वीरांगनाओं के ओजस्वी उद्घोष से उत्साहित माड़-साहेब (मास्टर साहब) शेष कक्षा को अपनी छड़ी से कविता नहीं रट पाने की पराजय की पीड़ा का कड़वा घूँट  पिलाते या कभी-कभी बेंच पर खडा करा के 'दर्शनीय' बना देते। बाद में संस्कृत के शब्द-रूपों ने दर्शनीयता की इस दशा को और दारुण बना दिया। रहीम की ये पंक्तियाँ तो प्रिय लगती थी कि:
"रहिमन मन की वृथा मन ही राखो गोय,
सुनी अठिलैहें लोग सब बाँट न लिहें कोय।"
                   परन्तु उस वेदना को भला मन में कोई कैसे रख पाता जिसे मास्टर साहब की लहराती छड़ी का कोमल हथेलियों से तड़ित ( और त्वरित भी!) स्पर्श आँखों को  बरसा कर सार्वजनिक कर देता! मानव जीवन में पुरुषार्थ का सबसे स्वाभिमानी आश्रम होता है बालपन!
हाँ, एक और पैमाना जुड़ गया प्रतिभा के मूल्याँकन का। वह था- हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद। हिन्दी की कविताएँ कंठस्थ करने वाले की अपनी अहमियत जरुर थी, लेकिन हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने में दक्ष कलाकार के आगे वह पानी भरता नज़र आता। बहुत बाद में पता चला कि शिक्षा के इस शैशव-सत्रीय प्रशिक्षण के ठीक उलट व्यावहारिक तौर पर असली जीवन में हमारे देश में अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की परम्परा ज्यादा पुष्ट और व्यापक है। अर्थात, ऊपर सब कुछ अंग्रेजी में। संविधान, कोर्ट-कचहरी, विज्ञान, तकनिकी-शिक्षा, मेडिकल की पढ़ाई, सब कुछ अंग्रेजी में। उसकी जो  बूंदे हिंदी में रूपांतरित होकर नीचे टपकती हैं उसी को स्वाती-सदृश नीचे का हिन्दी भाषी चातक छात्र चखकर अपने ज्ञान का मोती गढ़ लेता है। और तो और, सुनते है, १९४९ में सितम्बर के इसी पखवाड़े में संविधान सभा में हिंदी को राज भाषा बनाने के लिए अंग्रेजी में अद्भुत बहस हुई थी और अंत में मात्र एक वोट के अंतर पर इस पर मुहर लगी। फिर, अध्यक्ष राजेन बाबु के अध्यक्षीय भाषण ने अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी में हिंदी को ' 15 '  वर्षों  के लिए राज सिंहासन पर बिठाया।   
                        मै कक्षा-दर-कक्षा बढ़ता गया। वचन से लिंग, लिंग से संधि, संधि से समास, समास से कारक, कारक से आशय और आशय से सप्रसंग व्याख्या - इन व्यूहों से निरंतर घिरता चला गया। मैट्रिक तक आते-आते तीन पुस्तकों, कहानी संकलन, गद्य संकलन और पद्य संकलन, ने मानों हिन्दी साहित्य के मूलधन की अपार थाती को सँभालने का उत्तरदायित्व मुझ पर ही निर्धारित कर दिया। ऊपर से चक्रवृद्धि ब्याज के रूप में एक निबंध संग्रह- 'जीवन और कला'! पहला निबंध हजारी प्रसाद द्विवेदी का - 'नाख़ून क्यों बढ़ते हैं'. मानों, ये नाखून जीवन में हमें घेरने वाले अवसाद का साक्षात् प्रतिनिधित्व कर रहे हों।  साहित्य का इतिहास, कविता के वाद, अलंकार, छंद विधान, शब्द-शिल्प - ये सब एक साथ मिलकर मेरे तेजस्वी छात्र जीवन के माधुर्य, ओज और प्रसाद को सोखने लगे। भाषा को पकड़ता, भाव फिसल जाते, भावों को ताड़ता, भाषा उलझ जाती! रटने की क्षमता का हरण करने के बाद ही परम पिता ने मुझे सांसारिक पिता के हाथों सौंपा था ! कोटेशन, कविता याद होते नहीं। वर्तनी का बरतन बिल्कुल साफ़ था। बोर्ड परीक्षा के पहले  'सेंट-अप' टेस्ट होता और उससे पहले ' प्री-टेस्ट '। हिंदी के शिक्षक और प्रकांड विद्वान् डॉक्टर शिव बालक शर्मा प्रसिद्द साहित्य मनीषी फादर कामिल वुल्के के शोध शिष्य रह चुके थे और इस बात को प्रमाणित करने में उनकी प्रतिबद्धता के पारितोषिक रूप में  प्रतिदिन न जाने कितने छात्र उनकी पतली छड़ी के मोटे दोदरे अपनी पीठ पर लेकर घर लौटते।
                              'प्री-टेस्ट' का रिजल्ट आया। मै फेल। पूर्णांक १००, उत्तीर्णांक ३३ और प्राप्तांक २७! पहली बार आभास हुआ कि स्थूल शरीर भी हल्का और सूक्ष्म मन भी भारी हो सकता है। जीवन के इस नव दर्शन का विषाद योग लिए घर पहुंचा जहां मेरे न्यायाधीश पिता का 'ऑस्टिन का संप्रभु न्याय-दर्शन' मेरी खातिरदारी की सारी जुगत लेकर पहले से विराजमान था। उन्होंने मन के भारीपन को उतारकर फिर से शरीर के पोर-पोर में समा दिया। मुझ पर बरसे दुस्सह दंड की प्रताड़ना के ताप से पिघला तरल मेरी माँ की आँखों में छलका। ये छलके नयन मानों मुझे बौद्धिक कायांतरण की चुनौती दे रहे हों! मै सहमा स्थावर खडा रहा। किन्तु भला समय का पहिया क्यों रुकता! हिंदी के आचार्य डॉक्टर सुचित नारायण प्रसाद का प्रसाद मिला। गुरु के आशीष की छाया में पनपता रहा। बोर्ड परीक्षा में मुझे हिंदी में ७० प्रतिशत अंक आये जो उस जमाने के लिए असाधारण बात होती थी। जिला स्कूल मुंगेर की चाहरदीवारी पार कर पटना साइंस कॉलेज होते हुए इंजीनियरिंग पढने रुड़की पहुच गया। डॉक्टर जगदीश नारायण चौबे, डॉक्टर राम खेलावन राय, प्रोफेसर अरुण कमल (साहित्य अकादमी प्रसिद्धि के प्रख्यात कवि), प्रोफेसर शैलेश्वर सती प्रसाद जैसे स्वनामधन्य शिक्षकों की ज्ञानसुधा का सरस पान-सुख मिला। रुड़की आते-आते इन गुरुओं ने भाषा और साहित्य का इतना अमृत घोल दिया था कि अब हिंदी की अस्मिता की लड़ाई में शामिल हो गया। हिंदी प्रायोगिक विकास समिति का गठन हुआ। मै कार्यकारिणी का सदस्य बना। हिंदी दिवस समारोह में कैम्पस में अतिथि रूप में पधारे डॉक्टर राम कुमार वर्मा, डॉक्टर विद्यानिवास मिश्र सरीखे हिंदी के बोधि-वृक्ष का सानिध्य-गौरव मिला। राम कुमार वर्मा जी ने कसम खिलाई- हस्ताक्षर हिंदी में करेंगे। आज तक कसम नहीं टूटी।  रूडकी देश का पहला इंजीनियरिंग संस्थान बना जहां अंगरेजी की जगह वैकल्पिक रूप से सेमेस्टर में हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था की गयी। डॉक्टर आशा कपूर हमारी प्रोफेसर रहीं जिनकी अपार ममता और आशीष हम पर बरसे। सबसे पहला पी एच डी शोध पत्र धातु अभियांत्रिकी में हिंदी में इसी संस्थान ने स्वीकृत किया। बाद में अपने अभूतपूर्व संघर्ष की बदौलत श्याम रूद्र पाठक ने आई आई टी दिल्ली में अपना शोध पत्र हिन्दी में स्वीकृत कराने में सफलता पाई। अभी संघर्ष विराम का समय नहीं आया था। पुर्णाहूति तब हुई जब बाद में संघ लोक सेवा आयोग ने अपनी परीक्षाओं में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार किया।
                                   संघ लोक सेवा आयोग में इंजीनियरी सेवा की मेरी अतर्वीक्षा (इंटरव्यू) थी। डॉक्टर जगदीश नारायण का बोर्ड था। आई आई टी दिल्ली के प्रोफेसर नटराजन साहब सदस्य थे। उन्होंने उन दिनों हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए चल रहे संघर्षों पर चुटकी ली। मै भला क्यों चूकता ! मै उनसे उलझ गया। मैंने स्पष्ट शब्दों में अपने तर्कों को उनके समक्ष रखा। अब वे उस शेर की मुद्रा में आ गए जिसकी ललचायी निगाहें  जलप्रवाह के निचले छोर पर जल पीने वाले मेमने में मुझे निहार रही हो! भला हो चंपारण का, जो मेरी जन्म भूमि है। उन्होंने मुझे घेरने के लिए चंपारण आन्दोलन का इतिहास उकटना शुरू किया। मै कहाँ भला उकताता! लेकिन आपको उकताने से बचाने के लिए मै पूरी कहानी सुनाये बिना ये बता दूँ कि बोर्ड के अध्यक्ष जगदीश नारायण साहब ने मुझे लोक लिया और मै थोडा सशंकित किन्तु विजयी मुद्रा में बाहर आया।
आज हिंदी पखवाड़े में शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर उन समस्त गुरुजनों को याद करते मन में एक अजीब हलचल हो रही है। उनका आशीर्वाद आज भी खूब फल फूल रहा है। अनुभव सर्वदा ज्ञान से श्रेष्ठ रहा है।  मेरे जीवन में आये ऊपर वर्णित व अवर्णित सभी पात्र मेरे जीवन पथ को आलोकित करने वाले मेरे पूज्य गुरु रहे हैं और मेरे अनुभव का पोर-पोर  उनके आशीष से सिक्त है। वह पल पल मेरी स्मृतियों में सजीव रहेंगे और उपनिषद् की ये पंक्तियाँ उस जीवन्तता में अपना अनुनाद भरती रहेंगी:-
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । 

Thursday, 1 September 2022

चल उड़ जा रे पंछी!






पुस्तक का नाम - चल उड़ जा रे पंछी (दो खंडों में)

(दूसरे खंड 'चित्रगुप्त कोश' में चित्रगुप्त के सारे गाने  और चंद भोजपुरी फ़िल्मों  के सारे गानों का संकलन)

दोनों खंडों का सम्मिलित मूल्य - १५०० रुपए 

लेखक - डॉ० नरेन्द्र नाथ पाण्डेय  

प्रकाशक – कौटिल्य  बुक्स, ३०९, हरि सदन, २०, अंसारी रोड ,  दरियागंज, नयी दिल्ली – ११०००२

अमेजन लिंक  https://www.amazon.in/dp/939088568X?ref=myi_title_dp



यह भी अजब इत्तफाक  ही है कि  आज़ादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष में हम जहाँ अपने गुमनाम स्वातंत्र्य  वीरों की अस्मिता तलाश रहे हैं, आदरणीय नरेंद्र नाथ पांडेय ने अपनी पुस्तक ‘चल उड़ जा रे पंछी’ में हमारे संगीत जगत के एक ‘अनसंग हीरो’ पर पड़ी समय की धूल को झाड़कर उसके दीप्त  व्यक्तित्व के अन्वेषण का महती यज्ञ संपन्न किया है। लेखक की यह कृति बहुत मायनों में विलक्षण है। एक तो यह पुस्तक अपने लक्ष्य के केंद्रबिंदु में महान संगीतकार चित्रगुप्त के कृतित्व पर शोधात्मक  प्रकाश डालती है; दूसरी ओर, यह समकालीन भारतीय  सिनेमा के चाल और  चरित्र को भी बख़ूबी पाठकों के समक्ष परोसती है। प्रोफेसर पांडेय का अपना व्यक्तित्व भी इस लेखन में पाठकों के समक्ष सशक्त रूप से उभरकर आता है। लेखक मस्तिष्क से  प्रखर वैज्ञानिक प्रतिभा के धनी हैं, लेकिन उनका दिल अद्भुत साहित्यिक संस्कारों से पोषित-पल्लवित है। नाटक, संगीत और कला की दुनिया के  अद्भुत अध्येता के  साथ-साथ वह स्वयं मँजे हुए रंगकर्मी और रेडियो  कलाकार हैं। कला और विज्ञान के मणि-काँचन सुयोग से सुशोभित इस लेखक की  कृति में स्वाभाविक है कि जहाँ एक ओर अपने शोध में उन्होंने पूरी वैज्ञानिकता का निर्वाह किया है; वहीं  चित्रगुप्त के संगीत-कौशल  के मर्म को बड़ी कोमलता और  सूक्ष्मता से स्पर्श करने में उनकी बाज़ीगरी अपने पूरे परवान पर चढ़ती  नज़र आती है। संगीत के एक निष्णात  साधक के जीवन-वृत को जिस कथा-शैली में उन्होंने बाँधा है, उससे  पाठक भी उसी तन्मयता से अद्योपांत बँधा  रहता है।

इतिवृतात्मक कथा-शिल्प  में बहती चित्रगुप्त की जीवन-गाथा भी लेखक की उसी सरल, सुबोध और मीठी शैली में स्वच्छंद  सलिला  की भाँति बहती है, जिस मिठास के चित्रगुप्त  प्रतिनिधि संगीतकार थे। पुस्तक के  कहन का ढंग अपने आप में अनोखा है। भारतीय संगीत-कानन की कोयल लता मंगेशकर के आशीष की छाया से पुस्तक की कथा-यात्रा का सगुन  होता है। स्वर-साम्राज्ञी के सुर में  संगीत के फ़नकार का साक्षात्कार - अद्भुत श्री गणेश है! आनंद-मिलिंद और उदित नारायण की लय को समेटे विशाल भारद्वाज की भूमिका शुरू में ही पाठक के मन की  उत्सुकता की साँकल को खोल देती है। फिर तो, उदय भागवत को श्रद्धा-अर्घ्य-समर्पण के पश्चात पांडेयजी  अपने पाठकों को इतनी तन्मयता से चित्रगुप्त के जीवन-चरित  की गंगा में उतारते  हैं कि वह इस कथा सरित्सागर की अतल  गहराई की सुधि लेकर ही दम लेता है। पुस्तक के कथ्य का चुंबकीय आकर्षण पाठक को अंतिम छोर पर भी छोड़ने को तैयार नहीं होता और ‘कुछ और’ की लालसा में वह चित्रगुप्त की  मीठी धुन में तैरता रह जाता है।

अंत-अंत तक तो यह विश्वास ही नहीं होता कि जीवन की नियति भी ‘नेति-नेति’ के दर्शन से इस क़दर आलोकित है  गोपालगंज के सवरेजी गाँव में कुलीन कायस्थ परिवार में जन्मे एक लड़के को सात वर्ष की आयु में उसके संगीतज्ञ शिक्षक चाचा उसे अपने  साथ ले जाते हैं। मैट्रिक तक वह बालक उनकी संगीतमय छाया में अपने जीवन के प्रारंभिक संस्कार बटोरता  है। मैट्रिक पास करने के बाद उसके पिता-तुल्य भाई उसे पटना अपने साथ ले जाते हैं। दिनभर कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद  अपने भाई के तबले की ताल में उसकी अपनी  भावनाओं का  भविष्य थिरकता  है। पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का व्याख्याता बन जाता है।  काशी हिंदू  विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के व्याख्याता के पद की पेशकश मिलती है। किंतु, मन में रुनझुनाती माँ भारती  की वीणा  की झंकार उसे शास्त्रीय संगीत की विधा के अध्ययन के लिए भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय लखनऊ ले आती है। संगीत की  शास्त्रीय विधा में दीक्षित मन  अब गायन के गगन  में उड़ान भरने को मचल उठता है। सुमधुर कंठ-स्वर और कवित्व की प्रतिभा से अलंकृत चित्रगुप्त अपनी कल्पनाओं के चित्र के वृहत फलक की तलाश में बंबई  पहुँच जाते हैं – अपनी शैक्षणिक पीठिका  को पीछे छोड़कर। एक  व्यवस्थित  थिर जीवन के केंचुल से निकलकर संघर्ष की पथरीली राहों पर रेंगने! कोरस गाने में पहली भूमिका मिलती है, जो उनके आत्मसम्मान को बिलकुल रास नहीं आती। किंतु मन मानकर उसी से शुरुआत करते हैं। विधि का विधान देखिए, उस पहले कोरस में ही उनकी  भेंट एक ऐसे नगीने से हो जाती है जो उनके भविष्य के राग का अमर स्वर बन जाता है। अब यह वाक़या लेखक की बोली में  ही सुनिए –

“एक दिन की बात है। एक गाने की रिकॉर्डिंग के दरम्यान, चित्रगुप्त ‘कोरस’ की टीम के सदस्यों के साथ खड़े थे। बग़ल में एक लजीला-शर्मीला, सीधा-साधा नवयुवक भी खड़ा था। उन दोनों के बीच बातचीत और परिचय का सिलसिला शुरू हुआ।

‘आपका नाम क्या है?’ – नवयुवक ने पूछा।

‘मेरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव है, और मैं बिहार से आया हूँ। और, आपका परिचय?’ – चित्रगुप्त ने पूछा।

‘जी, मैं कोटला सुलतान सिंह, मजीठा, जिला अमृतसर, पंजाब से आया हूँ‘, नवयुवक ने जवाब दिया, ‘मेरा नाम मुहम्मद रफ़ी है।‘

यह बातचीत कोरस के दो गायकों के बीच हो रही थी, जिनमें एक बहुत बड़ा संगीतकार बना, और दूसरा बहुत बड़ा गायक! प्रकारांतर से चित्रगुप्त और मुहम्मद रफ़ी की मित्रता परवान चढ़ी, और रफ़ी साहब ने चित्रगुप्त के संगीत-निर्देशन में ढाई सौ से अधिक गाने गाए।“ 

ऐसे अनेक वृतांत लेखक की मोहक शैली में इस पुस्तक में आते हैं कि पाठक उन्हें  पढ़कर लहालोट हो जाता है। कहानी सुनाते-सुनाते लेखक अनजाने में भारतीय चित्रपट के इस चित्रगुप्त के  व्यक्तित्व और कृतित्व के विश्लेषण में अपने स्वयं के शोधधर्मी वैज्ञानिक संस्कार  की छाप छोड़ने में तनिक भी नहीं चूकता। उनके समूचे कृतित्व-काल को लेखक ने छह काल खंडों में विभाजित किया है। यह काल- विभाजन पूरी तरह से लेखक का अपना वस्तुनिष्ठ  अवलोकन है जो समकालीन सिनेमा के इतिहास  की पड़ताल भी उसी वैज्ञानिक अन्वेषण पद्धति से कर लेता है। चित्रगुप्त के संगीत की धुनों के सफ़र के साथ-साथ समकालीन गायकों की यात्रा का भी बड़ा सरस वर्णन मिलता है। लेखक अपनी इस रोचक कथा-यात्रा में पाठकों को 'पूर्व-राग' से 'उपसंहार' तक अपनी सरस वाचन शैली के आकर्षण-पाश  में बाँधे चलता है।  वह  चित्रगुप्त  के साथ-साथ  उस काल, फ़िल्म, गीत, गायक, राग, ताल और  संगीत के स्केल तक की जानकारी दे देता है। बीच-बीच में उन गायकों के व्यक्तिगत जीवन और उनके आपसी संबंधों  की झलकियों से भी पाठकों के मन को मंद-मंद  महुआते  रहता है।

और तो और, इन संगीतों में प्रयुक्त वाद्य-यंत्रो की ‘इंटरल्यूड’ सरीखी  बारीकी को  लेखक इतनी प्रवीणता से अपने विश्लेषण में गुथता है कि  पाठक अनायास वाद्य-विद्या में स्वयं को दीक्षित होता महसूस करने लगता है। चित्रगुप्त एक प्रयोगवादी संगीतकार के रूप में उभरते नज़र आते हैं। स्वयं शास्त्रीय विद्या का प्रकांड अध्येता होने के कारण भारतीय संगीत की शास्त्रीयता के कुशल चितेरे तो वह हैं ही, साथ ही जिस चतुराई से उन्होंने पश्चिमी वाद्य-यंत्रों का मिश्रण किया, वह आगे के दिनों  में भारतीय संगीत की विकास-यात्रा के मील का महत्वपूर्ण पत्थर साबित हुआ। तानपुरा, सितार, वीणा, सरोद, इसराज, सारंगी, बाँसुरी, शहनाई, संतूर, पखावज, झाल, तबला, डुग्गी, ढोलक, घुँघरू – इन सभी भारतीय शास्त्रीय वाद्य-यंत्रों के साथ पश्चिमी यंत्रों पियानो, क्लारीयोनोट, ट्रम्पेट, पिकोलो, चेलो, मैडोलिन , गिटार, अकोर्डियन, बौंगो, कौंगो, ज़ाइलोफ़ोन, सेक्सोफ़ोन के प्रयोग ने चित्रगुप्त की प्रतिभा के विशेष पक्ष को रेखांकित किया। मिठास, सरलता और नवीनता की त्रिवेणी से नि:सृत उनके गीतों में तीन तत्व बड़ी प्रमुखता से उभरते हैं – गीत के शब्द, धुन और सुस्पष्ट गाने की मोहक अदा! अपने पहले गुरु एस० एन० त्रिपाठी से स्वतंत्र होते ही चित्रगुप्त का यह प्रयोगवाद परवान चढ़ने लगा किंतु उन दोनों के बीच के संबंधों की ऊष्मा पर तनिक भी आँच नहीं आयी। बाद में  भी उनके संगीत निर्देशन में चित्रगुप्त  ने कई गाने गाए। यह इन दो महान कलाकारों के उदात्त व्यक्तित्व की ओर संकेत करता है।

लेखक ने अपनी अद्भुत विवेचना- बुद्धि का परिचय देते हुए चित्रगुप्त की संगीत यात्रा को जिन प्रमुख छह, काल खंडों में बाँटा है, वे १९४६- १९५२,  १९५३- १९५७ और १९५८-१९६२, १९६३-१९६८, १९६९-१९७४ और १९७५-१९८९ की अवधि हैं। इन काल खंडों  के प्रतिनिधि गीतों को लेखक ने उनके सर्वांगीण पक्षों के साथ सामने रखा है। उदाहरण के तौर पर १९४६-१९५२ के काल खंड के अध्ययन में लेखक की सूक्ष्म शोधधर्मी दृष्टि की बानगी इस तालिका में देखिए :

क्रमांक

गीत

फ़िल्म  (वर्ष)

गायक

राग

ताल

स्केल

वो रुत बदल गयी वो तराना बदल गया

जादुई रतन(१९४७)

गीता रॉय  ( दत्त)

भैरवी

दादरा

C

ए चाँद तारे हमें बेक़रार करते हैं, ए मौत आ, तेरा हम इन्तज़ार

टाइग्रेस (१९४८)

चित्रगुप्त

पहाड़ी और विलावल

दादरा

B

उजड़ गया संसार मेरा, उजड़ गया संसार

भक्त पुंडलिक  (१९४९)

पारुल विश्वास (घोष)

भैरवी

कहरवा

C

आँखों ने कहा, दिल ने सुना, हो गया निसार

भक्त पुंडलिक (१९४९)

चित्रगुप्त, उमा देवी (टुनटुन)

काफ़ी

दादरा

D

छंदनी छिटकी हुई है, मुस्कुराती रात है

हमारा घर  (१९५०)

मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय

काफ़ी

कहरवा

B

रंग भरी होली आयी, रंग भरी होली

हमारा घर (१९५०)

मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम

खमाज

दादरा

+

चोरी चोरी मत देख बलम, भोली दुल्हन शरमाएगी

हमारा घर(१९५०)

मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम

काफ़ी

कहरवा

B

कहाँ चले जी सरकार, कहो जी तुम कहाँ चले

हमाराघर (१९५०)

किशोर कुमार, शमशाद बेगम

काफ़ी

कहरवा

+

देखो तो दिल ही दिल में जलते हैं जलाने वाले

हमारा घर (१९५०)

गीतारॉय,शांति शर्मा,शमशादबेगम

काफ़ी

कहरवा

B

१०

सब सपने पूरे आज हुए, चमके आशा के तारे

वीर बब्रुवाहन  (१९५०)

मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय

काफ़ी

कहरवा

+

११

आइ पिया मिलन की रात, चंदा से मिली चाँदनी

वीर बब्रुवाहन (१९५०)

अमृतबाइ कर्नाटकी

विहाग और खमाज

कहरवा

B

१२

ये तारों-भरी रात हमें याद रहेगी, दो दिन की मुलाक़ात हमें याद 

हमारी शान  (१९५१)

मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय

काफ़ी

दादरा

C

१३

कोई आ करे, कोई वाह करे, दुनिया का यही अफ़साना है

हमारी शान (१९५१)

तलत महमूद

काफ़ी

कहरवा

+

१४

कभी ख़ुशियों के नग़मे हैं, कभी ग़म का तराना है

तरंग  (१९५२)

राजकुमारी

काफ़ी

कहरवा

B

१५

अदा से झूमते हुए, दिलों को चूमते हुए, ये कौन मुस्कुरा

सिंदबाद द सेलर (१९५२)

मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम

यमनी, विलावल, माँझ खमाज

दादरा

+

लेखक ने अत्यंत रोचक ढंग से अपने विश्लेषण में ऐसी कई  समानांतर कहानियों का चित्र भरा है  जो पाठक-मन को बरबस गुदगुदाते  हैं। अपने दूसरे कालखंड में प्रसिद्ध हिंदी कवि, गोपाल सिंह नेपाली, की लिखी कविताओं पर चित्रगुप्त के संगीत का जो जादू चला वह फ़िल्म संगीत की दुनिया में उनकी पैठ को और गहराता चला गया। 'नागपंचमी' के गाने लोगों की जुबान पर चढ़कर बजने लगे। संगीत यात्रा के क्रम में धीरे-धीरे आशा भोंसले, लता मंगेशकर जैसे नामचीन  फ़नकारों  के जुड़ते जाने के साथ-साथ चित्रगुप्त का संगीत भी अपनी विविधताओं की छटा  बिखेरने लगा। फ़िल्मों का ग्रेड भले ही ‘बी’ या ‘सी’ रहा हो, गाने ‘ए’ ग्रेड के रूप में भारतीय मानस पर छाते चले गए। तीसरे और उसके बाद के काल-खंड में चित्रगुप्त की मिठास अपने शिखर  का स्पर्श कर रही थी। संतूर, वायलिन और पियानो का संतुलित प्रयोग तबले की ताल  पर किल्लोल करने लगा था। लेखक ने बड़ी तन्मयता से इन सभी काल-खंडों के प्रतिनिधि गीतों को उनसे जुड़े रोचक संस्मरणों  की चाशनी में डुबोकर अपनी ललित लेखन शैली में इस पुस्तक में उद्धृत किया है।

 १९७४ में यह महान संगीतकार पक्षाघात का शिकार हो जाता है। पुत्र आनंद- मिलिंद के अदम्य सहयोग से संगीत का यह पाखी अपनी रचनात्मकता के तिनके-तिनके को सहेजकर फिर से एक ऐसा घोंसला बना लेता है जिससे धुनों की माधुरी की  मोहक  बहार पुनः मुस्कुराती  है और  सारा संगीत जगत मस्ती में  झूम उठता है। उसी घोंसले से आनंद और मिलिंद नाम के दो मकरंद संगीत के व्योम में अपनी विरासत की तान भी छेड़  देते हैं।

अब इसे लेखक का वैचारिक लालित्य ही कहेंगे कि हिंदी धुनों की इस चित्र-कला का चित्रण करते समय समानांतर लोक-भाषा की लोक-धुनों के उद्भव की कला से वह किंचित बेख़बर नहीं रहता। भोजपुरी फ़िल्म के इतिहास का रचना-काल होता है १९६२। और, इतिहास के इस आँगन को चित्रगुप्त अपने संगीत की रस-माधुरी से सराबोर कर देते हैं। ‘हे  गंगा मैया तोहे पीयरी चढ़इबो’ में चित्रगुप्त ने गीत-गंगा को अपने मोहक संगीत की पीयरी ही तो चढ़ायी है। लेखक की ही कलम से,

 ‘भोजपुरी की इस पहली फ़िल्म के लिए संगीत देने का निमंत्रण चित्रगुप्त को दिया गया, चित्रगुप्त ने इस फ़िल्म के गीतों को लिखने के लिए गीतकार शैलेंद्र के नाम की सिफ़ारिश की। शैलेंद्र के गीतों को चित्रगुप्त ने जिन मीठे सुरों में बाँधा, और जितने मीठे गले से मुहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और सुमन कल्याणपुर ने उन गानों को गाया, उससे तत्कालीन बम्बई का सारा फ़िल्म उद्योग स्तंभित रह गया।‘

अपनी प्रखर वैज्ञानिक दृष्टि के आलोक में लेखक भोजपुरी फ़िल्म में चित्रगुप्त के रचना-काल को भी दो खंडों (१९६२-१९६५ और १९७९-१९९१) में विश्लेषित कर उसकी बड़ी रोचक विवेचना करता है। लेखक पाठकों को एक और दिलचस्प बात बताने से कदाचित नहीं चूकता कि १९६४ में फ़णी मजूमदार के निर्देशन में मगही भाषा की जो पहली फ़िल्म ‘भइया’ बनी उसके गीतों को भी अपने सुरीले संगीत से चित्रगुप्त ने ही सजाया। चित्रगुप्त ने अपने संगीत के सुरों का जो विस्तृत वितान ताना उसमें शास्त्रीय तान से लेकर लौकिक राग, ग़ज़ल, क़व्वाली, होली, ईद, युगल नृत्य-गीत,  मुजरा-महफ़िल, भजन-प्रार्थना, लोरी, मार्चिंग सॉंग, पैरोडी और पाश्चात्य धुनों की विविधताओं की बहुरंगी  छटा छा गयी।

'पथ के साथी' के रूप में लेखक ने चित्रगुप्त की संगीत-यात्रा के उन तमाम मुख्तलिफ़ साथी अदाकारों का बड़ा ही सरस वृत्तांत सुनाया है  जिन्होनें  अपने फन के भिन्न-भिन्न साजों में सजकर चित्रगुप्त-संगीत के चित्रपट को पूर्णता प्रदान की। चित्रगुप्त का जीना एक कलाकार मात्र का जीना न होकर  कला का अपनी सम्पूर्णता में जीने के रूप में चित्रित हुआ है और इस चित्रांकन में लेखक की कूची भी खूब अव्वल चली है।  इन साथी कलाकारों के हमजोलीपन और उनकी आपसी ठिठोली में  भी मानों मानवीय संबंधों के राग की कोई  बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती  पसरी हुई हो! यह उन रागात्मक संबंधों का अद्भुत रसायन ही था कि चित्रगुप्त के संगीत ने मराठी भाषी लता जी और सुरेश वाडेकर, पंजाबी भाषी रफ़ी, पश्चिम बंगाल में पली-बढ़ी और गुजराती भाषी अलका याज्ञनिक तथा मैथिल उदित नारायण के सुरों के रस से  भोजपुरी गीतों को सराबोर कर दिया ।

 'मील के पत्थर'  अध्याय में लेखक के शोधात्मक कौशल ने अपने अर्श का स्पर्श कर लिया है । 'तो चलिए, साल के बावन सप्ताह की तरह चित्रगुप्त के उन ५२ मील के पत्थरों को देखा जाय'  की मीठी जुबान में पाठक को फुसलाते हुए लेखक चित्रगुप्त की कालजयी रचनाओं को उसके हाथ में थमा जाता है । सच कहें, तो पाठक लेखक की अनोखी अध्यापन-कला के पाश में बंध जाता है।  उदय भागवत, किशोर देसाई, आनंद जी, प्यारेलाल, सुरेश वाडेकर, रोबिन भट्ट, हरि प्रसाद चौरसिया, अलका याग्निक, उदित नारायण और समीर अनजान के साक्षात्कार  समकालीन फिल्म के अनेक अनछुए प्रसंगों की रोचकता और सरसता से लबरेज हैं।  'आत्मीयों के संस्मरण' और 'विविध प्रसंग' चित्रगुप्त की शख्सियत को मानवीय मूल्यों के आलोक में पहचानने और परखने के अलिंद हैं। पुस्तक का 'उपसंहार' पाठकों के दिल में यही बात रोप जाता है कि चित्रगुप्त जैसी कला-संस्थाओं, उनके मूल्यों और उनकी स्मृतियों का कभी उपसंहार नहीं होता! वह उस शाश्वत आत्मा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं, जो इस नश्वर देह को त्याजकर भी अपने सुकर्मों और अपनी कृतियों के रूप में शाश्वत बनी रहती हैं।  'अच्छा है कुछ ले जाने से, देकर ही कुछ जाना ...........चल उड़ जा रे पंछी!



और अब लेखक परिचय 

नेतरहाट विद्यालय और पटना साइंस कॉलेज से शिक्षा प्राप्त पूर्णिया जिले के 'सरसी' ग्राम में अवतरित हुए प्रोफेसर नरेंद्र नाथ पांडेय अनेक मामलों में एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं। पटना विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर रहे अद्भुद वैज्ञानिक सूझ-बूझ के धनी डॉ पांडेय ने 'रंगमंच एवं फिल्मों का एक-दूसरे पर प्रभाव एवं इनकी सामाजिक जिम्मेवारी' जैसे गूढ़ साहित्यिक और समाजशास्त्रीय विषय पर अनूठा शोध प्रबंध रच डाला, जिसके लिए पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें डी लिट् की उपाधि से विभूषित किया। रेडियो, टेलीविजन, रंगमंच एवं फिल्मों में अभिनय और निर्देशन के वृहत अनुभवों को समेटे डॉ पांडेय ने सम्पूर्ण भारत में एक साथ अनेक भाषाओं में प्रसारित, सबसे लंबी रेडियो श्रृंखला 'मानव का विकास' की सर्वाधिक किस्तों का सफल लेखन किया। 'रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानियाँ और मेरे रेडियो नाटक'  और 'देहरी से द्वार तक' इनकी बहुचर्चित प्रकाशित पुस्तक रही हैं। इनकी प्रकाश्य पुस्तक  'अन्तर्राष्ट्रीय  लेखकों की कहानियाँ और मेरे रेडियो नाटक' है 
'राज्य शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान , बिहार' के निदेशक रह चुके डॉ पांडेय अखिल भारतीय स्तर पर अनेक नाट्य प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं निर्देशक के पुरस्कार सहित 'शिखर सम्मान' के आभूषण का गौरव बटोर चुके हैं। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के संचालन से लेकर डॉक्यु ड्रामा, रेडियो पर बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं के निर्माण और प्रसारण, शिक्षाप्रद वार्ताएँ और  रेडियो रूपक की रचना तक का इनका सफर बड़ा ही रोचक और प्रेरक रहा है।
और अंत में, यह भी बताते चले कि इनकी धर्मपत्नी प्रो०डॉ० सुषमा मिश्रा, विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, ने पटना साइंस कॉलेज में हमें पढ़ाया भी है। इस नाते अत्यंत मृदुभाषी और आत्मीय प्रो० पांडेय हमारे 'गुरूपति' भी हुए। इस गुरुयुगल को सादर चरण स्पर्श।