ज़िन्दगी की कथा बांचते बाँचते, फिर! सो जाता हूँ। अकेले। भटकने को योनि दर योनि, अकेले। एकांत की तलाश में!
Sunday 11 July 2021
बरसाती आवारा !
Thursday 8 July 2021
गौतम की आत्म-ग्लानि
हिम शिला की गहन गुफा थी,
पसरा था नीरव निविड़ तम।
प्रस्तर मूर्ति मन में उतरी,
खिन्न मन खोए थे गौतम।
यादों में उतरी अहल्या,
शापित इंद्र सहस्त्र-योनि तन।
गहन ग्लानि में गड़ा चाँद था,
कलंक से कलुषित कृष्ण गगन।
आँखों में अवसाद का आतप,
मन में विचारों का घर्षण।
आत्मच्युत अपराध भाव से,
लांछित लज्जित न्याय का दर्शन!
मन के मंदिर के आसन से,
चकनाचूर मैं च्युत हुआ।
अपने ही दृग के कोशों से,
अहिल्ये! मैं अछूत हुआ।
अनजाने अभिसार को तेरे,
वक्र शक्र ने ग्रास लिया।
मद्धिम बूझा फीका शशि,
निज कर्मों का नाश किया।
धवल चाँदनी की आभा ही,
सोम व्योम का सेतु है।
हो रीता इससे सुधाकर,
हीन भाव ही हेतु है।
राहु का स्पर्श मयंक को,
ज्यों ही कलंकित करता है।
ग्रसित मृत-सा गोला मात्र यह!
राकेश न किंचित रहता है।
पतित पत्र भी पादप का,
बस धरा-धूल ही खाता है।
चिर सत्य, कि टहनी पर,
नहीं लौट वह पाता है।
च्युत छवि से पतित पुरुष भी,
कथमपि न जीवित रहता है।
मर्दित कर्दम आत्मग्लानि में,
पड़ा मृत ही रहता है।
कहूँ कासे! जो कह न सका,
हाय! लाज शर्म से गड़ा हुआ।
अब तो नित नियति यही,
मैं रहूँ मरा-सा पड़ा हुआ।
Monday 5 July 2021
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२४
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२४
(भाग – २३ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (प)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
२ – हड़प्पा में अश्वों के जीवाश्म नहीं पाए जाने के आधार पर घोड़ों से अपरिचित होने की दलील में भी कोई ख़ास दम नहीं है। सच तो यह है कि हड़प्पा स्थलों की खुदाई और भारत के अंदरूनी हिस्सों की खुदाई से भी आर्यों के कथित आक्रमण-काल (१५०० ईसापूर्व के बाद) से भी पहले के समय के अश्व-जीवाश्म मिले हैं। ब्रयांट इस बात का उल्लेख करते हैं कि ‘४५०० ईसा पूर्व में भारत में घोड़ों के उपस्थित होने के प्रमाण राजस्थान में अरावली पहाड़ी की गोद में बसे बागोर की खुदाई में मिलते हैं (घोष १९८९a, ४)। बलूचिस्तान के रन घुंडई में ई जे रौस के द्वारा करायी गयी खुदाई में घोड़े के दाँत मिलने की सूचना है (गुहा और चटर्जी १९४६, ३१५-३१६)। सबसे रोचक बात तो यह है कि इलाहाबाद के पास मगहर की खुदाई घोड़े की हड्डियाँ मिली हैं जिनके छह नमूनों की कार्बन डेटिंग करने पर उनकी अवस्था २२६५ ईसापूर्व से लेकर १४८० ईसा पूर्व तक की मिलती है (शर्मा, १९८०, २२०-२२१)। उससे भी ख़ास बात तो यह है कि कर्नाटक के हल्लर नामक उत्खनन स्थल से नव पाषाण काल के १५००-१३०० ईसा पूर्व के घोड़ों की अस्थियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसकी पहचान के आर अलूर (१९७१, १२३) नामक प्रसिद्ध पुरा-जंतुविज्ञानी ने करायी। सिंधु घाटी और इसके आस-पास फैले क्षेत्रों में १९३१ की शुरुआत में सेवल और गुहा ने असली घोड़ों की उपस्थिति के प्रमाण की सूचना दी। ख़ासकर मोहन-जो-दारो में ही ‘एक़ूस केबेलस (equus caballus)’ प्रजाति के उपलब्ध होने के अवशेष मिले हैं। आगे चलकर १९६३ में हड़प्पा, रोपर और लोथल के क्षेत्रों से इनके होने के प्रमाण की पुष्टि फिर भोलानाथ ने की। मौरटाइमर ह्वीलर तक ने इस क्षेत्र से मिली घोड़ों की आकृतियों की पहचान की है और यह स्वीकारा है कि इस बात के प्रबल संकेत हैं कि सिंधु घाटी और इसके आस-पास के क्षेत्रों में ऊँट, घोड़े और गदहे बहुतायत में पाए जाते थे। इस बात का दूसरा सबूत १९३८ में मैके ने दिया। उन्होंने मोहन-जो-दारो से मिली चिकनी मिट्टी की बनी घोड़े की एक अनुकृति का हवाला दिया। प्रारंभिक डयनेस्टिक काल (यूनान के संदर्भ में ऊपर और नीचे के प्राचीन यूनान के एकीकरण का काल जो ३१५० ईसापूर्व से २६८६ ईसा पूर्व का है और मेसोपोटामिया या सूमर के संदर्भ में २९०० से २३५० ईसा पूर्व का वह काल जब सूमेर एक से अन्य वंशानुगत प्रणाली पर शासित राज्यों में विभाजित होकर राजाओं के अधिकार क्षेत्र में आ गया) और अक्कडियन काल (२३४० और २२५० ईसापूर्व का वह काल जब अक्कड अर्थात अगेड शहर के शासकों ने फिर से सूमेर का एकीकरण किया) के बीच के समय की एक अश्वाकृति की सूचना पीगौट (१९५२, १२६,१३०) ने दी है जो सिंधु घाटी के पेरियानो घुंडई नामक स्थल से प्राप्त हुई है। हड़प्पा से प्राप्त कथित गधों की हड्डियों की फिर से जाँच की गयी है और इस बात की पुष्टि की गयी है कि ये हड्डियाँ गधों की न होकर घोड़ों की हैं (शर्मा १९९२-९३, ३१)। इसी तरह के और भी सबूत अन्य सिंधु-घाटी-स्थलों से भी मिले हैं जैसे कालिबंगा (शर्मा १९९२-९३, ३१), लोथल (राव १९७९), सुरकोटदा (शर्मा १९७४), माल्वाँ (शर्मा १९९२-९३, ३२)। बाद में चलकर अन्य स्थलों यथा स्वात घाटी (स्टैकुल १९६९), गुमला (संकालिया १९७४, ३३०), पिरक (जैरिज १९८५), कुंतसि (शर्मा १९९५, २४) और रंगपुर (राव १९७९, २१९) से भी इस बात के प्रचुर सबूत मिले हैं (ब्रयांट २००१:१६९-१७०)। मध्य प्रदेश की चम्बल घाटी के कायथ क्षेत्र से मृणमूर्त्ति या टेराकोटा (एक इतालवी शब्द जिसका अर्थ पकी मिट्टी होता है) की बनी अश्व-आकृतियाँ मिली हैं। यह २४५० से २००० ईसापूर्व के ताम्र युग की मूर्तियाँ हैं। लोथल में शतरंज की विसात पर चलने वाले घोड़े की आकृति मिली है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र के सुरकोटदा से मिली आकृति के बारे में प्रामाणिक अश्व विशेषज्ञों ने भी पुष्टि की है, “जे पी जोशी ने १९७४ में सुरकोटदा से खुदाई कर आकृतियाँ निकाली। उसके तुरंत बाद ए के शर्मा ने इन हड्डियों सहित इस स्थल के भिन्न-भिन्न स्तरों से प्राप्त हड्डियों के बारे में उनके घोड़ों की हड्डी होने की पुष्टि की और इनका काल २१००-१७०० ईसापूर्व निर्धारित किया। ‘एक़ूस एसिनस’ और ‘एक़ूस नेमियोनस’ प्रजाति के घोड़ों की हड्डियों और खुरों के अवशेष के साथ-साथ अंगुलियों और टखनों की हड्डी, उनके सामने के कृंतक दाँत (इन्साइज़र) और दाढ़ों के चवर्ण दाँत के भी अवशेष मिले हैं। साथ-साथ ‘एक़ूस केबेलस लीन’ प्रजाति की हड्डियों के अवशेष भी मिले हैं (शर्मा १९७४, ७६)। बीस वर्षों के बाद भारतीय पुरातत्व परिषद (Indian Archeological Society) के वार्षिक समारोह के उद्घाटन में मंच पर यह उद्घोषणा की गयी कि हंगरी के रहने वाले दुनिया के एक जाने माने पुरातत्वविज्ञानी जो घोड़ों के विशेषज्ञ थे, श्री सेंडर बोकोंयी, ने दिल्ली के एक अधिवेशन में भाग लेने के बाद घोड़ों की इन अस्थियों के अवशेष का गहन परीक्षण किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ये अस्थियाँ ‘एक़ूस केबेलस’ प्रजाति के पालतू घोड़ों की थीं – “इन प्रजाति के असली घोड़ों की पहचान उनके ऊपरी और निचले जबड़े के दाँतों की आकृति और कृंतक एवं चवर्ण दाँतों की बनावट के आधार पर प्रामाणिक रूप से की गयी है। पृथ्वी की नवीनतम भौगोलिक परतों के निर्माण के बाद से भारत में जंगली घोड़ों के पाए जाने के कोई चिह्न नहीं मिलते हैं। इस आधार पर इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि सुरकोटदा के घोड़े पूरी तरह से पालतू और घरेलू प्रकृति के थे (१९९३बी, १६२; लाल १९९७, २८५)”।
‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार विद्वान या तो इस बात पर पूरी चुप्पी साध लेते हैं या इसे सिरे से नकार देते हैं। हॉक ने मध्य मार्ग का सहारा लिया है और वह स्वीकारते हैं कि “जहाँ तक पुरातात्विक सबूतों के आधार पर पालतू घोड़ों के हड़प्पा की पहचान होने का प्रश्न है, अभी भी सवालों के घेरे में है। इस विषय में चेंगप्पा (१९९८) द्वरा संग्रहित तर्कों के सार को देखा जा सकता है।“ हॉक इस बात को और विस्तार देते हुए कहते हैं कि “सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जहाँ तक मेरे ज्ञान का विस्तार है, हमारे संज्ञान में हड़प्पा के स्थलों से प्राप्त ऐसे किसी भी पुरातात्विक सबूत का वजूद नहीं है जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी। कुल मिलाकर घोड़ों के साक्ष्य की बात आर्यों के भारत में घुसने की ओर ज़्यादा संकेत करता है बनिस्पत इस बात के कि वे भारत से निकलकर बाहर की ओर गए (हॉक १९९९a :१२-१३)।“
लेकिन ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के समर्थकों और यहाँ तक कि ख़ुद हॉक का भी यही कहना है कि आर्य यूक्रेन और दक्षिणी रूस के मैदानी भागों से अपने साथ दो पहिए वाले युद्धक रथ और घोड़े लेकर चले थे। बहुत दिनों तक वे मध्य एशिया के बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र (Bactria Margiana Archaeological Complex/BMAC) में जमे रहे जहाँ उन्होंने भारतीय-ईरानी संस्कृति का विकास किया और उस क्षेत्र के ढेर सारे स्थानीय शब्दों से अपनी शब्दावली को समृद्ध किया। उसके बाद वहाँ से १५०० ईसापूर्व वे पंजाब में घुसे, १२०० ईसापूर्व में उन्होंने ऋग्वेद रच डाली, पूरब की ओर गंगा के मैदानी भागों में प्रवेश किया, वहाँ यजुर्वेद लिख ली और फिर धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में वे पसर गए। अब यहाँ वे किसी भी पुरातात्विक सबूत को सामने लाने में पूरी तरह असफल हो जाते हैं जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी!
क - इस बारे में एक ख़ास बात ग़ौर करने लायक़ है कि आर्यों के तथाकथित भ्रमण पथ पर यूक्रेन से लेकर मध्य एशिया और पंजाब होते हुए उत्तरी भारत में भीतर पूरब की ओर बढ़ने तक के रास्ते में अभी तक घोड़ों या रथों को लेकर किसी भी तरह के ऐसे पुरातात्विक सबूत काल की उस परिधि में उपलब्ध नहीं हो पाए हैं जिसमें ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ का पहिया घूम सके।
ख - दूसरी बात ब्रायंट (२००१:१७३-१७४) की ध्यान देने वाली है। वे कहते हैं कि “एक दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है जिसे अधिकांश विद्वानों ने भी मान लिया है। सभी इस बात को मानने के लिए तैयार हैं कि बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे, मूलतः भारतीय-आर्य-संस्कृति का क्षेत्र है। इस संस्कृति में घोड़े क़ब्र में शव के साथ दफ़नाए जाने वाले संकेतों के रूप में सामने आते हैं। फिर भी, भले ही ढेर सारे जानवरों की हड्डियाँ खुदायी में मिली हों लेकिन उनमें घोड़ों की हड्डियाँ कभी नहीं मिली। यह फिर से इस बात को बल देता है कि घोड़ों की हड्डियों का खुदाई में नहीं पाया जाना घोड़ों का ‘नहीं होना’ नहीं है। और हड्डियों के इस नहीं होने के आधार पर क्या हम यह कह सकते हैं कि इस क्षेत्र के वाशिंदे भारतीय-आर्य ही नहीं थे। तो फिर यह तर्क भला कैसे गले उतर सकता है कि खुदाई में घोड़ों की हड्डियों के नहीं होने के बावजूद मध्य एशिया के इस क्षेत्र के वाशिंदों को आप भारतीय-आर्य स्वीकार लें और थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर सिंधु घाटी की वैदिक भूमि में इन्हीं परिस्थितियों को सिरे से नकार दें। तो फिर सबूत तो यही दर्शाते हैं कि मध्य एशिया के इस ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र’ में घोड़ों के साथ रहने वाले आर्य भारत से निकले ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजाति के आर्य थे न कि भारत की ओर आने वाले आर्य!
ग – ‘आर्यों’ के द्वारा दक्षिण एशिया और यूक्रेन से लाए गए जिन वैदिक रथों की चर्चा हॉक करते हैं उनमें से कोई एक भी नमूना उस काल गणना में भारत के किसी भी क्षेत्र से पुरातात्विक अवशेष के रूप में नहीं मिला है। रथों को प्रदर्शित करता सबसे प्राचीन पाषाण उत्कीर्णन ३५० ईसापूर्व के बाद का मौर्य काल का मिला है।
घ – सही बात तो यह है कि १५०० ईसापूर्व से ३५० ईसापूर्व के बीच में पंजाब और हरियाणा के किसी भी क्षेत्र से घोड़ों की हड्डियों के अवशेष मिलने का दृष्टांत नगण्य ही है। एक- दो छिटपुट मामले ज़रूर हैं जैसे हरियाणा के पूर्वोत्तर भाग में भगवानपुर और भागपुर से १००० ईसापूर्व काल की हड्डियाँ मिली हैं। किंतु, इससे यह बात नहीं बन जाती “जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी।“ और ना इससे १२०० ईसापूर्व के बाद की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन ही इंगित होता है। यह भी ग़ौरतलब है कि घोड़ों की हड्डियों के जो सबसे प्राचीन अवशेष मिले वे पश्चिमोत्तर भारत के पूरबी इलाक़े (पूर्वोत्तर हरियाणा) और दक्षिणी इलाक़े (कच्छ) से मिले। ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र’ से लेकर वृहत पंजाब तक किसी भी प्रकार के कथित ‘आर्य अश्व अस्थि’ के मिलने की कोई जानकारी नहीं है। इस बारे में ‘ब्रितानिका एंसाइक्लोपीडिया’ के १५ वें संस्करण में खंड ९ के पृष्ट ३४८ पर भारतीय पुरातत्व के विषय में प्रकाशित तथ्य भी ध्यान खिंचने वाला है, “फिर भी, यदि ठीक-ठीक कहें तो सबसे हैरत में डालने वाली बात यह है कि भारत के उन क्षेत्रों में आर्य-भाषा नहीं पहुँच पायी जहाँ लोहे और घोड़ों का प्रचलन था। आज तक ये क्षेत्र द्रविड़ भाषा समूह के ही भू-भाग हैं।“
विजेल भी शुरू में तो दावा करते हैं कि ‘ग्रंथ और भाषाओं के अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय आर्य तत्वों से इतर कुछ बाहरी भाषायी और सांस्कृतिक लक्षण हैं जो घोड़ों और आरेदार पहिए वाले रथों के साथ बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र (बीएमएसी) के रास्ते दक्षिणी एशिया के पश्चिमोत्तर प्रांतों में प्रवेश कर गए थे।‘ किंतु, शीघ्र ही अपने दावों को यह कहते हुए ख़ारिज करते दिखते हैं कि “फिर भी, आज के पुरातत्व-ज्ञान का अधिकांश इस धारणा को नकारता है […………] अभी तक इस बात के कोई पुख़्ता पुरातात्विक प्रमाण नहीं पाए गए हैं (विजेल २०००a:$१५)।
इसलिए जब तक इसी बात को स्वीकारने की इच्छा-शक्ति न हो कि इस धरा पर ‘वैदिक-आर्य’, ‘वैदिक अश्व’ और ‘वैदिक रथों’ का कोई अस्तित्व था, तब तक हड़प्पा की खुदाई से अश्व-अस्थियों की तथाकथित अनुपस्थिति के इन तमाम तर्कों के जाल की बुनावट न केवल बेमानी है, बल्कि बौद्धिक धोखाघड़ी और बेमतलब की भी है। ‘घोड़ों की हड्डियों के नहीं पाए जाने के बावजूद काल के एक खंड में बीएमएसी और पंजाब में आर्यों की उपस्थिति पर अड़ियल रूख अपनाना और ठीक ऐसी ही परिस्थिति में हड़प्पा में इन हड्डियों के नहीं पाए जाने पर उनकी उपस्थिति को सिरे से नकार देना’ इसे विमर्श की किस कसौटी पर बौद्धिक कहा जाय!
३ – भाषायी सबूत इस बात को पूरी तरह नकारते हैं कि जब तक ‘आर्य’ यूक्रेन के मैदानी भाग से अपने साथ घोड़ों को लेकर नहीं आए थे तब तक भारत के अनार्य-भाषी लोगों को घोड़ों की जानकारी नहीं थी। इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि ये घोड़े जिन्हें चाहे पश्चिमोत्तर की सरहदों के पार के अजूबे जानवर कह लें या घरेलू और पालतू मवेशी, पूरी तरह से भारत के ‘अनार्य’ निवासियों की ज़िंदगी में रचे बसे थे। तलगेरी जी ने अपनी पहली पुस्तक में इस रोचक बात का ख़ुलासा किया है कि “यदि घोड़ों के लिए संस्कृत भाषा में प्रयुक्त कुछ ख़ास नामों की चर्चा करें तो हमें कई नाम मिल जाते हैं जैसे – अश्व, अर्वंत या अर्व्व, हय, वाजिन, सप्ति, तुरंग, किल्वी, प्रचेलक और घोटक। आज तक इन शब्दों से उधार लिए गए घोड़े के किसी भी समानार्थक शब्द का द्रविड़ भाषाओं में लेश मात्र भी नहीं मिलता। ख़ास शब्द कुडिरय, परी, और मा [….]। संथाली और मुंडारी भाषाओं ने कोल-मुंडा भाषा के मौलिक शब्द ‘साड़ोम’ को संरक्षित कर लिया है। भाषाविदों द्वारा आज तक द्रविड़ और कोल-मुंडा भाषाओं में घोड़े के लिए किसी ‘आर्य शब्द को उधार लेने के दावे की बात तो दूर रही, उलटे इस बात को मानने पर ज़ोर ज़्यादा रहा कि संस्कृत का ‘घोटक’ शब्द जिससे आधुनिक आर्य भाषाओं में घोड़े के लिए अनेक शब्दों का जन्म हुआ है, स्वयं कोल-मुंडा भाषाओं से उधार लिया गया है (तलगेरी १९९३:१६०)।“
ऊपर की बातों की प्रतिध्वनि यहाँ तक कि विजेल के वक्तव्य में भी सुनायी देती है, “पालतू जानवरों के लिए भारतीय-आर्य और द्रविण भाषाओं के शब्द एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। जैसे – तमिल (इवली, कुडिरय), तमिल (परी – दौड़नेवाला, मा – जानवर, घोड़ा,हाथी), तेलगु (मावु – घोड़ा), नहली (माव -घोड़ा) आदि। इन शब्दों का भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत के समानार्थी शब्दों अश्व (घोड़ा) या दौड़ने वाला (अर्वंत, वाजिन आदि) से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं दिखायी देता है। स्पष्ट तौर पर घोड़ों के इश्तेमाल का कोई ताल्लुक़ भारतीय-आर्य भाषा बोलने वालों से कतई नहीं है (विजेल (२०००:१५)।“ अतः यह बात साफ़ है कि आर्यों का आक्रमण अनार्यों के द्वारा घोड़ों के इश्तेमाल की वजह कभी नहीं बना।
२००२ में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समाचार पत्र में अपने एक लेख में विजेल ने यह दावा किया कि भारत की अनार्य-भाषाओं के शब्द पश्चिम एशिया के भिन्न-भिन्न भागों, यहाँ तक कि चीन से उधार लिए गए हैं। ज़ाहिर है, इस बात पर उन्होंने रहस्यमय चुप्पी साध ली कि इस उधारी की प्रक्रिया के क्या कारण थे और द्रविड़ जीवन में उनके प्रवेश के वे कौन से तरीक़े, चरण या रास्ते थे जिनके आधार पर उन्होंने वैसे शब्दों को उधारी के शब्द घोषित कर दिया जो द्रविड़ भाषाओं के आम-जीवन के केंद्र में रच-बस गए थे। हालाँकि, इन तमाम बातों के बावजूद यह सत्य बना ही रहा कि अनार्य-भाषी भारतीय घोड़ों के इश्तेमाल से पहले से परिचित थे और इसका कारण जो कुछ भी रहा हो, आर्यों का आक्रमण कदापि नहीं रहा।
४ – ऋग्वेद के साहित्य इस इतिहास-बोध का पूरा सबूत देते हैं कि पुराने मंडलों के काल से ही घोड़े आम जीवन में एक महत्वपूर्ण और आदर के पात्र पालतू जानवर थे। स्वाभाविक तौर पर यह भी लाज़िमी है कि ‘अणु’ और ‘दृहयु’ के इलाक़ों में पाए जाने वाले अनोखे और बेशक़ीमती घोड़ों से वैदिक आर्य भी ३००० ईसापूर्व पूरी तरह वाक़िफ़ अवश्य होंगे। आगे चलकर आरेदार पहिए वाले रथ का अविष्कार होते ही नए मंडलों के रचे जाने तक ये घोड़े आम जीवन के हिस्से बन गए थे:
क – ‘स्पोक’ के लिए ‘अरा’ शब्द का प्रयोग नए मंडलों (५, १, ८, ९ और १०) में ही मिलता है।
पाँचवाँ मंडल – १३/६, ५८/५
पहला मंडल – ३२/१५, १४१/९, १६४/(११, १२, १३, ४८)
आठवाँ मंडल – २०/१४, ७७/३
दसवाँ मंडल - ७८/४
ख – उसी तरह ‘अश्व’ और ‘रथ’ शब्द भी पहली बार नए मंडलों में ही प्रकट होते हैं।
पाँचवाँ मंडल – २७/(४, ५, ६), ३३/९, ३६/६, ५२/१, ६१/(५, १०), ७९/२
पहला मंडल – ३६/१८, १००/(१६, १७), ११२/(१०, १५), ११६/(६, १६), ११७/(१७, १८), १२२/(७, १३)
आठवाँ मंडल – १/(३०, ३२), ९/१०, २३/(१६, २३, २४), २४/(१४, २२, २३, २८, २९), २६/(९, ११), ३५/(१९, २०, २१), ३६/७,
३७/७, ३८/८, ४६/(२१, ३३), ६८/(१५, १६)
नवाँ मंडल – ६५/७
दसवाँ मंडल – ४९/६, ६०/५, ६१/२१
ग – ऋचाओं के रचनाकारों के नाम में भी ये शब्द पाए जाते हैं।
पाँचवाँ मंडल – सूक्त ४७, सूक्त ५२ – ६१, सूक्त ८१ -८२।
पहला मंडल – सूक्त संख्या १००।
दसवाँ मंडल – सूक्त – १०२, सूक्त – १३४।
माना जाता है कि इंद्र को पश्चिमोत्तर के रहस्यों से अवगत कराने वाले भृगु ऋषि, दध्यांच के पास घोड़े का सिर था (पहला मंडल - ११६/१२, ११७/२२, ११९/९)। भृगु (४/१६/२०) और अणु (५/३१/४) को ही इंद्र के लिए रथ बनाने का श्रेय दिया जाता है। यह अपने आप में घोड़ों और रथों से संबंधित अनुसंधान और अविष्कार के प्रवाह की दिशा दर्शाता है। भले ही, ज़ाहिर तौर पर यह वैदिक आर्यों के ख़ुद के भ्रमण की दिशा न दिखलाता हो।
भले ही, घोड़े भारत की मिट्टी के न हों, प्रोटो-भारोपीय लोगों को उनकी मूल भूमि में ये उनसे भली-भाँति परिचित थे। और साथ ही, इस तथ्य की पटरी भी ‘भारत-भूमि-अवधारणा’ से बैठ जाती है।
Thursday 24 June 2021
भोजपुरी और अश्लीलता (भोजपुरी दिवस पर विशेष)
मैना करेली निहोरा अपना तोता से,
तनी ताक न गल थेथरु अपना खोता से।
बाहर निकलअ,
देखअ कइसन,
उगल बा भिनसरवा।
चिरई-चिरगुन,
चहक चहक के,
छोड़लेन आपन डेरवा।
मैना करेली.....
खुरपी कुदारी,
हाथ में लेके
चालले खेत किसान।
पिअरी माटी,
अंगना लिपस,
तिरिया बर बथान।
मैना करेली...
घुनुर घुनुर,
गर घंटी बाजे,
बैला खिंचे हर।
आलस तेज,सैंया
बहरा निकलअ,
चढ़ गइल एक पहर।
मैना करेली निहोरा..
धानी चूड़ी,
पिअरी पहिनले,
और टहकार सेनुर।
दुलहिन बाड़ी,
पेड़ा जोहत,
सैंया बसले दूर।
मैना करेली...
तोहरो कब से
असरा देखी,
बलम बाहर कब अइब।
नेह के पाँखि,
अपना हमरा,
मंगिया पर छितरईब।
मैना करेली,निहोरा अपना तोता से
तनी ताकअ न गलथेथरु अपना खोता से।
Thursday 17 June 2021
तनहा चाँद
कब तक जगता चाँद गगन में,
तनहा था, वह सो गया।
थक गई आंखे, अपलक तकती,
सूनेपन में खो गया।
किन्तु सपनों में भी उसकी,
प्रीता पल-पल पलती थी।
मन के सूनेपन में उसके,
धड़कन बन कर ढलती थी।
आएगी सुर ताल सजाकर,
राग प्यार का गायेगी।
अभिसार घनघोर घटा बन,
साजन पर छा जाएगी।
मन का आँगन इसी अहक में,
मह-मह महका जाता।
खिली कल्पना की कलियों में,
मन साजन इठलाता।
बाउर बयार भी बह-बह कर,
पत्तों में झूल जाती।
विस्फारित वनिता की अलकें,
हसरत में खुल जाती।
चूनर चाँदनी का चम-चम,
चकवा-चकई सब नाचे।
कुंज लता में कूके कोयल,
पपीहा पीहु-पीहू बांचे।
चंदन में लिपटी नागिन भी,
प्रीत सुधा फुफकारे।
अवनि से अम्बर तक प्राणी,
प्यार ही प्यार पुकारे।
सागर के मन में भी लहरें,
ले-ले कर हिलकोरे।
सूखे शून्य-से सैकत तट में,
भाव तरल झकझोरे।
देख प्रणय के पागलपन को,
बादल भी हुआ व्याला।
घटाटोप घनघोर जलद को,
अम्बर घट में डाला।
निविड़ तम के गहन गरल ने,
धरती पर डाला डेरा।
विरह वेदना की बदरी में,
चाँद का मुँह भी टेढ़ा।
उष्ण तमस का तिरता वारिद,
धाह अधर का धो गया।
कब तक जगता चाँद गगन में,
तनहा था, वह सो गया।
Thursday 10 June 2021
अहंकार
जमीन से उठती दीवारों
ने भला आसमान कहीं बांटा है!
या अहंकार के राज मिस्त्रियों ने
कभी हवाओं को काटा है!
भेद की भित्तियों के वास्तुकार!
दम्भ के शोर-गुल में तुम्हारे
सिमटा जा रहा समय का सन्नाटा है।
तू-तू, मैं-मैं की तुम्हारी
तुरही की तान ने
हमेशा जीवन के संगीत
व लय को काटा है।
ज्वार में अहंकार की
धंसती फुफकारती भंवर-सी
तुम्हारी क्षुद्रता की भाटा है।
उठो, झाड़ो धूल अपने अहं की,
गिरा दो दीवार और महसूसो,
अपनी धरती की एकता को।
एक ही आसमान के नीचे।
Saturday 5 June 2021
एक ऋषि से साक्षात्कार
(मैगसेसे पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभुषण अलंकृत, चिपको आंदोलन के प्रणेता, प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद और अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री चंडी प्रसाद भट्ट को समर्पित उनसे पहली मुलाकात का संस्मरण)
Tuesday 1 June 2021
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३
(भाग – २२ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (न)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत
शुरुआती दौर में प्रोटो-भारोपीय शाखाओं पर प्रोटो-यहूदी प्रभाव के अपने दावे को मज़बूत करने के सिलसिले में गमक्रेलिज और इवानोव ने ऐसे सत्रह सम्भावित ‘शब्द-ऋणों’ की सूची बनायी है जो यहूदी से अनुदान स्वरूप आए हैं। इन शब्दों की भारोपीय शाखाओं की बोलचाल में सीमित प्रचलन के लक्षणों के आलोक में मैलरी और आडम्स ने इस सूची को और संघटित कर चार भागों में संक्षिप्त कर दिया है और ये महत्वपूर्ण तुलनाएँ इस प्रकार हैं :
प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ (शहद) : प्रोटो-यहूदी ‘*म्वतक-‘ (मीठा)
प्रोटो-भारोपीय ‘*टौरोस-‘ (जंगली साँड़) : प्रोटो-यहूदी ‘*टाव्र-‘ (साँड़, बैल)
प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ (सात) : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम- (सात), और
प्रोटो-भारोपीय ‘*वोईनोम-‘ (वाइन) :प्रोटो-यहूदी ‘*वायन-‘ (वाइन) (मैलरी-आडम्स २००६:८२-८३)।
इसमें से तीन तुलनाएँ ऐसी हैं जो समानताओं का अद्भुत संजोग दिखाती हैं। शहद अर्थ वाले प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ और मीठा अर्थ वाले प्रोटो-यहूदी शब्द ‘*म्वतक-‘ के बीच की तुलना तो हम पहले ही देख चुके हैं। ठीक उतनी ही गले नहीं उतरने वाली सात (प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम-‘) वाली तुलना है कि यह बात समझ में नहीं आती है कि दोनों परिवारों ने सात के लिए एक ही शब्द का ऋण एक दूसरे से कैसे ले लिया? उसमें भी तब जब यहाँ पर इस बात की वकालत करने वालों के समक्ष प्रोटो-भारोपीय और प्रोटो-औस्ट्रोएशियायी संख्या प्रणाली के पहले चार अंकों की एक अत्यंत विश्वसनीय तुलना रखी जाती है तो उसे वह सिरे से नकार देते हैं। [{प्रोटो-भारोपीय - *सेम, *द्वोउ/द्वय, *त्रि और क्वेत्वोर : टोकारियन –‘सस’/’से’ (एक), रोमानियन – ‘पत्रु’ (चार), वेल्श – ‘पेडवर’ (चार)} और प्रोटो-औस्ट्रोएशियन { ‘*एस’, ‘*देव्हा’, ‘*तेलु’ और ‘*पति’/’*एपति’ :मलय ‘स’/’सतु’ (एक), ‘दुअ' (दो), ‘तिगा’ (तीन), ‘एपत’ (चार)}]
परंतु, अन्य दो शब्द ऐसे हैं जो भारोपीय भाषा में यहूदी शब्दों के लिए जाने की कहानी को पक्के तौर पर साफ़ कर देते हैं। लेकिन वह भी तब, जब अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय भाषा अभी अपने उद्भव के प्रारम्भ काल में ही थी! तो चलिए इस स्थिति की भी हम जाँच कर लेते हैं :
प्रोटो(आद्य)-यहूदी शब्द ‘*टाव्र’ (साँड़, बैल) सभी प्रमुख यहूदी भाषाओं में अपना स्थान पाता है – अक्कडियन (‘शुर’), युगारिटिक (‘त्र’), हीब्रू (‘शोर’), सीरियायी (‘तव्रा’), अरबी (‘टाव्र’), दक्षिणी अरबी (‘ट्व्र’)।
जहाँ तक भारोपीय भाषाओं की बात है, वहाँ इसकी उपस्थिति इस प्रकार है – इटालिक (लैटिन ‘तौरस’), सेल्टिक (गौलिश ‘तर्वोस’), आइरिश (तर्ब), जर्मन ( पुरानी आइसलैंड की बोली ‘पज़ोर्र’), बाल्टिक (‘ताऊरस’), स्लावी (पुरानी स्लावी ‘तरु’), अल्बानी (‘तरोक’), और ग्रीक अर्थात यूनानी (ताऊरोस)। ‘साँड़’ के लिए कोई हित्ती शब्द उपलब्ध नहीं है क्योंकि यह एक ऐसी यहूदी चित्रलिपि द्वारा निर्दिष्ट होती है जिसका हित्ती अनुवाद नहीं पढ़ा जा सका है (गमक्रेलिज १९९५ :४८३)। अर्मेनियायी भाषा ने ‘साँड़’ के लिए एक कौकेसियन शब्द (‘त्सुल’) उधार ले रखा है। संक्षेप में कहें, तो हमें यहाँ फिर से एक बार पश्चिमी शाखाओं पर ही यहूदी प्रभाव दिखायी पड़ता है, जबकि भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन, इन तीनों पूर्वी शाखाओं में यहूदी प्रभाव के लेशमात्र भी लक्षण नहीं दिखते। एक बार फिर से यह दृष्टांत भारतीय-यूरोपीय (भारोपीय) शाखाओं के पूरब से पश्चिम की यात्रा की कहानी को ही कहता है।
‘शराब’ (वाइन) शब्द से संबंधित साक्ष्य तो ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ केलिए और अधिक प्रतिघाती है। यह शब्द या तो एक यहूदी ‘शब्द-ऋण’ है या फिर एक ‘पुरातन अप्रवासी प्राच्य’ शब्द के आस-पास है (गमक्रेलिज १९९५ : ५५९)। यह यहूदी और दक्षिणी कौकेसियन, दोनों भाषाओं में पाया जाता है।
यहूदी भाषा – ‘*वायन-‘, अक्कडियन (‘*ईनु-‘), युग्रेटिक (‘*यं-‘), हीब्रू (‘*यायीं-‘) हमीटिक-मिस्त्र (‘*वंश-‘)।
दक्षिणी कौकेसियन – ‘*विनो-‘ (वाइन), जौरजियन (‘*विनो-‘), मिंग्रेलियन (‘विन’), पुराने जौरजियन (वेनाक)।
गमक्रेलिज ने ट्रान्स-कौकेसस क्षेत्रों में अंगूर की खेती और शराब बनाने की तकनीक के विकास की भी चर्चा की है (गमक्रेलिज १९९५:५६०)। हालाँकि, वह यह भी मानते हैं कि प्रोटो-भारोपीयों ने इस शब्द का इजाद पश्चिमी-एशिया और ट्रान्सकौकेसस क्षेत्रों में ही किया।
अब चाहे यह मूल रूप से यहूदी शब्द हो या कौकेसियन शब्द, इसका भूगोल निस्सन्देह पश्चिम एशिया और ट्रान्स-कौकेसियन क्षेत्रों का ही भूगोल है।
और फिर –
१ – यह शब्द पूरब की तीनों शाखाओं, भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन में नहीं पाया जाता, जबकि पश्चिम की सभी नवों शाखाओं में पाया जाता है।
२ – स्वर-साधना (वोकालिज़्म) के दृष्टिकोण से पश्चिम की नवों शाखाओं में पाए जाने वाले इस शब्द की तीन श्रेणियाँ हैं (गमक्रेलिज १९५५:५५७-५५८)। ‘*वीयोनो-‘ में स्वर-साधना शून्य स्तर का है, ‘*वेनो-‘ में स्वर-साधना ‘ए’ स्तर का है, ‘*वोईनो- में स्वर-साधना ‘ओ’ स्तर का है। ये सभी भारीपीय शाखाओं के कालानुक्रमी समूह हैं :
क – शुरू की शाखाएँ जो पश्चिम की ओर चली गयीं, उनमें शब्दों की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – अनाटोलियन (वीयोनो), हित्ती (वियन), लुवियन (विनियंत), हाईराटिक लुवियन (वीयन)।
ख – पाँच पश्चिमी शाखाओं में इस शब्द की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – वीयोनो : इटालिक (लैटिन ‘उईनुम’), सेल्टिक (पुरानी आइरिश ‘फ़िन’, वेल्श ‘ज्विं’), जर्मन (जर्मन ‘वेन’ और अंग्रेज़ी ‘वाइन’), बाल्टिक (लिथुयानियन ‘व्यंस’, लात्वियन ‘वींस’), स्लावी (रूसी ‘विनो’, पोलिश ‘विनो’)
ग – तीन अंतिम शाखायें जो पश्चिम की ओर चली गयीं उनमें इस शब्द की व्युत्पति का विज्ञान इस प्रकार है – ‘*वोईनो-‘ : ग्रीक अर्थात यूनानी (माइसेनियन ग्रीक ‘वो-नो’, होमेरिक ग्रीक ‘ओईनोस’), अल्बानी (वीन), अर्मेनियायी (जिनी)।
पश्चिम की ओर बढ़ाने के क्रम में भारोपीय शाखाओं के तीनों समूह में अलग-अलग प्रकार के शब्दों का इजाद हुआ, जबकि जो शाखाएँ पूरब में ही रुक गयीं, उनमें किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
७ – घोड़ों का साक्ष्य
अब हम उन सबूतों अर्थात ‘घोड़ों’ की बात कर लें जिसे दक्षिणी रूस के मैदानी भाग को आर्यों की मूल भूमि मानने की अवधारणा के प्रबल पक्षकार अपना अचूक और अमोघ अस्त्र मानते हैं, हालाँकि उनका यह हथियार भी तर्कों की टकसाल पर काग़ज़ी घोड़ा-सा ही है। सही मायने में दोनों पक्षों के बीच इतने बड़े-बड़े और निरर्थक दावे, सिद्धांतों और अवधारणाओं की बौछार तथा आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला है कि सबसे पहले हमारे लिए भी यही उचित होगा कि हम भली-भाँति तथ्यों की गहराई से पहले जाँच-परख कर लें, फिर इसकी विवेचना करें। कुल मिलाकर तीन ऐसी बातें है जो हर तरह के विवादों से ऊपर उठकर है।
१ – प्रोटो-भारोपीय लोगों को घोड़े के बारे में जानकारी थी और घोड़े का सजातीय शब्द कमोवेश प्रत्येक शाखा में पाया जाता है : प्रोटो भारोपीय ‘*एख्वोस’, अनाटोलियन (हाईरेटिक लुवियन) ‘आ-सु-व’, टोकारियन ‘युक/यक्वे’, भारतीय-आर्य (वैदिक) ‘अश्व’, ईरानी (अवेस्ता) ‘अस्प’, अर्मेनियायी ‘एश’ (खच्चर), ग्रीक या यूनानी (माइसेनियन) ‘इको’, (होमेरिक) ‘हिप्पोस’, जर्मन (पुराने अंग्रेज़ी) ’एओह’, (गोथिक) ‘ऐहवा’, सेल्टिक (पुराने आइरिश) ‘एच’, (गौलिश) ‘एपो-‘, इटालिक (लैटिन) ‘एक़ूस’ और बाल्टिक (लिथुयानियन) ‘एश्व’। यह भी एक संयोग ही है कि जिस एकमात्र शाखा में यह शब्द नहीं मिलता है वह है दक्षिणी रूस के उसी मैदानी भाग में बोली जाने वाली भाषा, स्लावी। और अल्बानी भाषा में भी इसका कोई सजातीय शब्द अब नहीं बचा है। लेकिन यह बात तो साबित हो जाती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय लोग घोड़े से बड़ी अच्छी तरह परिचित थे और यहीं वह समय भी था जब भिन्न-भिन्न शाखाएँ उस मूलभूमि से भिन्न-भिन्न दिशाओं में छिटकने लगी थीं।
२ – ग्रंथो के पूरे रचना-काल के दौरान वैदिक लोगों को घोड़े की पूरी जानकारी थी।
३ – भारत घोड़ों का पुश्तैनी वतन तो नहीं था लेकिन उनका यह वतन उत्तरी यूरेशिया के एक वृहत क्षेत्र में फैला था जो पश्चिम में दक्षिणी रूस के मैदानी भाग से लेकर पूरब में मध्य एशिया तक था।
सामान्य तौर पर पहली दो बातों पर कोई विवाद नहीं है। बस तीसरी बात को ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के विरोधी नहीं स्वीकारते हैं। उनका विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित घोड़े मैदानी भागों के उत्तरी घोड़े नहीं हैं, बल्कि देशी प्रजाति के हैं। इस सम्बंध में वे शिवालिक में मिलने वाले ‘एक़ूस सिवालेंसिस’ प्रजाति की चर्चा करते हैं जो प्राचीन काल में उत्तर भारत में पायी जाने वाली तगड़े घोड़ों की एक प्रजाति थी। यह माना जाता है कि ८००० ईसापूर्व या इसके आसपास यह प्रजाति विलुप्त हो गयी। ऋग्वेद के १/१६२/१८ और शतपथ ब्राह्मण के १३/५ में ऐसे घोड़े की बलि की चर्चा है जिसकी पसलियों की ३४ हड्डियाँ थीं। आम तौर पर घोड़ों की पसली में ३६ हड्डियाँ होती है लेकिन शिवालिक क्षेत्र के घोड़ों की कुछ क़िस्मों में ३४ हड्डियाँ होने की बात भी मिलती है। इसी बात को वैदिक युग में भारत में शिवालिक-घोड़ों के होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जहाँ तक इनके जीवाश्मों से संबंधित साक्ष्य का सवाल है तो असली घोड़ों का भी जिस काल और जिस क्षेत्र में बहुतायत में होने की बात कही जाती है, उन दोनों स्थितियों में ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। इसी आधार पर शिवालिक घोड़ों के संदर्भ में भी जीवाश्म संबंधी साक्ष्यों को अप्रासंगिक कहकर टाल दिया जाता है। ऐसा भी सम्भव है कि ‘*एखोव-‘ शब्द किसी समान प्रजाति के पशु के लिए प्रचलित हो। ये पशु बहुत तेज़ भागने वाले ओनगा या खच्चर जैसे जंगली गदहों की प्रजाति के हो सकते थे जो अधिकांशतः पुरातन क़ालीन उत्तर भारत में पाए जाते थे और आज भी कच्छ और लद्दख के शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं। साथ ही ऋग्वेद में यदा-कदा ‘अश्व’ शब्द का प्रयोग सवारी करने वाले पशु के रूप में हुआ है न कि उन घोड़ों के लिए जो रथ खिंचते थे। चौथे मंडल के ३७/४ में ‘मोटा अश्व’ का निहितार्थ हाथी हो सकता है जब कि ‘दाग़धारी अश्व’ का संकेत मरुत के रथ की ओर है। निश्चित तौर पर इस रथ का मतलब ‘दागधारी हिरण’ से ही लिया गया है। १/(८७/४, ८९/७, १८६/८), २/३४/३, ३/२६/६, ५/४२/१५ और ७/४०/३ के उल्लेखों से हालाँकि यहीं प्रतीत होता है कि धारीदार ‘घोड़े’ का दागधारी ‘हिरण’ में काव्यातक रूपांकन हो गया है। ३४ हड्डियों वाली ये तमाम बातें पक्के तौर पर न केवल अत्यंत रोचक हैं, बल्कि और अधिक छानबीन भी किए जाने लायक़ है। फिर भी तर्कों की इस रोचकता को फ़िलहाल हम तिलांजलि देकर अभी मैदानी भाग के उन असली घोड़ों पर गहरायी से अपनी नज़रें टिकाएँगे जिनका मादरे वतन हिंदुस्तान की ज़मीन नहीं था।
घोड़ों से संबंधित ऊपर के तीनों तथ्यों के आधार पर ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल लेते हैं :
चूँकि न तो हड़प्पा से मिली मुहरों में घोड़ों की कोई उपस्थिति है और न ही हड़प्पा की खुदायी में घोड़ों की हड्डियाँ मिली है, इसलिए यह तय है कि आर्यों के आगमन से पूर्व न तो भारत में घोड़ों की उपस्थिति थी और न ही भारत के लोगों को घोड़ों के बारे में कोई जानकारी थी। इसी आधार पर यह भी तय है कि हड़प्पा की सभ्यता ‘अनार्यों’ की सभ्यता थी और ये आर्य ही थे जो दक्षिण रूस के मैदानी भागों की अपनी मूल भूमि से घोड़ों को लेकर भारत आए। उदाहरण के तौर पर हॉक इसे कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं कि ‘कुछ छोटी-मोटी बातों पर भले ही असहमति हो लेकिन भारोपीय भाषा विज्ञान और जीवाश्मिकी से जो भी परिचित हैं वे इस बात को मानते हैं या फिर यूरेशिया में जो भी पुरातात्विक सबूत मिले हैं उनसे भी इसी बात का संकेत मिलता है कि यूक्रेन के मैदानी भागों से ही पालतू घोड़ों का और साथ-साथ युद्ध में प्रयोग होने वाले घोड़ों से खींचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों का प्रचलन फैला। पुरातन भारोपीय संस्कृति और धर्मों में घोड़ों का बड़ा अहम स्थान है। यूरेशिया के पुरातत्व और भारोपीय ज्ञान की विशेष जानकारी रखने वाले विद्वानों की इसलिए इस बात पर पूरी सहमति है कि भारतीय-आर्यों के आने के साथ-साथ ही घोड़े से संबंधित इन सारे लक्षणों का भारत में फैलाव हुआ।‘ (हॉक १९९९अ :१२-१३)
समूचे ‘आर्य’ विवाद में उपरोक्त निष्कर्ष से ज़्यादा धोखा देने वाली और भ्रम पैदा करने वाली कोई दूसरी बात नहीं हो सकती।
१- पुराने ज़माने में घोड़े भारत में नहीं पाए जाते थे, किंतु अफगानिस्तान के उत्तर मध्य एशिया में मिलते थे। आज तक जो स्थिति बनी हुई है, उसके अनुसार दुनिया में पूरी तरह से पालतू बना लिए गए घोड़ों का पहला सबूत कजकस्तान की बोटाई संस्कृति में मिलता है। इसके मिलने का काल भी उस समय से १००० साल और पहले चले जाता है जिस काल में इनके पाए जाने की मान्यता है। क़रीब ३५०० ईसापूर्व की यह बोटाई संस्कृति पूरी तरह से घोड़ों के प्रजनन की संस्कृति का काल था, जब घोड़ों की नस्लों का जनन होता था, उन्हें दूहा जाता था और फिर उनसे छुटकारा भी पा लिया जाता था। ( उत्खनन क्षेत्रों से प्राप्त जबड़ों की हड्डियों और दाँतों के परीक्षण से यही पता चलता है कि लगाम और नाल भी उस समय चलन में थे।)
यदि थोड़ी और गहरायी से देखें तो इस बात के प्रबल साक्ष्य मिलते हैं कि उससे भी पुराने समय में अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर उज़्बेकिस्तान में घोड़ों को आदमी की बस्तियों में भली-भाँति पाला जाता था और उनसे घरेलू काम लिए जाते थे। संदर्भ लसोटा-मोसकलेवस्का २००९ (अ प्रॉब्लम औफ द अर्लीएस्ट हॉर्स डोमेस्टिकेशन: डाटा फ़्रोम द नियोलीथिक कैम्प अयकाज्ञतमा ‘द साइट’, उज़्बेकिस्तान, सेंट्रल एशिया पृष्ट १४-२१, अर्कियोलौजिया बाल्टिका खंड -११, कलैपेडा विश्वविद्यालय, लिथुयानिया २००९)।
बुखारा शहर से क़रीब १३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित उत्खनन-स्थल से प्राप्त सामग्रियों की पुरातत्व एवं पुराजंतु विज्ञानियों ने बड़ा गहन वैज्ञानिक परीक्षण किया है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर विकास की दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है –
पहला चरण है प्रारम्भिक नव पाषाण काल। कार्बन समस्थानिक १४ के आधार पर यह काल अंशांकित ८०००-७४०० साल पूर्व (ca 8000-7000 cal. BP) का है।
दूसरा चरण है अंशांकित ६०००-५००० साल पूर्व (ca 6000-5000 cal. BP)। आगे बढ़ने के पहले हम आपको समस्थानिक कार्बन १४ के आधार पर अंशांकित काल cal BP (Before Present) के बारे में बता दें कि काल गणना की इस पद्धति में १४ परमाणु भार वाले समस्थानिक कार्बन परमाणु के किसी वस्तु में बचे अवशेष के आधार पर उसकी आयु निकालने की कार्बन-डेटिंग पद्धति के आविष्कार हो जाने पर एक मानक तिथि, एक जनवरी १९५०, से पूर्व के समय को इस अंशांकित पैमाने पर व्यक्त किया जाता है।
स्थल के बाढ़ से प्रभावित होने के कारण इस काल गणना में १५०० वर्षों तक के अंतराल का अनुमान भी हो सकता है। इस काल के जानवरों के बड़ी मात्रा में अवशेष इस स्थल से प्राप्त हुए हैं जो नव पाषाण युग की परतों से निकले हैं। अस्थि और दाँतों के अवशेषों के मामलों में घोड़ों की उपस्थिति यहाँ काफ़ी अहम रही है। सबसे पुरानी परतों से प्राप्त अवशेषों में तीस से चालीस प्रतिशत अश्ववंश (equidae family) के ही अवशेष हैं। नव पाषाण युगीन अन्य यूरेशियायी स्थलों की तुलना में यह संख्या अपने आप में अनूठी है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१४-१५)। अश्व वंश के अवशेषों की बहुत अधिक मात्रा (यहाँ तक कि कहीं-कहीं ४१ प्रतिशत से भी अधिक अवशेष अश्व-वंश के ही हैं), उनके कंधों की ऊँचाई और खुरों की चौड़ाई जैसे अनेक ढेर सारे कारकों और सबूतों के आधार पर यहीं स्थापित होता है कि ये अवशेष किसी ऐसे जानवर के हैं जिनकी ऊँचाई आम जंगली जानवरों की औसत ऊँचाई से काफ़ी अधिक होती थी। बहुत हद तक इनकी आकृति पालतू घोड़ों से मिलती जुलती थी। इन अश्ववंशी जानवरों के साथ-साथ पालतू स्तनपायी अन्य जानवरों यथा – भेड़, बकरी, सुअर और कुत्तों के जीवाश्म के अवशेष भी इन स्थलों से निकाले गए हैं। ये सारे तथ्य इसी बात को स्थापित करते हैं कि घोड़े मध्य एशिया के निचले भागों में नव पाषाण काल के प्रारम्भ से ही पाले जाने लगे थे और यह काल ९००० से ८००० अंशांकित काल पूर्व (cal BP) का समय है। साथ ही हमारे लिए आज की तिथि में घोड़ों को पालतू बनाए जाने के सबसे शुरू के समय के रूप में यही काल स्थापित है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१९-२०)।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस बात में कोई जान नहीं है कि ३००० साल ईसा पूर्व दक्षिण रूस के मैदानी भागों को छोड़कर आने वाले ‘आर्यों’ के साथ घोड़ों का प्रवेश यहाँ हुआ। चाहे पूरी तरह से घरेलू और पालतू पशु के रूप में हों या फिर पालतू और घरेलू बनाने की प्रक्रिया में हों – अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्र में बसी सभ्याताओं में ये घोड़े ईसा से ६००० साल पहले से ही पाए जाते रहे हैं। यहाँ यह भी बात उतनी ही ध्यान देने लायक़ है कि भारतीय मूलभूमि का तात्पर्य भारत के अंदरूनी हिस्सों तक ही सिमटा हुआ नहीं है। इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं कि ऋग्वेद के समय से भी काफ़ी पहले ‘दृहयु’ और ‘अणु’ जनजातीय समुदाय भारत के भीतरी इलाक़ों से निकलकर मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी भागों तक फैल चुके थे। ऋग्वेद के पुराने मंडलों का रचना काल ईसा से ३००० साल से भी पीछे तक जाता है। उस काल तक ‘प्रोटो-अनाटोलियन’ और ‘प्रोटो-टोकारियन’ आबादी के साथ-साथ ‘दृहयु’ जनजाति की पहली पंक्ति की बसावट मध्य एशिया में बस चुकी थी। दृहयु-अणु-पुरु आबादी के उत्तर में फैले वितान के दृहयु छोर तक के भूभाग घोड़ों से भरे-पूरे क्षेत्र थे और इस क्षेत्र में पालतू बनकर घोड़े घरेलू जानवर के रूप में रच-बस चुके थे। पालतू घोड़ों का यह काल ३००० साल ईसा पूर्व से पहले तक का काल है। इसलिए उस समय के एक ऐसे अनोखे पशु, चाहे वह जंगली हो या पालतू, के लिए एक ही तरह के प्रोटो भारोपीय नामों के अपनाए जाने या विकसित होने के दृष्टांत यदि मिलते हैं तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।
#ऋग्वेद
Sunday 30 May 2021
नीड़
Wednesday 26 May 2021
हँसा के पिया अब रुला न देना.
Monday 17 May 2021
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२२
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२२
(भाग – २१ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (ध)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
५ - शहद के सबूत
ऋग्वेद में शहद का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। हर भाषा में इसके सजातीय शब्द हैं। इससे यही झलकता है कि प्रोटो भारोपीय संस्कृति में शहद का केंद्रीय स्थान था, चाहे इस संस्कृति की मूल भूमि जो भी हो। अनेक विद्वानों का यही मत है कि मधुमक्खी-पालन और शहद का उत्पादन मिस्त्र (इजिप्ट) और भू-मध्यसागरीय क्षेत्र में फला-फूला और सुदूर पूरब ईरान तक फैल गया। इसलिए प्रोटो-भारोपीय संस्कृति का जो वितान बुना गया उसमें शहद का स्थान बहुत महत्वपूर्ण दिखाया गया और यहीं बताया गया कि इन मधुमक्खियों के प्रदेश में ही भारीपीय लोगों का या तो मूल निवास था या फिर प्राक-ऐतिहासिक काल में वे इन प्रदेशों से होकर गुज़रे थे। एक अन्य विद्वान हड्जु का हवाला देते हुए परपोला का कहना है कि ‘बहुत हाल तक एशिया माइनर, सीरिया, पर्सिया, अफ़ग़ानिस्तान, तिब्बत और चीन को छोड़कर एशिया में मधुमक्खियों की कोई जानता भी नहीं था। दूसरी तरफ़ पूर्वी यूरोप में यूराल पर्वत के पश्चिम में मधुमक्खियाँ पायी जाती थी (परपोला २००५:११२)।‘ वह आगे जोड़ते हैं कि “‘एपीस मेल्लिफेरा’ का मूल क्षेत्र अफ़्रीका, अरब और उसके समीप पूरब में ईरान तक, यूरोप में यूराल पर्वत के पूरब तक, दक्षिणी स्वीडन और उत्तर में एस्टोनिया तक फैला था। उत्तर में यह अर्क्टिक के शीत प्रदेश की शीतलहरी और पूरब में मरुभूमि और पहाड़ों के अवरोध के कारण थम जाता था। इसके प्रसार की दूसरी अवरोधक कारक थे - यूराल तक फैले शीत और समशीतोष्ण प्रदेशों के कँटीले जंगल और फिर साइबेरिया में उनका नहीं उगना। १६०० इस्वी तक ‘एपीस मेल्लिफोरा’ इसी क्षेत्र तक सीमित थे जहाँ से उनका अन्य जगहों के लिए उत्प्रवासन प्रारम्भ हुआ (परपोला २००५:११२)।“
उसी ढर्रे पर ग़मक्रेलिज का भी कहना है कि, “भारोपीय देशों में मधुमक्खी पालन के बूते मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले विकसित देशों में मधु के लिए प्रयुक्त ‘हनी’ शब्द और प्राचीन प्रोटो भारोपीय धर्मों में शहद के महत्व के आलोक में इस बात में कोई दुविधा नहीं कि मधुमक्खी पालन और मधुमक्खी के लिए ‘बी’ शब्द भी पूरी आर से प्रोटो भारोपीय व्युत्पति के ही हैं (ग़मक्रेलिज १९९५:५१६-५१७)।“ वह इसे खिंचकर भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों तक ले जाते हैं – “ यह भू-मध्यसागरीय क्षेत्र ही था जहाँ मधुमक्खी पालन की प्रविधि ने अपने प्राथमिक अवस्था से निकलकर उन्नत स्वरूप को प्राप्त करने की दिशा में पहला क़दम उठाया। यहाँ हम विकास की दूसरी अवस्था पाते हैं जहाँ जंगलों में मधुमक्खी पालन की तकनीक इजाद की गयी।जंगल के पेड़ों में और उनके मोटे तनों में खोखले कोटर बनाकर उसमें मधुमक्खियों को पाला जाता था। फिर हम तीसरी अवस्था भी पाते हैं जब घरेलू मोर्चे पर कृषि कार्य परम्परा का सूत्रपात होता है और घरों में या घरों के पास ही बनाए कोटरों और घोसलों में मधुमक्खियों को पालने की तकनीक और परम्परा का उन्मेष हुआ (ग़मक्रेलिज १९९५:५२२)। और अंत में वह हमें ‘हनी’ शब्द के बारे में सूचित करते हैं कि “ भारोपीय जनजातियाँ पूरब की ओर अपने बढ़ने के क्रम में शहद और मधुमक्खी पालन के साथ-साथ ‘हनी’ शब्द भी लेकर पूर्वी एशिया में घुसीं (गमक्रेलिज १९९५:५२४)।“
अब आइए ऊपर लिखी गयी बातों के बारे में हम सही सबूतों और तर्कसंगत बातों का वलोकन करें :
१ – विकिपीडिया हमें ‘हनी- बी’ (मधुमक्खी) के बारे में बताता है कि “मधुमक्खियों की उत्पति का स्थान फ़िलिपींस समेत दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया प्रतीत होता है। एपीस मेल्लिफेरा को छोड़कर बाक़ी वजूद वाली मधुमक्खियों का यह क्षेत्र ही गृह-प्रदेश प्रतीत होता है। सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि मधुमक्खियों की प्राचीनतम प्रजाति जिससे अन्य प्रजातियाँ निकली उसके जीवित अवशेष (‘एपीस फ्लोरी’ और ‘एपीस एड्रेनिफोरमिस’) के उद्भव का भी स्थान यहीं है।“
इन साक्ष्यों की पड़ताल करने वाले विद्वानों ने पश्चिमी मधुमक्खी, एपीस मेल्लिफेरा, के भौगोलिक परास (सीमा), मधुमक्खी-पालन की प्राथमिक अवस्था से उन्नत अवस्था तक उनके क्रमगत विकास, इस तकनीक में मिस्त्र तरथ भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों में रहने वाली मधुमक्खियों के योगदान और प्रोटो भारोपीय शाखाओं में शहद के विशद महत्व की पूरी विवेचना की है और इसके आधार पर यही निष्कर्ष निकाला है कि प्रोटो भारोपीय जनजातियों की भिन्न-भिन्न शाखायें इन्हीं उन्नत अवस्थाओं को भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों से एंकर अपनी मूल भूमि में गयीं। तथापि, :
क – इस बात का कोई भी सबूत नहीं है कि प्रोटो भारोपीय या वैदिक संस्कृति में अपना ख़ास स्थान रखने वाला शहद ‘एपीस मेल्लिफोरा’ प्रजाति की ही मधुमक्खी से प्राप्त शहद था। भू-मध्यसागरीय मधुमक्खी-पालन के सम्पूर्ण इतिहास को उकटने के बाद परपोला बड़ी साफ़गोई से कहते हैं कि “खोडरों और कोटरों में घोंसला बनाकर रहनेवाली मधुमक्खी की प्रजाति ‘एपीस सेराना’ पूर्वी एशिया, दक्षिणी पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, चीन, कोरिया और जापान की मूल निवासी है (परपोला २००५:१२३)। “आकार में सबसे बड़ी मधुमक्खी की प्रजाति ‘एपीस डोर्सटा’ भारत और उससे भी पूरब में पायी जाती है।
ख – ये पूर्वी मधुमक्खियाँ अत्यंत पुरातन काल से ही भारत में मधु संग्रह का स्त्रोत रही हैं। शहद का इकट्ठा किया जाना समूचे भारत और इसके सुदूर आदिवासी और दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भी अति प्राचीन परम्परा रही है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका और पंचमढ़ी में पाए गए ८०००-६००० ईसा पूर्व प्राचीन पाषाणयुगीन प्रस्तर-चित्रकला (रॉक-पेंटिंग) सारी बात बोल देते हैं, “पंचमढ़ी की तीन चित्रकलाओं और भीमबेटका की एक कलाकृति में मधु का संग्रह करते दिखाया गया है।जंबूद्वीप आश्रय की एक पेंटिंग में एक पुरुष को मधु निकालते तथा एक स्त्री को शहद पात्र लेके उसके समीप जाते दिखाया गया है। दोनों सीढ़ियों पर खड़े हैं। इमलिखो आश्रय की एक अन्य पेंटिंग में महिला मधुमक्खियों को उड़ा रही है। सोनभद्र आश्रय की तीसरी पेंटिंग में मधुमक्खियों से घिरे दो पुरुष लकड़ी कसे बने ढाँचों पर खड़े हैं। भीम बेटका की पेंटिंग में एक पुरुष मधुमक्खियों के छाते को एक गोल माथे वाले छड़ी से छेद रहा है। उसकी पीठ पर एक टोकरी है और वह एक रस्सी के सहारे लटका हुआ प्रतीत होता है। उसके नीचे तीन लोग खड़े हैं।उसमें से एक दूसरे के कंधे पर चढ़ा हुआ है (मथपाल १९८५:१८२)।“ ये प्रस्तर-चित्रकलाकृतियाँ सारे एशिया में शहद बटोरने की कला दर्शाने वाली प्राचीनतम कलाकृति है। इसकी तुलना स्पेन और औस्ट्रेलिया की बस कुछ वैसी ही समकालीन कला कृतियों से की जा सकती है।
२ – सच कहा जाए तो उपलब्ध भाषाई साक्ष्य प्रोटो-भारीपीय शहद संस्कृति और मिस्त्र तथा भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों में पनपे घरेलू मधुमक्खी पालन के बीच किसी भी तरह के ताल-मेल को पूरी तरह से नकारते हैं। हालाँकि कुछ खास ऐतिहासिक भारीपीय शाखाओं की शहद संस्कृति भी प्रोटो-भारोपीय शहद संस्कृति से बिलकुल हटकर है जिसपर हम आगे प्रकाश डालेंगे।
क – जहाँ शहद (हनी) के लिए प्रोटो भारोपीय संसार में एक ही तरह के शब्द हैं, वहीं मधुमक्खी, मधुमक्खी के छत्ते, मोम और मधुमक्खी पालन के लिए शब्दों में कोई साझेदारी नहीं है और ऐसी संस्कृति में जहाँ मधुमक्खी पालन या उससे शहद निकालने की प्राविधि का क्रमिक विकास हुआ हो, ऐसी स्थिति की कल्पना कतई नहीं की जा सकती है। कमोवेश ऐसी ही स्थिति ऋग्वेद से भी प्राप्त सबूतों के साथ है जबकि यह भारोपीय भाषाई ग्रंथों में सबसे पुराना उपलब्ध दस्तावेज़ है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों से ही शहद के लिए ‘मधु-‘ और ‘सारघ-‘ शब्द चले आ रहे हैं। पुराने मंडलों से बहुत बाद में नए मंडल रचित हुए और जहाँ तक पश्चिमी एशिया में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में मित्ती और हित्ती भारतीय-आर्यों का प्रश्न है तो उनका भी नए मंडलों की संस्कृति से सैकड़ों वर्ष बाद उदय हुआ। ऋग्वेद में भी मधुमक्खियों के संदर्भ बहुत थोड़े ही ‘मक्ष’ और ‘मक्षिका’ के रूप में आए हैं। मधुमक्खी के छत्तों या मोम जैसी किसी भी वस्तु का कोई वृतांत नहीं मिलता जो इस बात का कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सके कि मधुमक्खी पालन की कोई उन्नत प्राविधि उस समय अस्तित्व में हो।
ख – शहद के लिए प्रोटो-भारोपीय शाखाओं के भाषायी सबूत तो और खलबली पैदा कर देते हैं। शहद के लिए सामान्य अपभ्रंश प्रोटो-भारोपीय शब्द ‘मधु-‘ है। यह दो स्पष्ट अर्थों में प्रयुक्त होता है। पहला अर्थ तो शहद ही है। दूसरा अर्थ पेय पदार्थ/शराब या कोई भी मादक मद्य पदार्थ है। इन दोनों अर्थों में यह शब्द भारतीय-आर्य, ईरानी, टोकारियन, स्लावी और बाल्टिक – इन पाँचों शाखाओं में पाया जाता है। यूनानी (ग्रीक), जर्मन और सेल्टिक, इन तीन शाखाओं में यह मात्र मादक पेय पदार्थ(सुरा)/शराब/अन्य पेय पदार्थों के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है। इन शाखाओं में नये शब्द ‘*मेलिथ-‘ ने ‘*मधु-‘ का स्थान ले लिया है जिसका अर्थ शहद या मधु होता है। अन्य चार शाखाओं, हित्ती (अनाटोलियन), अर्मेनियायी, अल्बानी और इटालिक में ‘*मधु-‘ शब्द पूरी तरह लुप्त हो गए हैं किंतु यहाँ पर भी ‘*मेलिथ-“ शब्द का अभिप्राय केवल शहद ही है और पेय पदार्थ/सुरा/शराब के लिए अन्य नए शब्द हैं।
यह सबूत तो वाक़ई अचरज में डालने वाला है कि पुरानी शाखा टोकारियन, यूरोपीय शाखा स्लावी और बाल्टिक तथा सबसे अंतिम शाखा भारतीय-आर्य और ईरानी – इन सभी शाखाओं में मात्र *मधु-‘ शब्द है। दूसरी ओर पुरानी शाखा अनाटोलियन, यूरोपीय शाखा इटालिक और अंतिम शाखाएँ अर्मेनियायी और अल्बानी – इन शाखाओं में केवल *मेलिथ-‘ शब्द है। संक्षेप में, समरूप रूप भाषायी लक्षणों को दर्शाती यह समवाक रेखा भारोपीय शाखाओं के भिन-भिन्न कालानुक्रमी समूहों का आलिंगन करती दिखायी देती है। तो फिर वे साझे तत्व कौन-से हैं?
जवाब बड़ा सरल है। यह पूरब और और पश्चिम का विभाजन है :
१ – तीनों समूहों (प्राचीन, यूरोपीय और अंतिम) में वे पाँच शाखायें जो ज़्यादा पूर्वी हैं, टोकारियन, स्लावी, बाल्टिक, भारतीय-आर्य और ईरानी, इन्होंने मूल शब्द ‘*मधु-‘ को संजोये रखा किंतु ‘*मेलिथ-‘ को नहीं अपनाया।
२ – तीनों समूहों की बाक़ी सात शाखाओं, जो ज़्यादा पश्चिमी हैं, ने नए शब्द ‘*मेलिथ-‘ को ग्रहण कर लिया। इन सात में से पाँच शाखाएँ मिस्त्र और भू-मध्यसागरीय क्षेत्र से सटे हुए हैं। इन पाँच में से चार, अनाटोलियन, अर्मेनियायी, अल्बानी और इटालिक, से मूल शब्द, *मधु-‘ बिलकुल ग़ायब है। बाक़ी एक प्राचीन यूनानी (ग्रीक) ने ‘*मधु-‘ शब्द को पेय/शराब/सुरा के रूप में संजो लिया किंतु शहद के लिए इसने इस शब्द ‘*मधु-‘ के बदले ‘*मेलिथ-‘ शब्द को अपना लिया। इसका कारण मिस्त्र और भू-मध्यसागरीय क्षेत्र में पनपे मधुमक्खी पालन की संस्कृति का गहन प्रभाव है।
३ – ठीक ऊपर वाली बात ही बाक़ी बची दो पश्चिमी शाखाओं, जर्मन और सेल्टिक, के साथ भी है। ये दोनों शाखाएँ मिस्त्र-भूमध्यसागर-क्षेत्र के अत्यंत निकट रहने के कारण उनके असर से बच नहीं पायी और इन्होंने भी पेय/शराब/सुरा के लिए ‘*मधु-‘ शब्द को तथा शहद के लिए ‘*मेलिथ-‘ शब्द को अपना लिया।
४ – उसी तरह सभी पाँचों यूरोपीय शाखाओं (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी) ने मिस्त्र से ‘बी’ या उसका अपभ्रंश ‘भी’ ले लिया। थोड़ा दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ने पर ग्रीक, अर्मेनियायी और अल्बानी शाखाओं ने ‘*मेलिथ-‘ (शहद) से ही मधुमक्खी के लिए भी शब्द ले लिया। मधुमक्खी के लिए हित्ती शब्द ज्ञात नहीं हैं। ग्रंथों में सुमेरि लिपि के चिह्न मिलते हैं। इससे अन्दाज़ मात्र लगाया जाता है कि हित्ती शब्द भी कुछ वैसे ही होंगे। इससे यह बात साफ़ हो जाती है कि भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन यही मात्र तीन शाखाएँ हैं जो मधुमक्खी के लिए अपने शब्द मिस्त्र से या ‘*मेलिथ-“ से किंचित नहीं लेती।
[टिप्पणी (१) – संयोग से, फ़िन्नो-युग्रिक भाषा में भारतीय-ईरानी शब्दों की तर्ज़ पर विद्वानों ने कुछ कुतर्क भी प्रस्तुत किए हैं। गमक्रेलिज का कहना है कि प्रोटो-भारोपीय शब्द ‘*मधु-‘ यहूदी शब्द ‘*म्वतक-‘ अर्थात ‘मीठा’ से निकला है। मधुमक्खी के शहद के लिए घरेलू भारोपीय शब्द ‘*मेलिथ-‘ से हटकर किसी भी मीठे मादक पेय के लिए भारीपीय शाखाओं में यहूदी से निकले शब्द ‘*मधु-‘ का प्रचलन होने लगा (गमक्रेलिज १९९५:७७१)। जैसा कि हमने देखा है कि –
१ – यहूदियों से अनुदान के रूप में लिए गए जिस शब्द का वह दावा करते हैं वह ‘ मादक पेय’ और ‘शहद’ दोनों अर्थों में इन पाँच शाखाओं, भारतीय-आर्य, ईरानी, टोकारियन, बाल्टिक और स्लावी में पाया जाता है। इन क्षेत्रों का ऐतिहासिक पर्यावास यहूदी प्रभाव से पूरी तरह अछूता था। दूसरी ओर पूर्ण यहूदी प्रभाव में वे जो पाँच शाखाएँ, इटालिक, अल्बानी, ग्रीक (यूनानी), अर्मेनियायी और हित्ती, थीं, उनमें से चार में यह ‘यहूदी अनुदान’ बिलकुल नदारद है। केवल एक ग्रीक शाखा में यह ‘मादक पेय’ के रूप में पाया जाता है। साथ ही जिस शब्द को वह ‘घरेलू भारोपीय’ कहते हैं, वह भी न केवल यहूदी क्षेत्र के प्रभाव के पार वाली पाँच शाखाओं के पहले समूह से ग़ायब हैं, बल्कि मात्र उन सात शाखाओं में ही पायी जाती हैं जो पूरी तरह से यहूदी प्रभाव क्षेत्र में थीं!
२ – इस मानव जीवन में शहद और मधुमक्खियों के इतिहास के बारे में थोड़े और विस्तार में यदि हम चर्चा करें तो पाएँगे कि सभ्यता के उषा काल में शहद इकट्ठा करने के पीछे शहद पाने के साथ-साथ उस नशीले और मादक पेय द्रव के पान का सुख भोगने का भी सामान उद्देश्य था जिसे शहद से ही तैयार किया जाता था। बाद में मधुमक्खी पालन के घरेलू तकनीक विकसित हो जाने पर शहद का व्यापारिक महत्व बढ़ गया और इससे बना सुरा गौण हो गया। मधुमक्खी पालन के यहूदी क्षेत्र के प्रभाव से अछूते और सुदूर इलाक़ों में बोली जाने वाली पाँचों यूरोपीय शाखाओं में ‘सुरा’ और ‘शहद’ दोनों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द ‘*मधु-‘ वस्तुतः स्थानीय और घरेलू भारोपीय शब्द ही था। ‘* मेलिथ-‘ शब्द उन अर्थों में सिर्फ़ ‘शहद’ का अर्थ लिए मधुमक्खी पालन के यहूदी प्रभाव क्षेत्र के सात भारोपीय शाखाओं में ही पाया जाता है। इन सात में भी चार वैसी शाखाओं में जो क़रीब-क़रीब या तो यहूदी क्षेत्र में ही हैं या फिर इससे सटे क्षेत्रों में, मादक पेय द्रव (सुरा) के लिए कोई सजातीय शब्द नहीं है। यह स्पष्ट रूप से ‘यहूदी अनुदान’ वाली बात को साबित करता है। अब जबकि ‘शहद और सुरा’ पुराने अर्थ में एक साथ व्यक्त होते थे और नयी स्थिति में यहूदी प्रभाव में यह सिर्फ़ ‘शहद’ के अर्थ तक ही सीमित रह गया, इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि इरान के सबसे पश्चिमी किनारे की ओस्सेटिक भाषा जो मधुमक्खी पालन के यहूदी क्षेत्र के प्रबल प्रभाव में थी उसने ‘*मधु-‘शब्द को तो ग्रहण कर लिया किंतु ‘*मेलिथ-‘ को छोड़ दिया। तथापि, “’*मधु-‘ शब्द की ओस्सेटिक झलक उसके शहद अर्थ वाले शब्द ‘म्यद’ में मिलती है (गमक्रेलिज १९९५:५२०)।]
[टिप्पणी २ – प्रोटो-भारोपीय शब्द ‘*मधु-‘ ऐतिहासिक रूप से टोकारियन भाषा के रास्ते चीनी भाषा में भी आ गया और ठीक उसी तरह भारतीय-आर्य अप्रवासियों के रास्ते यह फ़िन्नो-युग्रिक भाषा में प्रवेश कर गया।]
पश्चिमी शाखाओं का ही इस मिस्त्र-भूमध्यासागरीय-पश्चिमी एशियायी क्षेत्र की मधुमक्खी पालन संस्कृति से प्रभावित होना भारोपीय अप्रवासन के संबंध में इस एक मौलिक बात की पुष्टि करता है कि अप्रवासन की दिशा पूरब से पश्चिम की ओर रही। इसलिए मध्य एशिया (पश्चिमी एशिया-अनाटोलिया-कौकेसियन) क्षेत्र और भाषाओं (यहूदी और कौकेसियन) के शब्द पश्चिमी शाखाओं में तो पाए जाते हैं किंतु इस क्षेत्र से ठीक पूरब की शाखाओं में नहीं पाए जाते हैं। कहने का मतलब है की इन मध्य देशांतरो को पार कर पूरब से जो लोग पश्चिम की ओर बढ़े वे इन शब्दों को भी अपने साथ लेकर बढ़ते चले और जो अप्रवासन की इस प्रक्रिया से अछूते रहकर पूरब में ही रह गए उन्होंने इन शब्दों का स्वाद ही नहीं चखा।
अब हम जल्दी से इस सिद्धांत की वैधता को जाँचने के लिए दो और महत्वपूर्ण दृष्टांतों पर अपनी दृष्टि दौड़ा लें।
Tuesday 4 May 2021
समय की चाल
कभी नहीं होता कुछ जग में,
अकारण अकाल!
समय सदा से चलता आया,
अपनी अद्भुत चाल।
जब दिखता है जहाँ ये सूरज,
कहते हुआ है भोर।
होती हरदम पथ परिक्रमा,
कहीं ओर न छोर।
और ओझल होते ही इसके,
रजनी धरा पर छाती।
पूनम अमा की चक्र कला में,
अँधियारा फैलाती।
निहारिकाओं को निहार कर,
जब चंदा मुस्काता।
चंदन-सी चूती चाँदनी,
चट चकोर पी जाता।
फिर छाते ही नभ में मेघिल,
घटाटोप घनघोर।
कुंज वीथिका विहँसे मयूरी,
वन नाचे मन-मोर।
लट काली नागिन-सी बदरी,
पवन प्रचंड इठलाती।
प्रेम पिपासु प्यासी धरती,
पानी को अकुलाती।
विरह-व्यथा में विगलित बादल,
गरज-गरज कर रोता।
अविरल आँसू से अपनी,
आहत अवनि को धोता।
पीकर पिया के पीव-पीयूष,
धरती रानी हरियाती।
रेश-रेश और पोर-पोर में,
तरुणाई अँखुआती।
वसुधा के उर में फिरसे,
नव जीवन छा जाता।
कभी अकारण और अकाल,
नहीं काल यह आता।
Thursday 29 April 2021
सजीव-निर्जीव
जिसका स्फुरण आपकी अनुभूतियों को उद्भूत करे, आपके विचारों को जगाए, आपकी इंद्रियों को उद्वेलित करे और आपकी संवेदना में सजीवता घोल जाए, मेरी दृष्टि में वही सजीव कारक है।अर्थात जो आपमें जीवन जगा दे वही जीवित है। अनुभूतियों का दायरा अत्यंत फैला हुआ है। यह भौतिक सत्ता से लेकर वैचारिक और भावनात्मक धरा को छूते हुए आध्यात्मिक बिंबों तक फैला हुआ है। मस्तिष्क की तंत्रिका से दृष्टिबोध का कितना तालमेल है, यह दृश्य की जीवंतता के परिमाण को इंगित करता है। सजीवता की अनुभूति में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनों समान रूप से शामिल हैं। ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता की अनुभूति की प्रखरता और तीव्रता पर निर्भर करता है। एक बार 'ज्ञेय' यदि 'ज्ञाता' की प्रखरता की पकड़ में आ गया, तो वह फिर 'ज्ञान' बन जाता है। मतलब ‘ज्ञान’ का ‘होना’ ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की क़ाबिलियत पर भी उतना ही निर्भर करता है जितना उसके स्वयं की सत्ता में होने के सच पर। यहाँ क़ाबिलियत का सीधा मतलब है कि ज्ञाता को अपनी अनुभूतियों में पकड़ने के क़ाबिल होना चाहिए और ज्ञेय में भी पकड़े जाने की उतनी ही क़ाबिलियत होनी चाहिए। दोनों में एक भी तंतु टूटा कि ज्ञान छूटा!
जब तक अति सूक्ष्म जीवाणु दृष्टि की पकड़ में न आए, भौतिक धरातल पर वह सत्ताहीन है। एक शक्तिशाली माइक्रस्कोप उसे सत्ता में ला देता है। अर्थात एक अक्षम ज्ञाता को माइक्रस्कोप सक्षम और क़ाबिल बना देता है। ज्ञाता के सक्षम बनते ही ज्ञेय की सत्ता सच हो जाती है और वह अब ज्ञान बन जाता है। अर्थात ‘होना’ या ‘न होना’ एक सापेक्षिक सत्य-मात्र है, ज्ञाता के लिए। सच कहें, तो ज्ञाता का उस जीवाणु का ज्ञान न होने से उस जीवाणु का अस्तित्व असत्य नहीं हो जाता! तो, भ्रम ज्ञाता में है, ज्ञेय में नहीं। ज्ञेय तो ज्ञान बनने के लिए व्याकुल है। उसे इंतज़ार है ज्ञाता के सजीव होने की।
बस आप मान कर चलें कि हमने सजीव और निर्जीव के विषय में जो अपने विचार बना लिए हैं न, वह भी हमारी अपनी सक्षमता या सजीवता की इन्हीं परतों में दबा है। हम किसी वस्तु की सजीवता के कितने सूक्ष्मातिसूक्ष्म लक्षणों को ग्रहण कर पाने में सक्षम या सजीव हैं – यही कसौटी है हमारे द्वारा उस वस्तु को सजीव घोषित किए जाने की ! निरपेक्ष रूप में तो वह जो है, वही है और जैसा है, वैसा ही है। अर्थात किसी वस्तु की सजीवता की अनुभूति सच में हमारी अपनी सजीवता का प्रतिभास है।
इसलिए हमारा मानना है कि इस चराचर जगत में कुछ भी निर्जीव नहीं है। सभी सजीव हैं। बस सब कुछ निर्भर करता है हमारी अपनी अनुभूति और संवेदना की सक्षमता पर, जिसे आप चेतना भी कह सकते हैं और उस संवेदना के स्तर पर कि ज्ञेय की सजीवता के कितने अंश को वह पकड़ पाता है। और यह ‘पकड़ना’, मैं फिर दुहराऊँगा, “भौतिक सत्ता से लेकर वैचारिक और भावनात्मक धरा का स्पर्श करती आध्यात्मिक बिंबों तक विस्तृत है।“ बीसों साल पहले परमधाम को प्रस्थित माँ आज भी स्मृतियों में सजीव हो उठती है और दुलारकर चली जाती है। क्लांत मन हरिहरा जाता है। आँखें ओदा जाती हैं। मन कुछ बुदबुदाने लगता है। इसे आप क्या कहेंगे – किसी सजीव सत्ता से ‘इंटरैक्शन’ या किसी सत्ताहीन निर्जीव का ‘इन्फ़ेक्शन’ या फिर हमारी किसी अज्ञात चेतन सत्ता से ‘इंटैंगलमेंट’!