Friday, 28 December 2018

बहुरिया का ज़बान (लघुकथा)


"कातिक नहान के मेले में रघुनाथपुर के जमींदार, बाबू रामचन्नर सिंह, की परपतोह बहुरिया पधारी थी. मेले के पास पहुंचते ही चार साल के कुंवरजी को दिसा फिरने की तलब हुई. बैलगाड़ी वहीँ खड़ी कर दी गयी. गाडी को उलाड़ किया गया. ऊपर और साइड से तिरपाल का ओहार तानकर बहुरानी का तम्बू तैयार किया गया. नौड़ी ने बिछावन बिछा दिया. नौकर-चाकर कुंवरजी को दिसा फिरा लाये. बगल में ही बिसरामपुर का एक सजातीय गरीब परिवार अपना डेरा डाले था. बिसरामपुर रघुनाथपुर का ही रैयत था.
बगल का ओहार उठाकर एक नन्ही कली बहुरिया के शिविर में समाई और कुंवरजी के साथ अपनी बाल क्रीडा में मशगुल हो गयी. दोनों का खेल और आपसी संवाद बहुरिया का मन मोहे जा रहा था. उस मासूम बालिका को खोजते खोजते उसकी माँ भी इस बीच पहुँच गयी. लिहाज़ वश मुंह पर घूँघट ताने माँ ने बहुरिया से माफ़ी मांगी. बहुरिया ने उसे बिठाया, बताशा खिलाया और पानी पिलाया. "लगता है गंगा मैया अपने सामने ही इनसे गाँठ भी जुड़वा लेंगी."  उस बाल जोड़े की मोहक क्रीड़ा भंगिमा को निहारती पुलकित बहुरिया ने किलकारी मारी.
'इस गरीब के ऐसे भाग कहाँ, मालकिन!'
"गंगा मैया के इस पूरनमासी के परसाद को ऐसे कैसे बिग देंगे. हम जबान देते हैं कि इस जोड़ी को समय आने पर हम बियाह के गाँठ में बाँध देंगे." बहुरिया ने जबान दे दिया.
मेले के साथ बात भी आई, गयी और बीत गयी.
कुंवर जी की वय अब सात साल हो गयी थी. एक दिन शादी के लिए लड़की वाले पहुँच गए. उनकी हैसियत का पता चलते ही रामचन्नर बाबू ने नाक भौं सिकोड़ लड़की वालों को अपनी 'ना' की ठंडई पिला दी. बुझे मन से लड़की वालों ने अपनी बैलगाड़ी जोत दी.
कचहरी से उठकर रामचन्नर बाबु दालान से लगी कोठली में लेट गए और ठाकुर उनकी मालिश करने लगा.
" मालिक, इन बीसरामपुर वालों को बहुरिया ने बियाह का जबान दे दिया था, गंगा नहान के मेले में." चम्पई करते ठाकुर ने उनके कान में धीरे से बुदबुदा दिया. 'उनका ठाकुर हमको बता रहा था'.
ज़मींदार साहब उठ खड़े हुए. भागे भागे अंगना में बहुरिया के पास पहुंचे .बहुरिया ने सहमते सहमते सर हिला दिया.
तुरत दो साईस छोड़े गए. एक बिसरामपुर वालों की बैलगाड़ी को घेर कर वापिस लाने के लिए और दूसरा पंडितजी को लाने के लिए.
"हमारी बहुरिया ने ज़बान दे दिया था, इस बात का हमें इल्म न था," रामचन्नर बाबू हाथ जोड़े जनमपतरी सौंप रहे थे और बीसरामपुर वालों से माफी मांग रहे थे.
जिस घर की बहुरिया के ज़बान का इतना परताप हो उस घर में अपनी लाडली के बहुरिया बनने का सच बीसरामपुर वालों की आँखों में गंगाजल बनकर मचल रहा था."
नानी अपने बियाह ठीक होने की कहानी सुना रही थी और दोनों नातिने उनके शरीर पर लोट लोट कर मुग्ध हो रही थी.    

Tuesday, 25 December 2018

सुन लो रूह की


दिल भी दिल भर,
दहक दहक कर
ना बुझता है,
ना जलता है.

भावों की भीषण ऊष्मा में,
मीता, मत्सर मन गलता है.

फिर न धुक धुक
हो ये धड़कन
और ना,
संकुचन, स्पंदन.

खो जाने दो, इन्हें शून्य में.
हो न हास और कोई क्रंदन.

शून्य शून्य मिल
महाशून्य हो
शाश्वत,
सन्नाटे का बंधन!

सब सूना इस शून्य शकट में
क्या किलकारी, क्या कोई क्रंदन.

मत डुबो,
इस भ्रम भंवरी में,
मन, माया की
मृग तृष्णा है.

दृश्य-मरीचिका! मिथ्या सब कुछ,
कर्षण ज्यों कृष्ण और कृष्णा हैं.

चलो अनंत
पथिक पथ बन तुम!
बरबस बाट
जोहे बाबुल डेरे.

रुखसत हो, सुन लो रूह की,
तोड़ो भ्रम जाल, मितवा मेरे!

Saturday, 8 December 2018

पुरखों का इतिहास

बिछुड़ गया हूं
खुद से।
तभी से,
जब डाला गया था,
इस झुंड में।
चरने को,
विचरने को,
धंसने को,
फंसने को,
रोने को,
हंसने को।

डाले जाते ही
निकल गई थी,
मेरी मर्मांतक चीख!
छा गई थी,
खुशियां।
झुण्ड में।
और झुंड ने मनाया था
उल्लास,
मेरे आगमन का!
(बिछुड़ने
की तैयारी में!)

मुझसे
अरसो पहले भी
काफी लोग
बिछुड़ चुके है
पूर्वज बनकर।
जा के लटक गए हैं
आसमान में नक्षत्रों संग।
आने को हर साल।
अपने पक्ष का
तर्पण पाने
और पानी पीने!

कुछ तैयारी में है
अग्रज वृंद,
बनने को तारे।
फिर बारी हमारी,
और अनुज गणों की।
मिलेंगे खुद से, बनकर
मातम पुरसी पुरित पुरखे
बिछुड़कर झुंड से।
तब मेरी चीख पर,
उलटा होगा
झुंड के उल्लास का!


अर्थात!
मेरे उल्लास पर
झुण्ड की चीख।
मेरी चीख से झुंड की चीख
के बीच पसरा है
झुण्ड के उल्लास से
मेरे उल्लास के
बीच का भ्रम पाश।
यहीं तो टंगा है आकाश में
बनकर
पुरखों का इतिहास!

Monday, 19 November 2018

टहकार!

भींगी रात यादों की। 
सूखा रही अब धूप, विरह की ।  
निगोड़ी रात अलमस्त! 
सुखी! न सूखी।  
उल्टे, भींगती रही धूप। 
खुद ! रात भर। 
ढूंढता रहा आशियाना सूरज।
 धुंध में चांदनी की । 
और अकड़ गया है चांद, एहसासों का। 
आसमान मे, होकर और टहकार


टहकार - गहरा चमकीला रंग।

Friday, 9 November 2018

अकेले ही जले दीए!

अकेले ही जले दीए
मुंडेर पर इस बार।
न लौटे जो कुल के दीए
गांव, अबकी दिवाली पर।
भीड़ गाड़ी की
आरक्षण की मारामारी
सवारी पर गिरती सवारी
भगदड़ में भागदौड़।
और किराए की रकम,
लील जाती जो लछमी को!

उधर उम्मीदों के दीयों को
आंसूओं का तेल पिलाती
 'व्हाट्सअप कॉल '
में खिलखिलाती
पोते- पोती सी आकृति
अपने पल्लुओं से
पोंछती, पोसती
बारबार बाती उकसाती!
पुलकित दीया लीलता रहा
अमावस को।

उबारता गुमनामी से
गांव - गंवई को ,
सनसनाती हवाओं की
शीतल लहरी पर,
तैरता सुदूर बिरहे का स्वर।
उधर गरजता, दहाड़ता
पूरनमासी - सी
सिहुराती रोशनी में,
दम दम दमकता
दंभी शहर!

Sunday, 21 October 2018

अर्ध्य अश्रु -अनुराग नमन


उठती गिरती साँसों में,
खयालों में अहसासों में।
पलकर पल-पल पलकों में,
भाव गूँथ गुंफ अलकों में।

सपनों में श्वेत शुभ्र कुंद,
मंद-मंद मन मुकुल मुंद।
निष्पंद नयन नम सन्निपात,
धूमिल धूसरित  धुलिसात।

महाशून्य-से सन्नाटे में,
गहराते गर्त में भाटे के।
तुमुल नाद से आर्त तमस,
धँस जाते तुम उर अंतस।

ले प्राणों का प्रिय प्रकम्पन,
अर्पित कामना कनक कुंदन।
हर विरह में रह-रह कर,
दाह दुस्सह दुःख सह-सह कर।

पाषाण हृदयी हे निर्दया, 
तू चिर जयी मै हार गया।
निश्छल मन मेरा गया छला,
अलबिदा! निःशब्द,निष्प्राण चला।

अवशोषित शोणित के कण में,
पार प्रिये प्राणों के पण में।
आज उड़े जब पाखी मन के,
ढलके हो तुम आँसू  बन के।

ले अर्ध्य अश्रु अनुराग नमन,
पावन आप्लावन जनम-जनम।
नीर प्रकृति क्षय क्षार गरल,
बहूँ पुरुष भव भाव तरल।.


Saturday, 29 September 2018

आने दो, माँ को, मेरी!


मैं अयप्पन!
मणिकांता, शास्ता!
शिव का सुत हूँ मैं!
और मोहिनी है मेरी माँ!

चलो हटो!
आने दो
माँ को मेरी.
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
छाया में
ममता से भींगी
मातृ-योनि की अपनी!

अब जबकि
 सुलझा दिया है सब कुछ
माँ ने ही मेरी
बांधे पट्टी
आँखों में और
लिये तुला हाथों में.
लटके रहे जिसके
हर पल!
पकड़कर कस के
तुम एक पलड़े पर!

क्या कहा!
है वय
उसकी
दस से पचास!
माहवारी मालिन्य,
नारीत्व का नाश!

तीन लहरों से धुलती
तीर पर सागर के
निरंतर
'कन्याकुमारी'.
माँ नहीं तुम्हारी!
पूजते हो,
या ढोंगते हो केवल!

कैसा 'धरम' है रे तुम्हारा!
कहता है
अपवित्र
'धरम' को!
मेरी माँ के!

जो है
जैविक, स्वाभाविक और
'मासिक'!
जिसका
'होने के श्री-गणेश'
और
'न होने के पूर्ण विराम'
के मध्य
किसी विराम-बिंदु पर
'न होना'
बीज-वपन है
कुक्षी में.
तुम्हारे
'होने'
का!

कवलित कुसुम हो न,
तुम
'अधरम-काल' के!

दो मुक्ति
अपनी मरियल मान्यताओं से!
बेचारी 'माँ' को.
कर्कश कुविचार कश
में कसी.
या, फिर पोंछ दो
मुंडेरों से मेरी
'तत्त्वमसि'!

है यह गेह मेरा,
पेट भरे थे
माँ शबरी ने
तुम 'पुरुष'-उत्तम के!
जूठे बेर से!
यहाँ!

अब कबतक सहेगा
'बैर' तुम्हारा
मेरी माँ से
यह
'हरिहर-पुत्र'
शबरीमाला का!

छोडो छल!
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
आने दो,
माँ को,
मेरी!

Wednesday, 5 September 2018

'साहित्यिक-डाकजनी'

किसी का जोरन,
किसी का दूध.
मटकी मेरी, 
दही विशुध.

छंद किसी का, 
बंध है मेरा.
'प्लेगरिज्म'
'पायरेसी' का  फेरा.

चौर-चातुर्य, 
रचना उद्योग.
पूरक, कुम्भक, 
रेचक योग.


थोड़ी उसकी पट, 
थोड़ी इसकी  चित.
क्यों लिखे, 
भला, मौलिक गीत!

गर गए पकड़े,
मची हाहाकार,
विरोध में वापस,
पुरस्कार!

कथ्य आयात, 
पात्र निर्यात
'साहित्यिक-डाकजनी' 
सौगात!!!

जोरन -- जामन या खट्टा जिसे मिलाने पर दूध दही में जम जाता है।

Monday, 27 August 2018

प्रेयसी-पी!

मौत! बन ठन के
मीत मेरे मन के
सौगात मेरे तन के!
जनमते ही चला
मिलने को तुमसे।

'प्रेय' पथ की मेरी
प्रेयसी हो तुम।
आकुल आतुर
मिलने को तुमसे
पथिक हूँ तुम्हारा।

तिल तिल कर
हो रहा हूँ खर्च
इस पथ पर
पाथेय बन स्वयं।
छूटती जाती पीछे.....

छवियाँ अनगिन,
और बिम्ब बेपनाह।
गढ़े थे जिनको
'मैं' ने मेरे!
साथ साथ.....

बुनते गुनते रिश्ते,
उन बिम्बों से।
लीक पर
समय की अब।
प्रतिबिम्ब बन....

यदा-कदा यादों के
झलमलाते, फुसलाते
रीझाते, खिझाते।
भ्रम की भँवर में
तिरते उतराते।

खुल रहे हैं
अब शनैः शनैः,
बंधन भ्रम के
गतानुगतिक व्यतिक्रम से।
पथ यह 'प्रेय'.......

बनता अब 'श्रेय'!
मौत! बन ठन के
मीत मेरे मन के
सौगात मेरे तन के!
साध्य श्रेयसी सी
हैं हम प्रेयसी-पी!



Tuesday, 24 July 2018

'मैं'


देह स्थूल जंगम नश्वर 'मैं',
रहा पसरता अहंकार में.
सूक्ष्म आत्मा तू प्रेयसी सी,
स्थावर थी, निर्विचार से.

तत्व पञ्च प्रपंच देह 'मैं',
रहा धड़कता साँसों में.
जीता मरता 'मैं' माया घट,
फँसा फंतासी फांसों में.

भरम-भ्रान्ति 'मैं' भूल-भुलैया,
मायावी, छल, जीवन-मेला
लिप्त लास में 'मैं' ललचाया
आँख मिचौली यूँ खेला !

त्यक्ता 'मैं', रीता प्रीता से,
मरणासन्न मरुस्थल में.
नि:सृत नीर नयन नम मेरे,
फलक पलक 'मैं' पल पल में.

सिंचित सैकत कर उर उर्वर,
प्रस्थित प्रीता, अपरा प्रियवर.
विरह विषण्ण विकल वेला 'मैं'!
महोच्छ्वास, निःशब्द, नि:स्वर!


Tuesday, 17 July 2018

मरू में क्यों!


देखा, जो तूने कचरो पर,
सपने बच्चों के पलते हैं.
सीसी बोतल की कतरन पर,
तकदीर सलोने चलते हैं.

जब जर जर जननी छाती,
दहक दूध जम जाता है.
और उजड़ती देख आबरू,
पल! दो पल थम जाता है.

ढेरों पर फेंके दोनों में,
अमरत्व जीव का फलता है.
नयन मटक्का शिशुओं का,
शावक श्वान संग चलता है.

लेकर कर, कुत्तों के कौर,
दाने अन्न के बीनता है.
भाग्यहीन है, भरत वीर यह!
दांत, शेर की गिनता है.

झोपड़ पट्टी की शकुन्तला,
परित्यक्ता सी घुटती है
थामे पानी आँखों में,
बस सरम पीसती, कुटती है

तोभी बेधरमी धिक् धिक् तुम!
लाज सरम घोर पी गए.
कविता के चंद छंदों में,
बेसरमी अपनी सी गए!

काली करनी के कूड़ों को,
क्यों न कलम से कोड़ दिया!
मरू में क्यों! मरे मनुजों पर ही,
एटम बम न फोड़ दिया!!!