ज़िन्दगी की कथा बांचते बाँचते, फिर! सो जाता हूँ। अकेले। भटकने को योनि दर योनि, अकेले। एकांत की तलाश में!
Tuesday, 5 December 2023
'किलकारी' (काव्य संग्रह) लोकार्पण
Thursday, 9 November 2023
सृजन सवेरा
जल के तल पर,
स्वर्ण रेखा से,
पथ बन सूरज
सो गया।
मस्तुल पर मस्त
अन्यमनस्क मन ,
अकेलेपन में
खो गया।
तट से दूर,
अंदर जाकर,
पानी भी रंग
बदल लेता!
फिर क्यों मन
चंचल होकर भी,
आज अचेत सा
यूँ लेटा?
बस पल भर,
बीत जाते ही,
कंचन वीथि
खो जाएगी।
गागर में
रजनी अपनी,
सागर समेट
सो जाएगी।
नीचे तम,
और ऊपर भी तम,
और क्षितिज भी,
चहुँ मुख हो सम।
अँधियारे लिपटे
अन्हार को,
भी न खुद
होने का भ्रम!
दृश्य जगत का,
छल प्रपंच,
अदृश्य अमा के
तिमिर काल।
न होगा ऊपर
नील गगन,
न नीचे रत्ना
गर्भ ताल।
फिर खोए नितांत
एकांत में,
जागे मानस,
इच्छा तत्व।
तीन गुणों में
सूत्र आबद्ध,
राजस, तमस
और सृजन सत्व।
' न होने ' से
'हो जाने ' , के,
' प्रत्यभिज्ञा ' अंकुर-मुख
खोलेगा।
कालरात्रि के
छोर क्षितिज,
सृजन सवेरा
डोलेगा।
Monday, 6 November 2023
सागर बता क्यों?
सागर बता क्यों तू,
गंभीर इतने?
तूने देखे घात
प्रतिघात कितने!
सुनी है ये हमने
पुरातन कहानी।
कि सृष्टि का स्त्रोत
तुम्हारा ही पानी।
तुम थे, तुम थे,
और केवल तुम थे।
जो जड़ थे, चेतन थे,
सब तुम में गुम थे।
भ्रूण में तुम्हारे,
रतन ही रतन थे।
निकले सब बाहर,
मंथन जतन से।
सृष्टि को भेजा था,
जल से तू थल पर।
तेरे परलय टंगी,
धरती शूकर पर।
आगे बही फिर,
सभ्यता की धारा।
प्रतिकूलता को,
हमने संहारा।
ऊपर, और ऊपर
चढ़ते गए हम।
प्रतिमान नए और
गढ़ते गए हम।
पशुओं को मारे,
और पशुता को धारे।
जटिल जिंदगानी,
इंसान हारे।
पियूष प्रकृति बूंद,
बूंद हमने पीया।
संततियों को,
बस जहर हमने दिया।
लहरें ही लहरों में,
जा के यूं उलझे।
श्रृंग-गर्त्त भंवर बन,
रह गए अनसुलझे।
तुमसे ही अमृत,
तुमसे गरल भी!
बता क्यों है क्लिष्ट,
अब ये सृष्टि सरल सी?
Tuesday, 12 September 2023
छोड़ो बक- बक
मेरी खरी और तेरी खोटी,
इसमें जीवन बीता।
इसी उलझन में फंसे रहे,
कौन हारा, कौन जीता।
छोड़ो बक- बक,
हो जा चुप अब।
बोलोगे तो,
सोचोगे कब।
नहीं रहेगा,सुननेवाला,
महफिल ये छोड़ेंगे सब।
आगे नाथ न पीछे पगहा,
तो तू क्या करेगा तब?
आँखों में न साजो सपने,
न हसरत हो सीने में।
जो सुख अंजुरी भर पानी में
नहीं मदिरा पीने में।
नहीं रहेगा मेला हरदम,
न ये खुशबू भीनी।
' आए अकेले, जाओ अकेले '
भ्रम भेक भूअंकिनी।
जो मुक्ति अंतस के घट में,
नहीं काशी मदीने में।
दुनिया जितनी छोटी हो,
उतनी अच्छी जीने में।
Tuesday, 15 August 2023
मृच्छकटिकम
देखो मिट्टी गाड़ी कैसे,
मेरे पीछे नाचे।
देह देही की यही दशा है,
यही संदेश यह बांचे।
सब सोचें मैं इसे नचाऊं,
किंतु नहीं यह सच है।
सच में ये तो मुझे नचाए,
यही बड़ा अचरज है।
श्रम सारा तो मेरा इसमें,
फिर कैसे यह नाचे!
रौरव शोर घोल मेरी गति में,
मेरी ऊर्जा जांचे।
चकरघिन्नी सा नाचता पहिया,
मेरी गति को नापे।
हर चक्कर पर चक्का चर-पर,
चर-पर राग अलापे।
मैं भी दौडूं सरपट उतना,
जितना यह चिल्लाए।
कठपुतली सा नचा- नचा के,
बुड़बक हमें बनाए।
हर प्राणी की यही गति है,
मृच्छ कटिकम में अटका।
ता- ता- थैया करता थकता,
पर भ्रम में रहता टटका।
Monday, 17 July 2023
भावार्थ
अबूझ प्यास क्या बुझे,
तू और इसे कुरेदती।
प्रकृति तू! प्रति तत्व को,
पुरुष के उद्भेदती।
डूबकर मैं रूप में,
अरूप को संधानता।
हर शब्द आहत नाद में,
अनाहत ही अनुमानता।
सरस स्पर्श में तेरे,
मैं नीरस, नि: स्पृह-सा।
गंधमादन गेह देह,
मेरे शुष्क गृह -सा।
तर्क तूण तीर तन,
आखेटता मैं भाव को।
भाव भव सागर में,
तलाशता अभाव को।
कणन कंचन कामना तू,
मैं पुलक पुरुषार्थ का।
वासना के पार मैं,
वैराग्य के भावार्थ -सा।
Sunday, 16 July 2023
चंदा मामा के साथ चार दिन
Tuesday, 6 June 2023
शंकर सागर और यादों के दरीचे
१९८४ का साल। आई आई टी रूड़की तब का विख्यात रूड़की विश्वविद्यालय। अखिल भारतीय युवा महोत्सव ‘थोम्सो-८४’ का आयोजन। समूचे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों की युवा कला-प्रतिभाओं का विशाल जमघट। संस्कृति कर्मियों का अद्भुत समागम। नाटक, शास्त्रीय गायन, ग़ज़ल, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अद्भुत कलाकारों की विलक्षण प्रस्तुति। युवा दर्शकों से खचाखच हॉल। शोरगुल से सराबोर फ़िज़ा। कोई मनचला सीटी बजा रहा है, कोई काग़ज़ का हवाई जहाज़ उड़ा रहा है। अचानक मंच से आवाज़ गूँजती है – ‘हम पटना विश्वविद्यालय से शंकर प्रसाद बोल रहे हैं।‘ माइक में घुसती नियंत्रित साँसों के हल्के झीने स्वर परिधान में लिपटी एक मीठी आवाज़ पूरे हॉल को अपनी चाशनी में ऐसे भिगो देती है कि पूरे प्रेक्षागृह में मानों वक़्त एकबारगी समूचे दर्शकों के साथ चकित-विस्मित-सा ठहर जाता है। सारा वातावरण स्तंभित! सन्नाटा! जो जहाँ जिस स्थिति में, उसी स्थिति में हतशून्य-सा! आवाज़ों के जादूगर से यह पहला परिचय था हमारा। तब मैं युवा महोत्सव की इस आयोजन समिति का संयोजक सदस्य था। पटना सायन्स कॉलेज से इंटर पास कर मैं रूड़की में सिविल इंजीनियरी का छात्र था। हम बिहारियों की आदत होती है कि हर जगह विशेषकर बिहार के बाहर किसी भी मंच पर हम अपने को हमेशा अगुआ के रूप में देखना चाहते हैं। हमने विशेष प्रयास कर इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय को आमंत्रण भेजवाया था। शंकर प्रसाद के नेतृत्व में इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय की टीम ने जो जलवा बिखेरा वह अब एक स्वर्णिम इतिहास है। उनके शानदार प्रदर्शन ने हमारे अंदर के बिहारीपन के भाव को पूरी तरह संपुष्ट किया। आगे कई दिनों तक रूड़की का प्रांगण शंकर प्रसाद और उनकी टीम की गाथाओं से गुंजित होते रहा और हम आपने भाग्य को अनथक सराहते रहे।
शंकर सर से मुलाक़ात फिर कई दशकों के बाद दूरदर्शन की साठवीं जयंती पर एक पैनल चर्चा में हुई। पीछे का पूराना दृश्य अचानक चलचित्र की तरह घूम गया। बिलकुल नहीं बदले थे शंकर सर! अदाओं की वहीं लटक, आवाज़ में वहीं खनक और व्यक्तित्व में वहीं मिठास! तबतक डुमराँव से पटना के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका था। ज़िंदगी के अनेक दुरूह ऊबड़-खाबड़ को समतल बनाती उपलब्धियों का विजय-केतन थामे उन्होंने एक ऐसे मुक़ाम को छू लिया था जो न केवल दर्शनीय ही था प्रत्युत बहुत लोगों के लिए ईर्ष्य भी था।
अल्पायु में ही यतीम हो गया एक बालक अपने अदम्य संघर्ष बल और जीवट जिजीविषा से किस तरह जीवन के झंझावातों को चीरता हुआ नवोंमेष और सफलता का एक चमकता सूरज रोप लेता है अपनी अंगनाई में – यह सत्यकथा है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉक्टर शंकर प्रसाद के जीवन-चरित की। इनके व्यक्तित्व को किस रूप में परिचय कराएँ आपसे – अभिनेता, प्रोफ़ेसर, प्रशासक, लेखक, उद्घोषक, संपादक, पत्रकार, गीतकार, फ़नकार, संगीतकार, नाट्य-कलाकार, ग़ज़लकार!!! इनके जीवन के आँगन में अनुभवों और उपलब्धियों की धूल जमती ही रही। जीवन पथ पर आनेवाले सभी तत्वों को इन्होंने बड़ी संजीदगी से समेटा। हर उपलब्धि इनके व्यक्तित्व में नम्रता का एक नया नगीना जड़ देती और इनका व्यक्तित्व और अधिक दमक उठता। भले ही, इन्होंने अध्यापन में अपना देहांतरण कर लिया हो, इनकी आत्मा कला और रेडियो में ही बसती रही। संगीत और नाटक इनके दिल में अहरनिश धड़कते रहे। लिखने को इनकी कलम कुलबुलाती रही। ग़ज़ल में इनका मन मचलता रहा। आवाज़ की माधुरी इनके होठों से अविरल झरती रही। इनका वैदुष्य पल-पल बिंबित होते रहा। इनकी वाग्मिता बहती रही। और, इनकी हर अदा पर माँ सरस्वती मुस्कुराती रही।
शंकर की जटा से निकली गंगा की पतली धारा पर्वतीय उपत्यकाओं की बीहड़ता और दुर्गम चट्टानों से दो-दो हाथ करती, घाट- घाट को पानी पिलाती, विशाल भूभाग में पसरी परंपराओं, आर्यावर्त के अंगना के लोक मूल्यों, जीवन-संस्कृति, भू-संपदा और सभ्यताओं को अपने में समाहित करती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है। सच कहूँ, तो कुछ ऐसी ही फ़ितरत वाले हैं संगीत नाटक अकादमी के भूतपूर्व अध्यक्ष और बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान उपाध्यक्ष अपने ‘शंकर-सागर’ भी! ‘सजना के अंगना’ वाले शंकर की जटा से स्मृतियों की गंगा हहराती हुई फूटती है। यह जीवन की दुरूह पथरीली घाटियों में लहालोट होती है। चट्टानों और शिला-खंडों से टकराती-रगड़ाती है। अपने अनुभवों के कांकड-पाथर समेटती है। घाट- घाट का स्पर्श करती है। रास्ते की माटी के कण- कण का स्वाद चखती है। हर मोड़ पर उठने वाली नयी तरंगों से निकले सुर ताल से अपने सरगम की लय साधती है। अंत में, अपने विश्राम की कला को उद्धत होती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है।
स्मृतियों के लेखा के इस विशाल सागर में शंकर की लेखनी ने अपनी रोशनाई के अद्भुत वर्ण को बिखेरा है। इस स्मरणीय स्मृतिका को बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने चार खंडों में प्रकाशित किया है। ‘यादों के दरीचे’ पहला खंड है। शंकर के इस सरस सागर का श्री गणेश शंकर सागर की धुन पर ‘सजना के अंगना’ से होता है। इसी फ़िल्म से कला जगत में इस नायक, लेखक और संगीत के फ़नकार की बोहनी होती है। धीरे-धीरे ‘यादों के दरीचें’ में जीवन के इस सौंदर्य-उपासक के संस्मरणों की सुरीली तान का जादुई वितान जब फैलना शुरू होता है, पाठक बरबस मुग्ध हो उठता है। उसकी तन्मयता का आलम तो यह है कि लेखक की सरल सरस बातचीत की शैली में बहता हुआ पाठक लेखक के बहुआयामी व्यक्तित्व के चित्र में यूँ रंग जाता है कि उसकी आँखें एक साथ इस जादुई व्यक्तित्व में गायक, संगीतज्ञ, उद्घोषक, पत्रकार संपादक, लेखक, शायर, प्रशासक, अध्यापक, नाटककार, लोककर्मी, लोक संस्कृति का सूत्रधार और न जाने किन किन चमत्कृत आभाओं से चकाचौंध हो जाती हैं। लेखक का बहुआयामी व्यक्तित्व अत्यंत सशक्त रूप में पाठकों के समक्ष उभरकर आता है। समूचा वृतांत इतिवृतात्मक और बातचीत की शैली में है। लेखक के कहने के ढब में एक कलाकार की कोमलता, एक बालक-सी सरलता, भारतीय आँचलिक जीवन का भोलापन, आत्मीयता का ठेठ गँवईपन, अभिव्यक्ति का टटकापन, और जीवन समर की तपिश है। किस्सागोई के अद्भुत मीठे प्रवाह की गति में गुदगुदाती कहानियाँ पाठक को कभी हंसाती हैं, कभी रुलाती हैं और फिर अपने बतरस से बरबस ऐसे नहला जाती हैं कि पाठक को यह बतियाना छोड़ने का मन नहीं करता। समूची बातचीत में एक विस्तृत कालखंड का इतिहास बिखरा हुआ है। लेखक के शब्दों में ही, “जब से होश संभाला यह अनुमान मुझे हो गया था कि मुझे बहुत कुछ मिलेगा इस संसार में। छोटी उम्र में ही वह सब कुछ होने लगा जिसकी उम्मीद वह बेटा तो नहीं कर सकता, जिसका पिता दो वर्ष की उम्र में ही चला गया। इसलिए यह आशा जाग उठी थी कि मुझे कुछ अलग होना ही चाहिए।“
लेखक ने अपनी स्मृतियों के लेखे-जोखे को चार सोपानों में बाँटा है- ‘माया नगरी की धूप-छाँह’, ‘डुमराँव की गलियों से लंबी उड़ान’, ‘आकाशवाणी से मंच और पत्रकारिता में चकाचौंध की ज़िंदगी’ तथा ‘सफ़र में डॉक्टर शंकर प्रसाद’। पाठक भी लेखक के साथ उसकी कथा-यात्रा में यूँ आगे बढ़ता चला जाता है, मानों कोई पक्षी किसी सीढ़ी पर फुदक-फुदक कर सोपान-दर-सोपान चढ़ता जा रहा हो और हर सोपान पर आगे ‘और कुछ’ पाने का आकर्षण उसमें फिर से फुदकने की ललक पैदा करते जा रहा हो! फ़िल्म ‘सजना के अंगना’ और इसके निर्देशक अकबर बालन के प्रसंग से कथा का श्री गणेश होता है। इस फ़िल्म के निर्माण में शंकर ‘प्रसाद’ शंकर ‘सागर’ बन जाते हैं और इस सागर से समकालीन रंगीन दुनिया की तमाम धाराओं का मिलन होता है। उन सभी धाराओं का अपना अलग राग, अलग ताल, अलग छंद और अलग उछाह है। फ़िल्मी दुनिया के कई नामचीन किरदार और उनकी ज़िंदगी के अनछुए प्रसंग बड़े रोचक ढंग से उभरते चले आते है। प्रसंगों को इतनी मिठास से पिरोया गया है कि पाठक को लगता है कि वह भारत के चित्रपट के इतिहास का चलचित्र ही देख रहा है।
‘’१ अगस्त १९३३ को दादर में मीना जी अली बख़्श के घर पैदा हुई - उनके पिता अली बख़्श पारसी थिएटर में काम करते थे और डान्सर थे।उनकी पत्नी इक़बाल बेगम थीं यानि मीना जी की माँ। बहुत छोटी उम्र में मीना जी ने काम करना शुरू किया- महजबी नाम था उनका।……….अली बख़्श बहुत नाराज़ हुए क्योंकि कमाल अमरोही की ऊम्र ५० वर्ष थी और मीना जी की ऊम्र १६ वर्ष …………………. मोहब्बत ऊम्र नहीं देखती ………………… वह बूढ़े थे और उनको मीना जी पर भरोसा नहीं था ………… एक दिन कमाल अमरोही ने गुंडों को भेजकर धर्मेन्द्र जी पर हमला करवा दिया…….. उधर वहीदा जी बढ़ती गयीं और गुरुदत्त बिखरते गए……….यह संस्मरण बहुत ख़तरनाक है ………….सुनील दत्त के लिए ‘मुझे जीने दो’ फ़िल्म शूट कर रही थीं तब शूटिंग स्थल पर गुरुदत्त ने जाकर वहीदा जी को एक थप्पड़ मारा और पलट कर सुनील दत्त ने गुरुदत्त को थप्पड़ मारा……………………. रेणु जी शादी शुदा थे और उन्हें टीबी की बीमारी थी। मुँह से ख़ून आता था और जिस हॉस्पिटल में भर्ती हुए, वहीं लतिका जी नर्स थीं। प्रेम संबंध बढ़ा। यह अलौकिक प्रेम संबंध है। प्रेमिका जान रही है कि जो बीमारी है, वाह जानलेवा है। प्रेमी जान रहा है कि कभी भी मर सकता है। फिर भी, यह प्रेम हुआ और ख़ूब हुआ। जब फेरे लग रहे थे तब रेणु जी ख़ून की उल्टियाँ कर रहे थे। यह सब जया जी सुन रही थीं और रो रही थीं………………………उन्होंने बताया कि उनका रिश्ता बिहार से है, दानापूर में रहती थीं। यहीं रेलवे स्टेशन पर उनके पिताजी काम करते थे,इसलिए जब बिहारी उपन्यासकार का नाम आया तब उन्होंने ‘हाँ’ कर दिया।“
इस तरह के अनगिन प्रसंगों से यह स्मृतिका लबरेज़ है। मौरिशस यात्रा की कहानी बहुत ही रोचक और मन को मिठास से भर देनेवाली है – “उस समय राष्ट्रपति थे, शिवसागर रामगुलाम।………………..वह भोजपुरी में बात कर रहे थे और वह भी विंध्यवासिनी देवी को मौसी की जगह भौजी कह रहे थे और बोल रहे थे कि, ‘आप ऐसन लागी ले, जय सन हमार भौजी लागत रही। असहीं घूँघटा में रहत रही।“ अपनी आत्मा को रेडियो की दुनिया में छोड़कर अध्यापन के संसार में लेखक की देह के अंतरण की कथा मन को छू जाती है। लेखक की यह संस्मरण-कथा जीवन के दर्शन का अद्भुत दस्तावेज़ है। सचमुच में,
“यह जो ज़िंदगी की किताब है
यह किताब भी क्या किताब है
कहीं एक हसीन-सा ख़्वाब है
कहीं जानलेवा अजाब है।“
Wednesday, 24 May 2023
बड़े घर की बेटी ( लघु कथा )
Monday, 1 May 2023
रेस्जुडिकाटा!
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
....... ...... .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
..... ...... .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!
Wednesday, 22 March 2023
देश मेरा रंगरेज
देश मेरा रंगरेज
(व्यंग्य संग्रह)
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम – देश मेरा रंगरेज
लेखक – प्रीति ‘अज्ञात’
प्रकाशक – प्रखर गूँज, एच ३/२, सेक्टर- १८, रोहिणी, दिल्ली -११००८९,
दूरभाष – ०११-४२६३५०७७, ७९८२७१०५७१, ७८३८५०५८९९
मूल्य- २५० रुपए
हमारे अध्यात्म का आसव है – आनंद! जब अस्तित्व (सत) में चेतना (चित) खिल उठे तो अंतर्भूत आनंद का आविर्भाव होता है। इसे ही सच्चिदानंद की स्थिति कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने का सौभाग्य प्राणी जगत में मात्र मनुष्य योनि को ही प्राप्त है। ऐसा हो भी क्यों नहीं! विवेक और भाव की जुगलबंदी तथा तदनुरूप माँसपेशियों की हरकत अर्थात मन की मुस्कान के साथ होठों के संपुट खुलकर दाँतों का हठात् चीयर जाना मनुष्य होने की एकमात्र कसौटी है। मुस्कानविहीन मुख ख़ालिस मुर्दानिगी है । अक्सर कोई बड़ी सहजता से कुछ बात कह जाता है। उसकी बात अंतस के तार को गहरे में जाकर यूँ छेड़ देती है कि मुख पर एक सहज मुस्कुराहट और उस मुस्कुराहट के हर हर्फ़ में बातों की गंभीरता का मिसरा बिखरा रहता है। उस मुस्कुराहट से न केवल मन का पोर-पोर भीग जाता है बल्कि कभी कभी तो नयनों के कोर तक भी नम हो जाते हैं। कथन या लेखन की इसी विधा को व्यंग्य कहते हैं जहाँ अन्योक्ति और वक्रोक्ति से उसके सीधे सपाट अर्थ ऐसे लहालोट हो जाते हैं कि पाठक या श्रोता का मन आनंद से अचानक चिंहुक उठता है। बातों का तीर अपने लक्ष्य को चीरते हुए निकल जाता है। बातों के मर्म को पकड़े पाठक का अकबकाया मन तो कभी-कभी साँप-छछून्दर की दशा प्राप्त कर लेता है। और, लहजे में यदि मुहावरों को दाख़िला मिल जाय तो फिर कहना ही क्या! न केवल व्यंग्य के ये प्रखर बाण विसंगतियों को छलनी कर देते हैं बल्कि दमघोंटू वातावरण में समाज को प्राण वायु भी सूँघा जाते हैं। प्रीति ‘अज्ञात' का व्यंग्य-संग्रह ‘देश मेरा रंगरेज’ भी बहुत कुछ ऐसा ही है।
ऋग्वेद में इंद्र और अहल्या के कथित संवाद व्यंग्यालाप के अद्भुत नमूने हैं। पिता के बंजर सिर पर बाल, आश्रम की बंजर भूमि और अपनी बंजर कोख में हरियाली की माँग! इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी का दुर्योधन पर व्यंग्य महाभारत रच जाता है। गोपियों की उलाहना में घुले व्यंग्य के प्रहार से उद्धव के ज्ञान का दंभ भरभरा कर धूल चाटने लगता है। देखिए न, ‘मृछकटिकम’ में जनेऊ को शुद्रक ने क़सम खाने और चोरी करने के लिए दीवार लाँघने में काम आने वाले एक उपयोगी उपकरण के रूप में माना है। अपने मायके पर शिव के व्यंग्य से बिफरी पार्वती विद्यापति के मुख से महादेव को भली भाँति धो देती हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब सैयद अहमद साहब की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी के शब्दों की धार देखिए :
“शैख़ ने गो लाख बढ़ाई सन की सी
मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी।“
‘दांते’ के ‘डिवाइन कॉमेडी’ में व्यवस्था के मज़ाक़ की गूँज सुनायी देती है। भारतेंदु, अकबर इलाहाबादी, क्रिशन चंदर, काका हाथरसी, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्री लाल शुक्ल, रविंद्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के पी सक्सेना, लतीफ़ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, विवेकरंजन श्रीवास्तव, हरिमोहन झा, गोपेश जसवाल, के के अस्थाना आदि अनेक नाम ऐसे हैं जिनकी लेखनी ने लेखन की इस विधा में अपने-अपने रंग भरे हैं। किसी भी समाज, समुदाय या साहित्य में हास्य-व्यंग्य तत्व की उपथिति की प्रचुरता उसकी प्रगतिवादी, विकसीत, आधुनिक और सुसंस्कृत सोच को दर्शाती है। व्यंग्य बाणों को उदारता से देखना एक उर्वर आध्यात्मिक दृष्टि का लक्षण है। जैसे हास्य-विहीन जीवन शमशान-तुल्य है वैसे ही व्यंग्य के प्रति उदारता और स्वस्थ दृष्टिकोण का अभाव एक मृत समाज का भग्नावशेष है। समय-समय पर ये तत्व हममें ख़ुद पर हँसने की चेतना भरते हैं और आत्म-निरीक्षण हेतु तैयार करते हैं।
वैदिक युग से अद्यतन भारतीय साहित्य में हास्य-व्यंग्य के तत्वों की एक समृद्ध परम्परा का अनवरत प्रवाह होता रहा है। इस प्रवाह की चिरंतनता को गति देने की दिशा में प्रीति ‘अज्ञात’ रचित ‘देश मेरा रंगरेज’ एक महत्वपूर्ण और सशक्त कृति बनकर उभरी है। हमारे देश की लोकजीवन-शैली ने हमारी राष्ट्रीयता को नित-नित नए रंगों में रंगने की अपनी कला को शाश्वत बनाए रखा है। उन रंगों को प्रीति जी ने एक प्रखर समाज सचेतक की भाँति सहेजकर बड़ी कुशलता से अपनी कूँची में भरा है। उनके कैन्वस का वितान अत्यंत विस्तृत है। व्यवस्था की त्रुटियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ, फ़ैशन परस्ती, जीवन शैली की विद्रूपता, गिरते सामाजिक मूल्य, बढ़ता भ्रष्टाचार, भौतिक विकास से चोटिल सामाजिक जीवन, नागरिक मूल्यों का निरंतर क्षरण, साहित्य में जुगाड़ तंत्र, लेखकों की दयनीय दशा, मुँहज़ोर मुँह के जुमलों का ज़ोर, समय के सफ़र में स्पेस में घुलता ज़हर, कमर तोड़ती महँगाई, कुर्सी पर क़ब्ज़े की क़वायद, रिश्तों की चुहलबाज़ी, बीते दिनों के स्कूली दिनों की मर्मांतक किंतु आज गुदगुदाती गाथाएँ, बचपन के पिता की ख़ौफ़नाक तस्वीर, ‘मर्द का दर्द’, कोरोना काल का समाजशास्त्र, मास्कपरस्ती का मनोविज्ञान, आशिक़ों के अगणितीय समीकरण – इन तमाम वर्णों को अत्यंत बलखाती मोहक वर्णमाला में अपने चित्रपट पर उन्होंने पसार दिया है। भावों के हास्य-तत्व से उनके शब्द गलबहियाँ करते दिखते हैं। अनूठे शब्दों के औज़ार से उनके व्यंग्य की तीव्रता मारक बन जाती है। शब्दों की छटा का अवलोकन कीजिए – ‘खिलंदड़पना’, ‘परवरिशपंती’, ‘जलीलत्व’, ‘सेल्फ़ियाने’, ‘इश्कियाहट’, घिघियावस्था आदि, आदि! उनके बतरस में समकालीन समाज की बोली की पांडुलिपि का रूह-अफ़जा है।
उनके कुछ वाक्यों की धार देखिए, “अच्छा! गिरे हुए इंसान (जमीन पर, ज़मीर से नहीं) को चोट से अधिक चिंता और दुःख पहले इस बात का होता है कि उसे किसी ने गिरते हुए तो नहीं देखा!”, “छरहरा होना राष्ट्रीय स्वप्न है”, “वो तो अच्छा है कि प्रश्वास के समय कार्बन डाई आक्सायड निकलती है। कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमण्डलीय ऑक्सिजन से मिलकर सब किए-कराए पर पानी फेर देती।“, “जी, हाँ अतृप्त लेखकीय आत्मा प्रायः पुस्तक मेले में भटकती पायी जाती है।“, “पर, जो मान जाए तो वह कवि ही क्या!”, “दुर्गति वही, जगह नयी।“, “ये टीवी का अकेला चैनल तब सबको जोड़ता था। आज सैकड़ों चैनल मिलकर एकता स्थापित नहीं कर पा रहे।“, “चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते।“, उस दिन आपके नसीब से वो रायता/गुलाबजामुन ऐसे उड़ जाता था जैसे कि ग़रीबों के घर से शिक्षा, नेताओं से नैतिकता और समाज से मानवता उड़ चुकी है।“, “विकास तो हो रहा है बस ज़रा दिशा बदल गयी है।“, होता क्या है कि जैसे बहू गृहप्रवेश के साथ ही घर संभालने लगती है, इसके ठीक उलट दामाद जी के चरण पड़ते ही पूरा घर उन्हें संभालने लगता है।“, “आज के ज़माने में जहाँ लोग घर के अंदर से ही बाय कर मुँह पर दरवाज़ा बंद कर देते हैं वहाँ यह ‘कुत्ता’ ही है जो आपको स्पीड के साथ गंतव्य तक छोड़कर आता है।“ इस तरह के लज़ीज़ ‘व्यंजनों’ से यह पूरी पुस्तक पटी हुई है।
नवपरम्परावाद की चाशनी में पगे समाज का स्वाद प्रीति की लेखनी के हास्य-तत्व को एक अप्रतिम कलेवर देता है। पुस्तक की कथावस्तु के केंद्र में पिछली सदी के आठवें दशक से आजतक अर्थात पिछले तीस चालीस वर्षों के भारतीय समाज का जीवन चरित है। यही वह कालखंड है जब विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों पर आरूढ़ एक पीढ़ी हौले-हौले अपने बचपन की चुहलबाज पगडंडियों पर उछलते-कूदते कैशोर्य के राजमार्ग होकर यौवन के इक्स्प्रेस्वे पर पहुँच जाती है। किंतु पगडंडी की धीमी गति की मिठास के आगे इक्स्प्रेसवे की द्रुत गति बड़ी ठूँठ-बाड़ और अराजक-सी लगती है। व्यंग्य के इस कुशल चितेरे ने उन मनभावन यादों से अपनी ‘प्रीति’ को ‘अज्ञात’ नहीं होने दिया है। स्मृतियों को सहेजना ही बुद्धि और विवेक की चिरंजीविता के लक्षण हैं। जैसा कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, “स्मृति भ्रंशात बुद्धि नाश:, बुद्धि नाशात प्रणश्यति ।“ अतीत की स्मृतियों के आलोक में वर्तमान की विसंगतियों पर अचूक निशाना साधने में प्रीति अत्यंत खरी उतरी हैं। उनकी लेखनी की प्रांजलता, विचारों का प्रवाह, चिरयौवना भाषा का अल्हड़पन, शब्दों का टटकापन, भावों की मिठास, हास्य का सुघड़पन, व्यंग्य की धार और दृष्टि की तीव्रता किताब की छपाई के फीकेपन को पूरी तरह तोप देती है और पाठक शुरू से अंत तक प्रीति के बंधन से बँधा रह जाता है।
--------- विश्वमोहन
Sunday, 22 January 2023
आँचल
तेरे आँचल से भी छोटा,
चाहे जितना फैले अंबर।
सारी सृष्टि से भी संकुल
माँ घनियारा तेरा आँचर।
सात समुंदर भी डूब जाते,
नील नयन माँ तेरे घट में।
बेचारी नदियाँ बंध जाती,
मैया तेरे नेह के तट में।
पवन प्रकंपित थम जाता माँं!
लट में तेरे अलकों के।
और दहकती अग्नि ठंडी,
तेरी शीतल पलकों में।
ब्रह्मा-विष्णु-शिव शिशु-से,
अनुसूया के आँगन में।
माँ के कान पकड़ते मिट्टी,
विश्व मोहन के आनन में।
अब दुनिया ये छोड़ गई तुम,
नेह से नाता तोड़ गई तुम।
ममता से मुँह मोड़ गई तुम,
मन का घट हिलोड़ गई तुम।
माँ, शव मैने ढोया तेरा,
शोक नहीं ढो पता।
नहीं मयस्सर आँचल तेरा,
पल भर को खो जाता!
Tuesday, 17 January 2023
गंगा को सागर होना है।
काल चक्र के महा नृत्य में,
नहीं चला है किसी का जोर।
जितना नाचें उतना जाने,
जहाँ ओर थी, वहीं है छोर।
जिस बिंदु से शुरू सड़क थी,
है पथ का अवसान वही।
अभी निकले थे, अभी पहुंच गए,
होता तनिक भी भान नहीं।
यात्रा के अगणित चरणों में
इस योनि का चरण भी आता।
पथ अनंत पर जब निकले थे,
जन्मदिवस है याद दिलाता,
पथ वृत पर पथिक भ्रमित है,
गुंजित गगन, ये कैसा शोर!
बजे बधाई, मंगल वाणी,
संगी साथी मची है होड़।
सत्य यही, इस गतानुगतिक का,
जड़ चेतन सब काल के दास।
एक बरस पथ छोटा होकर,
गंतव्य और सरका पास।
अब तक मन है बहुत ही भटका,
अब न और भ्रमित होना है।
सच जीवन का समझ में आया,
गंगा को सागर होना है।