Saturday, 25 January 2014

प्रणीते का त्रास !

अमावस में रजनीश का वनवास,
नील,नीरव, निरभ्र अकेला  आकाश.
भगजोगनियों संग भोगता प्रीत का रास
वसुधा पर ठिठुरती निशा  का वास
झिंगुरों का वक्र  परिहास
सर्द हवाओं का कुटिल अट्टाहास
शनैः शनैः सरकता शारदीय मास
फिर भी धरती की धुकधुकाती आस
कभी  तो मिलेंगे अपने चांद से
दूर क्षितिज के पास
पल पल दिल को दिलाये ये भास
काश, कोई  प्रणीते ना भोगे ये त्रास!
                   --------------- विश्वमोहन
                                      


मां

(२२जनवरी २०१४ , २२वीं पूण्य-तिथि. मां को समर्पित.)


गोद में तेरी पलकें खोली
ममतामयी मधु हास ठीठोली
पल पल बन मेरी हमजोली
प्रथम प्रतिश्रुति तेरी सुरत भोली

स्वर में नाद का दिया वरदान
तेरी छाती का दुग्ध पान.
वात्सल्य-वीथि का लोरी गान
सम्प्रेषण,आहरण अक्षर ज्ञान.

तू सृजन की सूत्रधार
किसलय पल्लव की पालनहार.
निराकार ब्रह्म तुममे साकार
तेरी महिमा मां अपरम्पार.

तेरा महाप्रयाण! जब मुझे छोड़
हाय! शुष्क हुआ करुणा का क्रोड़.
तेरा अभाव, निःशब्द भाव !
शापित अलगाव? न भरे घाव!

मां, टीस मिटे न मिटती है
तू सांस सांस मे बसती है.
नम नयन न किंचित सुखते हैं
दृग-जल रोके न रुकते हैं.

आच्छादित तेरी महिमा से
चंद्र, विश्व सब तेरी गरिमा से.
ऊर्जस्वित उर की हर धड़कन
बन शोणित का तू  कण-कण-कण.

बस अंतस में मेरी ज्योति
अब सपनों मे ही लोरी सुनाती.
अब भी मेरे अकेलेपन में
मुझे हंसाती,  मुझे रुलाती.


फिर प्यार के पीयुष पाग में
थपक थपक कर मुझे सुलाती.
मैया तेरी मीठी यादें
खींच अतीत को सम्मुख लाती.

मां, मैं भी जब थक जाऊंगा
जितना सकना है, सक जाऊंगा.
कालदूत कर मुझे निश्चेतन
ले जायेंगे तेरे ही सदन.

भूशायी होगा तन निष्प्राण
होगा महा अग्नि स्नान.
किंतु मन फिर भी करता होगा
तेरे मातृत्व का अमर पान.


मां तुझे प्रणाम , मां तुझे प्रणाम!

चांद फिर क्यूं रुठा है ?

आज चांद फिर क्यूं रुठा है,
अम्बर का तारक टूटा है.
या घोर घटा के घिर जाने से,
तारिकाओं  से तार छूटा है.

या अमावस के आने से,  
अंधेरे का घड़ा फूटा है.
अवनि से लेकर अंतरिक्ष तक,
काली रजनी ने सब लूटा है.

कल पुनम फिर आज अमावस,
इस चक्र-चिंतन में दम घुटा  है.
प्रकृति पुरुष परिवर्तन पर्व में,
ब्रह्म सत्य और सब झूठा है.

तब ! चांद  फिर क्यों रूठा है ?

         ---------- विश्वमोहन 

जय सचिन, जय जय सचिन

षोडस के कोमल वय में ही
पाकिस्तान मे प्रथम प्रदर्शन,
प्रतिद्वंदी हो गये थे मुर्च्छित
थम गयी थी हर दिल की धड़कन.

चमत्कृत सारा भुवन है
यह तो कोई धुमकेतु है,
आर्यपुत्र क्रीड़ा गौरव यह
खेल जगत का महासेतु है.

चक्रव्यूह चाणक्य सा रचता
शौर्य-कला का चंद्रगुप्त है,
बल्ले से कर करे सुशोभित
देख विपक्षी हुआ सुप्त है.

विश्वविजय के अरुण केतन को
थामे यह कौन वीर पुत्र है,
किंवदंती और कालजयी यह
या क्रिकेट का मूल सूत्र है.

पवनपुत्र यह, सूर्यपुत्र यह
धर्मयुद्ध का शंख बजाये,
सागर पार वार कर आये
भारत मां की शान बढ़ाये.

जग में जन जहां भी जाते
पाते कण कण कीर्त्ति गाते,
ब्रेड्मैन, सोबर्स सब इसके
कर दर्शन न कभी अघाते.

कर अतिक्रमण कुल कीर्त्तिमानों का
रच दिया लाल ने नया सोपान,
वानखेड़े के प्रशस्त प्रांगण में
गुंज  रहा  है  रजत गान.

आज हिमालय नत मस्तक है
थम गयी है लहरें सागर की,
नयनों में मय नीर आज छलके
करें  विदायी  तेंदुलकर  की.

प्रशस्ति को शब्द भी तरसें
भाव निःशब्द, भाषा है दीन,
आओ  भारतवंशी  गायें
जय सचिन, जय जय सचिन.
-----------------विश्वमोहन


तू मेरा विश्वास कर ले

कसकर कमर जीवन समर में,
हास और उल्लास भर ले .
सुन हृदय की बात, प्रियतम,
तू मेरा विश्वास कर ले.

न प्रवंचना, न मिथ्यावादन,
और न विश्वासघात रे.
कविता मेरी कवच कुंडल,
वक्र विघ्न,  व्याघात से.

टूटे मन के कण कण को,
बड़े जतन से जोड़े ये.
काल दंश से आहत हिय को
और भला क्यों तोड़े ये.

शब्दों की संजीवनी सरिता,
करती है सिंचित उर को.
भावों की निर्मल जलधारा
भरती है अंतःपुर को.

छंदों के स्वच्छंद सुरों से,
व्याकुल दिल को बहलाता हूं.
रुग्ण हृदय की व्यथा को हरकर,
फिर कविता से नहलाता हूं.

थकित,भ्रमित हृदय में जाकर,
ऊर्जा की ज्योति जलाता हूं.
उठो पार्थ, गांडीव सम्भालो’,
का अमृत अलख जगाता हूं.

अर्जुन संज्ञाशून्य न होना,
कुरुक्षेत्र की धरती पर.
किंचित घुटने नहीं टेकना,
जीवन की सूखी परती पर.


सकने भर जम कर तुम लड़ना,
चाहे हो किसी की जीत.
अपने दम पर ताल ठोकना,
गाना हरदम विजय का गीत.

 ‘मा क्लैव्यं, उत्तिष्ठ परंतप
काल निशा का नाश कर ले.
सर्वानधर्मान  परित्यज्य,  
विश्वरुप का भाष कर ले.

मैं पुरुष हूं, तू प्रकृति है,
चिर-योग का अभ्यास कर ले.
सुन हृदय की बात, प्रियतम,
तू मेरा विश्वास कर ले.

------------------ विश्वमोहन 

जा पिया! (सुहागन का समर घोष)

जा पिया , तू जा समर में,
आतंकियों के गह्वर में.
प्रलय का उत्पात मचा दे.
छोड़, मेरे आंसूओं मे क्या रखा है!

आज वतन की माटी में हैं सिरफिरे फिर उतर आये,
भारत-माता के वसन को, देख कहीं वो कुतर न जाये.
लगे चीर में चीर इससे पहले उनको चीर दो,
छिन्नमस्तिके, रौद्र-तांडव मचा, बचा कश्मीर लो,
लगे माटी लाल, शत्रु-शोणित का सुस्वाद चखा है.
छोड़, मेरे आसूंओं में क्या रखा है!

आज विधना ने अचानक कौन सा है चित्र उकेरा?
जीवन-रण में काल खड्ग से टकरा गया तलवार तेरा.
समर के इस विरल पल मे गुंजे अट्टाहास तेरा,
कालजयी, पराक्रमी-परंतप, अरि-दल बने ग्रास तेरा.
टूटना पर झुक  न जाना, तू याद  कर मेरा सखा है.
छोड़, मेरे आंसूओं में क्या रखा है!

चूड़ी-बिंदी,नथ-टीका,पायल का श्रृंगार मेरा.
कुमकुम, सुहाग सिंदुर से सुसज्जित सात फेरा,
और,जीतिया, तीज, करवा-चौथ का त्योहार मेरा,
मातृभूमि की वेदि पर, आज मांगे दान तेरा.
अरिहंते, विजय-मन्नत का मैंनें उपवास रखा है,
छोड़, मेरे आंसूओं में क्या रखा है!

जा पिया , तू जा समर में,
संतति ये रक्तबीज के,
काल-चंडी को नचा दे.
छोड़, मेरे आंसूओं मे क्या रखा है!

          ----------- विश्वमोहन

Apology


God, forgive me for
I did not pay you the heed.
I kept turning blind eye to
what, in essence, is the eternal need.

Better I had followed your advice
Not insisting for this world of vice.
Not lured to this worldly race,
Not condemned to being stripped off your grace.

Not got ensnared to the mesh of desire,
Peace of inner self consigned to the profane fire.
And now dumped into the cesspool
Of hate, hanker, filth and greed.

O my all embracing Almighty,
Please tell, why not me paid you heed.
Fools learn not from their mistakes,
Wise earn from others experiences.



The poor me having now tasted the truth
Has blended You to my inner senses.
I must rid me now from the archaic tweet,
‘Who forget the past is condemned to repeat’.

O my father, free me from this nitty gritty,
Take me to your lap of eternity.
Drag me out of the pool of this mundane greed,
Shower the benign Grace on your ignorant kid.

Want nothing my lord, call me back instead,
Pray you my All, will ever internalize your heed.
Bestow upon me gradually the heavenly nap
O my Entity, fold me to your unfolding lap.
                                                                   ----vishwamohan


  

स्व-छंद


कहते हो मैं छंद छोड़ दूँ, 
भाव लय अनुबंध तोड़ लूँ!

मित्र,  छंद  को  क्यों  छोड़ुं  मैं?
काव्य  शास्त्र  को  क्यों  तोड़ुं  मैं?

भाव गंगा  के  कलकल-छलछल,
प्रांजल प्रवाह  को  क्यों  मोड़ुं  मैं?

कवित्त-प्रवाह के तीर तुक हैं,
अंतस से उपजे भाव हुक हैं.

फिर दोनों को क्यों न जोड़ुं मैं?
मित्र छंद को क्यों  छोड़ुं मैं

जैसे कन्हैया राधामय हैं,
शक्ति नहीं तो शिव प्रलय है.

पुरुष संग प्रकृति अक्षय है,
संगीत  सुर का संचय है.

रस हो तो जीवन की जय है,
शब्दों मे अक्षर का लय है.

फिर, मन की मदमस्त धारा को,
गीतों ही में क्यों न हिलोड़ुं मैं.

मित्र छंद को क्यों छोड़ुं मै?

        ------- विश्वमोहन

पहला दीया

वक्त के दर्दों को कबतक संयम से सहलाऊं,
मन के ज़ख्मों को, कौन सा मलहम लगाऊं.

दुख  की  दरिया  में  डूबती है  जिंदगी,
बता तूँ ही, मुझे, किस साहिल के सहारे लगाऊं.

अतीत को बिसराऊं, वर्तमान की वर्त्तिका जलाऊं,
या भविष्य  की भरमाती भूल-भुलैया में, भुला जाऊं.

मुमकिन है, जीवन के बंजर से बियाबान रेगिस्तान में,
कामनाओं  की मृग-मरीचिका में कहीं  खो ना जाऊं.

डरकर ख्वाब ही न देखुं, कत्तई बुज़दिल नहीं मैं,
देह धंसा रेत के महल ही बनाने के काबिल सही मैं.

होती हर सजावट की शुरुआत, बिखराहट से ही,
और फिर अंत, उजड़ जाने की उदास आहट में ही.

बिखरना, सजना, उजड़ना और और फिर सज जाना,
अंकुरना, बढ़ना, फुलाना, फिर फल बनकर लरज जाना.

पुंकेसर प्रणीत पराग-कणों का बीज बन धरती पर झड़ना,
उत्थान-पत्तन, उठना-गिरना और फिर गिरकर बढ़ना-चढ़ना.

मिलना-बिछुड़ना, हंसना-रोना, राग-रंग में सटना-जूटना
पुरुष-प्रकृति की इस कुदरती परम्परा का कभी न टूटना.

प्रकृते, पल-पल तेरे कण-कण में यहीं संजीवनी पाऊं,
फिर ठहर ज़िंदगी, दीवाली का पहला दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.

 दीवाली का पहला दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.

मौसम

मौसम बदले या बदले लोग/
परिवर्तन है प्रकृति का भोग//

जीव- जगत सब क्षणभंगुर हैं/
जीवन का यह सत्य क्रुर है//

दिल सूखा और आंखे नम हैं/
दुख की बदरी का झमझम है/

पहले काल निशा का गम है/
 चांद हंसे तो फिर पुनम है//

आने-जाने का ये क्रम है/
इसी का नाम, प्रिये, मौसम है//

                                    ----- विश्वमोहन