Wednesday, 11 July 2018

चतुर्मास संग जीव प्रिये.



मै तथागत ठूंठ ज्ञान का,
आम्रपाली छतनार तू छाई.
बौद्ध वृक्ष मैं, मन मंजरी तू,
मन मकरंद मंद मंद महकायी.

सन्यासी मैं, शुष्क सरोवर,
साधक सत्य शोध समज्ञान.
सौन्दर्य श्रृंगार, हे सिन्धु धार!
प्रेम पीयूष पथ प्रवहमान.

मै मूढ़ मति मत्सर मरा,
तू प्रीत अक्षय यशोधरा.
मैं पथिक अथक संधान का,
तू पात पीपल ज्ञान का.

तू आसक्ति, मैं आकर्षण,
असहज असंजन लघु घर्षण.
हे प्रीत नुपुर नव राग क्वणन,
माया मदिरा मदमस्त स्त्रवण.

वाचाल वसंत चंचल स्वच्छंद,
मैं निर्वाक निश्छल निष्पंद.
पथिक ज्ञान पय पीव पीये,
बस चतुर्मास संग जीव प्रिये.

Tuesday, 3 July 2018

वज़ूद (अमीर खुसरो को समर्पित उनके उर्स पर)

'शदूद'-ए-एहसास
'होने' का तुम्हारे
कर गया है घर
बन कर 'नूर'
आँखों मे मेरी

हुआ है 'इल्म' अब
इस वाकया का
और होने लगा है
एहसास
अपने 'वजूद' का!

Thursday, 7 June 2018

कासे कहूँ, हिया की बात!


 


बिरहन बिलखे, बेरी-बेरी,
बिखन, चिर संताप।
बुझी बाती आस की,
आँखिन अँधियारी छात।

कासे कहूँ, हिया की बात !


पलक अपलकउलझे अलक,
दहक-दहक, दिन-रात।
सबद नीर, नयन बह निकले, 
भये तरल, दोउ गात।



कासे कहूँ, हिया की बात !


पसीजे नहीं, पिया परदेसिया,
ना चिठिया, कोउ बात।
जोहत बाट, बैरन भई निंदिया,
रैन लगाये घात।

कासे कहूँ हिया की बात !

भोर-भिनसारे, कउआ उचरे,
छने-छने,  मन भरमात।
जेठ दुपहरिया, आग लगाये,
चित चंचल, अचकात।

कासे कहूँ, हिया की बात !

गोतिया-गोतनी, गाभी मारे,
जियरा,  जरी-जरी जात।
अंगिया ओद, भये अँसुअन  से,
अँचरा में बरसात।

कासे कहूँ, हिया की बात !

धड़के छतियाफड़के अँखियाँ,
एने-ओने, मन बउआत।
सिसके सेनुर, कलपे कंगना,
बहके, अहक अहिवात,

कासे कहूँ, हिया की बात !

चटक-चुनरिया, सजी-धजी मैं,
सुधि बिसरे,  दिन-रात।
सिंहा-सिंगरा, गूँजे गगन में,
अब लायें, बलम बरिआत !

कासे कहूँ, हिया की बात !




(बेरी-बेरी = बार बार बिखन = भीषण,  हिया = ह्रदय अलक = बाल गात = गाल       रैन = रात अचकात = अचंभित होना गोतिया = कुल-परिवार के सदस्य गोतनी = देवरानी-जेठानी गाभी मारे = ताने कसे ओद = गीला सेनुर = सिंदूर एने-ओने = इधर उधर,  बउआत = भटकता अहक =मन की तीव्र कामना अहिवात = सुहागन,  सिंहा = उत्तर भारत का फूंक कर बजाया जाने वाला एक वाद्य यंत्र सिंगरा = असम में भैंस के सिंग का बना वाद्य यंत्र जो बिहू के श्रृंगारिक नृत्य में फूंक कर बजाया जाता है.)    



Sunday, 20 May 2018

ज़िंदगी या मैं - वीथिका स्मृति


मेरी छोटी पुत्री वीथिका स्मृति (भूतपूर्व सह-शोधार्थी, आई आई टी, दिल्ली और शोध छात्रा आईआईएम बंगलोर) की कविता

 " ज़िंदगी या मैं! "


मैं कुछ मन से चाहूँ
ज़िन्दगी उसे मुझसे छीने,
मैं हार कर गिर जाऊं
और ज़िंदगी मुझपे हंसने लगे.
मैं फिर से खड़ी हो जाऊं
और ज़िंदगी पे हंसने लगूं.

ऐसा फिलहाल
दो तीन बार ही हुआ है
कि कुछ मन ने चाहा है
पर ज़िन्दगी ने
मना कर दिया है.

मज़ा आने लगा है
छीना-झपटी के
इस खेल में.
इस बार और मन से चाहूंगी ,
देखती हूँ
कौन जीतता है
ज़िंदगी या मैं !
     _____ वीथिका स्मृति

Saturday, 12 May 2018

माँ, सुन रही हो न......


माँ,
सुनो न!
रचती तुम भी हो
और 
वह.
ईश्वर भी!
सुनते है, 
तुमको भी,
उसीने रचा है!
फिर! 
उसकी
यह रचना,
रचयिता से 
अच्छी क्यों!
भेद भी किये 
उसने 
रचना में,
अपनी !
और, 
तुम्हारी रचना!
.....................
बिलकुल उलटा!
फिर भी तुम
लौट गयी 
उसी के पास !
कितनी 
भोली हो तुम!
माँ, सुन रही हो न......
माँ............!!!

Monday, 7 May 2018

पर्याय कवयित्री नारी की


जड़ भूत संजोती कुक्षी में,
तत्व-प्राण, कण-कण तर्पण.
प्रणव पुरुष चिन्मय मानस,
चेतन अमृत अक्षत अर्पण.

पल-पल का पलकों पर पालन,
प्रसवन पल्लव फुलवारी की.
श्वास सुवास सृष्टि शोभित,
पर्याय कवयित्री नारी की.

अंकों में सृजन ब्रह्म चितवन,
सिंचित पयधार आनन उपवन.
शिरा शोणित धमनी धक् धक्,
रचती सुर तार सृष्टि सप्तक.

अहर्निशं उर की धड़कन बन,
अनहद अक्षर अकवारी सी.
प्रवहमान शब्द सुरसरी सी,
पर्याय कवयित्री नारी की.

काया प्रतिछाया माया की,
प्रतिभास पराये अपनों की.
अहक एकाकी अंतस का,
सतरंग कल्पना सपनों की.

भाव संजोये शब्दों में,
लय ताल लहर किलकारी सी.
रचे ऋचा संजीवन सी,
पर्याय कवयित्री नारी की.

Sunday, 29 April 2018

केनेषितं पतति प्रेषितं मनः



मुझे अक्सर ये भास होता है कि जीवन का जो भी टुकड़ा हम जी रहे हैं वह हमारी चेतना उद्भूत अनुभूतियों के स्तर पर है. या, यूँ कहें कि जितने अंश तक हमारी चेतना अपनी भिन्न भिन्न कलाओं में विचरण करती है उसी अंश तक हम इस जीवन का अनुभव कर रहे हैं. ऐसे विचारणा की पारंपरिक परिपाटी में हम यह मानते हैं कि पहले जड़-तत्व का प्रादुर्भाव हुआ, उसमे प्राण-तत्व का आरोपण हुआ, फिर मनस-तत्व के मेल से उसमे सजीव प्राणी के सृजन की सुगबुगाहट हुई. जड़-तत्व पदार्थ है, प्राण-तत्व ऊर्जा है और मनस-तत्व चेतना है.
किन्तु, इसके ठीक उलट मेरा यह मानना है कि पहले मनस-तत्व जागृत होता है. वह प्राण-तत्व को उद्वेलित करता है जिसे अपनी मनोमयी चेतना के अनुरूप किसी जड़-तत्व में आरोपित कर नयी रचना का निर्माण करता है. हम अपने भौतिक आस्तित्व में निष्प्राण जड़ पदार्थ मात्र हैं, यदि उनमे प्राण की ऊर्जा न हो. अब यदि किसी पदार्थ को उर्जा मिलकर उसमे हरकत या गति पैदा कर दें तो वह जीवंत थोड़े ही हो जाता है !  ठीक वैसे ही, जैसे विद्युत् उर्जा के समावेश से यदि पंखा नाचने लगे तो पंखे को आप जीवित प्राणी थोड़े कहेंगे !  अभी भी, वह एक गतिशील प्राकृतिक उपादान मात्र है. यहीं पर सृष्टि में प्रकृति और पुरुष के समागम स्वरुप का आभास मिलता है. प्रकृति जड़ तत्व और ऊर्जा का समुच्चय है. यह पुरुष का ही संयोग है जो उसे चेतनशील प्राणी में परिवर्तित करता है. तो, मेरी सोच की धारा उलटे इस अर्थ में है कि निष्क्रिय सा समझा जानेवाला पुरुष वास्तव में सक्रिय है और सक्रिय सी समझी जानेवाली प्रकृति वास्तव में निष्क्रिय है. पुरुष कर्ता है, प्रकृति करण और सृजन कर्म! सृजन की इच्छा शक्ति सक्रिय चेतन तत्व में ही हो सकती है.
बिंदु का 'बिग बैंग' विष्फोट उद्वेलित प्राण-तत्व के एक बिन्दुवत जड़-तत्व में आरोपण की घटना ही तो है. विराट ऊर्जा का यह प्रणव महाटंकार प्राण-तत्व में निश्चय ही किसी चेतन मनस-तत्व के जागरण से परिचालित हुआ होगा जो इस ब्रह्माण्ड की रचना का बुनियादी वैज्ञानिक कारण माना जाता है. और फिर, मैं इस बात को दुहराऊंगा कि 'बिना इच्छा के मनस-तत्व की चेतना जागृत नहीं होती'. अलबता, हम फिलहाल उन इच्छाओं के कारण की पड़ताल में नहीं जायेंगे लेकिन कार्य कारण के अमोघ वैज्ञानिक सिद्धांत से मुंह भी नहीं मोडेंगे. यहीं पर मुझे  महान वैज्ञानिक स्टीफेन हव्किंस अपना पल्ला छुडाते दीखते हैं जब इस महा विष्फोट को वह एक अकारण घटना घोषित कर देते हैं और "एक्सपेंशन थ्योरी के एन्ट्रापी' की अराजकता में इस ब्रह्माण्ड को एक निरुद्देश्य यात्रा के विनाश गर्त में धकेल देते हैं.  'कार्य-कारण-सिद्धांत' का उनका यह  अस्वीकार हमें स्वीकार नहीं . आप यह ये भी नहीं समझे कि इसी की बिना पर मैं उनकी नास्तिकता पर कोई चुटकी ले रहा हूँ, या प्रकारांतर में ईश्वर की सार्वभौमिक सत्ता का मैं कोई शंख नाद कर रहा हूँ. मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि 'बिना इच्छा के मनस-तत्व की चेतना जागृत नहीं होती', 'बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता' और 'सृजन की इच्छा शक्ति केवल और केवल चेतन-तत्व में ही हो सकती है'.
 हाँ, चेतना के स्तर एवं उसकी कलाएं शोध का विषय हो सकती हैं. इसको जानने के लिए आप दार्शनिक जटिलताओं की दुर्गम दुरुह्ताओं में दर दर भटकने के बजाय यदि सीधे-सादे किन्तु सधे ढंग से अपने इर्द गिर्द की लौकिक घटनाओं पर नज़र डालें तो चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों का अवलोकन बड़ी आसानी से कर सकते हैं. आप अपने आसपास की चीजों पर नज़र डालते हैं तो उन वस्तुओं का एक समग्र चित्र आपके चेतन मन में स्थापित होता है. यह चित्र आपकी मौलिक परिव्यापक चेतना का प्रतिफलन है जिसमे सरसरी तौर पर उन वस्तुओं के रूप, रंग, गुण अपने वास्तविक प्रतिरूप में आपके चेतन मन में व्यवस्थित हो जाते हैं. यह मनसतत्व के चेतन व्यापार की प्रक्रिया का पहला चरण है.
अब उन चीजों में से कोई एक ऐसी चीज मिल जाती है जो आपको भा जाए, जिस पर आपकी नज़रें टिक जाय और जिसे आपका चेतन मन एक विषय वस्तु के रूप में धारण कर उससे अपना सम्बन्ध बनाने को उत्सुक हो जाय और प्रबोधात्मक स्तर पर अपने विश्लेषण-संश्लेषण ज्ञान से उसे अधिकार में लेने लायक मान लें. यह चेतन व्यापार की प्रक्रिया का दूसरा चरण है.
फिर तो उस वस्तु के साथ अनुभूति के स्तर पर आप अपना राग स्थापित कर लें और उसे तत्व रूप में अपने मन में बसा लें. ध्यान दें, दूसरा चरण उस वस्तु से आपके जुडाव की चेतना की बहिर्गति थी जबकि अब आपमें प्रबोधात्मक चेतना की अन्तर्वाहिनी गति प्रवाहित हो रही है जिसने विषय को अपने अन्दर संनिविष्ट कर लिया है. चेतन व्यापार की प्रक्रिया का यह तीसरा चरण है.
अब तो चेतना उस प्रतिरूप पर विराजती है जिससे वह उसे अपनी शक्ति से ग्रहण कर सके और अपने अधिकार में लेकर उसे परिचालित कर सके. यह चौथा चरण है. मनस-तत्व के ये चार आवश्यक कार्य है जिसे उपनिषदों में क्रमशः 'विज्ञान', 'प्रज्ञान', 'संज्ञान' और 'आज्ञान' नाम से अभिहित किया गया है. मेरा मतलब मात्र इतना है कि मनसतत्व अपनी इन चैतन्य क्रियाओं से प्राण तत्व की उर्जा को जड़ तत्व पर आरोपित करती है.
यदि एक प्रजनन-युग्म को अपने जड़-तत्व रूप में साथ रख दे तो उनमे  जीव-निषेचन प्रक्रिया में उद्धत होने के लिए प्राण-तत्व की उर्जा का उछाह तबतक नहीं आयेगा जब तक कि मनस-तत्व की चेतना जागृत न हो. 'कामायनी' के 'श्रद्धा' सर्ग में  मनस-तत्व के सृजन की इसी चेतना के जागरण की भूमिका में श्रद्धा मनु से निवेदित करती प्रतीत होती है:-
    " .....  हार बैठे जीवन का दाव, मरकर जीतते जिसको वीर "
और, अब प्रश्न उठता है कि सृजन की चेतना के उत्स इस मनस-तत्व की इच्छा का मूल क्या है? कौन है जो इस मनस-तत्व को धारण करता है? 
-- " केनेषितं पतति प्रेषितं मनः........"
 इस शंका का समाधान भी केनोपनिषद ही करता है:-
" यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम| तदेव ब्रह्म त्वम् विद्धि नेदं यदिदमुपासते||५|| "
 अर्थात, ' वह ' जो मन के द्वारा मनन नहीं करता (या जिसका व्यक्ति मन के द्वारा चिंतन नहीं करता है) ' वह ' जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, ' उसे ' ही तुम ' ब्रह्म ' जानो न कि इसे जिसकी मनुष्य यहाँ उपासना करते हैं. 

Wednesday, 25 April 2018

चल पथिक, अभय अथक पथ पर


डर भ्रम मात्र अवचेतन का,
शासित संशय स्पंदन का।
जब जीव जगत है क्षणभंगुर,
फिर, जीना क्या और मरना क्या!

चल पथिक, अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ करना क्या!

करते गर्जन घन सघन गगन,
होता धरती का व्याकुल मन।
आकुल अंधड़ प्रचंड पवन,
नीड़ बनना और बिखरना क्या!

चल पथिक, अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ करना क्या!

करे वारिद वार धरा उर पर,
तड़ित ताप, अहके अम्बर।
आँखों में आँसू अवनि के
निर्झर का झर झर झरना क्या!

चल पथिक अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ  करना क्या!

दह दहक दीया, दिल बाती का
तिल जले तेल, सूख छाती का।
शमा  हो खुद, बुझने को भुक भुक,
परवाने पतंग का मरना क्या!

चल पथिक अभय अथक पथ पर
मन में घर डर यूँ  करना क्या!


जीवन चेतन जीव का खेल
प्रकृति से पुरुष का मेल।
भसम भूत ये पञ्च तत्व में,
सजना क्या, सँवरना क्या!

चल पथिक अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ करना क्या!