Monday, 27 August 2018

प्रेयसी-पी!

मौत! बन ठन के
मीत मेरे मन के
सौगात मेरे तन के!
जनमते ही चला
मिलने को तुमसे।

'प्रेय' पथ की मेरी
प्रेयसी हो तुम।
आकुल आतुर
मिलने को तुमसे
पथिक हूँ तुम्हारा।

तिल तिल कर
हो रहा हूँ खर्च
इस पथ पर
पाथेय बन स्वयं।
छूटती जाती पीछे.....

छवियाँ अनगिन,
और बिम्ब बेपनाह।
गढ़े थे जिनको
'मैं' ने मेरे!
साथ साथ.....

बुनते गुनते रिश्ते,
उन बिम्बों से।
लीक पर
समय की अब।
प्रतिबिम्ब बन....

यदा-कदा यादों के
झलमलाते, फुसलाते
रीझाते, खिझाते।
भ्रम की भँवर में
तिरते उतराते।

खुल रहे हैं
अब शनैः शनैः,
बंधन भ्रम के
गतानुगतिक व्यतिक्रम से।
पथ यह 'प्रेय'.......

बनता अब 'श्रेय'!
मौत! बन ठन के
मीत मेरे मन के
सौगात मेरे तन के!
साध्य श्रेयसी सी
हैं हम प्रेयसी-पी!



Tuesday, 24 July 2018

'मैं'


देह स्थूल जंगम नश्वर 'मैं',
रहा पसरता अहंकार में.
सूक्ष्म आत्मा तू प्रेयसी सी,
स्थावर थी, निर्विचार से.

तत्व पञ्च प्रपंच देह 'मैं',
रहा धड़कता साँसों में.
जीता मरता 'मैं' माया घट,
फँसा फंतासी फांसों में.

भरम-भ्रान्ति 'मैं' भूल-भुलैया,
मायावी, छल, जीवन-मेला
लिप्त लास में 'मैं' ललचाया
आँख मिचौली यूँ खेला !

त्यक्ता 'मैं', रीता प्रीता से,
मरणासन्न मरुस्थल में.
नि:सृत नीर नयन नम मेरे,
फलक पलक 'मैं' पल पल में.

सिंचित सैकत कर उर उर्वर,
प्रस्थित प्रीता, अपरा प्रियवर.
विरह विषण्ण विकल वेला 'मैं'!
महोच्छ्वास, निःशब्द, नि:स्वर!


Tuesday, 17 July 2018

मरू में क्यों!


देखा, जो तूने कचरो पर,
सपने बच्चों के पलते हैं.
सीसी बोतल की कतरन पर,
तकदीर सलोने चलते हैं.

जब जर जर जननी छाती,
दहक दूध जम जाता है.
और उजड़ती देख आबरू,
पल! दो पल थम जाता है.

ढेरों पर फेंके दोनों में,
अमरत्व जीव का फलता है.
नयन मटक्का शिशुओं का,
शावक श्वान संग चलता है.

लेकर कर, कुत्तों के कौर,
दाने अन्न के बीनता है.
भाग्यहीन है, भरत वीर यह!
दांत, शेर की गिनता है.

झोपड़ पट्टी की शकुन्तला,
परित्यक्ता सी घुटती है
थामे पानी आँखों में,
बस सरम पीसती, कुटती है

तोभी बेधरमी धिक् धिक् तुम!
लाज सरम घोर पी गए.
कविता के चंद छंदों में,
बेसरमी अपनी सी गए!

काली करनी के कूड़ों को,
क्यों न कलम से कोड़ दिया!
मरू में क्यों! मरे मनुजों पर ही,
एटम बम न फोड़ दिया!!!


Wednesday, 11 July 2018

चतुर्मास संग जीव प्रिये.



मै तथागत ठूंठ ज्ञान का,
आम्रपाली छतनार तू छाई.
बौद्ध वृक्ष मैं, मन मंजरी तू,
मन मकरंद मंद मंद महकायी.

सन्यासी मैं, शुष्क सरोवर,
साधक सत्य शोध समज्ञान.
सौन्दर्य श्रृंगार, हे सिन्धु धार!
प्रेम पीयूष पथ प्रवहमान.

मै मूढ़ मति मत्सर मरा,
तू प्रीत अक्षय यशोधरा.
मैं पथिक अथक संधान का,
तू पात पीपल ज्ञान का.

तू आसक्ति, मैं आकर्षण,
असहज असंजन लघु घर्षण.
हे प्रीत नुपुर नव राग क्वणन,
माया मदिरा मदमस्त स्त्रवण.

वाचाल वसंत चंचल स्वच्छंद,
मैं निर्वाक निश्छल निष्पंद.
पथिक ज्ञान पय पीव पीये,
बस चतुर्मास संग जीव प्रिये.

Tuesday, 3 July 2018

वज़ूद (अमीर खुसरो को समर्पित उनके उर्स पर)

'शदूद'-ए-एहसास
'होने' का तुम्हारे
कर गया है घर
बन कर 'नूर'
आँखों मे मेरी

हुआ है 'इल्म' अब
इस वाकया का
और होने लगा है
एहसास
अपने 'वजूद' का!

Thursday, 7 June 2018

कासे कहूँ, हिया की बात!


 


बिरहन बिलखे, बेरी-बेरी,
बिखन, चिर संताप।
बुझी बाती आस की,
आँखिन अँधियारी छात।

कासे कहूँ, हिया की बात !


पलक अपलकउलझे अलक,
दहक-दहक, दिन-रात।
सबद नीर, नयन बह निकले, 
भये तरल, दोउ गात।



कासे कहूँ, हिया की बात !


पसीजे नहीं, पिया परदेसिया,
ना चिठिया, कोउ बात।
जोहत बाट, बैरन भई निंदिया,
रैन लगाये घात।

कासे कहूँ हिया की बात !

भोर-भिनसारे, कउआ उचरे,
छने-छने,  मन भरमात।
जेठ दुपहरिया, आग लगाये,
चित चंचल, अचकात।

कासे कहूँ, हिया की बात !

गोतिया-गोतनी, गाभी मारे,
जियरा,  जरी-जरी जात।
अंगिया ओद, भये अँसुअन  से,
अँचरा में बरसात।

कासे कहूँ, हिया की बात !

धड़के छतियाफड़के अँखियाँ,
एने-ओने, मन बउआत।
सिसके सेनुर, कलपे कंगना,
बहके, अहक अहिवात,

कासे कहूँ, हिया की बात !

चटक-चुनरिया, सजी-धजी मैं,
सुधि बिसरे,  दिन-रात।
सिंहा-सिंगरा, गूँजे गगन में,
अब लायें, बलम बरिआत !

कासे कहूँ, हिया की बात !




(बेरी-बेरी = बार बार बिखन = भीषण,  हिया = ह्रदय अलक = बाल गात = गाल       रैन = रात अचकात = अचंभित होना गोतिया = कुल-परिवार के सदस्य गोतनी = देवरानी-जेठानी गाभी मारे = ताने कसे ओद = गीला सेनुर = सिंदूर एने-ओने = इधर उधर,  बउआत = भटकता अहक =मन की तीव्र कामना अहिवात = सुहागन,  सिंहा = उत्तर भारत का फूंक कर बजाया जाने वाला एक वाद्य यंत्र सिंगरा = असम में भैंस के सिंग का बना वाद्य यंत्र जो बिहू के श्रृंगारिक नृत्य में फूंक कर बजाया जाता है.)    



Sunday, 20 May 2018

ज़िंदगी या मैं - वीथिका स्मृति


मेरी छोटी पुत्री वीथिका स्मृति (भूतपूर्व सह-शोधार्थी, आई आई टी, दिल्ली और शोध छात्रा आईआईएम बंगलोर) की कविता

 " ज़िंदगी या मैं! "


मैं कुछ मन से चाहूँ
ज़िन्दगी उसे मुझसे छीने,
मैं हार कर गिर जाऊं
और ज़िंदगी मुझपे हंसने लगे.
मैं फिर से खड़ी हो जाऊं
और ज़िंदगी पे हंसने लगूं.

ऐसा फिलहाल
दो तीन बार ही हुआ है
कि कुछ मन ने चाहा है
पर ज़िन्दगी ने
मना कर दिया है.

मज़ा आने लगा है
छीना-झपटी के
इस खेल में.
इस बार और मन से चाहूंगी ,
देखती हूँ
कौन जीतता है
ज़िंदगी या मैं !
     _____ वीथिका स्मृति

Saturday, 12 May 2018

माँ, सुन रही हो न......


माँ,
सुनो न!
रचती तुम भी हो
और 
वह.
ईश्वर भी!
सुनते है, 
तुमको भी,
उसीने रचा है!
फिर! 
उसकी
यह रचना,
रचयिता से 
अच्छी क्यों!
भेद भी किये 
उसने 
रचना में,
अपनी !
और, 
तुम्हारी रचना!
.....................
बिलकुल उलटा!
फिर भी तुम
लौट गयी 
उसी के पास !
कितनी 
भोली हो तुम!
माँ, सुन रही हो न......
माँ............!!!