ज़िन्दगी की कथा बांचते बाँचते, फिर! सो जाता हूँ। अकेले। भटकने को योनि दर योनि, अकेले। एकांत की तलाश में!
Wednesday, 24 May 2023
बड़े घर की बेटी ( लघु कथा )
Monday, 1 May 2023
रेस्जुडिकाटा!
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
....... ...... .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
..... ...... .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!
Wednesday, 22 March 2023
देश मेरा रंगरेज
देश मेरा रंगरेज
(व्यंग्य संग्रह)
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम – देश मेरा रंगरेज
लेखक – प्रीति ‘अज्ञात’
प्रकाशक – प्रखर गूँज, एच ३/२, सेक्टर- १८, रोहिणी, दिल्ली -११००८९,
दूरभाष – ०११-४२६३५०७७, ७९८२७१०५७१, ७८३८५०५८९९
मूल्य- २५० रुपए
हमारे अध्यात्म का आसव है – आनंद! जब अस्तित्व (सत) में चेतना (चित) खिल उठे तो अंतर्भूत आनंद का आविर्भाव होता है। इसे ही सच्चिदानंद की स्थिति कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने का सौभाग्य प्राणी जगत में मात्र मनुष्य योनि को ही प्राप्त है। ऐसा हो भी क्यों नहीं! विवेक और भाव की जुगलबंदी तथा तदनुरूप माँसपेशियों की हरकत अर्थात मन की मुस्कान के साथ होठों के संपुट खुलकर दाँतों का हठात् चीयर जाना मनुष्य होने की एकमात्र कसौटी है। मुस्कानविहीन मुख ख़ालिस मुर्दानिगी है । अक्सर कोई बड़ी सहजता से कुछ बात कह जाता है। उसकी बात अंतस के तार को गहरे में जाकर यूँ छेड़ देती है कि मुख पर एक सहज मुस्कुराहट और उस मुस्कुराहट के हर हर्फ़ में बातों की गंभीरता का मिसरा बिखरा रहता है। उस मुस्कुराहट से न केवल मन का पोर-पोर भीग जाता है बल्कि कभी कभी तो नयनों के कोर तक भी नम हो जाते हैं। कथन या लेखन की इसी विधा को व्यंग्य कहते हैं जहाँ अन्योक्ति और वक्रोक्ति से उसके सीधे सपाट अर्थ ऐसे लहालोट हो जाते हैं कि पाठक या श्रोता का मन आनंद से अचानक चिंहुक उठता है। बातों का तीर अपने लक्ष्य को चीरते हुए निकल जाता है। बातों के मर्म को पकड़े पाठक का अकबकाया मन तो कभी-कभी साँप-छछून्दर की दशा प्राप्त कर लेता है। और, लहजे में यदि मुहावरों को दाख़िला मिल जाय तो फिर कहना ही क्या! न केवल व्यंग्य के ये प्रखर बाण विसंगतियों को छलनी कर देते हैं बल्कि दमघोंटू वातावरण में समाज को प्राण वायु भी सूँघा जाते हैं। प्रीति ‘अज्ञात' का व्यंग्य-संग्रह ‘देश मेरा रंगरेज’ भी बहुत कुछ ऐसा ही है।
ऋग्वेद में इंद्र और अहल्या के कथित संवाद व्यंग्यालाप के अद्भुत नमूने हैं। पिता के बंजर सिर पर बाल, आश्रम की बंजर भूमि और अपनी बंजर कोख में हरियाली की माँग! इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी का दुर्योधन पर व्यंग्य महाभारत रच जाता है। गोपियों की उलाहना में घुले व्यंग्य के प्रहार से उद्धव के ज्ञान का दंभ भरभरा कर धूल चाटने लगता है। देखिए न, ‘मृछकटिकम’ में जनेऊ को शुद्रक ने क़सम खाने और चोरी करने के लिए दीवार लाँघने में काम आने वाले एक उपयोगी उपकरण के रूप में माना है। अपने मायके पर शिव के व्यंग्य से बिफरी पार्वती विद्यापति के मुख से महादेव को भली भाँति धो देती हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब सैयद अहमद साहब की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी के शब्दों की धार देखिए :
“शैख़ ने गो लाख बढ़ाई सन की सी
मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी।“
‘दांते’ के ‘डिवाइन कॉमेडी’ में व्यवस्था के मज़ाक़ की गूँज सुनायी देती है। भारतेंदु, अकबर इलाहाबादी, क्रिशन चंदर, काका हाथरसी, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्री लाल शुक्ल, रविंद्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के पी सक्सेना, लतीफ़ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, विवेकरंजन श्रीवास्तव, हरिमोहन झा, गोपेश जसवाल, के के अस्थाना आदि अनेक नाम ऐसे हैं जिनकी लेखनी ने लेखन की इस विधा में अपने-अपने रंग भरे हैं। किसी भी समाज, समुदाय या साहित्य में हास्य-व्यंग्य तत्व की उपथिति की प्रचुरता उसकी प्रगतिवादी, विकसीत, आधुनिक और सुसंस्कृत सोच को दर्शाती है। व्यंग्य बाणों को उदारता से देखना एक उर्वर आध्यात्मिक दृष्टि का लक्षण है। जैसे हास्य-विहीन जीवन शमशान-तुल्य है वैसे ही व्यंग्य के प्रति उदारता और स्वस्थ दृष्टिकोण का अभाव एक मृत समाज का भग्नावशेष है। समय-समय पर ये तत्व हममें ख़ुद पर हँसने की चेतना भरते हैं और आत्म-निरीक्षण हेतु तैयार करते हैं।
वैदिक युग से अद्यतन भारतीय साहित्य में हास्य-व्यंग्य के तत्वों की एक समृद्ध परम्परा का अनवरत प्रवाह होता रहा है। इस प्रवाह की चिरंतनता को गति देने की दिशा में प्रीति ‘अज्ञात’ रचित ‘देश मेरा रंगरेज’ एक महत्वपूर्ण और सशक्त कृति बनकर उभरी है। हमारे देश की लोकजीवन-शैली ने हमारी राष्ट्रीयता को नित-नित नए रंगों में रंगने की अपनी कला को शाश्वत बनाए रखा है। उन रंगों को प्रीति जी ने एक प्रखर समाज सचेतक की भाँति सहेजकर बड़ी कुशलता से अपनी कूँची में भरा है। उनके कैन्वस का वितान अत्यंत विस्तृत है। व्यवस्था की त्रुटियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ, फ़ैशन परस्ती, जीवन शैली की विद्रूपता, गिरते सामाजिक मूल्य, बढ़ता भ्रष्टाचार, भौतिक विकास से चोटिल सामाजिक जीवन, नागरिक मूल्यों का निरंतर क्षरण, साहित्य में जुगाड़ तंत्र, लेखकों की दयनीय दशा, मुँहज़ोर मुँह के जुमलों का ज़ोर, समय के सफ़र में स्पेस में घुलता ज़हर, कमर तोड़ती महँगाई, कुर्सी पर क़ब्ज़े की क़वायद, रिश्तों की चुहलबाज़ी, बीते दिनों के स्कूली दिनों की मर्मांतक किंतु आज गुदगुदाती गाथाएँ, बचपन के पिता की ख़ौफ़नाक तस्वीर, ‘मर्द का दर्द’, कोरोना काल का समाजशास्त्र, मास्कपरस्ती का मनोविज्ञान, आशिक़ों के अगणितीय समीकरण – इन तमाम वर्णों को अत्यंत बलखाती मोहक वर्णमाला में अपने चित्रपट पर उन्होंने पसार दिया है। भावों के हास्य-तत्व से उनके शब्द गलबहियाँ करते दिखते हैं। अनूठे शब्दों के औज़ार से उनके व्यंग्य की तीव्रता मारक बन जाती है। शब्दों की छटा का अवलोकन कीजिए – ‘खिलंदड़पना’, ‘परवरिशपंती’, ‘जलीलत्व’, ‘सेल्फ़ियाने’, ‘इश्कियाहट’, घिघियावस्था आदि, आदि! उनके बतरस में समकालीन समाज की बोली की पांडुलिपि का रूह-अफ़जा है।
उनके कुछ वाक्यों की धार देखिए, “अच्छा! गिरे हुए इंसान (जमीन पर, ज़मीर से नहीं) को चोट से अधिक चिंता और दुःख पहले इस बात का होता है कि उसे किसी ने गिरते हुए तो नहीं देखा!”, “छरहरा होना राष्ट्रीय स्वप्न है”, “वो तो अच्छा है कि प्रश्वास के समय कार्बन डाई आक्सायड निकलती है। कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमण्डलीय ऑक्सिजन से मिलकर सब किए-कराए पर पानी फेर देती।“, “जी, हाँ अतृप्त लेखकीय आत्मा प्रायः पुस्तक मेले में भटकती पायी जाती है।“, “पर, जो मान जाए तो वह कवि ही क्या!”, “दुर्गति वही, जगह नयी।“, “ये टीवी का अकेला चैनल तब सबको जोड़ता था। आज सैकड़ों चैनल मिलकर एकता स्थापित नहीं कर पा रहे।“, “चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते।“, उस दिन आपके नसीब से वो रायता/गुलाबजामुन ऐसे उड़ जाता था जैसे कि ग़रीबों के घर से शिक्षा, नेताओं से नैतिकता और समाज से मानवता उड़ चुकी है।“, “विकास तो हो रहा है बस ज़रा दिशा बदल गयी है।“, होता क्या है कि जैसे बहू गृहप्रवेश के साथ ही घर संभालने लगती है, इसके ठीक उलट दामाद जी के चरण पड़ते ही पूरा घर उन्हें संभालने लगता है।“, “आज के ज़माने में जहाँ लोग घर के अंदर से ही बाय कर मुँह पर दरवाज़ा बंद कर देते हैं वहाँ यह ‘कुत्ता’ ही है जो आपको स्पीड के साथ गंतव्य तक छोड़कर आता है।“ इस तरह के लज़ीज़ ‘व्यंजनों’ से यह पूरी पुस्तक पटी हुई है।
नवपरम्परावाद की चाशनी में पगे समाज का स्वाद प्रीति की लेखनी के हास्य-तत्व को एक अप्रतिम कलेवर देता है। पुस्तक की कथावस्तु के केंद्र में पिछली सदी के आठवें दशक से आजतक अर्थात पिछले तीस चालीस वर्षों के भारतीय समाज का जीवन चरित है। यही वह कालखंड है जब विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों पर आरूढ़ एक पीढ़ी हौले-हौले अपने बचपन की चुहलबाज पगडंडियों पर उछलते-कूदते कैशोर्य के राजमार्ग होकर यौवन के इक्स्प्रेस्वे पर पहुँच जाती है। किंतु पगडंडी की धीमी गति की मिठास के आगे इक्स्प्रेसवे की द्रुत गति बड़ी ठूँठ-बाड़ और अराजक-सी लगती है। व्यंग्य के इस कुशल चितेरे ने उन मनभावन यादों से अपनी ‘प्रीति’ को ‘अज्ञात’ नहीं होने दिया है। स्मृतियों को सहेजना ही बुद्धि और विवेक की चिरंजीविता के लक्षण हैं। जैसा कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, “स्मृति भ्रंशात बुद्धि नाश:, बुद्धि नाशात प्रणश्यति ।“ अतीत की स्मृतियों के आलोक में वर्तमान की विसंगतियों पर अचूक निशाना साधने में प्रीति अत्यंत खरी उतरी हैं। उनकी लेखनी की प्रांजलता, विचारों का प्रवाह, चिरयौवना भाषा का अल्हड़पन, शब्दों का टटकापन, भावों की मिठास, हास्य का सुघड़पन, व्यंग्य की धार और दृष्टि की तीव्रता किताब की छपाई के फीकेपन को पूरी तरह तोप देती है और पाठक शुरू से अंत तक प्रीति के बंधन से बँधा रह जाता है।
--------- विश्वमोहन
Sunday, 22 January 2023
आँचल
तेरे आँचल से भी छोटा,
चाहे जितना फैले अंबर।
सारी सृष्टि से भी संकुल
माँ घनियारा तेरा आँचर।
सात समुंदर भी डूब जाते,
नील नयन माँ तेरे घट में।
बेचारी नदियाँ बंध जाती,
मैया तेरे नेह के तट में।
पवन प्रकंपित थम जाता माँं!
लट में तेरे अलकों के।
और दहकती अग्नि ठंडी,
तेरी शीतल पलकों में।
ब्रह्मा-विष्णु-शिव शिशु-से,
अनुसूया के आँगन में।
माँ के कान पकड़ते मिट्टी,
विश्व मोहन के आनन में।
अब दुनिया ये छोड़ गई तुम,
नेह से नाता तोड़ गई तुम।
ममता से मुँह मोड़ गई तुम,
मन का घट हिलोड़ गई तुम।
माँ, शव मैने ढोया तेरा,
शोक नहीं ढो पता।
नहीं मयस्सर आँचल तेरा,
पल भर को खो जाता!
Tuesday, 17 January 2023
गंगा को सागर होना है।
काल चक्र के महा नृत्य में,
नहीं चला है किसी का जोर।
जितना नाचें उतना जाने,
जहाँ ओर थी, वहीं है छोर।
जिस बिंदु से शुरू सड़क थी,
है पथ का अवसान वही।
अभी निकले थे, अभी पहुंच गए,
होता तनिक भी भान नहीं।
यात्रा के अगणित चरणों में
इस योनि का चरण भी आता।
पथ अनंत पर जब निकले थे,
जन्मदिवस है याद दिलाता,
पथ वृत पर पथिक भ्रमित है,
गुंजित गगन, ये कैसा शोर!
बजे बधाई, मंगल वाणी,
संगी साथी मची है होड़।
सत्य यही, इस गतानुगतिक का,
जड़ चेतन सब काल के दास।
एक बरस पथ छोटा होकर,
गंतव्य और सरका पास।
अब तक मन है बहुत ही भटका,
अब न और भ्रमित होना है।
सच जीवन का समझ में आया,
गंगा को सागर होना है।
Friday, 30 December 2022
काल प्रवाह
साल यूँ ही जब जाना तुझको,
क्यों हर साल चले आते हो।
साल-दर-साल सरक-सरक कर,
बरस -बरस बरसा जाते हो।
नया बरस बस कहने का है,
धारा बन जस बहने का है।
आज नया, कल बन पुराना
काल-प्रवाह में दहने का है।
मौसम की फिर वही रीत है,
और जीवन का वही गीत है।
अवनी आलिंगन अंबर के,
सूरज पट और धरती चित है।
गोधूलि में धूल-धूसरित-सा,
तेजहीन हो रवि विसरित-सा।
औंधे मुँह सागर में गिरता,
फिर तिमिर से जग यह घिरता।
अर्द्धरात्रि के अंधियारे में,
एक साल काल का डूबता।
क्षण में दूर क्षितिज से उसके,
नये साल का सूरज उगता।
समय अनादि और अनंत है,
यहाँ तो बस भ्रम की गिनती है।
साल! बनो न नए पुराने,
तुमसे यह ख़ालिस विनती है।
🙏🙏
Sunday, 30 October 2022
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर
आज फिर थाम लिया है माँ ने,
छोटी सी सुपली में,
समूची प्रकृति को।
सृष्टि-थाल में दमकता पुरुष,
ऊंघता- सा, गिरने को,
तंद्रिल से क्षितिज पर पच्छिम के,
लोक लिया है लावण्यमयी ने,
अपने आँचल में।
हवा पर तैरती
उसकी लोरियों में उतरता,
अस्ताचल शिशु।
आतुर मूँदने को अपनी
लाल-लाल बुझी आँखें।
रात भर सोता रहेगा,
गोदी में उसके।
हाथी और कलशे से सजी
कोशी पर जलते दिए,
गन्ने के पत्तों के चंदवे,
और माँ के आंचल से झांकता,
रवि शिशु, ऊपर आसमान की ओर।
झलमलाते दीयों की रोशनी में,
आतुर उकेरने को अपनी किरणें।
तभी उषा की आहट में,
माँ के कंठों से फूटा स्वर,
'केलवा के पात पर'।
आकंठ जल में डूबी
उसने उतार दिया है,
हौले से छौने को
झिलमिल पानी में।
उसने अपने आँचल में बँधी
सृष्टि को खोला क्या!
पसर गया अपनी लालिमा में,
यह नटखट बालक पूर्ववत।
और जुट गया तैयारी में,
अपनी अस्ताचल यात्रा के।
सब एक जुट हो गए फिर
अर्घ्य की उस सुपली में
"क्षिति जल पावक गगन समीर।"
Sunday, 16 October 2022
दंभ दामिनी
खुद कपटी थे, क्या समझो तुम!
निश्छलता क्या होती है।
तेरी हर खुदगर्जी पर,
बस टीस-सी दिल में होती है।
मेरी तो हर बात में तुमको,
केवल व्यंग्य झलकता है।
जबकि हर हर्फ वह तेरा,
मुझको पल-पल छलता है।
बात बात तेरी घुड़की कि,
मुझे छोड़ तुम जाओगे।
मेरी यादों की गलियों में,
नहीं कभी तुम आओगे।
तुम भी सुन लो, नहीं मिटेगी,
गलियों की पद जोड़ी रेखा।
मेरा रंग तो सदा एक-सा,
रंगहीन नेह तेरा देखा।
हम कहते, छोड़ो हठात हठ,
और दंभ का दामन अपना!
अहंकार को आहूत कर दो,
हसरतों का बुनों सपना।
हुई दग्ध तुम, दर्प निदाघ में
और न दहको, दंभ दामिनी।
देखो, दूधिया दमके चांदनी
राग यमन में झूमे यामिनी।
Saturday, 8 October 2022
पगले बादल!
हाँ, हाँ, गरजो,
बादल, गरजो!
बरस भी रहे हो,
अब तो!
मूसलाधार!
और असमय भी!
बेमौसम ।
हो गयी है अब तो,
धरती भी,
शर्म से पानी-पानी।
'गरजना' तुम्हारी भावनाएँ हैं ।
और फ़ितरत है, तुम्हारी।
'बरसना',
उन भावनाओं में।
कहना क्या चाह रहे हो?
कोई अवस्था नहीं होती
भावोद्वेग की!
कोई उम्र नहीं होती,
वश में करने और
बहने बहकने की!
तो जान लो!
एक भाव होता है,
हर 'अवस्था' का भी।
और एक पड़ाव,
हर 'भाव' का भी!
पहले पैदा करो
मन में अपने,
भावना, नियंत्रण की!
पाओगे नियंत्रण तब,
अपनी भावनाओं पर!
नहीं बरसोगे,
फिर बेमौसम, ग़ैर उम्र।
ना ही तड़पोगे तब,
और ना ही गरजोगे।
पहले बीज तो डालो,
करने को क़ाबू में, ख़ुद को।
नहीं होता नाश कभी,
कर्म के बीज का!
यही तो योग है।
पगले बादल!
Sunday, 11 September 2022
उगना के मालिक - विद्यापति
Sunday, 4 September 2022
सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
Thursday, 1 September 2022
चल उड़ जा रे पंछी!
पुस्तक का नाम - चल उड़ जा रे पंछी (दो खंडों में)
(दूसरे खंड 'चित्रगुप्त कोश' में चित्रगुप्त के सारे गाने और चंद भोजपुरी फ़िल्मों के सारे गानों का संकलन)
दोनों खंडों का सम्मिलित मूल्य - १५०० रुपए
लेखक - डॉ० नरेन्द्र नाथ पाण्डेय
प्रकाशक – कौटिल्य बुक्स, ३०९, हरि सदन, २०, अंसारी रोड , दरियागंज, नयी दिल्ली – ११०००२
अमेजन लिंक https://www.amazon.in/dp/939088568X?ref=myi_title_dp
यह भी अजब इत्तफाक ही है कि आज़ादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष में हम जहाँ अपने गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों की अस्मिता तलाश रहे हैं, आदरणीय नरेंद्र नाथ पांडेय ने अपनी पुस्तक ‘चल उड़ जा रे पंछी’ में हमारे संगीत जगत के एक ‘अनसंग हीरो’ पर पड़ी समय की धूल को झाड़कर उसके दीप्त व्यक्तित्व के अन्वेषण का महती यज्ञ संपन्न किया है। लेखक की यह कृति बहुत मायनों में विलक्षण है। एक तो यह पुस्तक अपने लक्ष्य के केंद्रबिंदु में महान संगीतकार चित्रगुप्त के कृतित्व पर शोधात्मक प्रकाश डालती है; दूसरी ओर, यह समकालीन भारतीय सिनेमा के चाल और चरित्र को भी बख़ूबी पाठकों के समक्ष परोसती है। प्रोफेसर पांडेय का अपना व्यक्तित्व भी इस लेखन में पाठकों के समक्ष सशक्त रूप से उभरकर आता है। लेखक मस्तिष्क से प्रखर वैज्ञानिक प्रतिभा के धनी हैं, लेकिन उनका दिल अद्भुत साहित्यिक संस्कारों से पोषित-पल्लवित है। नाटक, संगीत और कला की दुनिया के अद्भुत अध्येता के साथ-साथ वह स्वयं मँजे हुए रंगकर्मी और रेडियो कलाकार हैं। कला और विज्ञान के मणि-काँचन सुयोग से सुशोभित इस लेखक की कृति में स्वाभाविक है कि जहाँ एक ओर अपने शोध में उन्होंने पूरी वैज्ञानिकता का निर्वाह किया है; वहीं चित्रगुप्त के संगीत-कौशल के मर्म को बड़ी कोमलता और सूक्ष्मता से स्पर्श करने में उनकी बाज़ीगरी अपने पूरे परवान पर चढ़ती नज़र आती है। संगीत के एक निष्णात साधक के जीवन-वृत को जिस कथा-शैली में उन्होंने बाँधा है, उससे पाठक भी उसी तन्मयता से अद्योपांत बँधा रहता है।
इतिवृतात्मक कथा-शिल्प में बहती चित्रगुप्त की जीवन-गाथा भी लेखक की उसी सरल, सुबोध और मीठी शैली में स्वच्छंद सलिला की भाँति बहती है, जिस मिठास के चित्रगुप्त प्रतिनिधि संगीतकार थे। पुस्तक के कहन का ढंग अपने आप में अनोखा है। भारतीय संगीत-कानन की कोयल लता मंगेशकर के आशीष की छाया से पुस्तक की कथा-यात्रा का सगुन होता है। स्वर-साम्राज्ञी के सुर में संगीत के फ़नकार का साक्षात्कार - अद्भुत श्री गणेश है! आनंद-मिलिंद और उदित नारायण की लय को समेटे विशाल भारद्वाज की भूमिका शुरू में ही पाठक के मन की उत्सुकता की साँकल को खोल देती है। फिर तो, उदय भागवत को श्रद्धा-अर्घ्य-समर्पण के पश्चात पांडेयजी अपने पाठकों को इतनी तन्मयता से चित्रगुप्त के जीवन-चरित की गंगा में उतारते हैं कि वह इस कथा सरित्सागर की अतल गहराई की सुधि लेकर ही दम लेता है। पुस्तक के कथ्य का चुंबकीय आकर्षण पाठक को अंतिम छोर पर भी छोड़ने को तैयार नहीं होता और ‘कुछ और’ की लालसा में वह चित्रगुप्त की मीठी धुन में तैरता रह जाता है।
अंत-अंत तक तो यह विश्वास ही नहीं होता कि जीवन की नियति भी ‘नेति-नेति’ के दर्शन से इस क़दर आलोकित है। गोपालगंज के सवरेजी गाँव में कुलीन कायस्थ परिवार में जन्मे एक लड़के को सात वर्ष की आयु में उसके संगीतज्ञ शिक्षक चाचा उसे अपने साथ ले जाते हैं। मैट्रिक तक वह बालक उनकी संगीतमय छाया में अपने जीवन के प्रारंभिक संस्कार बटोरता है। मैट्रिक पास करने के बाद उसके पिता-तुल्य भाई उसे पटना अपने साथ ले जाते हैं। दिनभर कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद अपने भाई के तबले की ताल में उसकी अपनी भावनाओं का भविष्य थिरकता है। पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का व्याख्याता बन जाता है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के व्याख्याता के पद की पेशकश मिलती है। किंतु, मन में रुनझुनाती माँ भारती की वीणा की झंकार उसे शास्त्रीय संगीत की विधा के अध्ययन के लिए भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय लखनऊ ले आती है। संगीत की शास्त्रीय विधा में दीक्षित मन अब गायन के गगन में उड़ान भरने को मचल उठता है। सुमधुर कंठ-स्वर और कवित्व की प्रतिभा से अलंकृत चित्रगुप्त अपनी कल्पनाओं के चित्र के वृहत फलक की तलाश में बंबई पहुँच जाते हैं – अपनी शैक्षणिक पीठिका को पीछे छोड़कर। एक व्यवस्थित थिर जीवन के केंचुल से निकलकर संघर्ष की पथरीली राहों पर रेंगने! कोरस गाने में पहली भूमिका मिलती है, जो उनके आत्मसम्मान को बिलकुल रास नहीं आती। किंतु मन मानकर उसी से शुरुआत करते हैं। विधि का विधान देखिए, उस पहले कोरस में ही उनकी भेंट एक ऐसे नगीने से हो जाती है जो उनके भविष्य के राग का अमर स्वर बन जाता है। अब यह वाक़या लेखक की बोली में ही सुनिए –
“एक दिन की बात है। एक गाने की रिकॉर्डिंग के दरम्यान, चित्रगुप्त ‘कोरस’ की टीम के सदस्यों के साथ खड़े थे। बग़ल में एक लजीला-शर्मीला, सीधा-साधा नवयुवक भी खड़ा था। उन दोनों के बीच बातचीत और परिचय का सिलसिला शुरू हुआ।
‘आपका नाम क्या है?’ – नवयुवक ने पूछा।
‘मेरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव है, और मैं बिहार से आया हूँ। और, आपका परिचय?’ – चित्रगुप्त ने पूछा।
‘जी, मैं कोटला सुलतान सिंह, मजीठा, जिला अमृतसर, पंजाब से आया हूँ‘, नवयुवक ने जवाब दिया, ‘मेरा नाम मुहम्मद रफ़ी है।‘
यह बातचीत कोरस के दो गायकों के बीच हो रही थी, जिनमें एक बहुत बड़ा संगीतकार बना, और दूसरा बहुत बड़ा गायक! प्रकारांतर से चित्रगुप्त और मुहम्मद रफ़ी की मित्रता परवान चढ़ी, और रफ़ी साहब ने चित्रगुप्त के संगीत-निर्देशन में ढाई सौ से अधिक गाने गाए।“
ऐसे अनेक वृतांत लेखक की मोहक शैली में इस पुस्तक में आते हैं कि पाठक उन्हें पढ़कर लहालोट हो जाता है। कहानी सुनाते-सुनाते लेखक अनजाने में भारतीय चित्रपट के इस चित्रगुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व के विश्लेषण में अपने स्वयं के शोधधर्मी वैज्ञानिक संस्कार की छाप छोड़ने में तनिक भी नहीं चूकता। उनके समूचे कृतित्व-काल को लेखक ने छह काल खंडों में विभाजित किया है। यह काल- विभाजन पूरी तरह से लेखक का अपना वस्तुनिष्ठ अवलोकन है जो समकालीन सिनेमा के इतिहास की पड़ताल भी उसी वैज्ञानिक अन्वेषण पद्धति से कर लेता है। चित्रगुप्त के संगीत की धुनों के सफ़र के साथ-साथ समकालीन गायकों की यात्रा का भी बड़ा सरस वर्णन मिलता है। लेखक अपनी इस रोचक कथा-यात्रा में पाठकों को 'पूर्व-राग' से 'उपसंहार' तक अपनी सरस वाचन शैली के आकर्षण-पाश में बाँधे चलता है। वह चित्रगुप्त के साथ-साथ उस काल, फ़िल्म, गीत, गायक, राग, ताल और संगीत के स्केल तक की जानकारी दे देता है। बीच-बीच में उन गायकों के व्यक्तिगत जीवन और उनके आपसी संबंधों की झलकियों से भी पाठकों के मन को मंद-मंद महुआते रहता है।
और तो और, इन संगीतों में प्रयुक्त वाद्य-यंत्रो की ‘इंटरल्यूड’ सरीखी बारीकी को लेखक इतनी प्रवीणता से अपने विश्लेषण में गुथता है कि पाठक अनायास वाद्य-विद्या में स्वयं को दीक्षित होता महसूस करने लगता है। चित्रगुप्त एक प्रयोगवादी संगीतकार के रूप में उभरते नज़र आते हैं। स्वयं शास्त्रीय विद्या का प्रकांड अध्येता होने के कारण भारतीय संगीत की शास्त्रीयता के कुशल चितेरे तो वह हैं ही, साथ ही जिस चतुराई से उन्होंने पश्चिमी वाद्य-यंत्रों का मिश्रण किया, वह आगे के दिनों में भारतीय संगीत की विकास-यात्रा के मील का महत्वपूर्ण पत्थर साबित हुआ। तानपुरा, सितार, वीणा, सरोद, इसराज, सारंगी, बाँसुरी, शहनाई, संतूर, पखावज, झाल, तबला, डुग्गी, ढोलक, घुँघरू – इन सभी भारतीय शास्त्रीय वाद्य-यंत्रों के साथ पश्चिमी यंत्रों पियानो, क्लारीयोनोट, ट्रम्पेट, पिकोलो, चेलो, मैडोलिन , गिटार, अकोर्डियन, बौंगो, कौंगो, ज़ाइलोफ़ोन, सेक्सोफ़ोन के प्रयोग ने चित्रगुप्त की प्रतिभा के विशेष पक्ष को रेखांकित किया। मिठास, सरलता और नवीनता की त्रिवेणी से नि:सृत उनके गीतों में तीन तत्व बड़ी प्रमुखता से उभरते हैं – गीत के शब्द, धुन और सुस्पष्ट गाने की मोहक अदा! अपने पहले गुरु एस० एन० त्रिपाठी से स्वतंत्र होते ही चित्रगुप्त का यह प्रयोगवाद परवान चढ़ने लगा किंतु उन दोनों के बीच के संबंधों की ऊष्मा पर तनिक भी आँच नहीं आयी। बाद में भी उनके संगीत निर्देशन में चित्रगुप्त ने कई गाने गाए। यह इन दो महान कलाकारों के उदात्त व्यक्तित्व की ओर संकेत करता है।
लेखक ने अपनी अद्भुत विवेचना- बुद्धि का परिचय देते हुए चित्रगुप्त की संगीत यात्रा को जिन प्रमुख छह, काल खंडों में बाँटा है, वे १९४६- १९५२, १९५३- १९५७ और १९५८-१९६२, १९६३-१९६८, १९६९-१९७४ और १९७५-१९८९ की अवधि हैं। इन काल खंडों के प्रतिनिधि गीतों को लेखक ने उनके सर्वांगीण पक्षों के साथ सामने रखा है। उदाहरण के तौर पर १९४६-१९५२ के काल खंड के अध्ययन में लेखक की सूक्ष्म शोधधर्मी दृष्टि की बानगी इस तालिका में देखिए :
क्रमांक | गीत | फ़िल्म (वर्ष) | गायक | राग | ताल | स्केल |
१ | वो रुत बदल गयी वो तराना बदल गया | जादुई रतन(१९४७) | गीता रॉय ( दत्त) | भैरवी | दादरा | C |
२ | ए चाँद तारे हमें बेक़रार करते हैं, ए मौत आ, तेरा हम इन्तज़ार | टाइग्रेस (१९४८) | चित्रगुप्त | पहाड़ी और विलावल | दादरा | B |
३ | उजड़ गया संसार मेरा, उजड़ गया संसार | भक्त पुंडलिक (१९४९) | पारुल विश्वास (घोष) | भैरवी | कहरवा | C |
४ | आँखों ने कहा, दिल ने सुना, हो गया निसार | भक्त पुंडलिक (१९४९) | चित्रगुप्त, उमा देवी (टुनटुन) | काफ़ी | दादरा | D |
५ | छंदनी छिटकी हुई है, मुस्कुराती रात है | हमारा घर (१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय | काफ़ी | कहरवा | B |
६ | रंग भरी होली आयी, रंग भरी होली | हमारा घर (१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम | खमाज | दादरा | C + |
७ | चोरी चोरी मत देख बलम, भोली दुल्हन शरमाएगी | हमारा घर(१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम | काफ़ी | कहरवा | B |
८ | कहाँ चले जी सरकार, कहो जी तुम कहाँ चले | हमाराघर (१९५०) | किशोर कुमार, शमशाद बेगम | काफ़ी | कहरवा | D + |
९ | देखो तो दिल ही दिल में जलते हैं जलाने वाले | हमारा घर (१९५०) | गीतारॉय,शांति शर्मा,शमशादबेगम | काफ़ी | कहरवा | B |
१० | सब सपने पूरे आज हुए, चमके आशा के तारे | वीर बब्रुवाहन (१९५०) | मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय | काफ़ी | कहरवा | D + |
११ | आइ पिया मिलन की रात, चंदा से मिली चाँदनी | वीर बब्रुवाहन (१९५०) | अमृतबाइ कर्नाटकी | विहाग और खमाज | कहरवा | B |
१२ | ये तारों-भरी रात हमें याद रहेगी, दो दिन की मुलाक़ात हमें याद | हमारी शान (१९५१) | मुहम्मद रफ़ी, गीता रॉय | काफ़ी | दादरा | C |
१३ | कोई आ करे, कोई वाह करे, दुनिया का यही अफ़साना है | हमारी शान (१९५१) | तलत महमूद | काफ़ी | कहरवा | C + |
१४ | कभी ख़ुशियों के नग़मे हैं, कभी ग़म का तराना है | तरंग (१९५२) | राजकुमारी | काफ़ी | कहरवा | B |
१५ | अदा से झूमते हुए, दिलों को चूमते हुए, ये कौन मुस्कुरा | सिंदबाद द सेलर (१९५२) | मुहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम | यमनी, विलावल, माँझ खमाज | दादरा | C + |
लेखक ने अत्यंत रोचक ढंग से अपने विश्लेषण में ऐसी कई समानांतर कहानियों का चित्र भरा है जो पाठक-मन को बरबस गुदगुदाते हैं। अपने दूसरे कालखंड में प्रसिद्ध हिंदी कवि, गोपाल सिंह नेपाली, की लिखी कविताओं पर चित्रगुप्त के संगीत का जो जादू चला वह फ़िल्म संगीत की दुनिया में उनकी पैठ को और गहराता चला गया। 'नागपंचमी' के गाने लोगों की जुबान पर चढ़कर बजने लगे। संगीत यात्रा के क्रम में धीरे-धीरे आशा भोंसले, लता मंगेशकर जैसे नामचीन फ़नकारों के जुड़ते जाने के साथ-साथ चित्रगुप्त का संगीत भी अपनी विविधताओं की छटा बिखेरने लगा। फ़िल्मों का ग्रेड भले ही ‘बी’ या ‘सी’ रहा हो, गाने ‘ए’ ग्रेड के रूप में भारतीय मानस पर छाते चले गए। तीसरे और उसके बाद के काल-खंड में चित्रगुप्त की मिठास अपने शिखर का स्पर्श कर रही थी। संतूर, वायलिन और पियानो का संतुलित प्रयोग तबले की ताल पर किल्लोल करने लगा था। लेखक ने बड़ी तन्मयता से इन सभी काल-खंडों के प्रतिनिधि गीतों को उनसे जुड़े रोचक संस्मरणों की चाशनी में डुबोकर अपनी ललित लेखन शैली में इस पुस्तक में उद्धृत किया है।
१९७४ में यह महान संगीतकार पक्षाघात का शिकार हो जाता है। पुत्र आनंद- मिलिंद के अदम्य सहयोग से संगीत का यह पाखी अपनी रचनात्मकता के तिनके-तिनके को सहेजकर फिर से एक ऐसा घोंसला बना लेता है जिससे धुनों की माधुरी की मोहक बहार पुनः मुस्कुराती है और सारा संगीत जगत मस्ती में झूम उठता है। उसी घोंसले से आनंद और मिलिंद नाम के दो मकरंद संगीत के व्योम में अपनी विरासत की तान भी छेड़ देते हैं।
अब इसे लेखक का वैचारिक लालित्य ही कहेंगे कि हिंदी धुनों की इस चित्र-कला का चित्रण करते समय समानांतर लोक-भाषा की लोक-धुनों के उद्भव की कला से वह किंचित बेख़बर नहीं रहता। भोजपुरी फ़िल्म के इतिहास का रचना-काल होता है १९६२। और, इतिहास के इस आँगन को चित्रगुप्त अपने संगीत की रस-माधुरी से सराबोर कर देते हैं। ‘हे गंगा मैया तोहे पीयरी चढ़इबो’ में चित्रगुप्त ने गीत-गंगा को अपने मोहक संगीत की पीयरी ही तो चढ़ायी है। लेखक की ही कलम से,
‘भोजपुरी की इस पहली फ़िल्म के लिए संगीत देने का निमंत्रण चित्रगुप्त को दिया गया, चित्रगुप्त ने इस फ़िल्म के गीतों को लिखने के लिए गीतकार शैलेंद्र के नाम की सिफ़ारिश की। शैलेंद्र के गीतों को चित्रगुप्त ने जिन मीठे सुरों में बाँधा, और जितने मीठे गले से मुहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और सुमन कल्याणपुर ने उन गानों को गाया, उससे तत्कालीन बम्बई का सारा फ़िल्म उद्योग स्तंभित रह गया।‘
अपनी प्रखर वैज्ञानिक दृष्टि के आलोक में लेखक भोजपुरी फ़िल्म में चित्रगुप्त के रचना-काल को भी दो खंडों (१९६२-१९६५ और १९७९-१९९१) में विश्लेषित कर उसकी बड़ी रोचक विवेचना करता है। लेखक पाठकों को एक और दिलचस्प बात बताने से कदाचित नहीं चूकता कि १९६४ में फ़णी मजूमदार के निर्देशन में मगही भाषा की जो पहली फ़िल्म ‘भइया’ बनी उसके गीतों को भी अपने सुरीले संगीत से चित्रगुप्त ने ही सजाया। चित्रगुप्त ने अपने संगीत के सुरों का जो विस्तृत वितान ताना उसमें शास्त्रीय तान से लेकर लौकिक राग, ग़ज़ल, क़व्वाली, होली, ईद, युगल नृत्य-गीत, मुजरा-महफ़िल, भजन-प्रार्थना, लोरी, मार्चिंग सॉंग, पैरोडी और पाश्चात्य धुनों की विविधताओं की बहुरंगी छटा छा गयी।
'पथ के साथी' के रूप में लेखक ने चित्रगुप्त की संगीत-यात्रा के उन तमाम मुख्तलिफ़ साथी अदाकारों का बड़ा ही सरस वृत्तांत सुनाया है जिन्होनें अपने फन के भिन्न-भिन्न साजों में सजकर चित्रगुप्त-संगीत के चित्रपट को पूर्णता प्रदान की। चित्रगुप्त का जीना एक कलाकार मात्र का जीना न होकर कला का अपनी सम्पूर्णता में जीने के रूप में चित्रित हुआ है और इस चित्रांकन में लेखक की कूची भी खूब अव्वल चली है। इन साथी कलाकारों के हमजोलीपन और उनकी आपसी ठिठोली में भी मानों मानवीय संबंधों के राग की कोई बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती पसरी हुई हो! यह उन रागात्मक संबंधों का अद्भुत रसायन ही था कि चित्रगुप्त के संगीत ने मराठी भाषी लता जी और सुरेश वाडेकर, पंजाबी भाषी रफ़ी, पश्चिम बंगाल में पली-बढ़ी और गुजराती भाषी अलका याज्ञनिक तथा मैथिल उदित नारायण के सुरों के रस से भोजपुरी गीतों को सराबोर कर दिया ।
'मील के पत्थर' अध्याय में लेखक के शोधात्मक कौशल ने अपने अर्श का स्पर्श कर लिया है । 'तो चलिए, साल के बावन सप्ताह की तरह चित्रगुप्त के उन ५२ मील के पत्थरों को देखा जाय' की मीठी जुबान में पाठक को फुसलाते हुए लेखक चित्रगुप्त की कालजयी रचनाओं को उसके हाथ में थमा जाता है । सच कहें, तो पाठक लेखक की अनोखी अध्यापन-कला के पाश में बंध जाता है। उदय भागवत, किशोर देसाई, आनंद जी, प्यारेलाल, सुरेश वाडेकर, रोबिन भट्ट, हरि प्रसाद चौरसिया, अलका याग्निक, उदित नारायण और समीर अनजान के साक्षात्कार समकालीन फिल्म के अनेक अनछुए प्रसंगों की रोचकता और सरसता से लबरेज हैं। 'आत्मीयों के संस्मरण' और 'विविध प्रसंग' चित्रगुप्त की शख्सियत को मानवीय मूल्यों के आलोक में पहचानने और परखने के अलिंद हैं। पुस्तक का 'उपसंहार' पाठकों के दिल में यही बात रोप जाता है कि चित्रगुप्त जैसी कला-संस्थाओं, उनके मूल्यों और उनकी स्मृतियों का कभी उपसंहार नहीं होता! वह उस शाश्वत आत्मा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं, जो इस नश्वर देह को त्याजकर भी अपने सुकर्मों और अपनी कृतियों के रूप में शाश्वत बनी रहती हैं। 'अच्छा है कुछ ले जाने से, देकर ही कुछ जाना ...........चल उड़ जा रे पंछी!
और अब लेखक परिचय