Tuesday 26 July 2016

गौरैया






भटक गयी है गौरैया
रास्ता अपने चमन का
सूने तपते लहकते
कंक्रीट के जंगल में
आग से उसनाती
धीरे से झाँकती
किवाड़ के फाफड़ से

वातानुकुलित कक्ष
सहमी सतर्क
न चहचहाती न फुदकती
कोठरी की छत को
निहारती फद्गुदी
अपनी आँखों मे ढ़ोती
घनी अमरायी कानन की......

....टहनियों के झुंड मे
झूलते घोंसले
जहां चोंच फैलाये
बाट जोह रहे हैं
चिचियाते चूजे!
भटक गयी है गौरैया


रास्ता अपने चमन का !

मृत्यु!

                      

अपनी जीवन यात्रा का द्रष्टा हमेशा अपने से इतर दर्शक से एक पृथक धरातल पर खड़ा होता है. इस यात्रा के अवसान  बिन्दु पर जीवन के अवयव अनुपस्थित होकर मृत्यु की संज्ञा धारण कर लेते हैं, सही मायने में, मृत्यु का यह संस्कार उसी जीवन यात्री के प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है जिसने उसको भोगा है. बाकी के लिये तो यह मात्र एक घटना है, जिसके बाह्य रुप मात्र का वह अवलोकन करता है. इसीलिये अबतक मृत्यु की अवधारणा उस द्रष्टा की परिकल्पना पर टिकी है जिसने इस प्रक्रिया को स्वयं नहीं भोगा है. अस्तु, यह परिकल्पना मात्र है. सत्य का उल्लेख नहीं. निरा अटकलबाजी! सत्य को भाषित तो वह करेगा जिसने स्वयं मरने की इस प्रक्रिया को जीया है. अब भला ‘मरने’ को जीने वाला इसका उल्लेख करे तो कैसे? न चेतना , न वाणी, न इशारे, न कोई हरकत! सब कुछ पर लग गया विराम. इस विराम बिन्दु का तो कोई पता नहीं, आगे की सुध भला कैसे मिले .
             
               मरने के साथ ही अभिव्यक्ति तो मर गयी , लेकिन विचार? यह यक्ष प्रश्न है. विचारों का मरना और विचारों से मुक्त हो जाना, ये दो अलग अलग बातें हैं. विचार तो जीते जी भी मर सकते हैं, लेकिन मरने के बाद ‘मृतक’ विचारों से मुक्त हुआ है या नहीं. ये भी वो ‘मृतक’ ही जाने!

            हाँ, एक बात तो तय है कि नवजात शिशु विचारों से मुक्त होता है, जैविक संस्कारों से नहीं. कष्ट में रोना और खुशी में हँसना, ये जैविक संस्कार हैं. जैसे जैसे शिशु बड़ा होता है, विचारों का उद्भव और विकास होता है. इसका कारक बहिर्भूत जगत है. यानि विचारों के जन्म लेने की क्षमता अन्दर होती है और उनको जन्म देने के आवश्यक कारक बाहर. अब इस आधार पर मृत्यु रुपी विराम स्थल से प्रारम्भ होने वाली यात्रा को ही यदि जन्म मान लिया जाय, तो मृत्यु विचारों से मुक्ति प्रतीत होती है न कि विचार क्षमता और जैविक संस्कारों से. नवजात जैसे जैसे विकसीत होता है,
विचारो की वेलि लता फनफनाने लगती है. एक लता के सुखते ही कई नयी लतायें पनप जाती हैं. सुखने और पनपने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती है. विचारों का आना और जाना ही जीवन को सम्वेग देता है. एक विचार मरता है, कई नये जन्म ले लेते हैं. जीवन समाप्त, विचार समाप्त. जीवन से मुक्ति, विचारों से मुक्ति. सम्भवतः, मरने के क्षण भी वह अपने अंतिम विचार से जुझ रहा होगा. वह अंतिम विचार क्या होगा, बड़ा दिल्चस्प और रहस्यमय है.

             एक तरल प्रवाह बहकर एक बिन्दु पर थम जाये .  फिर, कुछ समय और स्थान के अंतराल पर एक पूर्णरुपेण नवीन तरल प्रवाह का प्रारम्भ हो जाये. नये तरल का स्वरुप, उसकी ऊर्जा, उसकी मात्रा, उसकी गति; सबकुछ नवीन सबकुछ अलग! जो प्रवाह थमा उसे तो देख लिया पर उसके आगे का अज्ञात है.  या जो अभी जन्मा है उसके वर्तमान प्रवाह की नवीनता तो दिख रही है लेकिन प्रवाह शुरु होने के विराम स्थल के पीछे के पुराने प्रवाह की कहानी अज्ञात है. तो फिर मरने के बाद और जनमने के पहले की पाण्डुलिपि अप्राप्त और अज्ञात है.

                 ठीक वैसे ही जैसे, दिन भर का थका श्रमिक रात को सुध बुध खोकर सो जाये. नींद की गहरायी में उसे किसी तेज गाड़ी मे सुला दिया जाय . फिर हज़ारो किलोमीटर दूर किसी दूसरी जगह गाढ़ी नींद में ही गाड़ी से उतारकर रख दिया जाय, जगने पर वह पुरानी स्मृति खोकर नये जगह पर नये लोगों के बीच एक नये वातावरण में एक नया दिन बिताये नयी मजूरी में. जहाँ बीते कल से दूर दूर तक उसका कोई सम्बन्ध न हो – विचार से लेकर स्मृति के स्तर तक. यही क्रम अनवरत जारी हो जहां पीछे और आगे के दिन अज्ञात हो, वहीं दिन मात्र याद हो जो जी रहा हो,
ज्ञात, अज्ञात, ज्ञात, अज्ञात और क्रमशः! ज्ञात को हम जीवन और अज्ञात को मृत्यु कह लेते हैं , हम इसे उल्टा भी कह लें तो क्या फर्क पड़ता है. अर्थात ज्ञात को मृत्यु और अज्ञात को जीवन. यानि हम जीवन मरें और मृत्यु जीयें. यह तो हमारी अपनी शब्द संरचना है, चाहे जो नाम दे दें.  किंतु इस नामकरण से परे जो प्रक्रिया है, वह बिल्कुल सत्य है. जन्म के पहले और मृत्यु के बाद – यहीं वह पड़ाव है जो अनंत प्रवाह (?) का  व्यवधान स्थल है जहाँ प्रवाह की निरंतरता टूट जाती है. इस अद्यतन दृश्यमान प्रवाह को भी यदि आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति में अगणित सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तंतुओं मे सूक्ष्मदर्शी पैमाने पर विभाजित कर दें तो इस प्रवाह यात्रा में ही ह्में अनंत जीवन और मृत्यु के दर्शन होंगे.

             कोशिकाओं से शरीर का गठन तथा मानसिक तंतुओं का निर्माण होता है. कोशिकायें दीर्घजीवी नहीं होती. एक कोशिका कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाती है और नयी कोशिका का निर्माण होता है. यह प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है. यानि ‘जंतु-शरीर’ की मूल इकाई ‘कोशिका’ की भी वही दशा और दिशा है जो उस सम्पूर्ण ‘जंतु-शरीर’ की. इस प्रक्रिया की निरंतरता इतनी घनीभूत होती है कि छोटी अवधि में शरीर की असंख्य कोशिकाओं, उत्तकों एवम अंगों के विनष्ट और पुनः नवनिर्मित होने की क्रिया और उसके प्रभाव की सघनता का आभास मात्र भी नहीं होता. किंतु अवलोकन के अंतराल को यदि बढ़ाया जाय तो शरीर की अवस्थाओं का अंतर स्पष्ट हो जाता है. हर क्षण शरीर परिवर्तनशील है. तो, एक बड़े पैमाने पर हम मृत्यु को भी परिवर्तन की कला का एक अमिट बिन्दु क्यों न मानें जिसके पार का सन्धान हम नहीं कर पाते.
विचार-प्रणाली के स्तर पर मृत्यु विचारों के अनवरत प्रवाह का आकस्मिक विराम है. अर्थात, मन के संचय करने की प्रवृति नहीं बल्कि प्रक्रिया का पड़ाव है- मृत्यु.   

            
            अब हम तीन अवस्थाओं पर विचार करें. निद्रा, समाधि और मृत्यु. निद्रा अवचेतन से अचेतन तक की स्थिति है. दिल धड़कता है, साँसें चलती हैं, पसीना चलता है, कभी कभी तो पूरा शरीर भी भ्रमण करता है. चेतना का अभाव है निद्रा. शरीर के बाकी अंग पूरी तरह से सक्रिय रहते हैं. बस नींद आते ही मन सबकुछ छोड़ के विश्राम की मुद्रा में आ जाता है और नींद के जाते ही फिर सबकुछ वापस पकड़ लेता है. नींद में विचार बन्द लेकिन शरीर चालु. चेतना सुषुप्त. शरीर भी सुषुप्त. सुषुप्त, लेकिन जैविक रुप से गतिशील. अर्थात नींद में शरीर का जैविक विकस या क्षरण की प्रक्रिया नहीं रुकती. यानि ऐसा नहीं की बहुत दीर्घ काल तक सोकर कोई व्यक्ति अपने शरीर को दीर्घजीवी बना ले या वृद्धावस्था की ओर भ्रमणशील शरीर की गति पर रोक लगा ले.
 
             साधना में शरीर सुषुप्त नहीं, बल्कि मृतप्राय. लेकिन, चेतना जाग्रत, वो भी अपने सर्वोच्च स्तर पर. नींद और साधना में विचार के स्तर पर बस यहीं अंतर है कि नींद में विचार मर जाते हैं जबकि साधना में साधक ध्यान में आते ही विचार मुक्त हो जाता है. नींद से जागने पर निद्रा-पूर्व विचारों का विकार वापस आ जाने की गुंजाइश रहती है. साधना में ध्यान से पहले के विचारों का विकार पीछे ही छूट जाता है, मन निर्विकार हो जाता है और ध्यान से लौटने के बाद उन विकारों का लेश मात्र भी नहीं लौटता. शरीर भी वहीं रहता है, अर्थात समाधि से पहले शरीर को छोड़कर जहाँ जाता है , ध्यान से लौटते ही वही पकड़ लेता है. यहाँ शरीर सुषुप्त के साथ साथ जैविक आस्तित्व के स्तर पर लुप्त भी हो जाता है. इसीलिये यह मृतप्राय की स्थिति है.  समाधि की अवधि तक शरीर का समय रुक जाता है, उसकी जैविक आयु थम जाती है. समाधि के पहले से समाधि के टूटने तक शरीर कोई जैविक यात्रा तय नहीं करता. समाधि से शरीर की दीर्घजीविता को लम्बा किया जा सकता है. समाधि में शरीर समय निरपेक्ष हो जाता है.शरीर की जैविक प्रक्रियाएं चलाती रहती हैं लेकिन एक अलग 'टाइम सूट' में. प्रक्रिया की गति बदल जाती है. रसायन शास्त्र में प्रतिक्रिया की दर प्रतिकारकों के सक्रिय द्रव्यमान, मास कंसंट्रेशन, के गुणनफल का समानुपाती होता है. चूँकि समाधि में द्रव्यमान का महत भाग चेतन ऊर्जा में बदल गयी होती है, इसलिए शरीर के क्षरण की प्रतिक्रया में प्रतिकारक द्रव्यमान सांद्रता यानि एक्टिव मास कंसंट्रेशन घट जाने से प्रतिक्रिया धीमी हो जाती है और शरीर के क्षरण की प्रक्रिया काफी धीमी हो जाती है. कहीं यहीं वैज्ञानिक आधार तो नहीं है इस बात के पीछे की प्राचीन काल के साधक ऋषि हज़ारों साल तक तपश्चर्या निर्वाह कर जीवित रहते थे.  
मृत्यु की स्थिति इन दोनों से इतर चरम स्थिति है जहाँ शरीर अपनी जैविक यात्रा समाप्त कर देता है और उस शरीर का सवार अपनी सवारी के नष्ट होने की चरम अवस्था में अपने को विचारों से मुक्त कर लेता है अन्यथा विचारों के मरने के सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं! मृत्यु में चेतना की ऊर्जा शून्य होते ही द्रव्यमान घटक अपनी महत्तम मात्रा को प्राप्त हो जाता है और क्षरण की रासायनिक प्रतिक्रिया अपने तीव्रतम दर को प्राप्त कर लेती है.और चेतना के लुप्त होते ही विचारों से भी मुक्ति मिल जाती है.
                                     

गरमी की छुट्टी

गरमी की छुट्टी
   (1)

थपेड़े लू के
थपथपाती गरमी
थम जाती है हवा
करने को गुफ्त-गु
बुढ़ी माँ से
झुर्रियों के कोटर में
थिरके दो पुलकित नयन
अर्थपूर्ण, गोल चमकदार
लोर से सराबोर!
निहारते शून्य को

    (2)

उठती गिरती लकीरें
मनभावन कल्पना की
सिसियाती हवा
माँ के आँचल में डोल
सोहर-से-स्वर
थरथराते होठ
काँपते कपोल
अर्ध्य-सामग्री सी अस्थियाँ
कलाई की, बन
वज्र सा कठोर....

  (3)

बुहार रही हैं
पथ उम्मीदों का
पसीने से धुली
आँखों में चमकती
धुँधली, गोधुली रोशनी 
उभरती तैरती
आकृतियाँ,
बेटे-बहू-पोते
एक एक को सहेजती
बाँधती वैधव्य के आँचल में

    (4)
कोर के गाँठ खोलती
फटी साड़ी की
निकालती
खोलती पसारती
सिकुड़ी अधगली
स्याह चिट्ठी
डरते-डरते,
न  जाने
कब सरक जाये

मुआ, ये गरमी की छुट्टी! 

Monday 25 July 2016

नर नपुंसक



दलित छलित मदमर्दित होती
दर-दर मारे फिरती नारी
कैसा कुल कैसी मर्यादा
लोक लाज ललना लाचारी

लंका का कंचन कानन ये
देख दशानन दम भरता है
छली बली नर बाघ भिखारी
अबला का यह अपहरता है

छल कपट खल दुराचार से
सती सुहागन हर जाती हो
देवी देती अगिन परीछा, 
पुरुषोत्तम का घर पाती हो


पतिबरता परित्यक्ता लांछित
कुल कलंकिनी घोषित होती
राम-राज का रजक और राजा
दोनों की लज्जा शोषित होती

राजनीति या राजधरम यह
कायर नर की आराजकता है
सरयू का पानी भी सूखा
अवध न्याय का स्वांग रचता है



हबस सभा ये हस्तिनापुर में
निरवस्त्र फिर हुई नारी है
अन्धा राजा, नर नपुंसक
निरलज ढीठ रीत जारी है !


Saturday 28 May 2016

बैक-वाटर

           (१)

अल्हड़, नवयौवना नदी
फेंक दी गयी! या कूदी।
पिता पहाड़ की गोदी से,
सरकती, सरपट कलकल
छलछल, छैला समंदर
 की ओर।
पथ पर पसरा पथार,
खाती, पचाती,
घुलाती मिलाती।
ऊसर अंचल थाती
आँचल फैलाती।
कूल संकुल मूल,
नमी का बीज बोती
संगी साथी सबको धोती।
स्वयं पापो की गठरी ढोती!

         (२)

गाँव- गँवई,शहर नगर
ज़िंदा-मुर्दा, लाश,ज़हर
टूटे फूटे गन्दे नालों
का काला पानी,
सल्फर सायनाइड की बिरयानी।
सबकुछ चबाती चीखती।
प्रदुषण के नए भेद सीखती,
हहकारती, कुलबुलाती,
पसरती, सूखती
जवानी लुटाती!
कभी नहरें पी जाती
फिर निगोड़ा सूरज
सोखने लगता।
दौड़ती, गिरती पड़ती
अपने समंदर से मिलती।

          (३)

समंदर!
उसे बाँहों में भरता।
लोट लोट मरता।
लहरों से सजाता।
सांय सांय की शहनाई बजाता
अधरों को अघाता
और रग रग पीता।
फिर दुत्कार देता
वापस ‘ बैक-वाटर’ में।
जैसे, राम की सीता!
वेदना से सिहरती
बेजान, परित्यक्ता
आँसुओं में धोती, पतिता।
सरिता, यादों को
अपने पहाड़ से पिता की!

Friday 13 May 2016

मोर अँगनैया

बावरी बयार बाँचे
आगी लागी बगिया.
जोहे जोहे  बाट जे
बिलम गयी अँखिया .
सुरज धनक गये
झुलस गयी भुँइया.
दुबकी दुपहरी
बरगद के छैंया .

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया.

चप चप कंचुकी
चिपक गयी अँगिया.
छुइमुइ छतिया
सरम गयी सखियाँ.
मोंजरे अमवा के
पतवा पतैया.
टपके पसीनवा
चट चट चटैया.

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया.

पिआसे परान फाटे,
उमस कसैया.
पनघट तरसत
ताल तलैया.
जिअरा जोआर जारे
हिअरा हुकार मारे.
सगरो गोहार करे
आव पुरवइआ.

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया.

सागर हिलोरा ले
घटवा अकोरा ले.
घन घरसन करे
मेघ बरसइआ.
चेतन जगत भयो
हरी हरीअइआ.
गुलशन गुलज़ार
चहके चिरैया.

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया. 

Monday 18 April 2016

नयन-नीर

    
    (1)
डेरा डाले पलकों में
 पल-पल तुम्हारी,
गिनूँ थरथराहट
 पुतलियों की,
गोल-चन्द्राकार-पनैला,
तैरूँ, नील गगन में !
अगणित सपनों के मोती.
डूबते,तैरते,उतराते
और बन्ध जाते
ख्वाहिशों के रेशमी सूत में.


   (2)
निमिष मात्र भी नहीं
ठहरती पुतलियाँ
अपनी जगह पर,
 उठती गिरती
जैसे सपनों का
उठना और ढ़हना,
और फिर
 बह जाना
निःशेष!
आँखों के पानी में.


     (3)
उतरा जल नीचे
धरती की छाती का.
कलमुँहे सुरज ने सोखा
पानी, कमर से
छरहरी नदी का.
समेटे सारे शर्मो हया
व ज़िन्दगी की रवानी
तू अनवरत रोती
और ढ़ोती
आँखों में पानी !

     (4)
नयन नीर से तुम्हारे
उझक उझक झाँकती
नारी की लज्जा
सदियों से संचित,
उसी में घुलता
नंगा, निर्लज्ज !  
नरपशु समाज !!
और अगोरती अस्मिता
तुम, फिर भी दाबे
उन्हीं पलकों में !

बेटी-बिदा

बेटी विदा, विरह वेला में
मूक पिता ! क्या बोले?
लोचन लोर , हिया हर्षित
आशीष की गठरी खोले.

अंजन-रंजित,कलपे कपोल
कंगना,बिन्दी और गहना,
रोये सुबके सखी सलेहर्
बहे बिरह में बहना.

थमा पवन, सहमा सुरज!
हर अँखियन बदरी छायी,
पपीहा पी के पीव पली ,
कुहकी कोयल करियायी.

शक्ति शिव के संग चली
मुरछित माहुर् मन मैना,
सुबके सलज सजल सुकुमारी
ममता मातु नीर नयना.

सत्य-संजीवन चिर चिरंतन
वेदांत उपनिषद गाते,
भयी आत्मा बरहम की
अब छूटे रिश्ते-नाते ! 

मृग-मरीचिका

तपोभूमि में तप-तप माँ ने
ममता का बीज बोया,
 वत्सल जल से बड़ॆ जतन से
पुनः पिता ने उसे भिगोया.

शिशु तरु वो विकसित होकर
तनुजा तेरा रुप पाया है,
देव पितर के पीपल तल में
कुसुमित किसलय तुम छाया है.

जीवन के मेरे मरुस्थल में
मृग मरीचिका सी तुम आयी,
चकाचौंध चमत्कृत चक्षु ,
चारु चन्द्र चंचल चित्त छायी.

दृग नभ से झर झर कर अविरल
भावों की अमृत वारीश,
अमरावती श्री शैल शिखर से
निःसृत सिक्त अखंड आशीष.

मृदंग ढ़ोल शिव डमरु बाजे
सुन शहनाई सुरीले ताल ,
वीथि सुवास यूथि विलास
हुआ निहाल यह विश्व-विशाल

Friday 6 November 2015

बापू

उठ न बापू! जमुना तट पर,
क्या करता रखवाली ?
तरणि तनुजा काल कालिंदी,
बन गयी काली नाली।
राजघाट पर राज शयन!
ये अदा न बिलकुल भाती।
तेरे मज़ार से राज पाठ,
की मीठी बदबू आती।
वाम दाम के चकर चाल,
में देश है जाके भटका।
ब्रह्मपिशाच की रण भेरि
शैतान गले में अटका।
'हे राम'की करुण कराह,
में राम-राज्य चीत्कारे।
बजरंगी के जंगी बेटे,
अपना घर ही जारे।
और अल्लाह की बात,
न पूछ,दर दर फिरे मारे।
बलवाई कसाई क़ाफ़िर,
मस्ज़िद में डेरा डारे।
छद्म विचार विमर्श में जीता,
बुद्धिजीवी, पाखंडी।
वाद पंथ की सेज पर,
सज गयी ,विचारों की मंडी।
बनते कृष्ण, ये द्वापर के,
राम बने, त्रेता के।
साहित्य कला इतिहास साधक,
याचक अनुचर नेता के।
गांधीगिरी! अब गांधीबाजी!
बस शेष है, गांधी गाली।
उठ न बापू!जमुना तट पर,
क्या करता रखवाली?

Monday 26 October 2015

परम ब्रह्म माँ शक्ति सीता

मातृ शक्ति, जनती संतति
चिर चैतन्य, चिरंतन संगति।
चिन्मय अलोक, अक्षय ऊर्जा
सृष्टि सुलभ सुधारस सद्गति।।
सृजन यजन, मृदु मंगलकारी
जीव जगत की तंतु माता।
वाणी अधर अमृत रस घोले
सुगम बोधमय, जीवन दाता।।
भेद असत् कर सत् उद्घाटन
ज्ञान गान मधु पावन लोरी।
करुणाकर अमृत रस प्लावन
वेद ऋचा मय पोथी कोरी।।
धन्य जनक धन जानकी तोरी
और धन्य! वसुधा का भ्रूण।
अशोक वाटिका कलुषित कारा
जग जननी पावन अक्षुण्ण।।
प्रतीक बिम्ब सब राम कथा में
कौन है हारा और कौन जीता।
राम भटकता जीव मात्र है
परम ब्रह्म माँ शक्ति सीता।।

पुरस्कार-वापसी

भारतेंदु के भारत में
रचना की ऋत है कारियायी।
आवहु मिलहीं अब रोवउ भाई
साहित्कारन दुरदसा देखी न जाहीं।।
वाङ्गमय-वसुधा डोल रही
राजनीति की ठोकर से।
दिनकर-वंशज दिग्भ्रमित हुए
सृजन की आभा खोकर ये।।
'कलम देश की बड़ी शक्ति
ये भाव जगाने वाली।
दिल ही नहीं दिमागों में
ये आग लगाने वाली'।।
कलमकार कुंठित खंडित है
स्पंदन हीन हुआ दिल है।
वाद पंथ के पंक में लेखक
विवेकहीन मूढ़ नाकाबिल है।।
दल-दलदल में हल कर अब
मिट जाने का अंदेशा है।
साहित्य-सृजन अब मिशन नहीं
पत्रकार-सा पेशा है।।
अजब चलन है पेशे का
पारितोषिक भी रोता है।
जैसे प्रपंची कपट से झपटे
वैसे छल से खोता है।।
ऐसे आडम्बर पथिक का
इतिहास करेगा तिरस्कार।
जर्जर जमीर जम्हुरों को
लौटाने दो पुरस्कार।।

Monday 12 October 2015

भोर भोरैया

                   


                भोर भोरैया, रोये रे चिरैया
बीत गयी रैना, आये न सैंया


सौतन बैरन, मंत्र वशीकरण
फँस गये बालम, का करुँ दैया


बिरह के अँगरा, जिअरा जरा जरा
फुदके चिरैया, असरा के छैंया


कलपे पपीहरा, चकवा चकैया
अँसुअन की धार, भरे ताल तलैया


दहे दृग अंजन, काल कवलैया
भटकी मोरी नैया, कोई न खेवैया


               हूक धुक छतिया, मसक गयी अंगिया
               कसक कसक उठे, चिहुँके चिरैया


               भोर भोरैया, रोये रे चिरैया
               बीत गयी रैना, आये न सैंया

                 

उपहार

जली आग में झुलसी लाश 
कफ़न कोटि साठ का 'उपहार'
पहना गया है,
'पंच- परमेश्वर' कोई!

आस्तीन का सांप

वज़ीर ' शरीफ' मेरा
और 'बंदुकची' भी शरीफ़
सियासत-दर-सियासत
सिर्फ 
सिरफिरे शरीफों का मेरा खाप।
इसीलिए तो
अपने 'पाक' विवर में
छुपा रखा है
तेरे 'आस्तीन का सांप'।

रिश्तों की बदबू

खामोश!
ये अभिजात्य वर्ग की 'स्टार' शैली है।
संबंधो की अबूझ पहेली है।
पिटर,दास, खन्ना,इन्द्राणी !
और
न जाने क्या-क्या
गुफ्त-गु चल रही है।
शीना की लाश से ,
रिश्तों की बदबू निकल रही है।

आलोचना की संस्कृति


कविताओं के संग्रह के साथ कुछ साहित्य-साधकों से अलग-अलग मिलने का सुअवसर मिला. कवितायें बहुरंगी और अलग-अलग तेवरों में थी. कुछ आध्यात्मिक, कुछ मानवीय संबंधों पर , कोई मांसल श्रृँगार का चित्र खींचने वाली, कोई प्रकृति के सौन्दर्य की छवि उकेरने वाली, कोई सामाजिक विषमता और व्यवस्था के पाखण्ड पर प्रहार करने वाली, कोई राष्ट्रीयता में रंगी, कोई सुफियाना तराना, कोई उत्तम, कोई मध्यम, कोई अधम आदि-आदि. प्रतिक्रियाओं का रंग भी बहुरुपिया. कुछ उत्साहवर्धक. कुछ निराशाजनक.
उत्साहवर्धक वहाँ, जहाँ भाषा, व्याकरण, छंद-रचना, शब्दों के चयन एवं भाव-प्रवाह की प्रांजलता की दिशा और दशा पर विद्वतापूर्ण आलोचनायें की गयी. लेकिन, निराशा वहाँ हाथ लगी जहाँ आलोचना के सुर किसी साज और वाद विशेष में उलझ गये. अर्थात कविता का कथ्य उस ‘वाद’ के ताल में है या नहीं जिसके वादक आलोचक-साहित्यकार हैं. जहाँ अपने ‘वाद’ की ताल नहीं मिली उसे अप्रासंगिक, प्रपंच, अपरिपक्व, कुछ और बचे रह जाने की गुंजाइश इत्यादि व्यंजनाओं से अभिहित किया गया.
एक पंथ को अध्यात्म, दर्शन एवं राष्ट्रीयता से लबरेज कविताओं में दूसरे पंथ के पाज़ेब की खनक  या फिर प्रकृति, प्रेम और श्रृँगार के गीतों में शब्दों की फिज़ूलखर्ची दिखायी दी.
तो दूसरे पंथ को भी असमानता, शोषण और पाखण्ड पर चोट करने वाली कविताओं में सिवा प्रपंच और ‘रौंग-नंबर’ के कुछ नहीं मिला. दो पंथ, दोनों अलग-अलग ,उलटे ध्रुवों पर सवार. धुर विरोधी और विपरीत-गामी. हमारी वैज्ञानिक पद्धति से बिल्कुल दूर.
विज्ञान में दो विपरीत ध्रुवों में आकर्षण होता है, दोनों चिपक जाते हैं. साहित्य में विपरीत ध्रुवों में प्रबल विकर्षण होता है. चिपकने की तो दूर, देखने से भी परहेज़ . यहीं विज्ञान और साहित्य में मौलिक अंतर है. राजनीति साहित्य की सहेली भले बन जाये, लेकिन विज्ञान पर उसका रंग नहीं चढ़ पाता.
मैं ठहरा विज्ञान का छात्र और पेशे से अभियंता. हमारा विज्ञान में ऐसे कतिपय सिद्धांतों से पाला पडा है जो प्रतिगामी होते हुए भी परस्पर पूरक रुप में वैज्ञानिकों एवम इंजीनियरों द्वारा स्वीकारे और लिये गये हैं. सिद्धांतों का सामंजस्य और इंटीग्रेशन विज्ञान का मूल दर्शन है जिसकी भावना है ज्ञान की तलाश और मानव का विकास. न्यूटन के बल नियम पदार्थ के कणिका स्वरुप सिद्धांत पर आधारित हैं.बल रेखाओं को हम एक कणिका बिन्दु पर आरोपित मानते हैं. यथार्थ मे ऐसा होता नहीं. किंतु हम न्यूटन के  नियम को नाजायज माने बिना उस पदार्थ का एक द्रव्यमान केन्द्र निकाल लेते हैं और उसी केन्द्र बिन्दु से सभी सक्रिय बल रेखाओं को गुजारते हैं. फिर बल और आघूर्ण नियमों के आलोक में संतुलन की अवस्थाओं का विश्लेषण कर  गगनचुम्बी से लेकर पातालगामी संरचनाओं का डिजाइन तैयार कर उनका सफल निर्माण कर लेते हैं.
दूसरी ओर पदार्थ का तरंग स्वरुप भी उतना ही सत्य है . अर्थात एक ही वस्तु के दो स्वरुप – पदार्थ रुप और ऊर्जा रुप. हमारा विज्ञान दोनों रुपों में प्रकृति के सत्य का न केवल दर्शन करता है अपितु उनके सहारे नयी ऊंचाइयों में छलांग भी मारता है. कोई खेमेबन्दी नहीं, कोई वाद नहीं, कोई पंथ नहीं. कोई प्रहार नहीं , कोई विवाद नहीं. पदार्थ और ऊर्जा दोनों अपनी मौलिकता में आगे बढ़ रहे एक दूसरे का आलम्ब बन के , सहकार बन के. एक दूसरे में बन के . पदार्थ ऊर्जा बन के तथा ऊर्जा पदार्थ बन के. एक तारतम्य में एक व्यवस्था में .
ऊर्जा =  द्रव्यमान(पदार्थ) * (प्रकाश का वेग) का वर्ग
हेज़ेनवर्ग ने सिद्धांत दिया कि यह जानना अस्म्भव है कि किसी समय उस पदार्थ की स्थिति और वेग कितना है. अर्थात ऐसे मिले कि कितना पदार्थ और कितनी ऊर्जा जानना असम्भव ! कितना सामंजस्य है वैज्ञानिक सिद्धांतों में - स्वरुप में प्रतिकूल और व्यवहार में अनुकूल!
तभी तो विज्ञान ने जो तेजी पकड़ी वहां अराजकता बिल्कुल नहीं. यहाँ वाद के आधार पर हम किसी को स्वीकार या अस्वीकार नहीं करते. प्रत्युत, आवश्यकता, उपयोगिता, गुणवत्ता एवम तथ्य के आधार पर सभी स्वीकार्य है. सबका मूल परमाणु है, चेतना है.
गनीमत है कि विज्ञान को साहित्यिक आलोचना की इन विषम गलियों से गुजरना नही पड़ता या ऐसा कहें कि अब तक आलोचकों के इस वर्ग को अपने कार्य क्षेत्र में विस्तार कर विज्ञान की चौखट तक जाने की सुधि न रही. नहीं तो , आलोचना के इस विलक्षण पद्धति की तथाकथित प्रगतिवादी भाषा में समूचे विज्ञान को एक दोगला सम्प्रदाय घोषित कर दिया जाता. फिर विज्ञान में भी एक आन्दोलन के शक्ल की कुछ घटना होती. एक कणिकावाद का खेमा बनता. दूसरा तरंगवाद होता. बात आइस्टीन से होते होते सत्येन्द्र नाथ बसु तक आती. सापेक्षपंथियों में विभाजन होता. एक भारतीय सापेक्षवादी खेमा (बसु) के रुप में टूटकर बाहर आ जाता. परमाणु से भी तेज़ परमाणु वैज्ञानिकों के विखन्डन की प्रक्रिया होती . पदार्थ के सारे गुण पदार्थपंथी ओढ़ लेते. फिर वैज्ञानिक आगे बढते और विज्ञान रुक जाता. ठीक वैसे ही, जैसे आज साहित्य से आगे साहित्यकार और समाज से आगे समाजवादी भागे जा रहे हैं. साहित्य और समाज रुक गये हैं. उनको पूछने और पूजने वाले पुरोधा को अभी आपस में फरियाने से फुरसत नहीं है.
कम से कम अकादमिक स्तर पर साहित्य राजनीति से  अछूती रहे, ऐसी संस्कृति विकसित होनी चाहिये साहित्य में आलोचना की. आलोचना मात्र के लिये शब्द बाणों से किसी रचना को बेध देना स्वस्थ परम्परा नहीं है. यह माटी शास्त्रार्थों की माटी है. यहाँ भिन्न मत-मतांतरों के उद्भट्ट विद्वानों का एक मंच पर उपस्थित होकर विद्वत पूर्ण आलोचना, समालोचना एवम विवेचना की गौरवमयी संस्कृति रही है. वैदिक काल से ही पुष्ट से पुष्टतर होती यह परम्परा अद्यतन कायम रहनी चाहिये थी. आलोचना और विमर्श की कला को तर्क और सहिष्णुता से सुसज्जित होना चाहिये. आलोचना की अपनी एक स्पष्ट और तीक्ष्ण दृष्टि होनी चाहिये. आलोचक को एक संतुलित नायक के रुप में उभर कर आना चाहिये. साहित्यकार समाज को सम्बल देता है.
    जुमले की शक्ल ले चुके एक वाकया में ऐसा बताते हैं कि कभी दिनकरजी और नेहरुजी संसद भवन  की सीढ़ियों पर साथ साथ चढ़ रहे थे. नेहरुजी के पाँव अचानक डगमगाये और गिरने-गिरने को हुए. तत्क्षण, बलिष्ट दिनकर ने उनको थाम  लिया और नेहरु गिरने से बचे. नेहरु के आभार प्रकट करने पर दिनकरजी  ने  अपने खास अन्दाज़ में कहा कि    ‘जब भी राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे सम्भाल लेता है’. अब न नेहरु रहे न दिनकर. हाँ, ट्रेंड जरूर नया हो गया है. खेमेबंदी में बँटे  साहित्य के चाल की रिमोट अब राजनीति के हाथों में प्रतीत होती है. यह स्थिति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.  
   
इसलिये मेरा मानना है कि समाज और साहित्य के सभी अंग विचारों में वैज्ञानिकता लायें. सारी धारायें साथ बहें. साहित्य का सर्वांग पुष्ट हो. हर क्षेत्र पर सम्पूर्ण और समेकित दृष्टि हो. नारी विमर्श भी हो. दलित विमर्श भी हो. राष्ट्रीय सरोकार भी हो. आध्यात्म और दर्शन का उद्बोधन भी हो. समाजवाद की जड़ें भी सिंचित हो. श्रृंगार, सौन्दर्य और प्रणय पाठ भी हो. लेकिन सब कुछ वैसा ही दिखे जैसा हो. आत्मनिष्ठ भाव भी वस्तुनिष्ठता के कश पर निखरें. समाजशास्त्रीय परम्परा समृद्ध हो. सामंजस्य और सहकार की भावना हो. आपस में तलवारें न खींचे. जोड़क हो, तोड़क नहीं.  एक दूसरे का हाथ थामने वाले सम्पुरक बनें. अपना स्कोर सेट्ल न करें. आलोचना की इस नयी दृष्टि में वैज्ञानिकता , सहकारिता, सर्वांगिकता और सम्पुरकता का सामंजस्य हो. अपनी माटी की परिपाटी का सुगन्ध हो:
         सर्वे भवंतु सुखिनः,  सर्वे संतु निरामयः
         सर्वे भद्राणी पश्यंती, मा कश्चिद्दुख भागवेत
शाखायें हो, खेमेबन्दी नहीं. विभाजन हो, अलगाववाद नहीं .     
                 दूसरी व्यथित करने वाली बात है पश्चिम की नकल और उसकी साहित्य धारा का अन्धानुकरण. हर समाज की अपनी भूमि होती है. अपनी आबोहवा, अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज, अपनी जीवन पद्धति , अपनी उपज ,अपना अर्थशास्त्र, अपना आध्यात्म ,अपना दर्शन , अपनी नदी, अपना आकाश, अपना मौसम, अपना पर्यावास और अपने लोग!
यहाँ पर साहित्य विज्ञान से थोड़ा अलग हो जाता है. विज्ञान विशुद्ध पदार्थवादी है किंतु साहित्य नहीं. विज्ञान का तंतु पूर्णतः दिमाग से जुड़ा है. साहित्य का रास्ता दिल से निकलता है. हर संस्कृति की अलग अलग गति और अलग अल्ग रास्ते भी है. पर सभ्यता का एक ही रास्ता है. विज्ञान सभ्यता का सखा है और संस्कृति साहित्य की सहेली. सहेलियों के रंग अलग अलग होते हैं चटख, नीले, पीले, लाल, गुलाबी, इन्द्रधनुषी, सतरंगी, बहुरंगी आदि-आदि. इसलिये विज्ञान के क्षेत्र मे अनुकृति तो प्रतियोगी, वांछित और प्रगतिवादी है किंतु साहित्य की अनुकृति हीनता की विकृति से इतर कुछ नहीं. पश्चिम का साहित्य अपने आवेग में बहे , हम अपना संवेग धारण करें. हाँ, अपने से इतर के समाज की हलचलों से हिलते रहें, वेदनाओं से विह्वल होते रहें, परिवर्तनों से आंदोलित होते रहें , पर अपनी मौलिकता  से महरूम होकर उनकी धारा में अपने को प्रवाहित न कर दें. ऐसे प्रवाहित होने की प्रवृति रखने वाली रचनाओं को समाज स्वयं समय की रेत में गाड़ देता है.
समाज को साहित्यकारों से बड़ी अपेक्षा है. साहित्यकार अपने को पथ-प्रदर्शक की भूमिका में लायें. वह समय की समकालीन धारा को अपने साहित्य से आलोड़ित करें. संस्कृति की रक्षा करें, आचरण की नवीन सभ्यता का विकास करें, राष्ट्रीय मूल्यों का सम्वर्धन करें, विषमता और भेद-भाव के खिलाफ बिगुल बजायें. आध्यात्म की समरसता और सद्भाव का शोध-पत्र पढें, दिल से दिल को जोड़ें, समाज का मार्गदर्शन करें और अपनी रचना धर्मिता का निर्वाह कर आलोचना की नयी संस्कृति का सुत्रपात करें.