कल्पना की भीत में
शब्दों से परे
आज भी बाबूजी दिखते
बच्चों को बनाने की ज़िद में
वैसे ही अड़े खड़े।
शब्दों से परे
आज भी बाबूजी दिखते
बच्चों को बनाने की ज़िद में
वैसे ही अड़े खड़े।
धागों से बँधे चश्मे
दोनों कानों को
यूँ पकड़े जैसे
तक़दीर को खूँटों में
जकड़ रखा हो वक़्त ने
बुढ़ायी, सिकुची, केंचुआयी
ढ़िबरी सी टिमटिमाती
छोटी आँखें, ऐनक के पार
पाती विशाल विस्तार, यूँ
ज्यों, उनके सपने साकार!
कफ और बलगम नतमस्तक!
अरमान तक घोंटने में माहिर
जेब की छेद में अँगुली नचाते
पकता मोतियाबिन्द, और पकाते,
सपनो के धुँधले होने तक
पाई-पाई का हिसाब
टीन की पेटी को देते
उखड़े हैन्डिल को फ़ँसा
मोटे ताले को लटका
चाभी जनेऊ को पहनाते
मिरजई का पेबन्द
और ताकती फटी गंजी
अँगौछे के ओहार में
यूँ ढ़क जाती जैसे दीवाली की रात
मन का मौन ,बिरहा की तान में.
कफ, ताला, बलगम, जेब, अँगोछा
पेटी, ,जनेऊ, चाभी, मोतियाबिन्द
मिरजई, बिरहे की तान- सब संजोते
बाबूजी आँखों में, रोशन अरमान
बच्चों के बनने का सपना!