ज़िन्दगी की कथा बांचते बाँचते, फिर! सो जाता हूँ। अकेले। भटकने को योनि दर योनि, अकेले। एकांत की तलाश में!
Sunday, 30 May 2021
नीड़
Wednesday, 26 May 2021
हँसा के पिया अब रुला न देना.
Monday, 17 May 2021
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२२
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२२
(भाग – २१ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (ध)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
५ - शहद के सबूत
ऋग्वेद में शहद का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। हर भाषा में इसके सजातीय शब्द हैं। इससे यही झलकता है कि प्रोटो भारोपीय संस्कृति में शहद का केंद्रीय स्थान था, चाहे इस संस्कृति की मूल भूमि जो भी हो। अनेक विद्वानों का यही मत है कि मधुमक्खी-पालन और शहद का उत्पादन मिस्त्र (इजिप्ट) और भू-मध्यसागरीय क्षेत्र में फला-फूला और सुदूर पूरब ईरान तक फैल गया। इसलिए प्रोटो-भारोपीय संस्कृति का जो वितान बुना गया उसमें शहद का स्थान बहुत महत्वपूर्ण दिखाया गया और यहीं बताया गया कि इन मधुमक्खियों के प्रदेश में ही भारीपीय लोगों का या तो मूल निवास था या फिर प्राक-ऐतिहासिक काल में वे इन प्रदेशों से होकर गुज़रे थे। एक अन्य विद्वान हड्जु का हवाला देते हुए परपोला का कहना है कि ‘बहुत हाल तक एशिया माइनर, सीरिया, पर्सिया, अफ़ग़ानिस्तान, तिब्बत और चीन को छोड़कर एशिया में मधुमक्खियों की कोई जानता भी नहीं था। दूसरी तरफ़ पूर्वी यूरोप में यूराल पर्वत के पश्चिम में मधुमक्खियाँ पायी जाती थी (परपोला २००५:११२)।‘ वह आगे जोड़ते हैं कि “‘एपीस मेल्लिफेरा’ का मूल क्षेत्र अफ़्रीका, अरब और उसके समीप पूरब में ईरान तक, यूरोप में यूराल पर्वत के पूरब तक, दक्षिणी स्वीडन और उत्तर में एस्टोनिया तक फैला था। उत्तर में यह अर्क्टिक के शीत प्रदेश की शीतलहरी और पूरब में मरुभूमि और पहाड़ों के अवरोध के कारण थम जाता था। इसके प्रसार की दूसरी अवरोधक कारक थे - यूराल तक फैले शीत और समशीतोष्ण प्रदेशों के कँटीले जंगल और फिर साइबेरिया में उनका नहीं उगना। १६०० इस्वी तक ‘एपीस मेल्लिफोरा’ इसी क्षेत्र तक सीमित थे जहाँ से उनका अन्य जगहों के लिए उत्प्रवासन प्रारम्भ हुआ (परपोला २००५:११२)।“
उसी ढर्रे पर ग़मक्रेलिज का भी कहना है कि, “भारोपीय देशों में मधुमक्खी पालन के बूते मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले विकसित देशों में मधु के लिए प्रयुक्त ‘हनी’ शब्द और प्राचीन प्रोटो भारोपीय धर्मों में शहद के महत्व के आलोक में इस बात में कोई दुविधा नहीं कि मधुमक्खी पालन और मधुमक्खी के लिए ‘बी’ शब्द भी पूरी आर से प्रोटो भारोपीय व्युत्पति के ही हैं (ग़मक्रेलिज १९९५:५१६-५१७)।“ वह इसे खिंचकर भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों तक ले जाते हैं – “ यह भू-मध्यसागरीय क्षेत्र ही था जहाँ मधुमक्खी पालन की प्रविधि ने अपने प्राथमिक अवस्था से निकलकर उन्नत स्वरूप को प्राप्त करने की दिशा में पहला क़दम उठाया। यहाँ हम विकास की दूसरी अवस्था पाते हैं जहाँ जंगलों में मधुमक्खी पालन की तकनीक इजाद की गयी।जंगल के पेड़ों में और उनके मोटे तनों में खोखले कोटर बनाकर उसमें मधुमक्खियों को पाला जाता था। फिर हम तीसरी अवस्था भी पाते हैं जब घरेलू मोर्चे पर कृषि कार्य परम्परा का सूत्रपात होता है और घरों में या घरों के पास ही बनाए कोटरों और घोसलों में मधुमक्खियों को पालने की तकनीक और परम्परा का उन्मेष हुआ (ग़मक्रेलिज १९९५:५२२)। और अंत में वह हमें ‘हनी’ शब्द के बारे में सूचित करते हैं कि “ भारोपीय जनजातियाँ पूरब की ओर अपने बढ़ने के क्रम में शहद और मधुमक्खी पालन के साथ-साथ ‘हनी’ शब्द भी लेकर पूर्वी एशिया में घुसीं (गमक्रेलिज १९९५:५२४)।“
अब आइए ऊपर लिखी गयी बातों के बारे में हम सही सबूतों और तर्कसंगत बातों का वलोकन करें :
१ – विकिपीडिया हमें ‘हनी- बी’ (मधुमक्खी) के बारे में बताता है कि “मधुमक्खियों की उत्पति का स्थान फ़िलिपींस समेत दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया प्रतीत होता है। एपीस मेल्लिफेरा को छोड़कर बाक़ी वजूद वाली मधुमक्खियों का यह क्षेत्र ही गृह-प्रदेश प्रतीत होता है। सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि मधुमक्खियों की प्राचीनतम प्रजाति जिससे अन्य प्रजातियाँ निकली उसके जीवित अवशेष (‘एपीस फ्लोरी’ और ‘एपीस एड्रेनिफोरमिस’) के उद्भव का भी स्थान यहीं है।“
इन साक्ष्यों की पड़ताल करने वाले विद्वानों ने पश्चिमी मधुमक्खी, एपीस मेल्लिफेरा, के भौगोलिक परास (सीमा), मधुमक्खी-पालन की प्राथमिक अवस्था से उन्नत अवस्था तक उनके क्रमगत विकास, इस तकनीक में मिस्त्र तरथ भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों में रहने वाली मधुमक्खियों के योगदान और प्रोटो भारोपीय शाखाओं में शहद के विशद महत्व की पूरी विवेचना की है और इसके आधार पर यही निष्कर्ष निकाला है कि प्रोटो भारोपीय जनजातियों की भिन्न-भिन्न शाखायें इन्हीं उन्नत अवस्थाओं को भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों से एंकर अपनी मूल भूमि में गयीं। तथापि, :
क – इस बात का कोई भी सबूत नहीं है कि प्रोटो भारोपीय या वैदिक संस्कृति में अपना ख़ास स्थान रखने वाला शहद ‘एपीस मेल्लिफोरा’ प्रजाति की ही मधुमक्खी से प्राप्त शहद था। भू-मध्यसागरीय मधुमक्खी-पालन के सम्पूर्ण इतिहास को उकटने के बाद परपोला बड़ी साफ़गोई से कहते हैं कि “खोडरों और कोटरों में घोंसला बनाकर रहनेवाली मधुमक्खी की प्रजाति ‘एपीस सेराना’ पूर्वी एशिया, दक्षिणी पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, चीन, कोरिया और जापान की मूल निवासी है (परपोला २००५:१२३)। “आकार में सबसे बड़ी मधुमक्खी की प्रजाति ‘एपीस डोर्सटा’ भारत और उससे भी पूरब में पायी जाती है।
ख – ये पूर्वी मधुमक्खियाँ अत्यंत पुरातन काल से ही भारत में मधु संग्रह का स्त्रोत रही हैं। शहद का इकट्ठा किया जाना समूचे भारत और इसके सुदूर आदिवासी और दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भी अति प्राचीन परम्परा रही है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका और पंचमढ़ी में पाए गए ८०००-६००० ईसा पूर्व प्राचीन पाषाणयुगीन प्रस्तर-चित्रकला (रॉक-पेंटिंग) सारी बात बोल देते हैं, “पंचमढ़ी की तीन चित्रकलाओं और भीमबेटका की एक कलाकृति में मधु का संग्रह करते दिखाया गया है।जंबूद्वीप आश्रय की एक पेंटिंग में एक पुरुष को मधु निकालते तथा एक स्त्री को शहद पात्र लेके उसके समीप जाते दिखाया गया है। दोनों सीढ़ियों पर खड़े हैं। इमलिखो आश्रय की एक अन्य पेंटिंग में महिला मधुमक्खियों को उड़ा रही है। सोनभद्र आश्रय की तीसरी पेंटिंग में मधुमक्खियों से घिरे दो पुरुष लकड़ी कसे बने ढाँचों पर खड़े हैं। भीम बेटका की पेंटिंग में एक पुरुष मधुमक्खियों के छाते को एक गोल माथे वाले छड़ी से छेद रहा है। उसकी पीठ पर एक टोकरी है और वह एक रस्सी के सहारे लटका हुआ प्रतीत होता है। उसके नीचे तीन लोग खड़े हैं।उसमें से एक दूसरे के कंधे पर चढ़ा हुआ है (मथपाल १९८५:१८२)।“ ये प्रस्तर-चित्रकलाकृतियाँ सारे एशिया में शहद बटोरने की कला दर्शाने वाली प्राचीनतम कलाकृति है। इसकी तुलना स्पेन और औस्ट्रेलिया की बस कुछ वैसी ही समकालीन कला कृतियों से की जा सकती है।
२ – सच कहा जाए तो उपलब्ध भाषाई साक्ष्य प्रोटो-भारीपीय शहद संस्कृति और मिस्त्र तथा भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों में पनपे घरेलू मधुमक्खी पालन के बीच किसी भी तरह के ताल-मेल को पूरी तरह से नकारते हैं। हालाँकि कुछ खास ऐतिहासिक भारीपीय शाखाओं की शहद संस्कृति भी प्रोटो-भारोपीय शहद संस्कृति से बिलकुल हटकर है जिसपर हम आगे प्रकाश डालेंगे।
क – जहाँ शहद (हनी) के लिए प्रोटो भारोपीय संसार में एक ही तरह के शब्द हैं, वहीं मधुमक्खी, मधुमक्खी के छत्ते, मोम और मधुमक्खी पालन के लिए शब्दों में कोई साझेदारी नहीं है और ऐसी संस्कृति में जहाँ मधुमक्खी पालन या उससे शहद निकालने की प्राविधि का क्रमिक विकास हुआ हो, ऐसी स्थिति की कल्पना कतई नहीं की जा सकती है। कमोवेश ऐसी ही स्थिति ऋग्वेद से भी प्राप्त सबूतों के साथ है जबकि यह भारोपीय भाषाई ग्रंथों में सबसे पुराना उपलब्ध दस्तावेज़ है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों से ही शहद के लिए ‘मधु-‘ और ‘सारघ-‘ शब्द चले आ रहे हैं। पुराने मंडलों से बहुत बाद में नए मंडल रचित हुए और जहाँ तक पश्चिमी एशिया में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में मित्ती और हित्ती भारतीय-आर्यों का प्रश्न है तो उनका भी नए मंडलों की संस्कृति से सैकड़ों वर्ष बाद उदय हुआ। ऋग्वेद में भी मधुमक्खियों के संदर्भ बहुत थोड़े ही ‘मक्ष’ और ‘मक्षिका’ के रूप में आए हैं। मधुमक्खी के छत्तों या मोम जैसी किसी भी वस्तु का कोई वृतांत नहीं मिलता जो इस बात का कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सके कि मधुमक्खी पालन की कोई उन्नत प्राविधि उस समय अस्तित्व में हो।
ख – शहद के लिए प्रोटो-भारोपीय शाखाओं के भाषायी सबूत तो और खलबली पैदा कर देते हैं। शहद के लिए सामान्य अपभ्रंश प्रोटो-भारोपीय शब्द ‘मधु-‘ है। यह दो स्पष्ट अर्थों में प्रयुक्त होता है। पहला अर्थ तो शहद ही है। दूसरा अर्थ पेय पदार्थ/शराब या कोई भी मादक मद्य पदार्थ है। इन दोनों अर्थों में यह शब्द भारतीय-आर्य, ईरानी, टोकारियन, स्लावी और बाल्टिक – इन पाँचों शाखाओं में पाया जाता है। यूनानी (ग्रीक), जर्मन और सेल्टिक, इन तीन शाखाओं में यह मात्र मादक पेय पदार्थ(सुरा)/शराब/अन्य पेय पदार्थों के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है। इन शाखाओं में नये शब्द ‘*मेलिथ-‘ ने ‘*मधु-‘ का स्थान ले लिया है जिसका अर्थ शहद या मधु होता है। अन्य चार शाखाओं, हित्ती (अनाटोलियन), अर्मेनियायी, अल्बानी और इटालिक में ‘*मधु-‘ शब्द पूरी तरह लुप्त हो गए हैं किंतु यहाँ पर भी ‘*मेलिथ-“ शब्द का अभिप्राय केवल शहद ही है और पेय पदार्थ/सुरा/शराब के लिए अन्य नए शब्द हैं।
यह सबूत तो वाक़ई अचरज में डालने वाला है कि पुरानी शाखा टोकारियन, यूरोपीय शाखा स्लावी और बाल्टिक तथा सबसे अंतिम शाखा भारतीय-आर्य और ईरानी – इन सभी शाखाओं में मात्र *मधु-‘ शब्द है। दूसरी ओर पुरानी शाखा अनाटोलियन, यूरोपीय शाखा इटालिक और अंतिम शाखाएँ अर्मेनियायी और अल्बानी – इन शाखाओं में केवल *मेलिथ-‘ शब्द है। संक्षेप में, समरूप रूप भाषायी लक्षणों को दर्शाती यह समवाक रेखा भारोपीय शाखाओं के भिन-भिन्न कालानुक्रमी समूहों का आलिंगन करती दिखायी देती है। तो फिर वे साझे तत्व कौन-से हैं?
जवाब बड़ा सरल है। यह पूरब और और पश्चिम का विभाजन है :
१ – तीनों समूहों (प्राचीन, यूरोपीय और अंतिम) में वे पाँच शाखायें जो ज़्यादा पूर्वी हैं, टोकारियन, स्लावी, बाल्टिक, भारतीय-आर्य और ईरानी, इन्होंने मूल शब्द ‘*मधु-‘ को संजोये रखा किंतु ‘*मेलिथ-‘ को नहीं अपनाया।
२ – तीनों समूहों की बाक़ी सात शाखाओं, जो ज़्यादा पश्चिमी हैं, ने नए शब्द ‘*मेलिथ-‘ को ग्रहण कर लिया। इन सात में से पाँच शाखाएँ मिस्त्र और भू-मध्यसागरीय क्षेत्र से सटे हुए हैं। इन पाँच में से चार, अनाटोलियन, अर्मेनियायी, अल्बानी और इटालिक, से मूल शब्द, *मधु-‘ बिलकुल ग़ायब है। बाक़ी एक प्राचीन यूनानी (ग्रीक) ने ‘*मधु-‘ शब्द को पेय/शराब/सुरा के रूप में संजो लिया किंतु शहद के लिए इसने इस शब्द ‘*मधु-‘ के बदले ‘*मेलिथ-‘ शब्द को अपना लिया। इसका कारण मिस्त्र और भू-मध्यसागरीय क्षेत्र में पनपे मधुमक्खी पालन की संस्कृति का गहन प्रभाव है।
३ – ठीक ऊपर वाली बात ही बाक़ी बची दो पश्चिमी शाखाओं, जर्मन और सेल्टिक, के साथ भी है। ये दोनों शाखाएँ मिस्त्र-भूमध्यसागर-क्षेत्र के अत्यंत निकट रहने के कारण उनके असर से बच नहीं पायी और इन्होंने भी पेय/शराब/सुरा के लिए ‘*मधु-‘ शब्द को तथा शहद के लिए ‘*मेलिथ-‘ शब्द को अपना लिया।
४ – उसी तरह सभी पाँचों यूरोपीय शाखाओं (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी) ने मिस्त्र से ‘बी’ या उसका अपभ्रंश ‘भी’ ले लिया। थोड़ा दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ने पर ग्रीक, अर्मेनियायी और अल्बानी शाखाओं ने ‘*मेलिथ-‘ (शहद) से ही मधुमक्खी के लिए भी शब्द ले लिया। मधुमक्खी के लिए हित्ती शब्द ज्ञात नहीं हैं। ग्रंथों में सुमेरि लिपि के चिह्न मिलते हैं। इससे अन्दाज़ मात्र लगाया जाता है कि हित्ती शब्द भी कुछ वैसे ही होंगे। इससे यह बात साफ़ हो जाती है कि भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन यही मात्र तीन शाखाएँ हैं जो मधुमक्खी के लिए अपने शब्द मिस्त्र से या ‘*मेलिथ-“ से किंचित नहीं लेती।
[टिप्पणी (१) – संयोग से, फ़िन्नो-युग्रिक भाषा में भारतीय-ईरानी शब्दों की तर्ज़ पर विद्वानों ने कुछ कुतर्क भी प्रस्तुत किए हैं। गमक्रेलिज का कहना है कि प्रोटो-भारोपीय शब्द ‘*मधु-‘ यहूदी शब्द ‘*म्वतक-‘ अर्थात ‘मीठा’ से निकला है। मधुमक्खी के शहद के लिए घरेलू भारोपीय शब्द ‘*मेलिथ-‘ से हटकर किसी भी मीठे मादक पेय के लिए भारीपीय शाखाओं में यहूदी से निकले शब्द ‘*मधु-‘ का प्रचलन होने लगा (गमक्रेलिज १९९५:७७१)। जैसा कि हमने देखा है कि –
१ – यहूदियों से अनुदान के रूप में लिए गए जिस शब्द का वह दावा करते हैं वह ‘ मादक पेय’ और ‘शहद’ दोनों अर्थों में इन पाँच शाखाओं, भारतीय-आर्य, ईरानी, टोकारियन, बाल्टिक और स्लावी में पाया जाता है। इन क्षेत्रों का ऐतिहासिक पर्यावास यहूदी प्रभाव से पूरी तरह अछूता था। दूसरी ओर पूर्ण यहूदी प्रभाव में वे जो पाँच शाखाएँ, इटालिक, अल्बानी, ग्रीक (यूनानी), अर्मेनियायी और हित्ती, थीं, उनमें से चार में यह ‘यहूदी अनुदान’ बिलकुल नदारद है। केवल एक ग्रीक शाखा में यह ‘मादक पेय’ के रूप में पाया जाता है। साथ ही जिस शब्द को वह ‘घरेलू भारोपीय’ कहते हैं, वह भी न केवल यहूदी क्षेत्र के प्रभाव के पार वाली पाँच शाखाओं के पहले समूह से ग़ायब हैं, बल्कि मात्र उन सात शाखाओं में ही पायी जाती हैं जो पूरी तरह से यहूदी प्रभाव क्षेत्र में थीं!
२ – इस मानव जीवन में शहद और मधुमक्खियों के इतिहास के बारे में थोड़े और विस्तार में यदि हम चर्चा करें तो पाएँगे कि सभ्यता के उषा काल में शहद इकट्ठा करने के पीछे शहद पाने के साथ-साथ उस नशीले और मादक पेय द्रव के पान का सुख भोगने का भी सामान उद्देश्य था जिसे शहद से ही तैयार किया जाता था। बाद में मधुमक्खी पालन के घरेलू तकनीक विकसित हो जाने पर शहद का व्यापारिक महत्व बढ़ गया और इससे बना सुरा गौण हो गया। मधुमक्खी पालन के यहूदी क्षेत्र के प्रभाव से अछूते और सुदूर इलाक़ों में बोली जाने वाली पाँचों यूरोपीय शाखाओं में ‘सुरा’ और ‘शहद’ दोनों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द ‘*मधु-‘ वस्तुतः स्थानीय और घरेलू भारोपीय शब्द ही था। ‘* मेलिथ-‘ शब्द उन अर्थों में सिर्फ़ ‘शहद’ का अर्थ लिए मधुमक्खी पालन के यहूदी प्रभाव क्षेत्र के सात भारोपीय शाखाओं में ही पाया जाता है। इन सात में भी चार वैसी शाखाओं में जो क़रीब-क़रीब या तो यहूदी क्षेत्र में ही हैं या फिर इससे सटे क्षेत्रों में, मादक पेय द्रव (सुरा) के लिए कोई सजातीय शब्द नहीं है। यह स्पष्ट रूप से ‘यहूदी अनुदान’ वाली बात को साबित करता है। अब जबकि ‘शहद और सुरा’ पुराने अर्थ में एक साथ व्यक्त होते थे और नयी स्थिति में यहूदी प्रभाव में यह सिर्फ़ ‘शहद’ के अर्थ तक ही सीमित रह गया, इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि इरान के सबसे पश्चिमी किनारे की ओस्सेटिक भाषा जो मधुमक्खी पालन के यहूदी क्षेत्र के प्रबल प्रभाव में थी उसने ‘*मधु-‘शब्द को तो ग्रहण कर लिया किंतु ‘*मेलिथ-‘ को छोड़ दिया। तथापि, “’*मधु-‘ शब्द की ओस्सेटिक झलक उसके शहद अर्थ वाले शब्द ‘म्यद’ में मिलती है (गमक्रेलिज १९९५:५२०)।]
[टिप्पणी २ – प्रोटो-भारोपीय शब्द ‘*मधु-‘ ऐतिहासिक रूप से टोकारियन भाषा के रास्ते चीनी भाषा में भी आ गया और ठीक उसी तरह भारतीय-आर्य अप्रवासियों के रास्ते यह फ़िन्नो-युग्रिक भाषा में प्रवेश कर गया।]
पश्चिमी शाखाओं का ही इस मिस्त्र-भूमध्यासागरीय-पश्चिमी एशियायी क्षेत्र की मधुमक्खी पालन संस्कृति से प्रभावित होना भारोपीय अप्रवासन के संबंध में इस एक मौलिक बात की पुष्टि करता है कि अप्रवासन की दिशा पूरब से पश्चिम की ओर रही। इसलिए मध्य एशिया (पश्चिमी एशिया-अनाटोलिया-कौकेसियन) क्षेत्र और भाषाओं (यहूदी और कौकेसियन) के शब्द पश्चिमी शाखाओं में तो पाए जाते हैं किंतु इस क्षेत्र से ठीक पूरब की शाखाओं में नहीं पाए जाते हैं। कहने का मतलब है की इन मध्य देशांतरो को पार कर पूरब से जो लोग पश्चिम की ओर बढ़े वे इन शब्दों को भी अपने साथ लेकर बढ़ते चले और जो अप्रवासन की इस प्रक्रिया से अछूते रहकर पूरब में ही रह गए उन्होंने इन शब्दों का स्वाद ही नहीं चखा।
अब हम जल्दी से इस सिद्धांत की वैधता को जाँचने के लिए दो और महत्वपूर्ण दृष्टांतों पर अपनी दृष्टि दौड़ा लें।
Tuesday, 4 May 2021
समय की चाल
कभी नहीं होता कुछ जग में,
अकारण अकाल!
समय सदा से चलता आया,
अपनी अद्भुत चाल।
जब दिखता है जहाँ ये सूरज,
कहते हुआ है भोर।
होती हरदम पथ परिक्रमा,
कहीं ओर न छोर।
और ओझल होते ही इसके,
रजनी धरा पर छाती।
पूनम अमा की चक्र कला में,
अँधियारा फैलाती।
निहारिकाओं को निहार कर,
जब चंदा मुस्काता।
चंदन-सी चूती चाँदनी,
चट चकोर पी जाता।
फिर छाते ही नभ में मेघिल,
घटाटोप घनघोर।
कुंज वीथिका विहँसे मयूरी,
वन नाचे मन-मोर।
लट काली नागिन-सी बदरी,
पवन प्रचंड इठलाती।
प्रेम पिपासु प्यासी धरती,
पानी को अकुलाती।
विरह-व्यथा में विगलित बादल,
गरज-गरज कर रोता।
अविरल आँसू से अपनी,
आहत अवनि को धोता।
पीकर पिया के पीव-पीयूष,
धरती रानी हरियाती।
रेश-रेश और पोर-पोर में,
तरुणाई अँखुआती।
वसुधा के उर में फिरसे,
नव जीवन छा जाता।
कभी अकारण और अकाल,
नहीं काल यह आता।
Thursday, 29 April 2021
सजीव-निर्जीव
जिसका स्फुरण आपकी अनुभूतियों को उद्भूत करे, आपके विचारों को जगाए, आपकी इंद्रियों को उद्वेलित करे और आपकी संवेदना में सजीवता घोल जाए, मेरी दृष्टि में वही सजीव कारक है।अर्थात जो आपमें जीवन जगा दे वही जीवित है। अनुभूतियों का दायरा अत्यंत फैला हुआ है। यह भौतिक सत्ता से लेकर वैचारिक और भावनात्मक धरा को छूते हुए आध्यात्मिक बिंबों तक फैला हुआ है। मस्तिष्क की तंत्रिका से दृष्टिबोध का कितना तालमेल है, यह दृश्य की जीवंतता के परिमाण को इंगित करता है। सजीवता की अनुभूति में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनों समान रूप से शामिल हैं। ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता की अनुभूति की प्रखरता और तीव्रता पर निर्भर करता है। एक बार 'ज्ञेय' यदि 'ज्ञाता' की प्रखरता की पकड़ में आ गया, तो वह फिर 'ज्ञान' बन जाता है। मतलब ‘ज्ञान’ का ‘होना’ ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की क़ाबिलियत पर भी उतना ही निर्भर करता है जितना उसके स्वयं की सत्ता में होने के सच पर। यहाँ क़ाबिलियत का सीधा मतलब है कि ज्ञाता को अपनी अनुभूतियों में पकड़ने के क़ाबिल होना चाहिए और ज्ञेय में भी पकड़े जाने की उतनी ही क़ाबिलियत होनी चाहिए। दोनों में एक भी तंतु टूटा कि ज्ञान छूटा!
जब तक अति सूक्ष्म जीवाणु दृष्टि की पकड़ में न आए, भौतिक धरातल पर वह सत्ताहीन है। एक शक्तिशाली माइक्रस्कोप उसे सत्ता में ला देता है। अर्थात एक अक्षम ज्ञाता को माइक्रस्कोप सक्षम और क़ाबिल बना देता है। ज्ञाता के सक्षम बनते ही ज्ञेय की सत्ता सच हो जाती है और वह अब ज्ञान बन जाता है। अर्थात ‘होना’ या ‘न होना’ एक सापेक्षिक सत्य-मात्र है, ज्ञाता के लिए। सच कहें, तो ज्ञाता का उस जीवाणु का ज्ञान न होने से उस जीवाणु का अस्तित्व असत्य नहीं हो जाता! तो, भ्रम ज्ञाता में है, ज्ञेय में नहीं। ज्ञेय तो ज्ञान बनने के लिए व्याकुल है। उसे इंतज़ार है ज्ञाता के सजीव होने की।
बस आप मान कर चलें कि हमने सजीव और निर्जीव के विषय में जो अपने विचार बना लिए हैं न, वह भी हमारी अपनी सक्षमता या सजीवता की इन्हीं परतों में दबा है। हम किसी वस्तु की सजीवता के कितने सूक्ष्मातिसूक्ष्म लक्षणों को ग्रहण कर पाने में सक्षम या सजीव हैं – यही कसौटी है हमारे द्वारा उस वस्तु को सजीव घोषित किए जाने की ! निरपेक्ष रूप में तो वह जो है, वही है और जैसा है, वैसा ही है। अर्थात किसी वस्तु की सजीवता की अनुभूति सच में हमारी अपनी सजीवता का प्रतिभास है।
इसलिए हमारा मानना है कि इस चराचर जगत में कुछ भी निर्जीव नहीं है। सभी सजीव हैं। बस सब कुछ निर्भर करता है हमारी अपनी अनुभूति और संवेदना की सक्षमता पर, जिसे आप चेतना भी कह सकते हैं और उस संवेदना के स्तर पर कि ज्ञेय की सजीवता के कितने अंश को वह पकड़ पाता है। और यह ‘पकड़ना’, मैं फिर दुहराऊँगा, “भौतिक सत्ता से लेकर वैचारिक और भावनात्मक धरा का स्पर्श करती आध्यात्मिक बिंबों तक विस्तृत है।“ बीसों साल पहले परमधाम को प्रस्थित माँ आज भी स्मृतियों में सजीव हो उठती है और दुलारकर चली जाती है। क्लांत मन हरिहरा जाता है। आँखें ओदा जाती हैं। मन कुछ बुदबुदाने लगता है। इसे आप क्या कहेंगे – किसी सजीव सत्ता से ‘इंटरैक्शन’ या किसी सत्ताहीन निर्जीव का ‘इन्फ़ेक्शन’ या फिर हमारी किसी अज्ञात चेतन सत्ता से ‘इंटैंगलमेंट’!
Friday, 23 April 2021
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२१
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२१
(भाग – २० से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (द)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
४ - ‘सोम’ के सबूत
ऋग्वेद और ईरानियों के धर्म में ‘सोम’ का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान था। सोम का पौधा सम्भवतः एफिड्रा नामक जड़ी-बूटी का एक विशेष प्रजाति है जो मध्य एशिया में सुदूर पश्चिमोत्तर के पहाड़ी इलाक़ों में बहुतायत में पाया जाता है। पूरब में हिमालय में पायी जाने वाली इस पौधे की प्रजाति से पर्याप्त मात्रा में उतना बढ़िया रस नहीं निकलता था जिसकी चर्चा ऋग्वेद में हम पाते हैं। इसी आधार पर भारतविदों का यह विचार है कि जिस ढंग से ऋग्वेद के वैदिक कर्मकांडों और ईरानी धर्म में सोम रस की प्रमुखता है, उससे यहीं साबित होता है कि वैदिक आर्य भारत में पश्चिमोत्तर से ही अपने साथ सोम की परम्परा को लेकर घुसे थे।
लेकिन ऋग्वेद के कुछ महत्वपूर्ण साक्ष्यों से हम मुँह नहीं फेर सकते जो इस प्रकार हैं :
क – सोम के पौधे और इससे जुड़े अनुष्ठान पूरी तरह से बाहरी चलन थे जिसका श्री गणेश काफ़ी शुरुआती दिनों में वैदिक आर्यों और उनके पुजारियों के बीच भृगु ने किया था। भृगु ईरानी अणुओं के पूजारी थे जो उत्तर-पश्चिम के उस प्रदेश के निवासी थे जहाँ सोम की पैदावार बहुत ज़्यादा होती थी।
ख – ऋग्वेद के पुराने मंडलों की बात करें तो उनके लिए सोम एक अपरिचित नाम था क्योंकि इसका उत्पादन उन क्षेत्रों में होता था जो वैदिक आर्यों की भूमि से काफ़ी दूर था। जब वे कालांतर में पश्चिम की ओर बढ़े तभी उनका परिचय इस ‘सोम’ नामक पौधे से हुआ।
ग – यह भी कहा जा सकता है कि सोम का ज्ञान होने पर इसकी खोज और प्राप्ति भी वह एक उत्प्रेरक तत्व था जिसके कारण वैदिक-आर्य तेज़ी से उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने लगे और धीरे-धीरे काल-क्रम की जुड़ती कड़ियों में भारोपीय फैलाव और बिखराव की प्रक्रिया ने गति पकड़ ली।
१ - वैदिक आर्य, भरत, के प्रमुख पुरोहित अंगिरा, वशिष्ठ और विश्वामित्र थे। इन पुजारियों का सोम के प्रयोग से कोई मतलब नहीं था। सोम के प्रयोग से जुड़े रहनेवाले पुरोहितों में मुख्य रूप से कश्यप और भृगु ही थे जो सीधे तौर पर उत्तर-पश्चिम और कश्मीर के क्षेत्रों में रहने वाली अणु जनजाति के पूजारी थे। कश्यपों का तो सोम से बहुत गहरा लगाव देखने को मिलता है। उनके द्वारा रचित सूक्तों में सत्तर प्रतिशत से भी ज़्यादा सूक्त ‘सोम-पवमान’ को ही समर्पित हैं। कश्यप कुल रचित ‘अप्रि-सूक्त’ सोम को ही समर्पित है जबकि बाक़ी के नौ ‘अप्रि-सूक्त’ अग्नि को समर्पित हैं। न केवल ये कश्यप सिर्फ़ सोम की ही पूजा करते थे बल्कि साथ-साथ यह भी तथ्य है कि इनका पदार्पण ऋग्वेद में बहुत बाद में होता है। वैदिक आर्यों के सोम की पैदावार वाली भूमि में पहुँच जाने के बाद से ही कश्यप ज़्यादा सक्रिय दिखायी देने लगते हैं।
भृगुओं के बारे में भी हम बार-बार यह दुहरा चुके हैं कि जमदग्नि और उनकी संततियों की एक शाखा को यदि छोड़ दिया जाय तो वैदिक आर्यों की भूमि से उत्तर और उत्तर-पश्चिम में बसने वाले आद्य ईरानियों के पूजारी भृगु ही थे। भृगुओं की सोम से पहचान काफ़ी पुरानी और बहुत अंदर तक की है। यह पूरी तरह से साफ़ है कि न केवल सोम के चलन का अविष्कार भृगुओं ने किया, प्रत्युत वैदिक परम्पराओं और वैदिक,उज़ारियों में उसका बीजारोपण भी उन्हीं ने किया :
क – ऋग्वेद में हज़ारों बार आने वाले शब्द ‘सोम’ के बस एक ही रचनाकार दिखायी देते हैं। वह ‘सोमाहुति भार्गव’ ऋषि हैं।
ख – नौवें मंडल के ‘पवमान मंडल’ में सैकड़ों बार आने वाले शब्द ‘पवमान’ इस नौवें मंडल से बाहर बस एक जगह दिखायी देता है। वह है आठवें मंडल के १०१वें सूक्त की १४वीं ऋचा और इसके रचयिता हैं – ‘जमदग्नि भार्गव’।
ग – ऋग्वेद और अवेस्ता से मिले सबूत इस बात पर एक मत हैं कि सोम के प्रचलन की शुरुआत करने वाले ऋषि भृगु ही हैं। मकडॉनेल का विचार है कि “यहाँ तक कि ऋग्वेद और अवेस्ता भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि सोमरस तैयार करने वाले सबसे प्राचीन पुरुष एक तरफ़ विवस्वत और त्रित अप्त्य हैं तो दूसरी ओर विवनहंत, अथव्य और त्रित हैं (मकडॉनेल १८९७ : ११४)।“ अवेस्ता के मुताबिक़ सोम को बनाने वाले पहले पुरुष ‘विवनहंत (विवस्वत)’, दूसरे ‘आप्त्य’ और तीसरे ‘त्रित’ हैं। ऋग्वेद के अनुसार विवस्वत ‘मनु’ और ‘यम’ के पिता हैं। अवेस्ता में भी विवनहंत ‘यिमा’ के पिता हैं। विवस्वत और यम वैवस्वत, दोनों, की पहचान ऋग्वेद में ‘भृगु’ के रूप में है [भृगु कुल के ऋषियों का संदर्भ तलगेरी २०००:३१-३२]। आठवें मंडल के २९वें सूक्त की अनुक्रमणिका में ‘मनु वैवस्वत’ की पहचान कश्यप ऋषि के रूप में की गयी है। यद्यपि त्रित आप्त्य की ऋग्वेद में कोई स्पष्ट पहचान नहीं है, तथापि दूसरे मंडल के ११वें सूक्त से लेकर १९वें सूक्त तक घृष्टमदष (केवल भृगु) यह कहते सुने जाते हैं कि ‘त्रित आप्त्य’ ‘हमारे कुल’ के हैं (ग्रिफ़िथ का अनुवाद)।
घ – नौवें मंडल में सोम को समर्पित तक़रीबन सारी रचनाएँ ऋग्वेद की रचना के मध्य और अंतिम काल की हैं। हालाँकि सप्तर्षि सूक्त में पुराने रचनाकारों के काल्पनिक नाम से कुछ बाद में भी जोड़ दी गयी रचनाएँ भी हैं। भृगु के नाम से भी जोड़े गए १२ सूक्त हैं, जो बहुत सम्भव है कि उनकी संततियों के द्वारा भी रचित या पुनः सम्पादित हों। फिर भी, इन सूक्तों को जिन भृगुओं के नाम से जोड़ा गया है वे पुरातन और पुरखे भृगु हैं जो ऋग्वेद के काल से भी पहले के थे और यहाँ तक कि ऋग्वेद के पुराने मंडलों में भी वे पौराणिक पुरुषों के रूप में चित्रित होते हैं – ‘वेण भार्गव’ (नौवें मंडल के ८५वें सूक्त), ‘उषण काव्य’ (नौवें मंडल के ८७-८९वें सूक्त), और ‘कवि भार्गव’ (नौवें मंडल के ४७-४९वें सूक्त तथा ७५-७९वें सूक्त)। इसलिए यह साफ़-साफ़ लगता है कि सबसे पुराने सोम सूक्त भृगु के द्वारा ही लिखे गए थे।
ङ – ऋग्वेद से ऐसा पूरा संकेत मिलता है कि वैदिक आर्यों और फिर उनके पुरोहितों तथा देवताओं को सोम पिलाने वाले भृगु ही थे। कम से कम ऋग्वेद के ऐसे तीन संदर्भों {१/(११६/१२, ११७/२२ और ११९/९)} से यह बात खुलकर सामने आती है कि सोम की उत्पति का स्थान पहले गोपनीय था। इस रहस्य को ‘दध्यांक’ ने अश्विन के सामने खोला था। बताते चलें कि दध्यांक ऋग्वेद के एक पौराणिक चरित्र और अति प्राचीन भृगु ऋषि थे जो यहाँ तक कि कवि भार्गव और उषण काव्य से भी बहुत पहले के थे। दध्यांक अथर्वन के पुत्र और उस आदि भृगु के पोते थे जो अपने भृगु कुल के नामकरण का स्त्रोत थे अर्थात उन्हीं के नाम पर उनकी कुल परम्परा का नाम भृगु पड़ा था।
च – यहाँ तक कि वह गरुड़ पक्षी जो सोम लेकर आर्यों के बीच उतरा था, सांकेतिक अर्थों में भृगु को ही इंगित करता है। मकडॉनेल ( १८९७:११२) का मानना है कि “गरुड़ पक्षी का मतलब अग्नि वैद्युत या आसमान से गिरने वाली बिजली (दामिनी) से है।“ ठीक वैसे ही, बेरगैगने का सोचना है कि ‘इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि भृगु वास्तव में अग्नि का ही नाम था’ और इसमें आगे कून और बर्थ अपनी सहमति के स्वर जोड़ते हैं, ‘अग्नि का जो यह रूप है वह आकाश से गिरने वाली बिजली का ही है।‘ (मकडॉनेल १८९७:१४० और साथ में ४/७/४ में ग्रिफ़िथ की पाद टिप्पणी)
२ – सोम दूरस्थ इलाक़ों में उपजता था। इतनी दूर कि बार-बार उस जगह की उपमा स्वर्ग से दी गयी है।[४/{२६/६, २७/(३, ४)}, ८/१००/८, ९/(६३/२७, ६६/३०, ७७/२, ८६/२४ आदि):
अ – एक ही ख़ास बात बतायी गयी है वह सोम के पहाड़ों पर उपजने की बात है {१/९३/६, ३/४८/२, ५/(४३/४, ८५//२), ९/(१८/१, ६२/४, ८५/१०, ९५/४, ९८/९ आदि)}। कुल-मंडलों (२-७) में सोम के बारे में इससे ज़्यादा कोई और विशेष बात का कहीं उल्लेख नहीं है।
आ – सोम का क्षेत्र वैदिक भूमि में न तो कहीं था और न ही किसी ऐसे वैदिक क्षेत्र की ओर ऋग्वेद में लेश मात्र भी संकेत है। हाँ यह बात बार-बार दुहरायी गयी है कि ‘दूरस्थ क्षेत्रों में पाया जाने वाला सोम’ ({४/२६/६, ९/६८/६, १०/(११/४, १४४/४)}! इस क्षेत्र को ‘त्वष्ट्र की भूमि’ (४/१८/३) के नाम से जाना जाता है। ‘तवस्त्र’ के बारे में भी विद्वानों का यही कहना है कि ‘वैदिक पंथ की अवधारणाओं में सबसे धूमिल और अस्पष्ट पक्ष ‘त्वष्ट्र’ का है। इस अस्पष्टता की विवेचना हिलब्रांट ने इन शब्दों में की है कि ‘वैदिक जनजातियों की बसावट की सीमा के बाहर एक काल्पनिक और पौराणिक वृत्तिय क्षेत्र है जहाँ त्वष्ट्र पाया जाता है (मकडॉनेल १८९७:११७)।‘
इ – पौराणिक तौर पर वैदिक लोगों और उनके देवताओं को सोम कहीं बहुत दूर स्थित अपनी उत्पति स्थान से गरुड़ पक्षी के द्वारा लाये जाने की अनेकानेक चर्चाएँ हैं:
पहला मंडल – ८०/२, ९३/६
तीसरा मंडल – ४३/७
चौथा मंडल – १८/१३, २६/(४-७), २७/(३, ४)
पाँचवाँ मंडल – ४५/९
छठा मंडल – २०/६
आठवाँ मंडल – ८२/९, १००/८
नौवाँ मंडल – ६८/६, ७७/२, ८६/२४, ८७/६
दसवाँ मंडल – ११/४, ९९/८, १४४/(४, ५)
सोम के पाए जाने का यह स्थान वैदिक लोगों की जानकारी के परे था। गरुड़ पक्षी भी इस सोम को चुरा कर वहाँ के लोगों की आँख से अपने को बचाकर शीघ्रता से वहाँ से प्रस्थान कर जाता था (४/२६/५)। ऐसा भी उल्लेख (४/२७/३) मिलता है कि सोम चुराकर उड़ते गरुड़ पक्षी पर वहाँ के लोग आक्रमण तक कर देते थे।
‘त्वष्ट्र’ ही सोम का संरक्षक या सरपरस्त था और सोम को ‘त्वष्ट्र का सुरा’ कहते थे (मकडॉनेल १८९७:११६)। इस सोम को पाने के लिए इंद्र के द्वारा त्वष्ट्र को जीत लेने का भी वृतांत है।
१/४३/८ की अपनी पाद टिप्पणी में ग्रिफ़िथ ‘उन लोगों का ज़िक्र करते हैं जो अपनी भूमि से सोम ले जाए जाने का विरोध करते हैं।‘
ई – सामान्य तौर पर कुल-मंडल सोम के पैदावार की भूमि के बारे में अनभिज्ञ-से ही प्रतीत होते हैं। जो थोड़ी भी जानकारी अ-कुल नए मंडलों में है वह इस प्रकार है – आठवें मंडल के ६४/११ में सोम के पैदावार की प्रमुख भूमि के रुप में ‘सुसोम’ (सोहन) और ‘अर्जीकिय’ (हारो) नदियों के आस-पास का क्षेत्र वर्णित है। ये सिंधु की पूर्वोत्तरी सहायक नदियाँ हैं जो पंजाब के ठीक ऊपर और कश्मीर के उत्तर-पश्चिम में बहती हैं। इन दोनों नदियों के क्षेत्र में ही अवस्थित ‘सर्यणावन’ झील भी निकट में ही स्थित है। ८/७/२९ में सुसोम और अर्जीकिय पूलिंग रूप में आते हैं जो इस नाम के पहाड़ों को प्रदर्शित करते हैं और इन पहाड़ों से निकली इसी नाम की नदियाँ स्त्रीलिंग रूप में वर्णित हैं। १०/३५/२ में सर्यणावन का नाम फिर से उन पहाड़ों के लिए आता है जिनसे घिरा इन पहाड़ी क्षेत्रों में इसी नाम का झील अवस्थित है।
एक अन्य सूक्त १०/३४/१ में सबसे बढ़िया सोम के उपजाने का क्षेत्र मुजावत पर्वत दिखलाया गया है। अथर्ववेद (५-२२-५, ७, ८, १४) में अफगनिस्तान के पड़ोसी क्षेत्रों में बसने वाली मुजावत एक जनजाति है जिसका संबंध गंधारी से है। ऋग्वेद में गंधारी (उत्तरी अफगनिस्तान) का सोम से रिश्ता गंधर्वों को मिली विशेष भूमिका में परिलक्षित होता है।मकडॉनेल के शब्दों में, ‘ऋग्वेद के नौवें मंडल में सोम और गंधर्व के बीच के गहरे सम्बंध उजागर होते हैं। वे सोम की निगरानी करते हैं (९/८३/४)। स्वर्ग के गुंबद से सोम के सभी नमूनों पर उनकी सतर्क दृष्टि रहती है (९/८५/१२)। पर्जन्य और सूरज की बेटियों के साथ वे सोम को निरंतर अपनी आँखों में बसाए रखते हैं (९/११३/३)। उनके ही मुख से देवता सोम का पान करते हैं (अथर्ववेद ७/७३/३)। सोम को अगोरने के अति उत्साह ने उन्हें इंद्र का शत्रु बना दिया है। वायु के सहयोग से इंद्र उन पर आक्रमण कर देते हैं (८/६६/५) या कभी कभी इंद्र को इस आक्रमण के लिए उकसाया भी जाता है (८/१/११)।‘ (मकडॉनेल १८९७ : १३६-१३७)
ये सारे नाम अ-कुल और नए मंडलों (१, ८, ९ और १०) में ही मिलते हैं। तीसरे मंडल के संशोधित सूक्त में बस एक बार गंधर्वों का ज़िक्र आता है जिसका प्रक्षेप ऐतरेय ब्राह्मण (६/१८) में मिलता है :
तीसरा मंडल : ३८/६
पहला मंडल : २२/१४, ८४/१४, १२६/७, १६३/२
आठवाँ मंडल : १/११, ६/३९, ७/२९, ६४/११, ७७/५
नौवाँ मंडल : ६५/(२२, २३), ८३/४, ८५/१२, ११३/(१-३)
दसवाँ मंडल : १०/४, ११/२, ३४/१, ३५/२, ७५/५, ८५/(४०, ४१), १२३(४, ७), १३६/६, १३९/(४, ६), १७७/२
उ – भले ही वैदिक आर्य सुदूर पश्चिम में उपजने वाले सोम से परिचित थे और अणुओं के ज़रिए इसली ख़रीद भी कर लेते थे, लेकिन इसका प्रचलन मुख्य रूप से नए मंडलों की रचना के काल में ही जाकर हुआ। और इस काल में यह सोम इतना हावी हो गया कि एक पूरा का पूरा मंडल (९) ही इस पर रच दिया गया। आगे चलकर उत्तर-वैदिक काल में जैसे-जैसे भारतीय धर्म पूरब की ओर खिसकता गया सोम के अनुष्ठान कि परम्परा का महत्व शनै:-शनै: भारतीय धर्म में विलुप्त होता चला गया और उसपर पूरब के दर्शन का रंग चढ़ता गया। फिर भी अपनी मूल भूमि में सोम अभी भी जीवित रहा। ईरानी भाषा ( पारसी, पश्तो, बलूची और अधिकांश दारदी एवं नूरिस्तानी भाषाओं) में एफिड्रा के पौधे को होम कहा जाता है तथा नेपाल सहित हिमालयी क्षेत्रों में इसे सोमलता के नाम से जाना जाता है। पारसी धर्म में यह प्रचलन आज भी जारी है।
३ – यह सोम की तलाश ही थी जिसकी बदौलत वैदिक आर्य पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ते चले गए। सुदास के नेतृत्व में भरत राजाओं और विश्वामित्र के सतुद्री और विपाश नदियों को लाँघ जाने के साथ ही वैदिक आर्यों के पश्चिमोत्तर अभियान का श्री गणेश हुआ।उनके इस अभियान की दिशा और इसके उद्देश्य पर तीसरे मंडल के ३३वें सूक्त का पाँचवाँ मंत्र समुचित प्रकाश डालता है। ३/३३/५ में विश्वामित्र के नदियों के संबोधन का अनुवाद ग्रिफ़िथ ने यूँ किया है, ‘हमारे मैत्री-वचन की सुधा के पान हेतु थोड़ी सुस्ता लो, ठहरो, पवित्र सरिता! अपने बहाव को तनिक विराम दो!’ अपनी पाद टिप्पणी में वे इस अर्थ को और खोलते है, “यास्क और सायण सरीखे विद्वानों ने ‘मे वचसे सौम्याया ( हमारे मैत्री वचन की सुधा के पान हेतु) का अर्थ ‘सोम रस के लिए मेरी वाणी’’ किया है अर्थात मेरे इस उड़बोधन का अभिप्राय सोम की प्राप्ति हेतु तुम्हें पार करना है। नदियों के पार कर जाने के पश्चात ऐसा लगता है कि सुदास और भारत राजाओं के साम्राज्य-विस्तार की लिप्सा भी लहकने लगी। शीघ्र ही विश्वामित्र सुदास के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन कर लेते हैं। इसका चित्रण ३/५३/११ में मिलता है। “आगे बढ़ो कुशिक! सुदास के अश्वों के रास खोलो! पूरब, पश्चिम और उत्तर के सारे वैभव और ऐश्वर्य को जीत लो! हे नृप! अरियों का वध करो और विश्व की इस चिर-अभिलिषित भूमि (वर आ पृथिव्या:) का वरण करो!” (ग्रिफ़िथ)
कुछ विस्तार पूरब की ओर भी हुए (किकट ३/५३/१४) लेकिन मुख्य ज़ोर पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ही ओर था। इस कड़ी का पहला युद्ध परश्नि के तट पर दसराज्ञ-संग्राम था और अंतिम रण सरयू के पार मध्य अफगनिस्तान में था। परश्नि के युद्ध में तो भरत राजाओं का नेतृत्व सुदास के हाथों में ही था परंतु सरयू के समर तक आते-आते ऋग्वेद का मध्य काल आ गया था और नेतृत्व भी बहुत नीचे की पीढ़ी के भरत राजा सहदेव के हाथों में आ गया था। जैसा कि चौथे मंडल के १५वें सूक्त में ७ से लेकर १०वीं ऋचा तक सहदेव के पुरोहित वामदेव का संदर्भ यह उद्घाटित करता है कि इस युद्ध में सहदेव का पुत्र भी लड़ा था और संभवतः सोम बहुल क्षेत्रों को पिता सहदेव द्वारा आधिपत्य में ले लेने के कारण उसका नाम ‘सोम-का’ पड़ गया।
इस तरह ऋग्वेद के साक्ष्य यही प्रस्तुत करते हैं कि सोम के पौधे और अनुष्ठान दोनों को अणुओं के पुरोहित भृगु पश्चिमोत्तर पर्वतीय प्रांतों से लेकर वैदिक आर्यों के पास लाए थे और वैदिक आर्य बाद में नए मंडलों के रचे जाने के युग में अपने साम्राज्य विस्तार के क्रम में उन क्षेत्रों से परिचित हुए।
Thursday, 22 April 2021
अभिसार का आसव
महाकवि दिनकर की पुण्यतिथि पर उनकी काव्य कृति ' उर्वशी' के ' नर प्रेम, नारी प्रेम' अंश में व्यक्त मनोविज्ञान के प्रत्युत्तर में पुरुष मन का उद्गार क्षमा याचना सहित उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित।
पता नहीं कब तोड़ बाँध,
लहरें यौवन प्रचंड से।
ऊष्मा उर से उकस-उकस,
भड़केगी भुजबंध से।
आँखों में उसकी छलकेगा
अभिसार का आसव।
और प्रेम की कुञ्ज वीथी में,
कुजे कोकिल कलरव।
कादम्बरी के मधु मादक से,
नर्तन करे कब प्याली।
प्रेम के आतप से धिप-धिप,
हो रमणी रति-सी व्याली।
और विश्व के नस-नस में,
धधके पौरुष की ज्वाला।
अधराधर कर्षण-घर्षण में,
बहे मदिरा का नाला।
रम्य रमण रमणी का रण में,
आलिंगन अंतिम क्षण में।
उत्कर्ष के चरम चरण,
आरोहण अवरोहण में।
श्वासों का उत्थान-पतन,
बेलि-सी सिमटी! बाहुपाश।
वनिता तंद्रिल क्लान्त शिथिल,
विश्रांत विश्व गोधुल आकाश।
Tuesday, 13 April 2021
माँ, कुछ तुमसे कह न पाया!
अहर्निश आहुति बनकर,
जीवन की ज्वाला-सी जलकर,
खुद ही हव्य सामग्री बनकर,
स्वयं ही ऋचा स्वयं ही होता,
साम याज की तू उद्गाता।
यज्ञ धूम्र बन तुम छाई हो,
जल थल नभ की परछाई हो,
सुरभि बन साँसों में आई,
नयनों में निशि-दिन उतराई,
मेरी चिन्मय चेतना माई।
मंत्र मेरी माँ, महामृत्युंजय,
तेरे आशीर्वचन वे अक्षय,
पल पल लेती मेरी बलैया,
सहमे शनि, साढ़ेसाती-अढैया,
मैं ठुमकु माँ तेरी ठइयाँ।
नभ नक्षत्रो से उतारकर,
अपलक नयनों से निहारकर,
अंकालिंगन में कोमल तन,
कभी न भरता माँ तेरा मन,
किये निछावर तूने कण कण।
गूंजे कान में झूमर लोरी,
मुँह तोपती चूनर तोरी,
करूँ जतन जो चोरी चोरी,
फिर मैया तेरी बलजोरी,
बांध लें तेरे नेह की डोरी।
तू जाती थी, मैं रोता था,
जैसे शून्य में सब खोता था,
अब तू हव्य और मैं होता था,
बीज वेदना का बोता था,
मन को आँसू से धोता था।
सिसकी में सब कुछ कहता था,
तेरी ममता में बहता था,
मेरी बातें तुम सुनती थी,
लपट चिता की तुम बुनती थी,
और नियति मुझको गुनती थी।
हुई न बातें अबतक पूरी,
हे मेरे जीवन की धुरी,
रह रह कर बातें फूटती हैं,
फिर मथकर मन में घुटती है,
फिर भी आस नहीं टूटती है।
कहने की अब मेरी बारी,
मिलने की भी है तैयारी,
लुप्त हुई हो नहीं विलुप्त!
खुद को ये समझा न पाया,
माँ, कुछ तुमसे कह न पाया!
Thursday, 8 April 2021
सफर
प्राची के आँचल में नभ से,
उषा की पहली रश्मि आती।
पुलकित मचली विश्व-चेतना,
जीवन में उजियारी छाती।
मन के घट में, भोर प्रहर में,
जीवन-रंग बिखरता है।
जीव-जगत का जंगम जीवन,
मन अनंग निखरता है।
चहकी चिड़िया,कूजे कोकिल,
साँसों में बसंत मचलता है।
किरणों से ज्योतित जड़-चेतन,
भाव तरल- सा बहता है।
आसमान में इंद्रधनुष की,
चित्रकला-सी सजती है।
क्षितिज-छोर के उभय कोर से,
आलिंगन में लगती है।
प्रणय कला का यह अभिनय,
हर दिवस प्रहर भर चलता है।
प्रेमालाप के प्रखर ताप में,
डाह से सूरज जलता है।
फिर ईर्ष्या में धनका सूरज,
सरके सरपट अस्ताचल में।
दुग्ध-धवल-सी सुधा चांदनी,
उतरी विश्व के आंचल में।
आज अमावस और कल राका,
गति ग्रहण की आती है।
यही कला है समय चक्र की,
कालरात्रि दुहराती है।
जनम से अंतिम लक्ष्य बनी वह,
महाकाल की,रण भेरी।
हरदम हसरत में हंसती,
मनमीता है, वह मेरी।
एक वहीं जो,अभिसार की,
मदिरा हमें पिलाएगी।
आलिंगन में लेकर हमको,
शैय्या पर ले जाएगी।
अग्नि से नहलाकर हमको,
नए लोक में लाएगी।
शुरू सिफ्र से नया सफर फिर,
गीत गति का गायेगी।
Thursday, 1 April 2021
अहसास और निजता!
Sunday, 21 March 2021
रूपसी का भ्रमजाल!
नागिन-सी जुल्फों का जलवा,
चमके चाँद-सा चेहरा।
टँके नयन सितारों जैसे,
शुभ्र सुभग-सा सेहरा।
पंखुड़ी-सी होठों की लाली,
ग्रीवा ललित सुराही।
शाखों-सी बाहों की शोखी,
निरखे ठिठके राही।
अलमस्त कुलाँचे मारे,
हिरणी जैसी चाल।
शायर की मदमस्त मदिरा,
रूपसी का भ्रम जाल।
अक्षर आसव आप्लावित,
शब्द छंद मकरंद।
कलि कुसुम मन मालती,
मधु मिलिंद सुगंध।
पद पाजेब पखावज बाजे,
उझके अंग मृदंग।
कंचुकी कादम्बरी चुए,
भंगिमा भीगे भंग।
राजे वो ऋतुराज-सी,
अंग-अंग अनंग।
चारु-चंद्र-सी चपल-चमक,
देख दामिनी दंग।
माया की मूर्ति मृदिका की,
क्षणभंगुर श्रृंगार।
रूह रुखसत हो देह से,
जीव-जगत निस्सार।
Thursday, 18 March 2021
वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२०
(भाग – १९ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (थ)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
अन्य भारतीय जंतु
यह भी उतना ही ध्यान देने योग्य तथ्य है कि ऋग्वेद में वैसे ढेर सारे पूरी तरह से देशज भारतीय-आर्य नाम उन पशुओं या जंतुओं के हैं जो केवल पूर्वी भाग के तो नहीं कहे जा सकते, लेकिन हैं खाँटी भारतीय:
सिंह (शेर), शिम्शुमार (गांगेय डॉल्फ़िन), सालावृक (लकड़बग्घा)
समूचे ऋग्वेद में इनका विवरण मिलता है।
मंडल सूक्त/ऋचा
१ ६४/८, ९५/५, ११६/१८, १७४/३
३ २/११, ९/४, २६/५
४ १६/१४
५ ७४/४, ८३/३
७ १८/७
९ ८९/३, ९७/२८
१० २८/(४, १०), ६७/९, ७३/३, ९५/१५
कुछ ऐसे भी जानवरों के नाम हैं जो ऋग्वेद में जानवर के नाम के रूप में तो उपस्थित नहीं होते किंतु किसी ख़ास व्यक्ति के रूप में इन नामों का उल्लेख वहाँ अवश्य होता है। हालाँकि यजुर्वेद और अथर्ववेद में यही नाम जानवरों के नाम के रूप में प्रकट अवश्य होते हैं। जैसे – कश्यप (कछुआ), कपि (बंदर), व्याघ्र (बाघ), पृडाकु (चीता)।
ऐसे भारतीय-आर्य नाम वाले कुछ ऐसे अन्य भारतीय जानवर भी हैं जिनका ज़िक्र ऋग्वेद में तो कहीं नहीं आता, किंतु अथर्ववेद और यजुर्वेद में वे ज़रूर मिल जाते हैं। जैसे – शार्दुल (बाघ), खड़ग (गैंडा), अजगर (पाईथन), नाक्र (मगरमच्छ), कृकलास (गिरगिट), नकुल (नेवला), जाहक (काँटेदार जंगली चूहा), शाल्यक (साही), कूर्म (कछुआ), जतु (चमगादड़) आदि।
यहाँ पर ऋग्वेद में चर्चित सभी जंतुओं की सूची प्रस्तुत करना कोई उद्देश्य नहीं है। इन जंतुओं में वैसे कतिपय जानवरों के नाम मिलेंगे जो साझे रूप से भारत और यूरोप दोनों जगहों पर जाने जाते हैं। जैसे – भेड़िया, भालू, बनविलाव, लोमड़ी/ गीदड़, हिरण/बारहसिंगा, साँड़, गाय, खरहा, चमगादड़, चूहा, बत्तख़/हंस, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, खच्चर, साँप, मछली, अनेक प्रकार के पक्षी, कीड़े आदि। इनमें से कुछ जंतुओं के तो ऋग्वेद और अन्य संहिताओं में एक से अधिक नाम हैं। जैसे हिरण के लिए ‘रूरु’ ‘एणी’, ‘ऋष्य’, ‘हरिण’ आदि। यहाँ पर सामन्य तौर पर हम जानवरों के उन्हीं नामों पर अपनी मीमांसा करेंगे जिनकी प्रासंगिकता इन दो अवधारणाओं, ‘बाहर से आए आर्यों का आक्रमण’ और ‘आर्यों का अपनी मूलभूमि भारत से बाहर जाना’, पर छिड़े विवाद से है। इस विषय में नीचे दिए गए कुछ पक्षियों के भारतीय-आर्य नामों पर विचार करना प्रासंगिक होगा जिनके नाम अथर्ववेद और यजुर्वेद में तथा कहीं-कहीं ऋग्वेद में भी आते हैं :
चक्रवाक (ब्रह्मिनी बत्तख़, २/३९/३), ऊलूक (उल्लू, ७/१०४/२२, १०/१६५/४), अन्यवाप (कोयल), कृकवाक (मुर्ग़ा), कपोत {कबूतर, १/३०/४, १०/१६५/(१, २, ३, ४, ५)}, कपिंजल/ तित्तिरी (तीतर), कंक/ क्रौंच (सारस), चाश (, श्येन/सुपर्ण (गरुड़, ढेर प्रसंग), गृद्ध (गीध, ढेर प्रसंग), शुक (तोता) आदि।
वृक्ष और पौधे
प्रोटो भारोपीय शब्दावली में ‘शीतोष्ण’ आबोहवा के पेड़ पौधों के इन तमाम जुमलों के बावजूद ‘ऋग्वेद में ऐसे किसी एक भी पश्चिमी पौधे का कोई नाम चाहे अपभ्रंश ही सही, कहीं भी नहीं है। सही बात तो यह है कि ऋग्वेद उन पौधों और वृक्षों के वृतांत से भरा पड़ा है जो पूरी तरह से न केवल पूरबिया और खाँटी भारतीय हैं, बल्कि भारत की धार्मिक परम्पराओं से लेकर वाणिज्यिक महत्व तक की सभी चीज़ों में आजतक अपनी जगह बनाए हुए हैं।
ऋग्वेद में ऐसे नामों का विवरण इस प्रकार है :
शिंशप (Dalbergia sissoo, शीशम)
खदिर (acacia catechu, हर्टवुड या काठ)
शल्मली (salmalia malabaricum, रेशम और सूत के पौधे)
किंशुक, पर्ण (butea monosperma, जंगल-ज्योति)
शिंबल (salmalia malabaricum, रेशम और सूत के पौधे)
विभिधक (terminalia bellerica, the beleric myrobalan बहेरा)
अरत्व (terminalia arjuna, अर्जुन)
अश्वत्थ, पीप्पल (ficus religiosa, पीपल)
उर्वारूक (Cucumis sativus, ककड़ी)
वेतस (calamus rotang, बेंत)
दर्भ, मूँज, शर्य, सैर्य, कुशर, वैरिण (भारतीय घास)
ऊपर वर्णित वनस्पतियों का विवरण ऋग्वेद में इस प्रकार है :
पहला मंडल : १३५/८, १६४/२०, १९१/३
तीसरा मंडल : ५३/९, ५३/२२
चौथा मंडल : ५८/५
सातवाँ मंडल : ५०/३, ५९/१२, ८६/६
आठवाँ मंडल : ४६/२७
दसवाँ मंडल : ८५/२०, ९७/५
यजुर्वेद और अथर्ववेद में ऐसे तमाम वृक्षों और पौधों का वृतांत है जिनके नाम विशुद्ध भारतीय-आर्य हैं। जैसे –
इक्षु (saccharum officinale, गन्ना)
बिल्व (aegle marmelos, बेल)
न्यग्रोध (fficus benghalensis, बरगद)
शमी (prosopis cineraria, समी)
पलक्ष (ficus infectora, सफ़ेद अंजीर)
पिप्पली (piper longum, लम्बी मिर्च)
आर्यावर्त की दीर्घकालीन प्राचीन परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जड़ी-बूटियों एवं आयुर्वेदिक महत्व के अन्य पौधों का उल्लेख करना भी यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा जिनकी लम्बी सूची हमें अथर्ववेद में मिलती है। सार रूप में हम यहीं कह सकते हैं कि पूरब के भीतरी इलाक़ों में फलने-फूलने वाली वनस्पति ऋग्वेद की चर्चाओं का केंद्र-बिंदु है और इस चर्चा का वृहत विस्तार आगे रची जाने वाली वैदिक संहिताओं यथा, यजुर्वेद और अथर्ववेद में मिलता है। दूसरी ओर अपेक्षाकृत पश्चिम में पनपने वाले पेड़-पौधों का उन्मेष ऋग्वेद के क्षितिज पर बहुत बाद में चलकर होता है।
इत्तफ़ाक़ से, ऋग्वेद के अनुसार अपने रथों को बनाने में वैदिक आर्य जिस भारतीय काठ का प्रयोग करते थे उनमें शिंशप (शीशम या उत्तर भारतीय सीसो), शल्मली, खदिर और किंशुक के वृक्ष प्रमुख हैं। दूसरी ओर, जैसा कि टार ने उल्लेख किया है कि “मिस्त्र के युद्धक रथों के निर्माण में जिस लकड़ी का प्रयोग होता था वे मिस्त्र के न होकर उत्तर के होते थे। रथ की धुरियों और आरे को बनाने में कछार बलूत (holm-oak) के पेड़, खम्बों को बनाने में एल्म नामक एक जंगली वृक्ष, आरे को फँसाने वाले रिम, पहिये और डैशबोर्ड अर्थात नियंत्रण-पट्ट को बनाने में ऐश या सुन के पेड़ और जुए को बनाने के लिए हानबीन या हार्नबीन के पेड़ प्रयोग में लाए जाते थे। रिम के साथ आरे को मज़बूती से लपेटने और बाँधने के लिए संटी या भोजपत्र-वृक्ष के छालों का प्रयोग किया जाता था। मिस्त्र के रथों को बनाने में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ-पदार्थ कॉकसस से लाए जाते थे (टार १९६९:७४)।
३ - पश्चिमोत्तर और उससे आगे का प्रोटो भारोपीय प्राणी एवं वनस्पति-संसार
पश्चिमी भारतविदों द्वारा पिछली शताब्दियों से प्रचारित की जानेवाली परिकल्पना और ऊपर के आँकड़ों में भारी विसंगति है। ऊष्णकटिबंधीय (tropical) क्षेत्रों, विशेषकर भारत, के प्राणी-जगत और वनस्पति-संसार की अवहेलना कर पक्षपातपूर्ण ढंग से शीतोष्ण (temperate) आबोहवा में ही उनके सिमटे रहने की वृत्ति को यहाँ तक कि आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के समर्थक पश्चिमी विद्वानों ने भी अतार्किक क़रार कर अस्वीकृत कर दिया है (वेबर १८५७, कीथ १९३३, डोल्गोपोल्स्की १९८७ आदि)। इनका भी यही कहना है कि जैसे-जैसे भ्रमणकारी जनजातियाँ अपने अप्रवासन के क्रम में आगे बढ़ती जाती हैं, अपनी सदियों लम्बी यात्रा में अपने मौलिक प्राणी और वनस्पति संसार को भूलते जाती हैं और अपनी नयी बसावट के जंतुओं और पेड़-पौधों में अपना आश्रय ढूँढकर उन्हीं को अपनी स्मृति में बसा लेती हैं। दूसरी बात है कि ‘शीतोष्ण-विद्यालय’ के भारतविदों ने अपने भ्रम की निर्मिती में जिन जंतुओं या वनस्पति को सहेजा है, वे समान रूप से भारत और यूरोप दोनों जगह मिलते हैं। इसलिए इससे यह उजागर नहीं हो पाता कि आर्य भारत से यूरोप गए या यूरोप से भारत आए।
विजेल अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए यह कहते हैं कि भले ही ये ‘शीतोष्ण नाम’ ऋग्वेद की भूमि के चारित्रिक लक्षण न रहे हों, लेकिन ऋग्वेद के बाद की संस्कृत-भाषा में वे पाए जाते हैं। और, उनमें से भी कुछ भले संस्कृत में न हों, लेकिन ईरानी भाषा में पाए जाते हैं। इस आधार पर उनका यह कहना है कि “ऐसे शब्दों का महत्व उनके निर्यात में कम, बल्कि ठंडी आबोहवा की यादों को संजोये रखने में ज़्यादा झलकता है। ठीक वैसे ही, जैसे काफ़ी ऊँचाई पर उगने वाले कश्मीरी भोजपत्रों का संदर्भ ईरान, मध्य एशिया और यूरोप में लिया जाता है (विजेल २००५:३७३)। उनके कहने का मतलब यह है कि प्रोटो भारोपीय भाषा के ढेर सारे आम शब्द ऐसे हैं जो ‘पंजाब या भारत के मैदानी भागों (वैदिक क्षेत्र) के देशज या लाक्षणिक रूप’ नहीं हैं। ये शब्द केवल यूरोपीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि ईरानी भाषाओं में भी पाए जाते हैं। इसलिए ऐसा नहीं लगता है कि पश्चिम की ओर बढ़ने वाली जनजातियों ने इसे वैदिक क्षेत्र से लाया होगा। उनके अनुसार यह ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के साथ ज़्यादा संगत और उचित जँचता है कि पश्चिम से आने वाली ‘भारतीय-ईरानी’ जनजातियाँ यूरोपीय और उसके मैदानी (स्टेपी) शब्दों को अपने साथ संजोये भारतीय सीमा तक तो पहुँच गयी लेकिन बाद में भारत-प्रवेश के क्रम में मात्र भारतीय-आर्यों ने ही उन्हें विस्मृत कर दिया!
लेकिन विजेल के साथ सबसे बड़ी समस्या कुछ और है। वह दिन-रात इसी बात को काटने में लगे हैं कि भारतीय आर्यों की मूलभूमि भारत है और यहाँ से बाहर निकलकर वे पश्चिम की ओर गए। इस बात को स्वीकारने का मतलब उनके लिए यह मान लेना है कि संसार की सारी भारोपीय भाषाएँ ‘पंजाब और भारत के मैदानी भागों की भाषा, संस्कृत’ की ही संतति हैं। लेकिन उनकी यह अवधारणा उपलब्ध आँकड़ों से मेल नहीं खाती और इसीलिए ठीक नहीं जँचती। उपलब्ध सामग्रियाँ तो यही दर्शाती हैं कि हरियाणा और उससे पूरब में रहने वाले वैदिक आर्य उस क्षेत्र की ‘पुरु’ बोली बोलते थे। पश्चिम और पश्चिमोत्तर में रहने वाले लोग ‘अणु’ और ‘दृहयु’ भाषाएँ बोलते थे जो भारोपीय भाषाओं का प्रारंभिक रूप था। इन भाषाओं में उन्ही जंतुओं और पेड़-पौधों के नाम आते थे जो पश्चिम और पश्चिमोत्तर के उन क्षेत्रों में पाए जाते थे, न कि वैदिक क्षेत्रों में।
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इसमें से ढेरों शब्द ऋग्वेद या इसके शुरुआती भागों में अनुपस्थित पाए जाते हैं। इन शब्दों का वैदिक भाषा में तभी प्रवेश संभव हुआ जब वैदिक लोग अपने फैलने के क्रम में उत्तर की ओर बढ़े। पथ की उसी रेखा पर पड़ने वाले आगे की जगहों में जहाँ वैदिक आर्य नहीं पहुँच पाए, या केवल नाम के लिए ही पहुँच पाए हों, बोली जाने वाली भारोपीय भाषाओं में पश्चिमी शब्दों का ही प्राचुर्य रहा और ये पश्चिमी शब्द वैदिक संस्कृत, बाद के संस्कृत या अन्य परवर्ती भारतीय भाषाओं से भी पूरी तरह नदारद रहीं।
जंतुओं या पौधों के नामों के उपस्थित होने के कालक्रम का भी अपना एक ख़ास अन्दाज़ है :
१ - भारत के अंदरूनी हिस्सों के जंतुओं और वनस्पति ( हाथी, चीता, धारीदार हरिण, भारतीय जंगली भैंस, भैंस, मोर, ब्राह्मिनी बत्तख़, अर्जुन वृक्ष, रेशम और सूत के पौधे आदि) का ज़िक्र ऋग्वेद के पुराने मंडलों (६, ३, ४, ७ और २) से ही मिलना शुरू हो जाता है। इन नामों के पश्चिमोत्तर में बसने वाले ‘अणु’ और ‘दृहयु’ के बीच पाए जाने की संभावना नहीं के बराबर थी और यही कारण है कि हज़ारों वर्षों तक और हज़ारों मील की दूरियों तक जारी रहने वाले उनके अप्रवासन के क्रम में इन शब्दों का उनके साथ शायद ही जाना हुआ। फिर, नए जगह के प्राणी-लोक और वनस्पति-संसार में पहुँचने के उपरांत तो इन शब्दों से उनका कोई नाता ही नहीं रहा। तथ्य तो यह है कि जो भारतीय-आर्य ख़ानाबदोश जिप्सी, सिंटी या रोमानी भी अपनी भूमि से हज़ारों मील दूर जाकर बस गए, उन्होंने भी समय की धार में अपने जंतु और वनस्पति के नाम बहा दिये और अपने साथ कुछ भी बचा नहीं पाए।
२ – पश्चिमोत्तर जंतु-जगत या वनस्पति-संसार के नामों के ‘साझे भारतीय-ईरानी शब्द’ आश्चर्यजनक ढंग से ऋग्वेद के बाद के नए मंडलों (५, १, ८, ९, १०) में मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर वैदिक शब्द, मेष (भेड़), ऊरा (मेमना), ऊष्ट्र (ऊँट), वराह और सुकर (सुअर), कश्यप (कछुआ), खर (गदहा), जहाक (साही) की तुलना अवेस्ता के शब्द, मेष, ऊरा, ऊष्ट्र, वराज, हुकर, क़स्सीयप, क्षर, दुज़ुक से की जा सकती है। ये शब्द वेद (भारतीय-आर्य) और अवेस्ता (ईरानी) के साझे शब्दकोश का प्रतिनिधित्व करते हैं।
३ – पश्चिम के बहु-प्रचारित ‘शीतोष्ण’ प्रोटो भारोपीय शब्द ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों या फिर उससे भी बाद रचित वैदिक ग्रंथों में ही मिलते हैं :
क – जैसा कि देखा गया है कि ‘आवि-‘ और ‘ऊर्ण-/ऊर्णा‘ जैसे ‘पुराने’ प्रोटो भारोपीय शब्द, या अन्य भारोपीय शाखाओं में उनके सजातीय और सपिंडी शब्द, ऋग्वेद के तीन सबसे पुराने मंडलों में नहीं मिलते हैं। वे बाद के मंडलों में ही विशेषकर सबसे पहले चौथे मंडल में दिखायी देते हैं। यह भारतीय-आर्यों के पश्चिम की ओर बढ़ने के उस चरण को इंगित करता है जब सुदास के वंशज सहदेव और सोमक के काल में अपने विस्तार-अभियान में आक्रमण करते-करते वे ‘सरयू के पार’ (४/३०/१८) अफगनिस्तान में पहुँच गए।
ख – विजेल ने ‘भेड़िए’ और ‘बर्फ़’ का ‘ठंडी आबोहवा की भाषिक-स्मृति’ के रूप में उल्लेख किया है। हम पहले ही देख चुके हैं कि भेड़िए समूचे भारत में बहुतायत में पाए जाते थे। जहाँ तक ‘बर्फ़’ की बात है तो इसका उल्लेख भी ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों में ही मिलाता है।
ग – विजेल ने भोजपत्र के लिए जिस ‘भुर्ज’ शब्द का उल्लेख किया है वह भी ऋग्वेद में कहीं नहीं पाया जाता और सबसे पहली बार यजुर्वेद में उपस्थित होता है जो ऋग्वेद से बाद का ग्रंथ है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस शब्द का प्रयोग एकदम सीमांत उत्तर और पश्चिमोत्तर दर्दिक, नुरिस्तानी और ईरानी भाषाओं में मिलता है। “पश्चिमोत्तर भारत के पहाड़ों में बसने वाली जनजातियों की दर्दिक भाषा में ‘भोजपत्र’ के लिए ‘फलुर बढ़ुज’, ‘दमेलि ब्रुश’ और ‘गवार-बटी ब्लज़’ (मेरहोफ़र १९६३:११.५१४-१५), बरेज, वैगली ब्रुझ (मोरजेंसटायर्न १९५४:२३८), खोतानिज सक ब्रमजा, ब्रुमजा, वाखी फुर्ज, संगलेची, शुगनी बरुज़, पश्तो बर्ज, ताजिक बर्ज, और बुर्स ‘जेनिपर’ (ग़मक्रेलिज १९९५ : ५३१-५३२) जैसे शब्द पाए जाते हैं। इस बात की पुनरावृति यहाँ अपेक्षित है कि पश्चिमोत्तर के इन शब्दों के ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों और अन्य परवर्ती वैदिक संस्कृत ग्रंथों में मौजूदगी के तमाम सबूत हैं और यह तब हुआ जब भारतीय आर्य अपने साम्राज्य विस्तार के अभियान में उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़े।
४ – अवेस्ता के शब्दकोश की शुरुआत ऋग्वेद के नए मंडलों की रचना-काल के समकालीन है। इस बात की विशद चर्चा श्री तलगेरी की पुस्तक ‘The Recorded History of the Indo-European Migrations – Part2, The chronology and the geography of the Rigveda’ में की गयी है। किंतु, नए मंडलों के रचना काल से भी बहुत आगे बढ़कर अवेस्ता का समय ठहरता है। अवेस्ता की रचना होने के समय तक आद्य-ईरानी (प्रोटो-ईरानी) अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश कर गए थे और उनका सम्पर्क अब पश्चिमी दुनिया तथा भारोपीय भाषाओं के पश्चिमी शब्दों या यूँ कहें कि ‘अणुओं’ के उन शब्दों से होने लगा था जो ग्रीक, अर्मेनियायी और अल्बानी शब्दों के साथ मिलकर अपने नए विकसित रूप में गढ़ चुके थे। इन शब्दों के विकास और गढ़ने में उनसे सटे उत्तर में रहने वाले स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक जैसे ‘दृहयु’ समुदाय के लोगों की स्थानीय भाषा का भी योगदान था। भारतीय-आर्य भाषा से पूरी तरह अनुपस्थित रहने वाले दृहयु और ईरानियों के इन साझे शब्दों का उद्भव अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के हिमाच्छादित पर्वतीय इलाक़ों में हुआ। निम्नांकित कतिपय शब्दों में यह स्थिति साफ़-साफ़ झलकती है।
अवेस्ता – बेरेज- ‘पहाड़ी’, ‘पहाड़’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, जर्मन और सेल्टिक में भी हैं।
अवेस्ता – स्नाएजेटि ‘बर्फ़ बनना’ (क्रिया)। इसके सजातीय शब्द जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक और अर्मेनियायी भाषाओं में भी मिलते हैं।
अवेस्ता – ऐक्षा ‘शीत’, ‘बर्फ़’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक और जर्मन में भी हैं।
ओस्सेटिक – तज्यन पिघलना (क्रिया)। इसके सजातीय शब्द स्लावी, जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक और अर्मेनियायी में भी हैं।
अवेस्ता – उद्र ‘ऊद’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक और जर्मन में हैं।
अवेस्ता – बावरा-/बावरी- ‘ऊदबिलाव’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक में मिलते हैं।
ओस्सेटिक – व्य्ज़्य्न ‘साही’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, ग्रीक और अर्मेनियायी में मिलते हैं।
विजेल बार-बार एक उदाहरण सामने लेकर आते हैं – अ-भारतीय ऊदबिलाव का। इसे अंग्रेज़ी में ‘बेवर’, पुरानी अंग्रेज़ी में ‘बेब्र’, ‘बेओफ़ोर’, लैटिन में ‘फ़ाइबर’, लिथुआनियायी में ‘बेब्रस’, रूसी में ‘बोब्र’ या ‘बेब्र’ और अवेस्तन में ‘बब्री’ बोलते हैं। भारतीय नेवले के संस्कृत नाम, ‘बभ्रु’ से इसकी तुलना कर वह ‘आर्य-आक्रमण-परिकल्पना’ को सही ठहराते हैं (विजेल २००५:३७४)। लेकिन ये जितने भी साझे अ-भारतीय नाम हैं, ये सभी भारतीय आर्यों के समूह को भारत-भूमि से बाहर निकलने के क्रम में उनके रास्ते में पड़ने वाले अफगनिस्तान और मध्य एशिया की ज़मीन पर जन्मे-पले और बढ़े तथा यूरोपीय और प्रोटो-ईरानी बोलियों तथा भाषाओं में शामिल हो गए। साथ ही, ऐसे किसी भी नाम के भारत की भूमि में प्रवेश का कोई दृष्टांत नहीं है। ऋग्वेद और मित्ती भारतीय-आर्य में ‘बभ्रु’ शब्द पाया जाता है, किंतु वहाँ यह घोड़ों के ख़ास रंग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। पूरब में बहुत बाद के संस्कृत में रंग के लिए आने वाला यह शब्द ‘नेवले’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। किंतु इसका मतलब आर्यों के भारत-प्रवेश के संदर्भ में भी नहीं लिया जा सकता। इस संदर्भ में गमक्रेलिज की ये बातें ध्यान देने योग्य है कि ‘भारतीय-ईरानी भाषा के विभाजन की सीमा रेखा यदि खिंची जाय तो संस्कृत ने अपने शब्दों के अर्थों में पुरातन कलेवर को सुरक्षित रखा है जब कि अवेस्ता ने शब्दार्थों में नवोन्मेष की परम्परा का सूत्रपात किया है।‘ (गमक्रेलिज १९९५:४४८)
गमक्रेलिज और इवानेव (गमक्रेलिज १९९५:५२५-५३१) ने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि प्रोटो-भारोपीय भाषा की मूलभूमि अफगनिस्तान और मध्य एशिया के पर्वतीय क्षेत्र ही थे। इस मूल भूमि में वे बलूत अर्थात ‘ओक’ के वृक्षों के प्रमुख स्थानों को इंगित करते हैं। बादल की घोर गर्जना से दहलाती ऊँची चोटी वाली ‘ओक’ के वृक्ष से अच्छादित पर्वत-मालाओं की ओर ध्यान खींचते हुए उसमें वे मेघों के तड़ित-देव का निवास बताते हैं (गमक्रेलिज १९९५:५२९)। सही कहें तो इस मूल भूमि को थोड़ा और पश्चिम की ओर खिसकाकर वे ‘अनाटोलिया’ के पास ले आते हैं लेकिन उपलब्ध आँकड़ों पर आधारित जो परिदृश्य उभरता है उसका इशारा अफगनिस्तान, ईरान और ट्रान्स-कौकेसियन अर्थात जौर्जिया, आर्मेनिया और अज़रबैजान के क्षेत्रों से है। इन भू-भागों में ओक के वृक्ष का बहुत ही अहम स्थान है। इसीलिए इस भाग के प्रमुख लक्षणों को चिन्हित करने के लिए गमक्रेलिज ने ओक के पेड़ को ही चुना है। इन्हें उस क्षेत्र में ‘ट्री’ या ‘वुड’ (संस्कृत – द्रु-/द्रुम-/दरु-/तरु-) के लिए ‘टे/ओर-‘ या *ट’रे/ओऊ जैसे अपभ्रंश रूप में लिया जाता है। इनके सपिंडी और सजातीय शब्द आठों अन्य शाखाओं (अनाटोलियन, टोकारियन, बाल्टिक, स्लावी, जर्मन, भारतीय-आर्य, ईरानी और ग्रीक) में भी पाए जाते हैं। किंतु, ऐतिहासिक विविधताओं से सम्पन्न सेल्टिक, अल्बानी और ग्रीक जैसी भाषाओं में उन्हीं अपभ्रंश रूपों में ही ये व्यक्त होते हैं। ग्रीक भाषा में ‘ट्री’ और ‘ओक’ दोनों प्रचलित हैं। अर्मेनियायी और इटालिक शाखाओं ने ‘वुड’ के लिए अर्थ अपने विशेषण ‘हार्ड’ शब्द में संजो लिया है।
‘ट्री’ ( ‘टे/ओर-‘ या *ट’रे/ओऊ) के लिए मौलिक शब्द ‘ट्री/वुड’ बारह में से नौ शाखाओं में यथावत बना रहा लेकिन बाक़ी तीन शाखाओं में इसका अर्थ ‘ओक’ हो गया। इनमें सेल्टिक भी एक है। इसी मूल में ऋग्वेद और पुराणों के नाम दृहयु का रहस्य भी छुपा हुआ है जो इन पाँच यूरोपीय शाखाओं - स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक – को बोलने वाली जनजातियाँ थी और इन भारोपीय जनजातियों की रिहायिश अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के इन्ही पहाड़ी क्षेत्रों में थीं। यहाँ तक कि इन जनजातियों के पुरोहितों के लिए भी ‘द्रु-इ/द्रु-इद’ शब्द प्रचलित थे जो आयरलैंड की सेल्टिक भाषा में आज भी सुरक्षित है।
५ – एक अन्य अपभ्रंश शब्द है – ‘पेर्क’। इसका अर्थ इटालिक, सेल्टिक और भारतीय-आर्य भाषा में ओक होता है। संस्कृत में ‘पर्कटी’ शब्द का अर्थ अंजीर होता है। पंजाबी में ‘पर्गाइ’ शब्द पवित्र ओक के लिए आता है। ‘पेर्क’ का अर्थ जर्मन में ‘फर (fir)’ अर्थात देवदार का वृक्ष होता है। इसी शब्द से अंग्रेज़ी के ‘फ़ॉरेस्ट’ शब्द की निष्पति हुई है। आद्य भारोपीय शब्द संस्कृत और हित्ती में पाए जाने वाले मूल शब्द *पेरु-‘ (पहाड़/चोटी/चट्टान) से व्युत्पन्न है जिससे हम संस्कृत शब्द ‘पर्वत’ पाते हैं। मेघों की गर्जना के भारोपीय देवता के नाम की निष्पति भी दो शब्दों - ‘पेर्क/न’ और ‘पेरू/न’ से हुई है। भारतीय-आर्य (वैदिक) भाषा में ‘पर्जन्य , बाल्टिक भाषा में ‘पेरकुनस’, स्लावी भाषा में ‘पेरूँ’ और जर्मन भाषा में ‘जोरगिन’ (मेघ देवता की माता का नाम ‘थोर’) इसके दृष्टांत हैं। मेघ-देवता के लिए आद्य-भारोपीय शब्द ‘पेरकूँ’ और पर्वतीय ओक, पर्वतीय शिखरों पर ओक के जंगल, पर्वत या पर्वतों की चोटी के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द ‘पेरू’ के बीच के संबंधों को हम आसानी से समझ सकते हैं, यदि पौराणिक कथाओं में आसमान से गिरने वाली बिजली के हम पर्वत शिखरों पर खड़े ओक के वृक्षों में लिपटने के दृश्य को अपने मन में उतारें। यह दृश्य इन पर्वतीय क्षेत्रों के निवासी प्राचीन भारोपीय जनजातियों के जीवन में बार-बार घटित होने वाले परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करता है (गमक्रेलिज १९९५:५२८)।
तो, क्या यह मान लें कि प्राचीन भारोपीय जनजातियों की रिहायिश, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया की इस पर्वतीय भूमि (या, फिर उससे और आगे!), की ‘भाषायी यादें’ ऋग्वेद में समाहित हैं! जबकि सही बात तो यह है कि :
१ – ऋग्वेद या किसी भी वैदिक ग्रंथ में ओक या किसी अन्य नाम से भी इस तरह के किसी पेड़ की कोई चर्चा नहीं है। बाद के शास्त्रीय संस्कृत ग्रंथों में ‘पर्कटी’ शब्द का प्रयोग अवश्य हुआ है जिसका अर्थ भारतीय वृक्ष श्वेत अंजीर (फ़ाइकस इंफ़ेक्टोरा) है। अथर्ववेद में ‘पलाक्ष’ के वृक्ष का ज़िक्र आता है। बहुत बाद में चलकर पंजाबी भाषा में ‘पर्गाइ’ शब्द मिलता है जो ओक की भिन्न प्रजातियों में से एक पवित्र प्रजाति ‘क्वेर्कस आइलेक्स’ के नाम के लिए आता है। यह पवित्र प्रजाति भूमध्य-सागर के आस पास पायी जाती है। अतः कालांतर में पश्चिम से यह नाम पंजाब पहुँचा है।
२ – स्पष्ट तौर पर ऋग्वेद में दो ‘मेघ-देवताओं’ की चर्चा है। एक ‘इंद्र’ और दूसरे ‘पर्जन्य’। ‘इंद्र’ शब्द की व्युत्पति ‘इन्दु’ शब्द से हुई है। इसका अर्थ होता है – बूँद। अतः वर्षा की बूँदों से इंद्र का रिश्ता है। इस बात के अलावा कि इंद्र भारतीय- आर्य शाखा में ही सिमटे हुए हैं यह भी उतना ही सत्य है कि वह हरियाणा और इसके अंदरूनी हिस्सों के मानसून क्षेत्रों के ही देवता हैं। पर्जंय शब्द की व्युत्पति के बीज तो हम पहले ही ओक से आच्छादित पर्वतीय क्षेत्रों और तीन यूरोपीय शाखाओं में पा चुके हैं।
आर्य-आक्रमण अवधारणा के पैरोकार भारतशास्त्री अपने तर्कों में पर्जंय को मूल आद्य भारोपीय, और साथ-साथ भारतीय भी, मेघ-देवता के रूप में चित्रित करते हैं तथा इंद्र को बाद में पर्जंय की जगह लेनेवाले भारतीय मेघ-देवता के रूप में स्थापित करते हैं। इसका कारण वह स्लावी, बाल्टिक और जर्मन पौराणिक कथाओं में भी मेघ-देवता के रूप में पर्जंय की उपस्थिति को देखते हैं। किंतु, सच्चाई ठीक इसके विपरीत है।
अ – इंद्र ऋग्वेद के सबसे प्रमुख देवता हैं। ऋग्वेद में कुल १०२८ सूक्त हैं। इनमें से २५० सूक्त इंद्रदेव की महिमा के मंडन में समर्पित हैं। पर्जंय की गौरव-गाथा में मात्र तीन सूक्तों का योगदान है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इंद्रदेव ऋग्वेद के नए और पुराने सभी मंडलों में उपस्थित होते हैं। इनके पर्यायवाची नामों को तो छोड़ दें, ‘इंद्र’ नाम से ही ५३८ सूक्तों में २४१५ बार इनका वर्णन है। दूसरी ओर २५ सूक्तों में पर्जंय मात्र ३६ बार वर्णित हुए हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:
पूराने मंडल (६, ३, ७, ४ और २)
चौथा मंडल – ५७/८
छठा मंडल – ४९/६, ५०/१२, ५२/(६, १६), ७५/१५
सातवाँ मंडल – ३५/१०, १०१/५, १०२/(१, २), १०३/१
नए मंडल (५, १, ८, ९, १०)
पाँचवाँ मंडल – ५३/६, ६३/ (४, ६), ८३/(१, २, ३, ४, ५, ९)
पहला मंडल – ३८/(९, १४), १६४/५१
आठवाँ मंडल – ६/१, २१/ ८, १०२/५
नौवाँ मंडल – २/९, २२/२, ८२/३, ११३/३
दसवाँ मंडल – ६५/९, ६६/(६, १०), ९८/(१, ८), १६९/२
यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि सातवें मंडल के ३५/१० को छोड़कर बाक़ी जितने भी सूक्त हैं, वे या तो पुराने मंडलों के पुनर्संशोधित सूक्त हैं (इन्हें अधोरेखित किया गया है) या फिर नए मंडलों के सूक्त हैं। पुराने दूसरे और तीसरे मंडल में तो इनका ज़िक्र तक भी नहीं आया है। ७/३५/१० का भी जो एकमात्र अपवाद स्वरूप वर्णन है वह विश्वदेव (सभी देवताओं) की लम्बी सूची में उद्धृत हुआ है।
इससे तो यहीं बात सामने आती है कि पर्जन्य पश्चिमोत्तर से अवतरित ऐसे देवता हैं जो नए मंडलों की रचना के युग में ऋग्वेद में प्रवेश कर गए। यह तब की बात होगी जब हरियाणा और उसके पूरब के मानसूनी क्षेत्रों से उत्तर-पश्चिम दिशा में चलकर वैदिक आर्य पश्चिमोत्तर पर्वतीय प्रदेशों में पहुँचे होंगे। अब एक बात और ग़ौर करने वाली है कि यह पर्जन्य देवता मात्र स्लावी, बाल्टिक और जर्मन क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। इससे इस अवधारणा को बल मिलता है कि ऋग्वेद के नए मंडलों की रचना के समय मध्य एशिया में स्लावी, बाल्टिक और जर्मन बोलियों के अवशेष मात्र ही सही ज़रूर बचे रहे होंगे।
आ – कुछ और महत्वपूर्ण बातें भी ग़ौर फ़रमाने लायक़ हैं। केवल भारतीय आर्य परम्परा में ही इंद्र देवता के रूप में चित्रित होते हैं। अवेस्ता की प्रतिद्वंदी ईरानी परम्परा में इंद्र एक दैत्य है। हित्ती पुराण में तो ‘इनर’ नामक एक देवी की चर्चा है जो बिना नाम वाले बरसात के देवता को उन नागों को मारने में सहायता देती है जो बरसात होने से रोकते हैं। हित्ती (अनाटोलियन) भारोपीय शाखा से अपनी कल्पित मूलभूमि से अलग होने वाली पहली भाषा थी। इस परिप्रेक्ष्य में हित्ती पुराण में इनर देवी की उपस्थिति से तो एक बात पूरी तरह से साफ़ हो जाती है कि या तो इंद्र पर्जन्य से पुराने हैं या फिर वैदिक आर्यों के पश्चिमोत्तर में पसरने के दौरान वहाँ हित्ती भी मौजूद रहे होंगे या फिर दोनों बातें एक साथ भी सही हो सकती हैं।
यदि हम वानस्पति जगत, प्राणियों के वृहत संसार और पहाड़, बर्फ़, पर्जन्य जैसे उनसे सम्बद्ध समग्र सांस्कृतिक तत्वों का गहरायी से परीक्षण और उनकी विवेचना करें तो यह बात उभर कर सामने आती है कि पश्चिमोत्तर के शब्दों का प्रवेश ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों में तब हुआ जब वैदिक आर्य पसरते- पसरते पश्चिम की ओर पहुँच गए और उनके साथ-साथ ईरानी लोग भी और पश्चिम की ओर बढ़े जा रहे थे। इसी क्रम में ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जैसी यूरोपीय बोलियाँ भी नए प्राणियों और नए वनस्पतियों के देश में काफ़ी दूर तक पहुँच गयी।
Thursday, 4 March 2021
इंद्रधनुषी दुनिया: बूढ़ा सुग्गा पोष नहीं मानता!
आदरणीय अपर्णा जी एक जानी-मानी ब्लॉगर हैं। साहित्य सेवा के साथ-साथ समाज-सेवा भी उनके जीवन का महत यज्ञ है जिसे पूरी तन्मयता से मनसा, वचसा और कर्मणा वह झारखंड राज्य के सुदूर आदिवासी इलाक़ों में सम्पादित कर रही हैं। ‘एकजुट’, ‘सहभागी शिक्षण केंद्र’, ‘पेस’, ‘AID’ इत्यादि सामाजिक संस्थाओं के साथ माता,शिशु, किशोरी और महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता और लैंगिक अधिकारों के लिए कार्य करते हुए वर्तमान में स्वतंत्र प्रशिक्षक और सामाजिक अनुसंधानकर्ता के रूप में झारखंड और निकटवर्ती राज्यों में चल रही कुछ परियोजनाओं में वह अहर्निश संलग्न हैं । बच्चों के व्यक्तित्व में चारित्रिक और नैतिक पक्ष को विकसीत करने और उन्हें अपनी माटी के सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने के लियी अपर्णा जी ने अपने यू- ट्यूब चैनल ‘इंद्रधनुषी दुनिया’ माध्यम से एक अत्यंत महत्वपूर्ण अभियान चलाया है। बच्चों को सरल और सरस माध्यम से शिक्षित करने में उनका यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है और समाज के सभी शिक्षित जनों के सहयोग की अपेक्षा भी रखता है। उसी क्रम में बच्चों के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत मेरी यह कविता आपके सामने है।
एक बात और बता दूँ कि अपर्णा जी ने मुझसे आग्रह किया कि सीखने वाले बच्चों को ध्यान में रखते हुए तत्सम शब्दों का प्रयोग कम करें। मेरा यही उत्तर था कि सीखने वाले के लिए सभी शब्द नए और एक समान होते हैं। यह कठिनाई सीख चुके और बड़े- पढ़े लोगों के साथ है। एक कहावत भी है, ‘बूढ़ा सुग्गा पोष नहीं मानता’।
Wednesday, 24 February 2021
कासे कहूँ- समीक्षा डॉ प्रोफेसर उषा सिन्हा
Tuesday, 23 February 2021
काल-चक्र की क्रीड़ा-कला!
कई दिनों से रूठी मेरे,
अंतर्मन की कविता।
मनहूसी, मायूसी, मद्धम,
मंद-मंद मन मीता।
शोर के अंदर सन्नाटा है,
शब्द, छंद सब मौन।
कांकड़-पाथर-से भये आखर,
भाव हुए हैं गौण।
थम गई पत्ती, चुप है चिड़िया,
और पवन निष्पंद।
पर्वत बुत-से बने पड़े हैं,
नदियों का बहना बंद।
हिमकाल के मनु-से मेरे,
मन में बैठी इड़ा।
बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!
परखे पीव की पीड़ा?
अभिसार-से सुर श्रद्धा के,
नहीं सुनाई देते।
सुध धरा की व्याकुलता का,
बादल भी नहीं लेते।
चाँद गगन में तनहा तैरे,
आसमान है बेदम।
जुगनू जाकर जम गए तम में,
करे पलायन पूनम।
नि:शक्त शिव शव स्थावर,
निश्चेतन जीव जगत है।
समय चक्र की सतत कला का,
यही नियति आगत है।
प्रलय काल में क्षय के छोर पर,
हो, शक्ति की आहट।
स्फुरण में चेतन के फिर,
जागेंगे शिव औघट।
शिव के डमरू से निकलेगा,
प्रणव-नाद का गान।
और कन्हैया की मुरली से,
प्रणय-रास की तान।
अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,
गढ़े ज्ञान की गीता।
अनहद चेतन अंतर्मन में,
मानेगी मेरी कविता!!!
राह निहारूँ उस पहरी की,
मनमीता मोरी मानें।
काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,
जड़-चेतन सब पहचानें।
Thursday, 11 February 2021
कृष्ण-कन्हैया
पल-पल पुलकित पलकों में,
जो, प्रीत तू अबतक पाली।
नित नयनों में तेरे उतराए,
वह बिम्ब कौन री व्याली!
उर की धडकन में धक-धक,
जो धड़क-धड़क कर बोले।
चतुर-चितेरा, चहक-चहक,
मन वेणी, तेरी खोले।
कूल-कालिंदी से कलकल,
कलरव करती किल्लोलें।
हिय वह हौले-हौले तेरे,
नेह मधुर रस घोले।
मूंदे दृग-पट अपना तू,
करता वह नैन बसेरा।
आँखों के आँगन में,
तेरे, डाला उसने डेरा।
चमके चिर चितवन चंचल,
वह, तेरे कपोल की लाली।
कौन! कहाँ? वह कृष्ण-कन्हैया!
तू, किस हारिल की डाली!
वैलेंटाइन सप्ताह
11.2.2021
पटना
Monday, 1 February 2021
वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१९)
(भाग - १८ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (त)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
शीतोष्ण, अर्द्ध-शीतोष्ण और भारतीय प्राणी एवं वानस्पतिक जगत
इन खंडन-मंडन करने वाले भाषाविदों के लिए सबसे अधिक विडम्बना और उससे भी अधिक दुर्भाग्य का विषय तो यह है कि प्रोटो-भारोपीय भाषाओं में पुनर्रचित प्राणी-जगत के कुछ ऐसे नाम हैं जो भारत में तो पाए जाते हैं किंतु यूरोप के मैदानी भागों में नहीं पाए जाते। इस आधार पर तो यह बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि इनकी मूल भूमि भारत है न कि दक्षिणी रूस का मैदानी भाग या यहाँ तक कि अनाटोलिया भी! दृष्टांत के लिए ये जानवर हैं – बाघ, सिंह, चीता, लंगूर और हाथी। सामान्य तौर पर विवेचनाओं में इस बिंदु की अवहेलना कर ये ‘खंडन-मंडन-पारंगत’ विद्वान आगे बढ़ जाते हैं :
बाघ : ‘*विहाघ्रस’, तीन शाखाओं में इसके रुप इस प्रकार हैं –
भारतीय आर्य : व्याघ्र, ईरानी (पारसी) : बब्र, अर्मेनियायी : वग्र ( इसी शब्द को आभारोपीय भाषा कौकेसियन जौरजियन में ‘विग्र’ के रूप में लिया गया है।
सिंह : ‘*सिंघोस’, दो शाखाओं में इसके रूप इस प्रकार हैं –
भारतीय-आर्य : सिंह, अर्मेनियायी : इंज ( यहीं नाम चीता के लिए है)
चीता : ‘*पर्ड’, चार शाखाओं में इसके नाम इस प्रकार हैं –
भारतीय-आर्य : प्रदाक़ु, ग्रीक : पार्डस/पर्डलिस, ईरानी पारसी : फ़र्स-, अनाटोलियन (हित्ती) : पर्सना
बंदर : ‘*क्व्हे/ओप्फ’, चार शाखाओं में इसके रूप इस प्रकार हैं –
शुरू के ‘क्व्हे’ को लेकर भारतीय-आर्य भाषा में कपि-, ग्रीक : केपोस, बिना ‘क्व्हे’ को लिए जर्मन और आइसलैंड की प्राचीन भाषा में ‘अपि’, स्लावी : ओपिका
और इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण हाथी है।
हाथी : ‘*लहभो-न्थ-‘ या ‘*हभो-न्थ’। इसके रूप कम-से-कम चार शाखाओं में प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं –
भारतीय-आर्य : इभा-, ग्रीक : एलिफ़स, (माइसिनियन ग्रीक : एरेपा), इटालिक (लैटिन) : एबर, हित्ती : लहफ़ा (इनके वैकल्पिक अर्थ भी हैं और एक अर्थ ‘हाथी का दाँत भी है)। ऊँट के अर्थ में यह शब्द दो भाषाओं में प्रयुक्त होता है – जर्मन (गोथिक) : उलबंदुस और स्लावी : वेलिबोदु
जानवरों के ये प्रोटो-भारोपीय अपभ्रंश नाम इस अवधारणा को पूरी तरह ख़ारिज करते हैं कि इनसे ताल्लुक़ रखने वाली वानस्पतिक आबोहवा या प्राणिक जलवायु उत्तर का ठंडा या शीतोष्ण परिवेश ही रहा होगा। इसलिए आर्य-आक्रमण अवधारणा के अधिकांश पैरोकार अपनी दलीलों में मात्र भारत में पाए जानेवाले इस महत्वपूर्ण बिंदु को नज़रंदाज़ करते हुए कुटिलता से केवल उन्ही प्राणियों या पेड़-पौधों के नामों की चर्चा करते हैं जो शीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों के साथ-साथ ‘भारत में भी’ पाये जाते हैं।
लेकिन इन सभी नामों में सबसे ज़्यादा प्रमुख हाथी का नाम है :
१ – यह शब्द समूची भारोपीय शाखाओं के पटल पर छाया हुआ मिलता है। यह
क - एशिया और यूरोप, दोनों में पाया जाता है,
ख – दक्षिण-पूर्वी सीमांत शाखा, भारतीय-आर्य और पश्चिमोत्तर सीमांत शाखा, जर्मन दोनों में पाया जाता है,
ग – भारोपीय परिवार की प्राचीनतम दर्ज भाषाओं, हित्ती, माइसेनियन ग्रीक और पुरातन भारतीय-आर्य भाषाओं, में पाया जाता है (मल्लोरी-आडम्स २००६ : ९९)
घ – साथ ही, समूचे यूरोप में पुरातन काल की प्रामाणिक यूरोपीय शाखा की लैटिन, गोथिक और गिरिजाघरों में बोली जाने वाली स्लावी भाषाओं में पाया जाता है।
मल्लोरी और आडम्स के अनुसार किसी शब्द के पक्के तौर पर प्रोटो भारोपीय होने की बस एक ही कसौटी है कि ‘यदि अनाटोलियन और किसी भी एक भारोपीय भाषा में उस शब्द के सपिंडी या सजातीय शब्द पाए जाते हों तो वह शब्द निश्चित तौर पर भारोपीय ही है।‘ इसमें आगे वह यह जोड़ देते हैं कि ‘भले ही यह नियम सबको नहीं रुचे लेकिन यहाँ पर यहीं लागू होता है (मल्लोरी-आडम्स २००६:१०९-११०)।‘ यहाँ पर हाथी के सजातीय या सपिंडी शब्द अनाटोलियन के साथ-साथ पाँच अन्य भारोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं।
२ – ऊपर वर्णित अन्य जानवरों के विपरीत, ऐतिहासिक भारोपीय पर्यावास के मात्र एक ही ठिकाने पर हाथी पाया जाता है – वह है ‘भारतीय-आर्य भूमि।‘ हाथी की दो स्पष्ट प्रजातियाँ हैं। पहली प्रजाति है - भारतीय हाथी (इलेफ़स मैक्सिमस) जो सिर्फ़ भारत और इसके पूरब स्थित दक्षिण एशिया के क्षेत्रों में पाया जाता है। दूसरी प्रजाति है – अफ़्रीकी हाथी (लोक्सोडोंटा अफ़्रीकाना) जो अफ़्रीका के सहारा के आस-पास के क्षेत्रों में पाया जाता है। दोनों प्रजातियों की रिहाईश भारोपीय भाषा की ऐतिहासिक भूमि से सुदूर भारतीय-आर्य भाषी भूमि है।
हाथी और अन्य चार जानवरों के ऊपर दिए गए दृष्टांत की विवेचना से निष्पन्न तथ्य पूरी तरह से न केवल भारत की मूलभूमि होने की अवधारणा को स्थापित करते हैं, प्रत्युत दक्षिणी रूस के मैदानी भाग में इनकी मातृभूमि की परिकल्पना को पूरी तरह से नकारते भी हैं। ऋग्वेद में भी हाथियों का वर्णन देशी पशु के रूप में एक पालतू प्राणी की तरह मिलता है। किंतु, दुर्भाग्य से पूर्वाग्रही विद्वानों की एक जमात ने इस तथ्य से यूँ अनभिज्ञता प्रकट की है, मानों हाथी कभी इस भूमि में रहा ही नहीं!
विद्वानों द्वारा हाथियों के इस तथ्य को नज़रंदाज़ करेने के पूर्वाग्रही और पुरज़ोर प्रयासों की विशद विवेचना श्रीकांत तलेगरी ने अपनी पुस्तक ‘The Elephant and the Proto-Indo-European Homeland (हाथी और प्रोटो-भारोपीय मूलभूमि)’ में की है। उसी पुस्तक में हाथियों के अत्यंत प्राचीन काल से भारत भूमि में विचरने के प्रमाण ऋग्वेद की ऋचाओं में तलाशे गए हैं। ऋग्वेद के प्राचीन और अर्वाचीन, दोनों मंडलों में हाथियों का उल्लेख मिलता है। इनके स्पष्ट रूप से तीन नाम पाए जाते हैं – इभा-, वार्णा और हस्तिन। आगे चलकर ऋग्वेद में ही कुछ और भी नामों, जैसे गज, मतंग, कुंजर, दंती, नाग, करी आदि का उल्लेख मिलता है। ग्रिफ़िथ और विल्सन ने हाथी के लिए दो और शब्दों को ऋग्वेद में खोजा है – अप्स: (८/४५/५६) और श्रणी (१०/१०६/६)।
स्पष्ट तौर पर यह वैदिक लोगों का एक जाना-पहचाना जानवर है जो पूरी तरह से उनके संस्कारों और वैदिक वातावरण में घुला-मिला है। ४/१६/१४ में इंद्र की ताक़त की तुलना हाथी से की गयी है। तीन ऋचाओं (१/६४/७, १/१४०/२ और ८/३३/८) में जंगली हाथी के द्वारा जंगल में घनी झाड़ियों को कुचलते विचरता दिखाया गया है। इसमें तीसरी ऋचा में ‘भीषण ताप से उन्मत्त हाथी इधर-उधर भटक रहा है (ग्रिफ़िथ)’। १०/४०/४ में दो जंगली हाथियों का पीछा करते शिकारियों की टोली दिखायी दे रही है। १/८४/१७ में धनिक व्यक्ति के दरवाज़े पर उसका पालतू हाथी उसके परिवार के सदस्य की भाँति खड़ा है। ४/४/१ में शक्तिशाली राजा के राज जुलूस में सवारी के रूप में शक्तिशाली हाथी का विवरण मिलता है। ९/५७/३ में एक भव्य समारोह में सज़ा-धजा हाथी मिलता है। ६/२०/८ में लड़ाई के मैदान में डटी गज-सेना का ज़िक्र मिलता है। वैदिक संस्कृति और अर्थतंत्र में हाथी और हाथी के दाँतों के महत्व के सिलसिले में तुग्र, भुज्य, इभ्य, वेतसु, दशनी, ऋभु आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है।
हाथी और उसके दाँतों के लिए प्रयुक्त शब्द अपनी व्युत्पति के गर्भ में ही गहरे अर्थ समेटे हुए हैं। प्रोटो भारोपीय भाषा के अपभ्रंश स्वरूप में हाथी के लिए ‘*लभ/*ल्भोंथ-‘ शब्द है। इसकी व्युत्पति का मूल संस्कृत का ‘ऋभ/लभ’ है। ‘भारत-मूलभूमि-परिकल्पना' में न केवल भारोपीय भाषाओं के इस भूमि से बिछुड़कर बाहर चले जाने के समय से, बल्कि उससे भी बहुत पहले के काल से हाथी इस भूमि के अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य रहे हैं। इसलिए इनके नामों के शब्द ऋग्वेद के ज़माने से भी बहुत पहले के और भारोपीय भाषा से भी पहले के शब्द हैं। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि ‘इभ-‘ शब्द की व्युत्पति का स्त्रोत अज्ञात है। पाणिनि ने इस शब्द के उद्भव का कोई आधार नहीं दिया है। ‘ऊणादि-सूत्र' में ऐसे शब्दों की सूची है जिनकी व्युत्पति का आधार मालूम नहीं है। वहाँ पर इस शब्द का अर्थ ‘हस्ति’ अर्थात हाथी बताया गया है। सामन्य तौर पर ‘आर्य-आक्रमण-परिकल्पना’ के पैरोकार इसे आक्रांता आर्यों के अपनी स्थानीय बोली से लाया गया शब्द बता देते हैं, लेकिन इस शब्द का ज़िक्र किसी भी अभारोपीय भारतीय भाषा में नहीं मिलता है, हालाँकि इसके सपिंडी और सजातीय शब्द अनेक भारोपीय भाषाओं में मिला जाते हैं। फिर तो यही मानने को बच जाता है कि ‘इभ’ एक असाधारण कोटि का शब्द है जो ऋग्वेद के युग से भी काफ़ी पुरातन है और ऋग्वेद के रचे जाने तक वह अपने प्राकृत रूप को प्राप्त कर चुका था। तार्किक रूप से ‘इभ’ अपनी प्राकृत अवस्था पाने से पूर्व ‘ऋभ’ रूप में ही रहा होगा, जैसा कि आम लहजे में नियमित रूप से ‘ऋभ’ का प्रचलन हाथी की सूँड़ या उसके दाँतों के अर्थ में होता रहा है। हित्ती भाषा में इसके लिए ‘लहफ़ा-‘, लैटिन में ‘एबर-‘ और माइसेनियन ग्रीक में ‘एरेपा-‘ है। ग्रीक भाषा के ‘एलिफ़स’ और ऋग्वेद के ‘इभ’ शब्दों के दो अर्थों में एक अर्थ हाथी ही है। ग्रीक शब्द ‘एलिफ़ंता’ और जर्मन शब्दों (‘उलबंद’ आदि और उनसे संबंधित शब्दों) के प्रत्यय की व्याख्या हम ‘–वंता’ जैसे प्रत्यय शब्दों में ढूँढ सकते हैं। ‘*ऋभ-वंत’ का अर्थ हाथी होता है।
ऋग्वेद में हमारा परिचय ‘ऋभु’ शब्द से होता है। इसका संबंध पारलौकिक शिल्पकारों की एक प्रजाति से है। अपनी पौराणिक व्युत्पति में ये जर्मनी की पौराणिक लोककथाओं में पायी जाने वाली योगिनियों के समकक्ष बैठती हैं। मैकडौनेल के अनुसार ‘ऋभु’ शब्द का उद्भव ‘रभ’ शब्द अर्थात ‘मुट्ठी’ से हुआ है जिसका मतलब होता है हाथों की निपुणता (मैकडौनेल १८९७ :१३३)। वैदिक भाषा में ‘र’ और ‘ल’ शब्द के आपसी अदला-बदली की प्रवृत्ति के कारण इस मूल शब्द के ऋग्वेद में दो रूप पाए जाते हैं –‘रभ’ और ‘लभ’। दोनों का एक ही अर्थ होता है। ‘रभ’ का अर्थ होता है – पकड़ना, मुट्ठी में बाँधना, आलिंगन (मोनियर-विलियम्स १८९९ : ८६७) और ‘लभ’ का अर्थ होता है – लेना, ज़ब्त कर लेना, पकड़ना (मोनियर- विलियम्स १८९९ : ८९६)। ‘ऋभु’ शब्द के लिए प्रचलित विशेषण ‘सु-हस्त:’ है जिसका अर्थ होता है ‘कुशल हाथों वाला’ (४/३३/८, ३५/३/९, ५/४२/१२, १०/६६/१०)। इस तरह से ‘इभा’ और ‘ऋभा’ दोनों शब्द ‘रभ’ और ‘लभ’ से व्युत्पन्न हैं। इस मामले में हमें पाणिनि की तुलना में एक अतिरिक्त सहूलियत यह है कि बाक़ी भारोपीय भाषाओं में प्राप्त शब्दों की तुलना से प्राप्त अर्वाचीन साक्ष्य हमारे सामने मौजूद हैं। यह ‘इभ’ शब्द की वैदिक व्युत्पति पर तो प्रकाश डालता ही है, साथ-साथ प्रोटो-भारोपीय भाषा के व्युत्पति-विज्ञान की भी स्पष्ट समझ दे देता है जैसे कि ग्रीक और हित्ती संस्करणों में ‘ल’ तत्व की व्याख्या (और प्रोटो भारोपीय के अपभ्रंश रूप में ‘लेभ-’ शब्द!)। [ यहाँ यह ग़ौर करने वाली बात है कि ‘इभ’ शब्द की व्युत्पति भी ‘कुशल हाथ’ वाले अर्थ से ही हुई है और इसका भी भाव वहीं है जो ‘हस्तिन’ शब्द का है। लेकिन विडम्बना का विषय तो यह बेजान और बेस्वाद तर्क है कि इस साफ़-साफ़ समझ में आने वाले ‘हस्तिन’ शब्द का अर्थ भी आक्रमणकारी आर्यों द्वारा अपने साथ लाए एक नए जानवर के रूप में परोस दिया गया]।
भारत में हाथियों के दाँत के व्यापार के प्राचीन महत्व से ‘इभ-‘ शब्द के दो अर्थ प्रकट होते हैं। ऋग्वेद में ‘इभ-‘ का अर्थ ‘हाथी/हाथी का दाँत (‘रभ’, ‘लभ’ से व्युत्पन्न ‘ऋभा’) है। ‘इभ्य’ का अर्थ धनवान, धनिक या अमीर (रभ्य, लभ्य) है। मूल शब्द ‘लभ’ बाद में लाभ, धन-दौलत या समृद्धि के अर्थ में प्रकट होने लगा। धन की देवी ‘लक्ष्मी’ को हाथियों से घिरा प्रदर्शित किया जाने लगा और यहाँ तक कि उनके नाम का विस्तार कर उन्हें ‘लाभ-लक्ष्मी’ और ‘गज-लक्ष्मी’ भी कहा जाने लगा।
“ठीक वैसे ही ‘ऋभु’ को ‘धन या सम्पत्ति भी कहा जाता है जैसा कि ऋग्वेद के ४/३७/५ और ८/९३/३४ में हम पाते हैं’(मोनियर विलियम्स १८९९ : २२६) और दो सूक्तों (४/३७/५ और ८/९३/३४) में इसका अनुवाद धन-दौलत के रूप में किया गया है (विल्सन और ग्रिफ़िथ)।
“ सारत:, अकेले हाथी ही इस बात का पर्याप्त सबूत दे देता है कि आर्य बाहर से नहीं आए बल्कि अपनी मूल जन्मभूमि भारत से ही बाहर की ओर फैले थे।
२ – ऋग्वेद और वैदिक ग्रंथों में वर्णित पूर्वी बनाम पश्चिमी क्षेत्र
ऋग्वेद के पुराने और नए मंडलों में वर्णित प्राणी और वानस्पतिक जगत का अवलोकन अत्यंत शिक्षाप्रद है।
पूर्वी जगत
सबसे पहले तो पूर्वी भारत के भीतरी भागों में बसने वाले ऐसे प्राणियों पर ध्यान केंद्रित करें जो सामान्य तौर पर पश्चिमोत्तर सीमा या उससे सटे अफगनिस्तान और अन्य पश्चिमी भागों के बाशिंदे नहीं हैं। जैसे – हाथी (इभा-, वारण, हस्तिन), भारतीय बाइसन या बिजोन या गवल (गौर), मोर (मयूर), भैंस (महिष) और धारीदार हिरण या चीतल (पृष्टि/पृश्दश्व)।
पश्चिमी जगत
ऋग्वेद के संदर्भ में पश्चिमी जगत के प्राणियों से तात्पर्य उन जंतुओं से है जो भारत के पश्चिम अर्थात कश्मीर और इसके आस-पास के क्षेत्रों से उत्तर की ओर, पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेशों में और अफ़ग़ानिस्तान में पाए जाते हैं। वैसे तो जंगली बकरियाँ पूर्वी हिमालय में, नीलगिरी तहर (जंगली बकरियों की एक प्रजाति) तमिलनाडु में नीलगिरी की पहाड़ियों के दक्षिण में और जंगली सुअर दक्षिण तथा पूरब के भूभागों में भी पाए जाते हैं। पश्चिमी जगत के जंतुओं में पहाड़ी बकरी (छग), भेड़ (मेष), मेमना (ऊरा), बैक्ट्रियायी ऊँट (ऊष्ट्र), अफ़ग़ानी घोड़ा (मथ्र) और जंगली सुअर (वराह) आदि उल्लेखनीय हैं। पश्चिमोत्तर में पाए जाने वाले इन जंतुओं में से अधिकांश, जैसे कि ‘माएस’(भेड़), ‘ऊरा’(मेमना), ‘ऊष्ट्र’(ऊँट) और ‘वराज’(सुअर), का विवरण अवेस्ता में भी मिलता है। ठीक इसके उलट, जिन पूर्वी जंतुओं का ऊपर हमने ज़िक्र किया उसमें किसी का भी विवरण अवेस्ता में नहीं मिलता।
अब इन पश्चिमी जंतुओं का ज़िक्र भी नए मंडलों में ही मिलता है। यहाँ तक कि नए मंडलों में भी जो सबसे पुराना पाँचवाँ मंडल है, उसमें भी ये नदारद हैं। इससे एक बात तो साफ़ हो जाती है कि जबतक वैदिक आर्य अपनी मूल पूरबिया भूमि से पश्चिमोत्तर की ओर नहीं बढ़े थे तबतक वे इन पश्चिमोत्तर प्राणियों से बिल्कुल अनजान ही थे। इन जंतुओं की चर्चा का ऋग्वेद में वितरण इस प्रकार है :
१ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं और कोई ऋचा नहीं
२ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुनर्संशोधित सूक्तों में : कोई सूक्त नहीं और कोई ऋचा नहीं।
३ – नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ३३ सूक्त, ३५ मंत्र या ऋचायें
यदि हम तथ्यों की थोड़ी और गहरायी में जाकर पड़ताल करें तो पश्चिमी पालतू जानवरों में गदहों (गर्दभ, रासभ) और सुअरों (सुकर) का ज़िक्र तो हमें पुनर्संशोधित और नए मंडलों में तो मिलता है लेकिन पुराने मंडलों में नहीं मिलता। यहाँ पर अवेस्ता के ‘हुकर’ और टोकारिया के ‘केर्चापो’ की चर्चा भी समीचीन होगा। गदहे के लिए अवेस्ता का शब्द ‘क्षर’ सूत्रों में ‘खर’ के रूप में पाया जाता है।
पुनर्संशोधित मंडल :
तीसरा मंडल – ५३/(५, २३)
सातवाँ मंडल – ५५/४
नए मंडल :
पहला मंडल – ३४/९, ११६/२, १६२/२१
आठवाँ मंडल – ८५/७
यद्यपि पूरब के वैदिक आर्य भेड़ों से परिचित नहीं थे किंतु पश्चिम से आयातित ऊन से वे अवश्य परिचित थे जिसमें वे ‘सोम’ को छानकर पीते थे। जैसे-जैसे पश्चिम की ओर वे बढ़ते गए उनका यह परिचय गहराता गया। ‘भेड़’ के लिए प्रोटो-भारोपीय भाषा में नियमित शब्द ‘आवि-’ है। ऋग्वेद में सोमरस को छानने के लिए ऊनी कपड़े के लिए ‘आवि-‘ और इससे व्युत्पन्न शब्द ‘आव्य-‘, ‘आव्यय-’ और ‘अव्याय-‘ का प्रयोग हुआ है। ‘ऊन’ के लिए प्रोटो भारोपीय शब्द ‘ऊर्ण-’ या ‘ऊर्णा-‘ है, जिसके सजातीय और सपिंडी शब्द अधिकांश भारतीय-आर्य भाषाओं में मिल जाते हैं। ‘आवि-‘ शब्द का प्रयोग हमें ऋग्वेद में इस प्रकार मिलता है – तीन सबसे पुराने मंडल ६, ३ और ७ के पुराने सूक्तों में यह शब्द कहीं नहीं मिलता। केवल बीच के मंडल ४ और २ के पुराने सूक्तों, पुनर्संशोधित मंडलों और नए मंडलों में ही यह शब्द पाया जाता है।
पुराने सूक्त (मंडल ४ और २) :
चौथा मंडल – २/५, २२/२
दूसरा मंडल – ३६/१
पुनर्संशोधित मंडल :
छठा मंडल – १५/१६
नए मंडल :
(क्रमशः)