(भाग - १६ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ढ)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
दशमलव के विकास की चौथी अवस्था
दशमलव पद्धति के विकास की चौथी अवस्था मात्र उत्तर भारत की भारतीय आर्य भाषाओं को ही प्राप्त हुई। यहाँ तक कि सिंहली सरीखी उत्तर भारत की वे आर्य भाषाएँ जो यहाँ कि मिट्टी से बाहर चली गयी, वे भी विकास की इस अवस्था से वंचित रहीं। इस अवस्था में भाषाओं में १ से १० तक की संख्याएँ, दहाई की २० से ९० तक की संख्याएँ और १०० की संख्या के लिए शब्दों की उपलब्धता है। ११ से १९ तक की संख्यायों के लिए एक ख़ास ढंग से शब्दों का गठन है। बाक़ी संख्यायों ( २१-२९, ३१-३९, ४१-४९, ५१-५९, ६१-६९, ७१-७९, ८१-८९ और ९१-९९) के लिए शब्दों का गठन दूसरे प्रकार का है। गठन का यह तरीक़ा न तो सीधे-सीधे ढंग से ही है और न ही इनकी कोई नियमित व्यवस्था ही है। पूरी दुनिया में अपने आप में यह ढंग इतना अनोखा है कि इसमें १ से १०० तक की संख्यायों को रटने के सिवा और कोई चारा शेष नहीं रहता है। उदाहरण के लिए हम हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाओं में संख्यायों के लिए प्रयुक्त शब्दों के गठन पर विचार करें।
हिंदी
१-९ : एक, दो तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस।
११-१९ : ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस।
दहाई अंक १०-१०० : दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ।
अन्य संख्याएँ ‘इकाई रूप + दहाई रूप’ के संयोग से बनाती हैं। जैसे २१ : एक + बीस = इक्क-ईस। यहाँ पर ‘एक’ का ‘इक्क’ और ‘बीस’ का ‘ईस’ में रूपांतरण हो जाता है। इस तरह के रूपांतरण २१ से लेकर ९९ तक की संख्यायों में देखे जा सकते हैं :
दहाई रूप
२० बीस : -ईस (२१, २२, २३, २५, २७, २८), -बीस (२४, २६)
३० तीस : -तीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८)
४० चालीस : -तालीस (३९, ४१, ४३, ४५, ४७, ४८), -यालीस (४२, ४६), -वालीस (४४)
५० पचास : -चास (४९), -वन (५१, ५२, ५४, ५७, ५८), -पन (५३, ५५, ५६)
६० साठ : -सठ (५९, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)
७० सत्तर : -हत्तर (६९, ७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)
८० अस्सी : -आसी (७९, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९)
९० नब्बे : -नवे (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९)
इकाई रूप
१ एक : इक्क- (२१), इकत- (३१), इक- (४१, ६१, ७१), इकी- (८१), इक्या- (५१, ९१)
२ दो : बा- (२२, ५२, ६२, ९२), बत- (३२), ब- (४२, ७२), बे- (८२)
३ तीन : ते- (२३), तें- (३३, ४३), तिर- (५३, ६३, ८३), ति- (७३), तीरा- (९३)
४ चार : चौ- (२४, ५४, ७४), च- (४४), चौं- (३४, ६४), चौर- (८४), चौरा- (९४)
५ पाँच : पच्च- (२५), पै- (३५, ४५, ६५), पच- (५५, ७५, ८५), पंचा- (९५)
६ छः : छब- (२६), छत- (३६), छी- (४६, ७६), छप- (५६), छिया- (६६, ९६), छिय- (८६)
७ सात : सत्ता- (२७, ५७, ९७), सै- (३७, ४७), सड़- (६७), सत- (७७), सत्त- (८७)
८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८, ९८), अड़- (३८, ४८, ६८), अठ- (७८, ८८)
९ नौ : उन- (२९, ३९, ५९, ६९, ७९), उनन- (४९), नव- (८९), निन्या- (९९)
मराठी
१-९ : एक, दों, तीन, चार, पाँच, सहा, सात, आठ, नौ
११- १९ : अकरा, बारा, तेरा, चौदा, पंढरा, सोला, सतरा, अठरा, एकोनिस
दहाई अंक १०-१०० : दहा, वीस, तीस, चालीस, पन्नास, साठ, सत्तर, अईसी, नव्वद, शम्भर
अन्य संख्याएँ इकाई और दहाई रूपों के संयोग से बनाती हैं। जैसे – २१ : एक + वीस = एक-वीस
२१-९९ तक की संख्यायों के इकाई और दहाई रूपों में भी रुप-परिवर्तन के तत्वों को देखा जा सकता है :
दहाई रूप
२० वीस : -वीस (२१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८)
३० तीस : -तीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, २७, ३८)
४० चालीस : -चालीस (३९, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८)
५० पन्नास : -पन्नास (४९), -वन्न (५१, ५२, ५५, ५७, ५८), -पन्न (५३, ५४, ५६)
६० साठ : -साठ (५९), -सश्ठ (६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)
७० सत्तर : -सत्तर (६९), -हत्तर (७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)
८० अईसी : -अईसी ( ७९, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८)
९० नव्वद : -नव्वद (८९), -न्नव (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९)
इकाई रूप १ एक : एक- (२१, ३१, ६१), एक्क- (४१), एक्क्या- (८१, ९१), एक्का- (५१, ७१)
२ दों : बा- (२२, ५२, ६२, ७२), बत- (३२), बे- (४२), बया- (८२, ९२)
३ तीन : ते- (२३), तेह- (३३), तरे- (४३, ५३, ६३), तरया- (७३, ८३, ९३)
४ चार : चो- (२४), चौ- (३४, ५४, ६४), चव्वे- (४४), चौरया- (७४, ८४, ९४)
५ पाच : पंच- (२५), पस- (३५), पंचे- (४५), पंचा- (५५), पा- (६५), पंच्या- (७५, ८५, ९५)
६ सहा : सव- (२६), छत- (३६), सेहे- (४६), छप- (५६), सहा- (६६), शहा- (७६, ८६, ९६)
७ सात : सत्ता- (२७, ५७), सड़- (३७), सत्ते- (४७), सड़ु- (६७), सत्तया- (७७, ८७, ९७)
८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८), अड़- (३८), अट्ठे- (४८), अड़ु- (६८), अट्ठया- (७८, ८८, ९८)
९ नौ : एकोन- (२९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९), नव्वया- (९९)
गुजराती
१-९ : एक, बे, त्रन, चार, पाँच, छ, सात, आठ, नव
११-१९ : अग्यारअ , बारअ , तेरअ, चौदा, पंधरा, सोला, सतरा, अठरा, एकोनिश
दहाई १०-१०० : दहा, वीस, तीस, चालीस, पन्नास, साठ, सत्तर, अईसी, नव्वद, शम्भर
बाक़ी संख्यायों का गठन इकाई और दहाई के संयोग से होता है। जैसे – २१ : एक +वीस = एक-वीस।
अब २१-९९ तक की संख्यायों के इकाई और दहाई रूपों के गठन में होने वाले परिवर्तन पर हम थोड़ी दृष्टि डाल लें :
दहाई रूप
२० वीस : -ईस (२५), -वीस (२१, २२, २३, २४, २६, २७, २८)
३० त्रीस : -त्रीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८)
४० चालीस : -तालीस (४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८), -चालीस (३९), -आलीस (४४)
५० पचास : -पचास (४९), -वन (५१, ५२, ५५, ५७, ५८), -पन (५३, ५४, ५६)
६० साठ : -साठ (५९), -सठ (६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)
७० सित्तर : -सित्तर (६९), -ओतेर (७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)
८० ईसी : -ईसी (७९), -आसी (८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९)
९० नेवु : -नु (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९७, ९८, ९९), -न्नु (९६)
इकाई रूप
१ एक : एक्- (२१, ४१, ६१, ७१), एक- (३१), एका- (५१, ९१), एकी- (८१)
२ बे : बा- (२२, ५२, ६२, ७२), ब- (३२), बे- (४२), ब् - (७२), बय- (८२)
३ त्रन : ते- (२३, ३३), तरे- (४३, ५३, ६३), तय- (८३), त्- (७३), तरा- (९३)
४ चार : चो- (२४, ३४, ५४, ६४), चम- (४४, ७४), चोरय- (८४), चोरा- (९४)
५ पांच : पच्च- (२५), पा- (३५, ६५), पिस- (४५), पंच- (७५, ८५), पंचा- (५५, ९५)
६ छ: : छ- (२६, ३६, ९६), छे- (४६), छप- (५६), छा- (६६), छय- (८६), छ्- (७६)
७ सात : सत्ता- (२७, ५७, ९७), सद- (३७), सुड- (४७), सड़- (४७), सित्य- (७७, ८७)
८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८, ९८), अड़- (४८, ६८), अड़ा- (३८), इठ्य- (७८, ८८)
९ नव : ओगण- (२९, ३९, ४९, ५९), अगणो- (६९), ओगणा- (७९), नेवय- (८९), नव्वा- (८९)
२१ से ९९ तक की संख्यायों के लिए शब्दों के गठन में इसी तरह की अनियमितता और लचीलेपन की जटिलता से उत्तर भारत की सारी आर्य-भाषाएँ संक्रमित हैं। यह स्थिति सुदूर उत्तर की कश्मीरी भाषाओं में तो है ही, पश्चिम में अफगनिस्तान की ‘पश्तो’ भाषा भी इस लक्षण से अछूती नहीं है जबकि पश्तो भाषा ‘ईरानी-शाखा’ की भाषा है। किंतु साथ ही ध्यान देने वाली बात यह है कि इस तरह का कोई भी लक्षण भारत से बाहर की किसी भाषा में नहीं मिलता है। यह बात भी उतनी ही उल्लेखनीय है कि शब्दों के संयोजन की एक भारतीय-आर्य भाषा की शैली दूसरी भारतीय-आर्य भाषा की शैली से किंचित मेल नहीं खाती है। उदाहरण के तौर पर २१, ३१ और ६१ में मराठी में १ के लिए एक ही रूप ‘एक-‘ है। हिंदी में इनके लिए तीन अलग-अलग रूप हैं। २१(इक्कीस) के लिए ‘इक्क-‘, ३१(इकतीस) के लिए ‘इकत-‘ और ६१(इकसठ) के लिए ‘इक-‘ शब्दों के रूप हैं। गुजराती में दो शब्द-रूप आते हैं। ‘एक्-‘ (२१ और ६१) में तथा ‘एक-‘ (३१) में। उसी तरह पाँच के लिए:
हिंदी में एक रूप ‘पै-‘ ३५ (पैंतीस), ४५ (पैतालीस) और ६५ (पैसठ) के लिए।
गुजराती में दो रूप – ‘पा-’ ३५ और ६५ में तथा ‘पिस-‘ ४५ में। और
मराठी में तीन रूप – ‘पस-’ ३५ में, ‘पंचे-‘ ४५ में तथा ‘पा-‘ ६५ में।
हमने इन तीन भारतीय आर्य भाषाओं में २१ से ९९ तक की संख्यायों के लिए शब्द-रूपों गठन को ऊपर की सारणियों में दर्शाया है। लेकिन इन शब्दों को प्रयोग हेतु याद रखने के लिए इन सारणियों से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हैं और इन्हें रटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं है। दुनिया की बाक़ी भाषाओं में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। वहाँ ज़्यादा से ज़्यादा १ से १० या १९ और दहाई संख्यायों (२०, ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०) को बस हृदयंगम करने की ज़रूरत है। इनकी ही सहायता से संयोजन के कुछ ख़ास तरीक़ों से २१ से ९९ तक की बाक़ी संख्याएँ अपने आप दिमाग़ में घुस जाती हैं। यह बात बाहर की भाषाओं के साथ-साथ भारत के अंदर की ग़ैर भारोपीय भाषाओं ( द्रविड़, औस्ट्रिक, चीनी-तिब्बती, बुरूशासकी) पर भी लागू होती है। अंडमान की भाषाओं में तो ३ और ५ के अलावा कोई शब्द ही नहीं है। भारत के बाहर बोली जाने वाली आभारतीय आभारोपीय भाषाओं और यहाँ तक कि भारतीय-आर्य परिवार की ही सिंहली भाषा का भी यही हाल है।
भारोपीय भाषाओं के भारत की भूमि में उद्भव होने की अवधारणा के संदर्भ में निस्संदिग्ध तौर पर निनलिखित बातें स्पष्ट होती हैं :
१ – मौलिक प्रोटो (प्राक) भारोपीय भाषाओं का प्राचीनतम स्वरूप दशमलव-पद्धति के विकास की पहली अवस्था का है। दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था नहीं आने तक हमारे पास इस बात के साफ़-साफ़ सबूत नहीं हैं कि १० के बाद की संख्याएँ वजूद में कैसे आयीं।
२ – निश्चित तौर पर दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था में ही पहली दो शाखाओं ने अपनी मूलभूमि को छोड़ा होगा। अनाटोलियन (हित्ती) भाषा में १० से ऊपर की संख्यायों के हमारे पास कोई प्रामाणिक अभिलेख मौजूद नहीं है, लेकिन टोकारियन बी भाषा में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं। प्राचीनतम भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत और बोल-चाल की सिंहली भाषा में भी हमारे पास लिखित प्रमाण मौजूद हैं। बताते चले कि सिंहली भी अत्यंत प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा है जिसने ‘वाटर’ के लिए ‘वतुर’ शब्द को अभी तक बचाए रखा है जबकि संस्कृत से इस शब्द का लोप हो गया है।
३ – बाक़ी सभी नौ भारोपीय शाखाएँ (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक, स्लावी, अल्बानियायी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी) तथा भारत भूमि से बाहर निकलने वाली सिंहली भाषा दशमलव-विकास की तीसरी अवस्था में पहुँच गयी। यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि दक्षिण-पश्चिम यूरोप में सेल्टिक भाषा ने बास्क-भाषा के प्रभाव में आकर विंशमलव पद्धति को अपना लिया। इससे एक बात साफ़ होती है कि संस्कृत के मानक रूप प्राप्त कर लेने के बाद और दशमलव-विकास की दूसरी अवस्था में हित्ती और टोकारियन भाषा के बाहर निकल जाने के बाद इन सारी नवों भारोपीय शाखाओं और सिंहली भाषा के उद्भव की उत्तरोत्तर प्रक्रिया साथ-साथ दशमलव विकास के तीसरे चरण में जारी रही।
४ – अपनी ख़ुद की भारतीय-आर्य भाषा सिंहली के साथ-साथ अन्य ग्यारहों शाखाओं के भारतीय ज़मीन छोड़ देने के बाद यहाँ बची रह गयी। भारतीय आर्य भाषा ने अब दशमलव के विकास की चौथी अवस्था में प्रवेश कर लिया है।
संख्या ‘१’ पर कुछ ख़ास बात
भारोपीय भाषाओं की पहली संख्या ‘१’ पर हम थोड़ी नज़रें गड़ाएँ और देखें कि इसके साथ जुड़ी कुछ ख़ास बातें क्या हैं। भारोपीय भाषाओं में ‘१’ के लिए प्रयुक्त शब्दों में अधिकांश की उत्पत्ति का मूल दो संयोजित प्रोटो भारोपीय शब्द हैं – ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’! ये दोनों शब्द ग़ैर-भारतीय-ईरानी और भारतीय-ईरानी, दोनों शाखाओं, में क्रमशः समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इन दो शब्द-विभाजनों पर भाषाशास्त्रियों ने ‘प्राचीन भारोपीय’ शब्दों की पड़ताल करने के लिए ज़्यादा ज़ोर दिया है। भारतीय-ईरानी शाखा में ‘ओई-नो’ शब्द के प्रतिनिधित्व का कोई नामो-निशान नहीं है। उसी तरह ग़ैर-भारतीय-ईरानी शाखा में भी ‘ओई-को’ शब्द का कोई अस्तित्व नहीं है (जबतक कि अर्मेनियायी शब्द ‘मेक’ को हम प्रतिनिधि शब्द न मान लें)।
किंतु, एक भाषा ऐसी है जिसमें इन दोनों, ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ की तुलना में वैकल्पिक शब्द-रूप मौजूद हैं। यह अभारोपीय भाषा बुरूशासकी है जो उत्तर में पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में बोली जाती है। बुरूशासकी में ‘वन’ = ‘हिन’ (या हेन) और ‘हिक’। ‘ओई-नो’ से मिलता जुलते शब्द द्रविड़-शाखाओं में पायी जाती है जैसे – तमिल में ‘ओन-रु’, मलयालम में ‘ओन-नु’ और कन्नड़ में ‘ओन-डु’। दूसरी ओर तेलगु में ‘’ओक-टी’ शब्द पाया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि इन दोनों शब्द-युग्मों ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ की उपस्थिति की साफ़-साफ़ आहट आज भी भारत की भूमि में सुनायी दे रही है। कहीं यह इस बात का प्रमाण तो नहीं कि वह क्षेत्र जहाँ से ग़ैर भारतीय-ईरानी और भारतीय ईरानी शाखाएँ क्रमशः अपना ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ साथ लेकर एक दूसरे से बिछुड़ गयीं, वह यही भारत की भूमि है।
कुछ ऐसी भी भारोपीय भाषाएँ हैं जिनमें ‘वन’ शब्द की व्युत्पति में ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ का कोई योगदान नहीं है। परंतु, ये सभी भाषाएँ इस शब्द के लिए संस्कृत के शब्द ‘सम’ और ‘एव’ से किसी-न-किसी रूप में जुड़ी हैं। इन दोनों शब्दों का अर्थ ‘वही/वहीं (अंग्रेज़ी में सेम) होता है। कश्मीर के उत्तर की टोकारियन ए भाषा में ‘सस’ (पुल्लिंग) और ‘साम’ (स्त्रीलिंग) शब्द आते हैं। टोकारियन बी भाषा में दोनों लिंगों के लिए एक ही शब्द ‘से’ आता है। यूनानी पूलिंग शब्द ‘हेस’ तो टोकारियन शब्द ‘सेंस’ का सपिंडी ही है। भारत से पश्चिम अवेस्ता में ‘एव’ और प्राचीन पारसी भाषा में ‘ऐव’ शब्द है। कुछ अत्याधुनिक ईरानी भाषाओं और दारदी/दर्दु/पिसाच भाषाओं ( यह भाषा मुख्य रूप से उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित, बालतिस्तान, खाइबर पख़्तूनखवाँ, उत्तर भारत की कश्मीर घाटी और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान की चेनब घाटी में बोली जाती है) में ‘एव’ शब्द पाया जाता है और ईरानी पश्तो भाषा में ‘यव’ शब्द पाया जाता है। हालाँकि आधुनिक पारसी भाषा सहित अत्याधुनिक ईरानी और दारदी भाषाओं के शब्द ‘यक’, बलूचि शब्द ‘यक’ तजिक शब्द ‘यक’, कर्दिस शब्द ‘येक’ और कश्मीरी शब्द ‘अख’, ये सभी व्युत्पति में ‘ओई-को’ स्वरूप वाले ही हैं। इन सब बातों की पड़ताल करने के उपरांत सारे सबूत तो भारत के ही मूलभूमि होने की ओर संकेत करते हैं।
दो और शब्द हैं जो हमारा ध्यान खिंचते हैं। पहला शब्द है – ‘मिअ’ जो यूनानी अर्थात ग्रीक भाषा का है। और दूसरा शब्द अर्मेनियायी भाषा का ‘मी’ या ‘मेक’ है। अब इन दोनों शब्दों की तुलना हम औस्ट्रिक परिवार की इन भाषाओं में ‘१’ के लिए आने वाले शब्दों से करें। संथाली में ‘मित’, मुंडारी में ‘मी’, कोरकु में ‘मीअ’, खरिया में ‘मोइ’, सवारा में ‘मि’, जुआंग में ‘मिन’ और गड़बा में ‘मुइरो’। कहीं ग्रीक और अर्मेनियायी भाषा के ये समानार्थक शब्द औस्ट्रिक परिवार से ही व्युत्पन्न तो नहीं हैं? जहाँ तक औस्ट्रिक परिवार के शब्दों की मौलिकता का प्रश्न है, तो उनकी निर्विवादता की पुष्टि इस बात से भी मिलती है कि उनका सपिंडी शब्द ‘मोत’ औस्ट्रिक परिवार की वियतनामी भाषा और ‘मुएय’ ख्मेर कंबोडियायी भाषा में मिलता है।