Sunday, 24 May 2020

पद-तल, मरु थल के!

मनुष्य :

पिता, दान तेरे वचनो का, लेकर आया जीवन में,
संग चलोगे पग-पग मेरे , जीवन के मरु आँगन में।

तेरी अंगुली पकड़ मचला मैं, सुभग-सलोने जीवन में,
हरदम क़दम मिले दो जोड़ी, जैसे माणिक़ कंचन से।

किंतु, यह क्या? हे प्रभु! कैसी है तेरी माया !
घेरी विपदा की जब बदरी, चरण चिह्न न तेरी पाया!

भीषण ताप में दहक रहा था, पथ की मैं मरु-ज्वाला में,
रहा भटकता मैं अनाथ-सा, तप्त बालुकूट  माला में।

हे निर्मम ! निर्दयी-से निंद्य! क्यों वचन बता, तूने तोड़ा?
तपते-से सैकत  में तुमने, मुझे अकेला क्यों छोड़ा?

देख! देख! मरुस्थल में, तू मेरा जलता जीवन देख!
देख घिसटती  संकट में , पाँवों की  यह मेरी रेख!

देख, मैं कैसे जलूँ  अकेला! मरु के भीषण ज्वालों से,
सोंचू! कैसे ढोयी  देह यह, छलनी-से पग-छालों से।

अब न पुनर्जन्म, हे स्वामी,! नहीं धरा पर जाऊँगा,
परम पिता,  तेरी प्रवंचना! नहीं छला अब जाऊँगा।



ईश्वर:

छल की बात सुन,  भगवन के नयनों में करुणा छलक गई।
छौने की निश्छल पृच्छा पर,  पलकों से पीड़ा  ढलक गई।


छोड़ूँ साथ तुम्हारा मैं ! किंचित न सोचना सपने में!
हे वत्स! मरु में पद-चिह्न वे,  नहीं तुम्हारे अपने थे।

डसे   चले,  जब दुर्भाग्य के, कुटिल करील-से डंकों ने,
पुत्र !  सोए तुम रहे सुरक्षित,  मेरी भुजा के अंकों में।

चला जा रहा,  मैं ही  अकेला!  तुम्हें उठाए बाँहों में,
पद तल वे मेरे ही, बेटे!  मरु थल की धिपती राहों में!






Tuesday, 19 May 2020

'प्रवासी' मज़दूर

बचपन से ही माँ को देखता रहा,
 गूंधती आटा, आँखों से लोर बहा,
अपनी मायके की यादों के।
फिर रोटियाँ सेकती आगी पर
विरह की, नानी से अपने।
'जननी, जन्मभूमि:च
स्वर्गात अपि गरियसी ।'
प्रथम प्रतिश्रुति थी मेरी,
'प्रवास की परिकल्पना' की!
क्योंकि पहली प्रवासी थी
मेरी माँ ! मेरे जीवन की!
आयी थी अपना मूल स्थान त्याज्य
वीरान, अनजान और बंजर भूमि पर
जीवन का नवांकुर बोने।
फिर  बहकर आयी पुरवैया हवाएँ ,
ऊपर से झरकर गिरी बरखा रानी।
पहाड़ों से चलकर नदी का पानी।
पछ्छिम से छुपाछिपी खेलता
पंछियों का कारवाँ।
सब प्रवासी ही तो थे!

आज राजधानी के राजपथ पर पत्थर उठाते
नज़रें टिकी पार्लियामेंट पर।
सारे के सारे 'माननीय' प्रवासी निकले।
बमुश्किल एक दो खाँटी होंगे दिल्ली के।
उनके भी परदादे फेंक दिए गए थे किसी 'पाक' भूमि से !
मंत्रालय, सचिवालाय, बाबुओं का विश्रामालय
छोटे बाबू से बड़े बाबू तक! सब प्रवासी निकले।
और तो और,  वह भी! गौहाटी का मारवाड़ी!
और दक्षिण अफ़्रीका गया वह कठियाबाड़ी !
मनाता है 'भारतीय प्रवासी दिवस'
जिसके देस  लौटने को सारा भारतवासी ।
लेकिन मेरी ही यादों में बसी रही
अहर्निश मेरी रोटी पकाती और घर लीपती
पियरी माटी में लिपटी मेरी माँ।
जिसने ले वामन अवतार आज माप ली है
लम्बाई अहंकार की, 'राष्ट्रीय उच्च पथ' के।
हे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
बेशर्म, निर्लज्ज, दंभ  के दर्प में चूर!
हौसलों को पंख लग जाते हैं मेरे
जब कहते हो मुझे 'प्रवासी' मज़दूर'!!!












Sunday, 17 May 2020

सर, प्रणाम!!!

१५ मई २०२० को हमारे प्रिय शिक्षक प्रोफेसर एस के जोशी नहीं रहे। उनका जाना हमारे मन में अनुभूतियों के स्तर पर एक विराट शून्य गहरा गया। अतीत का एक खंड चलचित्र की भाँति मानस पटल पर कौंध गया। कुछ बातें मन के गह्वर  में इतनी गहरायी से पैठ जाती हैं कि न केवल गाहे-बेगाहे यादों के गलियारों में अपनी चिरंजीवी उपस्थिति का अहसास दिलाती रहती हैं, बल्कि अचेतन में बैठकर हमारे चैतन्य व्यवहार को संचालित भी करती हैं। डॉक्टर जोशी से हमारा सान्निध्य भी कुछ ऐसा ही रहा। १९८३ में अपने घर (उस समय डाल्टनगंज, आज का मेदिनीनगर, झारखंड, तब मेरे पिताजी वहीं पदस्थापित थे) से रुड़की के लिए निकला था ‘पल्प ऐंड पेपर इंजीनियरिंग’ में अपना  नामांकन रद्द कराने। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि मुझे ‘मकैनिकल’  इंजीनियरिंग मिल गया है और मेरे इंटर के मित्र शांतमनु भी मिल गए जिन्हें ‘सिविल’ मिल गया था। अब हमने तय कर लिया कि  रजिस्ट्रेशन करा लेना है। रजिस्ट्रेशन के वक़्त मेरा विभाग ‘सिविल’ हो गया और शांतमनु का ‘मकैनिकल’! हमें छात्रावास भी आवंटित हो  गया – गंगा भवन, कमरा संख्या बी जी ८। मेरे पास कोई सामान तो था नहीं क्योंकि हम तो एड्मिशन रद्द कराने पहुँचे थे। ठीक अगले दिन से सेमेस्टर की नियमित कक्षाएँ प्रारम्भ हो जानी थी। रैगिंग का कार्यक्रम भी बदस्तूर जारी था। मैं अपने कमरे में प्रवेश कर अभी खिड़की-कुर्सी-मेज़  देख ही रहा था कि एक सौम्य आकृति ने कमरे में हल्के से प्रवेश किया और मुझसे औपचारिक परिचय से बात-चीत शुरू की। उस कम उम्र में अपने घर से इतनी दूर बाहर निकलने पर विरह विगलित चित्त की वेदना को उनकी मधुर वाणी ने बड़े प्यार से सहलाया। मुझे वापस घर लौटना था अपने आवश्यक सामान लेकर लौटने के लिए। वे मुझे वार्डन के पास लेकर गए और मुझे घर जाने की तत्काल अनुमति उन्होंने दिलायी। मुझे यथाशीघ्र लौटने की सलाह दी और  विलम्ब होने पर मेरी पढ़ाई में होने वाली मेरी क्षति का पूर्वानुमान कराया। मेरा कोमल मन उनके इस अपनेपन से आर्द्र हो गया। यह थे भारत के प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी ‘डॉक्टर श्री कृष्ण जोशी’ जो उस समय प्रथम वर्ष  के नव नामांकित छात्रों के समन्वयक हुआ करते थे।

फिर मेरे घर से लौटने के बाद भी कई दिनों तक नियमित रूप से मेरे कमरे में वह आते रहे और अपने पिता-सुलभ वात्सल्य की वाटिका में हमें घुमाते रहे। कभी कभार फ़िज़िक्स प्रैक्टिकल के दौरान लेबोरेटरी में उनकी मधुर और सौम्य मुस्कान का सामना हो जाता और वे बड़ी आत्मीयता से हमारा कुशल-क्षेम पूछ लेते। १९८५-८६  में मैं छात्र संघ का सिनेटर और कोषाध्यक्ष चुना गया। सीनेट की हर मीटिंग में वह संस्थान के डीन की हैसियत से सिरकत करते और हमारा रचनात्मक मार्गदर्शन करते। फिर अचानक वह दौर भी आया जब हमारी  उनसे एक छात्र नेता के तौर पर भिड़ंत हो गयी। ‘इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग' में एक छात्रा के परीक्षा फल में अप्रत्याशित और अनियमित उछाल पर गहराते रोष ने आंदोलन का रूप ले लिया और उस आंदोलन के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में मैं  खड़ा था। कई छात्र भूख हड़ताल पर चले गए। सिंचाई अभियांत्रिकी  की जानी-मानी अन्तर्राष्ट्रीय हस्ती डॉक्टर भरत सिंह वाइस-चांसलर थे। उनकी ओर से मुख्य निगोशिएटर की भूमिका में  डॉक्टर जोशी थे। औपचारिक मीटिंग के बाद कई बार हम दोनों ने अकेले में उस मसले पर लम्बी और गम्भीर मंत्रणायें की और उस घटना क्रम को अंततः एक तार्किक परिणती के मुक़ाम पर पहुँचाया। सही कहें, तो उन दिनों के हमारे गहराए रिश्तों ने मेरे  ऊपर न केवल जोशी सर के मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत एक निष्पक्ष और पवित्र  व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी, प्रत्युत हमारे अचेतन  मन में चारित्रिक  आदर्शों के कई प्रतिमानों का बीजारोपण भी चुपके-से वह कर गए। सम्भवतः उसी के बाद वह नैशनल फ़िज़िकल लेबोरेटरी के निदेशक बनकर दिल्ली चले गए थे और फिर हमारा सम्पर्क-विच्छेद हो गया।

कुमायूँ के एक सुदूर गाँव में जन्मे जोशी सर ने बचपन में न जाने कठिनाइयों की कितनी पहाड़ियाँ लाँघकर  अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की।अपने गाँव से प्रतिदिन तीन घंटे की पहाड़ी रास्ते की दूरी तय कर वह पैदल स्कूल आते थे। उनका स्कूली जीवन अत्यंत विपन्नता में कटा। ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही उनके माथे से पिता का साया उठ गया। अपने हाथों से अपने फटे कपड़ों  को वह  सिलकर  और टाँके लगाकर पहनते थे। अपने हाथों से ही खाना बनाते थे। ट्यूशन पढ़ाकर अपने तथा अपने छोटे भाई की पढ़ाई और जीविकोपार्जन का ख़र्चा बड़ी मुश्किल से वह जुटा पाते थे। रात में मिट्टी के तेल के दीये से फैलते प्रकाश और उनके अद्भुत जीवट ने धीरे-धीरे  उनके जीवन में ज्ञान का आलोक भरना शुरू किया। उन्हें प्रतिभा छात्रवृत्ति मिलने लगी। मितव्ययी जोशी सर ने उसमें से पाई-पाई बचाकर जी आई सी अल्मोड़ा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक में अपने नामांकन का जुगाड़ किया।  

बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से फ़िज़िक्स में स्नातकोत्तर में स्वर्ण-पदक प्राप्त किया। मात्र ३२ वर्ष की आयु में रुड़की विश्वविद्यालय (आज का आइआइटी रुड़की) में फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर बने। उससे पहले दो वर्षों तक वह कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में विज़िटिंग लेक्चरर रहे। ‘इलेक्ट्रॉनिक बैंड स्ट्रक्चर’ और ‘डी-इलेक्ट्रॉन वाले धातुओं’ के ‘लैटिस-डायनामिक्स’ पर उनके द्वारा किए गए शोध अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं। उन्हें  शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, मेघनाथ साहा पुरस्कार और न जाने कितने पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म-श्री और पद्म-भूषण से सम्मानित किया। वह भारतीय विज्ञान कोंग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और अन्य कई वैज्ञानिक संस्थानों के अध्यक्ष रहे। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) के महानिदेशक के रूप में उन्होंने भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को गति देने में अहम भूमिका अदा की। बाद में भारतीय प्रयोगशालाओं के मानकीकरण की शीर्ष संस्था एनएबीएल के अध्यक्ष  रहे।
अपनी सरलता और निश्छलता से हज़ारों हृदय पर राज करने वाले, अपनी करिश्मायी मुस्कान से मन की पीड़ा हर लेने वाले और अपने जादूयी  व्यक्तित्व से विस्मित कर देने वाले इस माटी के महान भौतिक वैज्ञानिक  हमारे प्रिय जोशी  सर, भले अपने भौतिक रूप में आज आप हमारे बीच नहीं रहे,  किंतु  आपकी आध्यात्मिक  और दार्शनिक उपस्थिति को हमारा मन अपने समय के अंत तक सर्वदा महसूस करते रहेगा! सर, प्रणाम!!!

           

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Friday, 24 April 2020

नमन दिनकर, नमन दिनकर!!!

आज  राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि है। कहते हैं, मृत्यु से पूर्व दिनकरजी ने रामेश्वरम के सागर तट पर अंतिम बार रश्मिरथी का पाठ किया था। भारतीय साहित्य के  इस देदीप्यमान नक्षत्र को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ,शत शत नमन और विनम्र शब्दांजली : -

अक्षर अंगारे, शब्द ज्वाल,
स्वर टंकार, भयभीत काल।

प्रकम्पित-से,  पर्वत गह्वर,
प्रवहमान कविता निर्झर।

रामेश्वरम का सागर तट,
उड़ेला रश्मि रथी का घट।

उछली उर्मी, उल्लसित धार
पुलकित पयोधि, न पारावार।

अहके अर्णव,  क्या दूँ मैं वर?
करबद्ध कोविद, कहें कविवर।

थाम जलधाम,  ये शब्द वीणा
मृत्यु दक्षिणा, मृत्यु दक्षिणा!

नि:सृत नयनन, नीरनिधि नीर
उठे  उदधि  उर  लिए  चीर।

मुख लाल क्षितिज किये रत्नाकर
समेटे रश्मि, डूबे दिवाकर।

कालजयी कवि  अजर-अमर
नमन दिनकर, नमन दिनकर।



Thursday, 23 April 2020

स्मृति दिवस : पुस्तक!

समय के आरम्भ में,
विवस्वत ने सुना था।
शब्दों का नाद !
गूँजता रहा अनंत काल तक,
आकाश के विस्तार में।
श्रुतियों में,
स्मृतियों में,
कुरुक्षेत्र की वीथियों में ।
ज्ञान, कर्म और भक्ति।
अमर प्रवाह-सा,
निर्झरणी के।
सत्व, रजस और तमस,
त्रिपिटक-सा।

मस्तिष्क के पटल पर,
व्यंजन में स्वर भर,
अंकित अक्षर-अक्षर,
शब्दों में उतर,
लेते आकार,   
तालपत्र  पर।
भोजपत्र, चर्मपत्र।
हाशिए पर चित्र पट ,
सजती पांडुलिपियाँ।
काग़ज़ों पर मुद्रण में,
समेटती गाथा मानवी,
सभ्यता और संस्कृति की ,
सजिल्द प्रकाशनों में।

सजी-धजी पुस्तक,
उर्वशी-सी !
खोती जा रही है,
होकर सवार ‘भेड़-चाल’,
डिजिटल स्क्रीन पर।
घिसटाती उसकी जिजीविषा,
और मेरी पिपासा।
मानों! खड़ा हूँ मैं,
निर्वस्त्र, ज्ञान से।    
समय के अंतिम छोर पर।
और स्मृति दिवस बन
आयी है  पुस्तक आज,
मिलने अपने पुरुरवा से!

Tuesday, 21 April 2020

कैर, बैर और कुमट।


फैले अम्बर के नीचे
प्यासी आकुल अवनि।
किया कपूतों ने माता के
दिल को छल से छलनी।

सूनी माँ की आंखों में
सपने सूखे-सूखे-से।
पड़े लाले प्राणों के प्राणी
तड़पे प्यासे-भूखे से।

उधर निगोड़ा सूरज भी
बस झोंके तुम पर आगी।
और कपट प्रचंड पवन का
रेत में ज्वाला जागी।

ताप पाप से दहक-दहक
धिप-धिप धँस गयी धरती।
परत-परत बे पर्दा करके
सुजला सुफला भई परती।

मत रो माँ !  मरुस्थल में हम
अजर, अमर और जीवट।
जाल, खेजड़ी, रोहिड़ा
कैर, बैर और कुमट।

Tuesday, 7 April 2020

भक्त और भगवान का समाहार!

रामचरितमानस के बालकांड के छठे विश्राम में महाकवि तुलसी ने राम अवतार की पृष्ट-भूमि को गढ़ा  है। भगवान शिव माँ पार्वती को राम कथा सुना रहे हैं। पृथ्वी पर घोर अनाचार फैला है। कुकर्मों की महामारी फैली है। धरती माता इन पाप कर्मों के बोझ  से पीड़ित हैं। वह मन ही मन विलाप कर रही हैं। समुद्र और पहाड़ों का बोझ भी इस पाप की गठरी के समक्ष कुछ नहीं है। समाज का आचरण कलूषता की समस्त सीमाओं को लाँघ गया है। जब मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता के जिन सोपानों के सहारे उसके वैभव की पराकाष्ठा  पर पहुँचकर वांछित चरित्र की मर्यादा को लाँघता है, तो वह फिर उन्ही सोपानों को पद मर्दित करता पतन की गहराईयों  में नीचे उतरना शुरू कर देता है। इस पद मर्दन में वे तमाम मूल्य, वे तमाम आदर्श, वे तमाम प्रतिमान और वे तमाम मर्यादाएँ कुचली जाती हैं जिनके सहारे संस्कृति ने अपना उदात्त स्वरूप गढ़ा था। हाँ, ये ज़रूर है कि पतन की यह प्रक्रिया आदर्शों और मर्यादाओं के महत्व को और रेखांकित करते चली जाती है और ये तमाम तत्व हमारे अनुभवों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित होकर हमारी संस्कृति का अटूट अंग बन जाते  हैं और जीवन के हरेक प्रहर, विशेषकर संकट की घड़ी में, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए उभर कर सामने आ जाते हैं। इसीलिए तो संस्कृति हमारे सामाजिक व्यक्तित्व की आंतरिक संरचना है, जबकि सभ्यता उसका बाह्य आवरण!  
सतयुग में सत्व की चरम सीमा के स्पर्श के पश्चात पृथ्वी की यह पीड़ा त्रेता में तत्कालीन समाज के उसी पतनोन्मुखता  की कहानी है, जिसके साक्षी बनकर स्वयं शिव शक्ति-रूपा  पार्वती  को यह कथा सुना रहे हैं। सतयुग में भगवान ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का संहार किया था। नृसिंह आधे मनुष्य और आधे पशु थे। सांकेतिक रूप से उनकी यह अवस्था मानव-सभ्यता के उस काल-खंड को सूचित करती  है जब  जीवों के रहने का आश्रय-स्थल अभी अरण्य ही थे और सभ्यता के  स्तर पर भी मनुष्य ने अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं किया था। अर्थात, उसकी वृत्तियों में मनुष्य और पशु की हिस्सेदारी अभी आधी-आधी ही थी। ऐसी अवस्था में अभी उद्भव के उस चरण का आना शेष था जब कि मनुष्य पूरी तरह से अपने में मानवीय वृत्तियों का आरोपण करे और उसका जीवन मानवीय मूल्यों, सात्विक संस्कृतियों और एक सभ्य मानवोचित  आचरण की मर्यादा में बँध कर एक सम्पूर्ण मानव संस्कृति की बसावट बन सके। आज त्रेता की भूमि सभ्यता के उसी चरण का सूत्रपात करने हेतु  ईश्वर के वांछित अवतार लेने के उचित मुहूर्त की तलाश में थी, जो मर्यादाओं के नए प्रतिमान स्थापित कर सभ्यता के एक नए मानवीय युग का सूत्र पात कर सके।
भवानी भी बड़े मनोयोग से इस कहानी को सुन रही हैं और उनके मन में भी (दुर्गासप्तशती में) उनके ही कहे शब्द प्रतिध्वनित-से हो रहे हैं :-
“इत्थम  यदा यदा दानवोत्था भविष्यति।  
तदा तदा अवतीर्यो अहम करिष्यामि अरिसंक्षयम।।“
इससे पहले चौथे विश्राम में भी काकभूसूँडी द्वारा गरुड़ जी को सुनायी जाने वाली राम कथा की शुरुआत करते समय  शिव भवानी के समक्ष  अवतार के कारणों पर प्रकाश डाल चुके हैं :-
“जब-जब होइ धरम कै हानि। बाढ़हि असुर  अधम अभिमानी।।
करहि अनिति जाइ नहीं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु, सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।“
तो, आज वह विकट समय उपस्थित हो गया है जब धरनी(पृथ्वी) धेनु(गाय) का रूप धरकर  अन्य पीड़ितों, सुर(देवताओं) और विप्र(मुनियों), के पास गयी जो स्वयं इस प्रकोप-काल में छिपे बैठे थे। पृथ्वी ने रो-रोकर अपना दुखड़ा इनको सुनाया किंतु उनमें से किसी से भी  कुछ करते नहीं बना। विवशता की इस विकट परिस्थिति में वे सभी इस सृष्टि के सर्जक ब्रह्मा के समक्ष उपस्थित होते हैं। ब्रह्मा धेनु-धड़-धारिणी धरती की दयनीय दशा देखते ही स्वतः सब कुछ समझ जाते हैं किंतु साथ ही उन्हें अपनी असहाय स्थिति का भी पूर्ण बोध है कि  दुःख की इस घड़ी में उनसे भी कुछ बनने वाला नहीं है। वह समस्त दुखी समुदाय को भगवान श्री हरि  के चरणों की वंदना की युक्ति सुझाते हैं। अब सबसे कठिन प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ये हरि मिलेंगे कहाँ!
भोले अपने भोलेपन में यह भी भवानी को बता देते हैं कि उस भीड़ में वह भी उपस्थित थे और उन्होंने ही चिरंतन ईश्वर के सर्व्वयापकता के रहस्य से उस समाज को परिचित कराया। परमात्मा के इस कण-कण में सब जगह पूरी तरह से व्याप्त होने के गूढ़ रहस्य को बड़ी भोली-भाली बोली में भगवान भोले इतने भोलेपन  से बताते हैं कि  तुलसी ने तुरंत उस वचनामृत का पान कर अपने मानस में उतार दिया है :-
“हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
अग जगमय सब रहित बिरागी।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जीमी आगी।।
भगवान शिव ने यहाँ भक्ति में प्रेम की महिमा का बखान किया है। इस त्रिभुवन के स्वामी तो बस प्रेम की सरलता में बसते हैं। यह समस्त चर-अचर, जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल उनसे व्याप्त है। वह सब में रह कर  भी सब से निर्लिप्त हैं, विरक्त हैं और निर्दोष हैं। वह हमारे अंदर ही व्याप्त है और हम प्रेम के अभाव में उसकी सत्ता से अनभिज्ञ हैं। ‘कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूँढे  बन मांहि/ ऐसे घटि-घटि राम हैं दुनिया देखै नाहीं।‘
भगवान शिव के द्वारा हृदय की सरलता में रहकर प्रेम मार्ग से  भगवत-प्राप्ति की इस युक्ति को पाकर  ब्रह्मा जी भावभिभूत हो गए। समस्त उपस्थित समुदाय ने उनके साथ अश्रुपुरित नेत्रों में भगवान की छवि बसाकर भाव-विहवल चित्त से हाथ जोड़कर स्तुति की। चैतन्य के आलोक से जगमग मन में प्रज्ञा के जागरण से हमारी बुद्धि प्रेम-भाव में भक्ति की धारा बनकर प्रवाहित होने लगती है और यहीं ज्ञान का चरमोत्कर्ष है, जब हमें स्वयं का भान नहीं रह जाता और हमारा सर्वस्व उस प्रियतम से एकाकार हो जाता है। ज्ञान की चरम अवस्था ज्ञानहीनता  का आभास है और ज्ञानी होने का दंभ भाव अज्ञानता  की पीड़ा! ‘यस्यामतम  मतम तस्य, मतम यस्य न वेद सः।‘
प्रार्थना की स्थिति भक्ति भाव में प्रवाहित होने की अवस्था है। तरल जिस पात्र में बहता है, उसी का आकार ग्रहण कर लेता है। ठीक वैसे ही चरम ध्यान और प्रार्थना की स्थिति में आँखों के आगे एक ही छवि अपनी आकृति ग्रहण करती है – अपने आराध्य की, अपने प्रभु की। उनके स्वरूप से भक्त समाकृति की अवस्था को प्राप्त होता है। पहले भक्त अपने प्रेम की अविरल धारा में बहकर अपने स्वामी का स्पर्श करता है, स्वामी उस तरलता में भीगकर घुलने लगते हैं, फिर भक्त की भक्ति-धारा में विलीन होकर  स्वयं अपने भक्त के साथ बहने लगते हैं। तब दोनों एक-दूसरे की स्थिति को प्राप्त कर अपना स्वायत्त आकार गँवा बैठते हैं और पहला दूसरा तथा दूसरा पहला बन गया रहता है। दोनों बेसुध! प्रेम-पीयूष की परम सुधा! सेवक स्वामी  और स्वामी सेवक – स्वयंसेवक!
प्रेम के उसी सागर में गोते लगाते भक्त-जनों के साथ ब्रह्मा जी अपने आराध्य भगवान हरि की छवि को टटोलते हैं और याचना करते हैं:-
‘हे सुर नायक, भक्तों को सुख की सुधा का पान कराने वाले शरणागत-वत्सल! असुरों के विनाशक, सत्व आचरण का पालन करने वाले विप्र और अपने दुग्ध से प्राणियों का पोषण करने वाली धेनु की रक्षा करने वाले सागर-कन्या लक्ष्मी के प्रिय नारायण-स्वामी! आपकी जय हो! समस्त रहस्यों से परे अद्भुत लीलाओं  के कलाधर स्वामी! आप अपनी कृपालुता और दीन दयालुता के सुधा रस से आप्लावित कर हमें अपनी कृपा का दान दें!’
‘आप अविनाशी हैं, अंतर्यामी हैं, सर्वव्यापी हैं, सत चित  और आनंद के परम स्वरूप हैं। हे अज्ञेय, इंद्रियातीत, पुनीत चरित्र वाले, आसक्ति के बंधन से छुड़ाकर मोक्ष प्रदान करने वाले माया रहित मुकुंद! मोह-पाश से मुक्त, ज्ञानी और विरक्त मुनि जन भी अनुरक्त भाव से आपकी भक्ति गंगा में डुबकी लगाकर कृत-कृत्य होते हैं। ऐसे गुणों के समूह, हे सच्चिदानंद! आपकी जय हो! जय हो!’
‘इस त्रिगुणी सृष्टि के रचयिता, पापनाशक, इस बंधन युक्त संसार में जन्म-मरण और आने जाने के बंधन से मुक्त कराने वाले, मृत्य के भय के संहारक, विपत्तियों को समूल नष्ट करने वाले और मन को नियंत्रित कर आपकी अर्चना में तल्लीन रहने वाले मुनियों के मन को प्रसन्नता की चिर शान्ति प्रदान करने वाले परमपिता परमेश्वर ! हम सब देव गण आज अत्यंत निश्छल  मन से मनसा-वचसा-कर्मणा अपने को आपकी शरण में समर्पित करने आए हैं।‘
‘आप ज्ञान की देवी सरस्वती, सभी ज्ञानों की खान वेद, इस पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग और सम्पूर्ण साधनाओं के अन्वेषक ऋषियों के आभास मात्र से परे हैं। वेदों में घोषित हे  दीन दयाल! हमें अपनी करुणा  से आर्द्र  करें। इस भव सागर को मंथने वाले हे मंदराचल पर्वत रूप, सभी सौंदर्यों के स्वामी, गुणों के धाम और सुखों की राशि हे नाथ! वर्तमान स्थिति में व्याप्त विभीषिका के भय से आकुल-व्याकुल हम समस्त मुनि , सिद्ध और सारे देवता आपके चरण कमल की बंदना करते हैं।‘
      पार्वती श्रद्धा की प्रतीक हैं और शिव विश्वास के। जब विश्वास में श्रद्धा का निवास हो तो अज्ञात भी ज्ञात हो जाता है, रहस्य भी प्रत्यक्ष हो जाता है और अनागत भी आगत हो जाता है। उस शक्तिनिवासिनी अर्द्धनारीश्वर  भगवान शिव की उपस्थिति में उन भयातुर देवताओं और पृथ्वी के मुख से करुणा से आर्द्र  स्नेहयुक्त याचना की वाणी सुनकर शोक, संताप और हर तरह के संदेहों को दूर करने वाली गम्भीर आकाश वाणी हुई : -
‘जनहिं डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहिं लागि धरिहउँ नर बेसा।।‘
इस आकाशवाणी में भगवान ने अपने अवतार की उद्घोषणा की और यह त्रेता में इस आर्यावर्त पर भगवान राम के अवतार की भूमिका बनी।
 देवताओं और ऋषियों द्वारा की गयी अर्चना में सारत: दो ही पक्ष उभरे हैं। एक उस परम पिता परमेश्वर का विराट रूप जो मूर्त में भी अमूर्त और अमूर्त में भी मूर्त है। उसकी छवि भक्तों में मूर्त रूप से विराजमान है लेकिन उस मूर्त छवि का निर्माण भगवान के अमूर्त गुणों से होता है जिसके वे परम धाम हैं और उन शाश्वत सुखों से होता है जिसकी अमोघ राशि हैं! उस अज्ञेय इंद्रियातीत छवि के चरण-कमल भक्तों के नयनों में निवास करते हैं, जिस पर उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित किया है। और दूसरा पक्ष याचक का है जिसने मन, वचन और कर्म से अपना सब कुछ त्यागकर निर्विकार और निश्छल रूप में अपने सम्पूर्ण को अपने आराध्य के चरण कमलों पर उनकी कृपा की सुधा के पान हेतु  न्योछावर कर दिया  है। न किसी के अहित की याचना न किसी भौतिक वस्तु हेतु आग्रह। मात्र अपने परम आराध्य की  जय-जयकार और उनके कृपा-सिंधु में डुबकी लगाने की गुहार। यहीं है भक्त और भगवान का समाहार!  
   
    
    

    

Saturday, 21 March 2020

कविता का फूल (विश्व कविता दिवस पर)

जंगम जलधि जड़वत-सा हो,
स्थावर-सा सो जाता हो।
ललना-सी लहरें जातीं खो,
तब चाँद अकुलाता हैं।

 शीत तमस-सा तंद्रिल तन,
रजनीश का मुरझाया मन।
देख चाँद का भोलापन,
फिर सूरज दौड़ा आता है।

धरती को भी होती धुक-धुक,
उठती हिया में लहरों की हुक।
अभिसार से आर्द्र हो कंचुक,
सौरमंडल शरमाता है।

बाजे नभ में प्रेम पखावज,
ढके चाँद को धरती सूरज।
भाटायें ज्वारों-सी सज-धज,
पाणि-ग्रहण हो जाता है।

उछले उर्मि सागर उर पर,
राग पहाड़ी ज्यों संतूर पर।
प्रीत पूनम मद नूर नूर तर,
चाँद धवल हो जाता है।

प्राकृत-भाव भी अक्षर-से,
चेतन-पुरुष को भर-भर के।
सृष्टि-सुर-सप्तक रच-रच के,
कविता का फूल खिलाता है।




Thursday, 27 February 2020

लाश की नागरिकता

प्रवक्ता हूँ, सियासत का।
दंगों में हताहत का हाल
सूरते 'हलाल' बकता हूँ,
खबरनवीसों में।
 पहले पूछता हूँ,
थोड़ी खैर उनकी।
दाँत निपोरकर!
सुनाई देती है,
खनकती आवाज,
ग़जरों की महक में मुस्काती
'एवंडी'...!
चालू होता हूँ मैं।
सुनिए 'जी'।
हालात हताहत की
'आज तक'।
अंसारी नगर के राम सिंह
 अस्पताल में मृत घोषित किये गए हैं।
...
आज प्रेस ब्रीफिंग का दूसरा दिन।
मरने वालों की संख्या दो हुई।
खबरभंजकों ने आवाज उठाई।
पहले वाले की सूचना
 व्यक्ति वाचक,
और अब
संख्या वाचक!
मैं समझाता हूँ।
देखो 'जी'!
लाशों की शुरुआत
'संज्ञा' से होकर
 'विशेषण' पर खतम होती है।
मतलब
  'नागरिकता'  मिलती है
पहले को ही।
फिर तो ,
गिनती शुरू होती है!
............
ऐसा क्यों?
पूछती है
 'सनसनी' -सी एक आवाज।
मैं देता हूँ हवाला
अपने बचपन के गाँव का।
अनाज तौलने का।
राम, दो, तीन, चार..!
मतलब
 नागरिकता होती है,
केवल पहले लाश की।
बाकी तो मात्र अंक हैं।
फौरन समझ आ जाता है उन्हें,
'आधार कार्ड संख्या'  का दर्शन।
और वे बड़बड़ाने लगते हैं
लाश, नागरिकता...
....….लाश, ना गिरि..
..लाश...नाग... लाश ना....ला...!

Tuesday, 4 February 2020

जश्न नहीं मनाना

रंग-रोगन में
'सैंतालीस की आज़ादी'  के।
काले धब्बों को,
झुलसी दीवारों के
नालंदा की।
घुला दोगे!

इसमें बसी
शैतानी रूह
काली रेख
बर्बर बख्तियार की
खालिस खिलजी स्याह आह।
झुठला दोगे!

मत भूलो
हे दुर्घर्ष, संघर्षशील!
मोड़ दे जो काल को,
वह गति हो तुम!
सनातन संस्कृति की
शाश्वत संतति हो तुम!

निष्ठुर स्मृति का
कर्कश कुकृत्यों की
अश्लील अतीत के
जश्न नहीं मनाना।
एक नया नालंदा बनाना।
अपने अख्तियार की!

Saturday, 1 February 2020

नारी और भक्ति

भावनाओं का प्रवाह सर्वदा उर की अंतस्थली से होता है। इसके प्रवाह की तरलता में सब कुछ घुलता चला जाता है और घुल्य  भी घोल के साथ समरूप होता चला जाता है। घुल्य का स्वरूप घोलक में विलीन हो जाता है और दोनों मिलकर घोल की समरसता में समा जाते हैं। घोलक के कण-कण में घुल्य पसर जाता है । दोनों  अभेद की स्थिति में आ जाते है । ठोस घुल्य अपने घोलक की तरलता को अपना अस्तित्व सौंप देता है। ठीक यहीं स्थिति भक्त और भगवान, प्रेमी और प्रेमिका, माँ और शिशु, गुरु और शिष्य तथा संगीत और साज के मध्य होता है। इनमें से एक दूसरे के प्रति समर्पण की चरम अवस्था में होता है तथा मनोवैज्ञानिक धरातल पर दोनो एकाकार होते हैं। अब प्रश्न उठता है कि  भावनाओं की इस संजीवनी के प्रस्फुटन और पल्लवन का मूल क्या है? कहाँ से इसका उत्स होता है? ममता, करुणा, वात्सल्य, प्रेम, समर्पण ये सभी वे मूल-तत्व हैं जो मानव मन को अपनी कमनीय- कलाओं से सजाकर उसमें एक ऐसी उदात्त भाव-धरा को रचते हैं जहाँ 'स्व' का लोप हो जाता है और 'आत्म' परमात्म को अपनी भाव-धारा में घुला लेता है और दोनों मन, बुद्धि तथा अहंकार के अवयवों से ऊपर उठकर आत्मिक सत्ता की स्थिति में पहुँच  जाते हैं। भावों के इसी पारस्परिक विलयन का ही नाम भक्ति है।  
नारी मनुष्य-योनि की वह सर्वश्रेष्ठ  रचना है जो सृजन की समस्त कोमल भावनाओं का स्त्रोत है। उसके उर से प्रवाहित ममता की धारा और मानवीयता की मंजुल-लहरें उसकी कुक्षी  को सिंचित करती हैं और उसमें अंकुरित होता सृजन का बीज-तत्व उसके समस्त भाव-संस्कारों का वहन करता हुआ मानव-संस्कृति और सभ्यता के तत्वों को उत्तरोत्तर संपुष्ट करता है। काल के भिन्न-भिन्न खंडों में मानव-सभ्यता को अपनी उदात्त  भक्ति-भावनाओं की संस्कृति-धारा से नारी ने सदैव प्रक्षालित किया है, चाहे वह वैदिक काल हो या भारतीय साहित्य के भिन्न-भिन्न कालखंड! पूजा-पद्धति का प्रारम्भिक काल भी नारी-स्वरूपा-प्रकृति को ही समर्पित रहा। गायत्री, अग्नि, सावित्री, भूमि , नदी, उषा, प्रत्यूषा, छाया, संध्या, रिद्धि, सिद्धि, लघिमा, गरिमा, अणिमा, महिमा  जैसी स्त्रैण सत्ताओं को समर्पित ऋचा-मंत्रों में भक्ति की धारा वैदिक और फिर उत्तर-वैदिक कर्मकांडों में भी इन्हीं नारी-स्वरूपा-शक्तियों में फूटी। मानव-मन की स्थिरता का हेतु भक्ति का भाव है। सामाजिक जीवन में समष्टि -भाव की स्थिरता का हेतु नारी है। अतः यायावर आदिम जीवन की भौतिक संस्कृति को एक स्थिर सामाजिक जीवन देने का सूत्र रचने वाली नारी ने मनुष्य के मन में आध्यात्मिकता के एक निष्कलुष  निविड़ का निर्माण कर उससे भक्ति-भाव की निर्मल नीर-धारा निःसृत की, तो यह सभ्यता का स्वाभाविक प्रवाह ही रहा होगा। प्रसव की पीड़ा से प्रसूत सृष्टि की प्रथम शिशु-संतति की किलकारी और मुस्कान के ममत्व की सुधा का पान नारी के ही सौभाग्य का सिंगार बना होगा। तो, फिर यह भी तय है कि सृष्टि के गर्भ की अधिकारिणी ने ही आध्यात्म की अमरायी में अपने मन की बुलबुल की पहली तान छेड़ी और अपने सहयात्री पुरुष को भी जगाया,
“हार बैठे जीवन का दाव 
मरकर जीतते जिसको वीर!”
 रामायण-काल के   ‘उद्भव-स्थिति-संहारकारिणिम क्लेशहारिणिम  सर्व-श्रेयष्करीम सीताम नतो अहम् राम वल्लभाम’  में भी वह पूज्या बनी रही। यह अलग बात है कि वाल्मीकि के काल में  चरण-स्पर्श कर राम जिस अहल्या का आशीष ग्रहण करते हैं वहीं अहल्या तुलसी के मध्य-काल तक आते-आते प्रस्तर-प्रतिमा बन जाती है और उसका उद्धार अब अपने चरणों से राम करने लगते हैं। काल की धारा में नारी की स्थिति का यह प्रवाह समाज के उत्तरोत्तर प्रदूषण की अंतर्गाथा है या यह कह लें कि पुरुष-सतात्मकता की ओर उन्मुख समाज में सर उठाती  सभ्यता के थपेड़े से आहत मूल मानव-संस्कृति की सिसकती दास्तान है। तभी तो रामायण के मर्यादा-स्थापना-काल से लेकर महाभारत के छल-कपट वाली सभ्यता-काल तक भी भगवान स्वयं पहुँचकर शबरी के जूठे बेर खा लेते हैं, अपनी भक्तिन द्रौपदी के अंग वस्त्रों से ढक लेते हैं, उत्तरा के गर्भ के प्रहरी बन जाते हैं, सती अनसूया के समक्ष ब्रह्मा-विष्णु-महेश नग्न बाल रूप में बदल जाते हैं और सावित्री के सामने यमराज घुटने टेक उसकी गोद में पड़े मृत पति सत्यवान को चिरायु के साथ- साथ उसे अखंड सौभाग्यवती और शत पुत्रवती होने का वरदान दे डालते हैं।  
जैसे-जैसे समय आगे बढा, नारी पुरुष की अहंता में स्वाहा होने लगी । लौकिकता-लोलुप-पुरुष ने  पहले नारी की शक्तिरूपा और फिर उसी की भक्ति को आधार बना उसे देवी रूप में इतना ऊँचा चढ़ाकर निरपेक्ष रूप में   उसे पूज्या बना दिया कि उस ‘बेचारी’ को मानव जीवन प्राप्त नहीं हो सका और अपने उस गौरवमय उदात्त दैवीय आसन से इतर वह  निरा दलित और भोग्या बनकर समाज के हाशिए पर छटपटाती रही। उसी छटपटाहट की गूँज मध्यकाल के भक्ति-आंदोलन में सुनायी देती है जहाँ बड़े आश्चर्यजनक  रूप से भक्त-कवयित्रियों की इतनी बड़ी संख्या नज़र आती है जितनी शायद साहित्य के सभी काल-खंडों के समस्त कवयित्रियों को एक साथ जोड़ दिया जाय तब भी बराबरी नहीं कर सकती । पितृसत्तात्मक समाज की बंदिशो को तोड़ते हुए मीरा गाती हैं “मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरों न कोई।” प्रेम  की मुरली पर इन कवयित्रियों ने जो अपनी मधुर तान छेड़ी है उसमें पुरुष का दम्भ दहते नज़र आ रहा है। और तो और, साधक के पथ पर नारी को बाधक मानने वाले अक्खड कबीर भी कह उठते हैं, “हरि मोर पिऊ, मैं राम की बहुरिया।” दो भक्त नारियों, पद्मावती और सुरसरी, को दीक्षित करने वाले रामानन्द को ही कबीर भी अपना गुरु मानते हैं।   
इस काल में सामूहिक रूप से न सही, अलग-अलग ही भक्त कवयित्रियों ने अपनी स्वतंत्र और प्रखर भक्ति-धारा बहायी है जिसने समाज के पोर-पोर को सिंचित किया है। ‘भक्तमाल’  के एक छप्पय में तदयुगिन भक्त-नारी-कवयित्रियों का परिचय मिलता है,
“ सीता, झाली, सुमति, शोभा, प्रभूता, उमा, भटियानी 
गंगा, गौरी, कुँवरी, उनीठा, गोपाली, गणेश दे रानी 
कला, लखा, कृतगढ़ौ, मानमती, शुचि, सतिभामा 
यमुना, कोली, रामा, मृगा, देवा, दे भक्तन विश्रामा 
जुगजेवा, कीकी, कमला, देवकी, हीरा, हरिचेरी पोधे भगत 
कलियुग युवती जन भक्त राज महिमा सब जानै  जगत।”   
 भारतीय दर्शन की बहुरंगी छटाएँ इनकी भक्तिपूर्ण रचनाओं से छिटकती हैं। कश्मीर की ‘लल्लेश्वरी’ की शिव-साधना , तमिलनाडु में अलवार-संत ‘गोदा अंडाल’, राजस्थान में ‘मीरा’ और महाराष्ट्र में ‘संत महदायिसा’  की कृष्ण-भक्ति के सुरीले सुर, आंध्र-प्रदेश की ‘आतुकुरी मोल्ला’ की राम-धुन और ‘संत वेणस्वामी’ की हनुमान -आराधना में भक्ति-भाव के समर्पण की पराकाष्टा दिखती है तो फिर तमिलनाडु की ‘संत करैक्काल अम्मैयार’ ने अपने निर्गुण  निराकार शिव की सार्वभौम सत्ता स्थापित की है। इधर अपने कन्हैया की भक्ति में गोपियाँ ज्ञानी उद्धव को धूल चटाती दिख रही हैं,
“उद्धव मन नाहीं दस बीस,
एक हुतों सों गयो स्याम संग 
कोन  आराधे ईश!”
ऐसा प्रतीत होता है कि  राम की स्थापित मर्यादाओं के आलोक में दम्भी  पुरुष-समाज ने कई बेड़ियाँ डाल दी हैं। सम्भवतः,  इसीलिए नारियों की भक्ति के सबसे बड़े आलम्ब बनकर कृष्ण ही  खड़े दिखायी पड़ते हैं। कारण, कृष्ण कभी पलायन का संदेश या विरागी होने का संदेश नहीं देते। वह इस गृहस्थ-जीवन  की रण-भूमि में संघर्ष करने की चेतना जगाते हैं। आधुनिक काल की नारियाँ भी अपनी भक्ति के चेतन-भाव से अछूती नहीं हैं।  नवयुग में उनका स्वरूप भले ही आधुनिक बिंबों में व्यक्त हो रहा है किंतु सार-तत्व वहीं है। करवा-चौथ और छठ जैसे प्रतीक पर्वों का प्रचार इस बात का साक्षी है कि  गंगा मैया में केले के पात पर अब भी सविता की उपासना में वे अपनी भक्ति के दीप का अर्ध्य प्रवाहित कर रही हैं और छलनी के छिद्रों से छन-छन कर चूने वाली चाँदनी में अपने सत्यवान के चितवन  को निहार कर सावित्री की भक्ति-परम्परा का विस्तार कर रही हैं।           

Saturday, 7 December 2019

ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ

बहशी दरिंदों ने उसकी देह के तार-तार कर दिए थे। आत्मग्लानि से  काँपता शरीर निष्पंद हुआ जा रहा था। साँसे सिसकियों में उसके प्राणतत्व को समेटे निकल रही थी। रोम-रोम खसोट लिया था उन जानवरों ने। कपड़े चिथड़े-चिथड़े हो गए थे। माटी खून से सन गयी थी।
एक दरिंदे ने पेट्रोल छिड़कना शुरू किया। दूसरे ने माचिस निकाली। तीसरे ने रोका, 'अब सब कुछ तो ले लिया बेचारी का, जान तो बख्श दो।'
चौथे ने चेताया, 'अरे गंवार, बुद्धिजीवियों की सोहबत में तो तू रहा नहीं। तू क्या जाने 'ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ' और 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम'। तीसरा दाँत खिंचोरा, 'ये क्या है गुरु?'
'सुन', चौथे ने बकना शुरू किया, 'अगर इसे छोड़ देगा तो इसके ये फटे कपड़े, इसका यह खून, सब गवाह बनेंगे। लटक जाएगा साले, फाँसी पर। और यदि जला के भसम कर दिया तो कुछ भी नहीं बचेगा।'
 दूसरे ने दाँत निपोरते तीली जलाई।
'और जला के भसम करने से 302 जो चलेगा', चौथे ने सवाल दागा।
'हूँह! 302 चलेगा तो 'ड्यू प्रॉसेस ऑफ लॉ' चलेगा। तब यह बलात्कार का केस नहीं होगा। मडर केस होगा। बरसों तक गवाही होगी। 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम' नहीं होगा। बहुत जादे होगा तो 'चौदह बरसा' होगा।
पहले से मर चुकी आत्मा की देह धू-धू कर जल रही थी। 'ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ' के आकाश में 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम'  का अट्टहास गूंज रहा था।

Sunday, 17 November 2019

मोक्ष

किसी सत्ता का एहसास होना ही उसके अस्तित्व  का 'होना' है भले ही, भौतिक अवस्था में वह दृष्टिगोचर हो या न हो। कई सत्ताएँ तो भौतिक रूप में उपस्थित होकर भी अपनी उपस्थिति के एहसास का स्पर्श नहीं करा पाती और अनुभूति के धरातल पर वह अस्तित्व विहीन अर्थात 'न होना' होकर ही रह जाती हैं। ठीक इसके उलट, कुछ वस्तुएँ केवल अनुभव के स्तर पर होकर ही अपने मनोवैज्ञानिक बिम्ब को हमारे मानस-पटल पर इतनी गढ़िया देती हैं क़ि उनका वास्तव में भौतिक रूप  में 'न होना' भी किसी तरह से उनके 'होना' को नकार नहीं पाता है। अब यह अनुभव या मनोवैज्ञानिक बिम्ब हमारी जागृत चेतना के धरातल पर होता है। इस चैतन्य-भूमि पर उस बिम्ब का प्रक्षेप या तो एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया है जो हमारी उस जागृत चेतना के भी परे होती है जो उस बिम्ब को पकड़ती है या फिर चेतना के उस स्तर को पार करने की हमारी अंतरभूत मर्यादा को रेखांकित करती है। उस मर्यादा को संचालित करने वाली शक्ति ही वह 'परम चेतना' है जिससे इस जागृत चेतना के बीच के आकाश  की शून्यता 'होने' और 'न होने' के आभास से आशंकित है। 

यक़ीन कीजिए, हमारी यह अनुभूति निरी लफ़्फ़ाज़ी नहीं है। बहुत बार तो कुछ एहसास आगत की भौतिक हलचलों की आहट भी होते हैं। आर्किमिडीज़ का पानी से भरे टब में अपने को हल्का महसूस करना विज्ञान जगत की एक क्रांतिकारी अनुभूति थी। विज्ञान की दुनिया ऐसे ढ़ेर सारे वृतांतो और दृष्टांतों से पटी पड़ी है, जहाँ कल्पना ने ठोस यथार्थ, सपनों ने हक़ीक़त और अनुभवों ने ज्ञान की भूमि तैयार की। जैव रसायन शास्त्री केकुल  के सपने में साँप का अपनी पूँछ पकड़ना एक ऐसा ही विस्मयकारी सपना था जिसने बेंज़ीन की बनावट का सूत्र रचा।

नींद में हमारा जागृत चेतन   अचेतन रहता है। स्वप्नावस्था में सुप्त अवचेतन जाग जाता है और चेतन की सारी सीमाओं को लाँघ जाता है। 'टाइम-स्पेस-स्लाइस' पर फिसलता हुआ यह ब्रह्मांड के समस्त गोचर और अगोचर परतों को चीरता हुआ समय के छिलकों को उसपर छितरा देता है। हमारा अमूमन चेतन रहने वाला मन अब अपनी इस सोयी अवस्था में एक जाग्रत दर्शक मात्र बना रहता है किंतु पूरी तरह से मूक और निष्क्रिय!  जबकि आम तौर पर अवचेतन मन तब हमारे सोए तन की इंद्रियों को अपहृत कर उन्हें अपने लोक में समेटकर जगा लेता है। ध्यान दे, सुप्त चेतन मन के लोक से इस जागे अवचेतन मन का लोक विलग होता है, पदार्थ और ऊर्जा के प्रवाह के स्तर पर, चेतन-अवचेतन-अनुभूति प्रवाह के स्तर पर नहीं। हाँ, उस अनुभूति के प्रवाह से पदार्थ और ऊर्जा पर होने वाला प्रभाव चर्चा का एक अलग बिंदु अवश्य हो सकता है।

 जाग्रत अवचेतन के निर्देशन में हमारी इंद्रियाँ लोकातीत और कालातीत होकर अपने कल्पनातीत व्यापार से वापस तब तक नहीं लौटती जबतक कि स्वप्न  लोक में उस व्यापार का कोई अंश सोए लोक का कोई ऐसा तार न छेड़ दे जो सोए चेतन को झंकृत न कर दे और उस व्यापार के ऊर्जा विक्षोभ से उसे आंदोलित न कर दे। यह आंदोलन वापस चेतन मन को जगाकर उस स्वप्नगत व्यापार की प्रकृति के अनुसार 'अनुकूल' या 'प्रतिकूल' प्रभाव छोड़ जाता है जिसका दोलन-काल  और दोलन-प्रभाव कुछ समय तक बना रहता है। फिर चेतन और अवचेतन के अपने पूर्ववत् स्थान ग्रहण करने के उपरांत यह आंदोलन शनै:-शनै: क्षीण हो जाता है किंतु, बुद्धि पर उसका कुछ अंश स्मृति के रूप में शेष रह जाता है। इसी स्मृति से हमारा अहंकार अपने आचरण का संस्कार बटोरता है जिसका कुछ अंश हमारी अन्य दैनिक लघु-स्मृतियों के अल्पांश के साथ मिलकर उस अवचेतन में घुलता जाता है।

चेतन-अवचेतन-अचेतन के इस 'म्यूचूअल-इंटरैक्शन' से हमारे अनुभवों का संसार सजता है और हममें  विचारणा, चिंतन और मनन की संस्कृति समृद्ध होती है। 'चेतना की यह संस्कृति' और फिर 'संस्कृति की यह चेतना' जीवन की इस लौकिकता के आर-पार तक अपनी निरंतरता बनाये  रखती है। जहाँ यह नैरंतर्य अनुभव के आलोक से दीप्त होता है, वहीं अस्तित्व अर्थात 'होने' का आभास होता है और जहाँ अनुभव-शून्यता के निविड़ तम में अदृश्य होता है, वहाँ 'न होने' का आभास! इसलिए 'होना' तो एक चिरस्थायी सत्य है, किंतु 'होने' का आभास कभी  'हाँ' तो कभी 'ना'। इसी आभास से मुक्ति 'मोक्ष' है।

Thursday, 24 October 2019

असंवेदनशील 'महात्मा' बनाम संवेदनशील 'दुरात्मा'




भारत माँ के उस महान सपूत का शव रखा हुआ था ।   सबकुछ खपाकर उसने  बची अब अपनी अंतिम साँस भी छोड़ दी थी ।   कुछ दिन पहले ही वह साबरमती से लौटे थे ।   गाँधी से पूछा था, 'महात्माजी, अब कबले मिली आज़ादी?' महात्मा जी निरुत्तर थे ।   'बोलीं न, महात्माजी! गुम काहे बानी? हमरा तकदीर में आज़ाद हिन्दुस्तान देखे के लिखल बा कि ना!' मुंह की आवाज के साथ- साथ आँखों से लोर भी ढुलक आया शुकुलजी के गाल पर ।   उनके माथे को अपनी गोद में थाम लिया था कस्तूरबा ने ।   शरीर ज्वर से तप रहा था ।   शुकुल जी तन्द्रिल अवस्था में आ गये थे ।   आँख के आगे काली-काली झाइयों में तितर-बितर दृश्यों के सफ़ेद सूत तैर रहे थे..............................''भितिहरवा आश्रम  की झोंपड़ी में क्रूर अंग्रेज जमींदार एमन ने आग लगवा दी थी ।   कस्तूरबा ईंट ढो रही हैं उनके साथ!'' .......................... दो दिन तक बा ने उनकी तीमारदारी की ।   अर्द्ध-स्वस्थ-से शुकुलजी वापस लौट गए ।   मोतिहारी आते-आते तबियत खराब हो गयी ।   रेलवे स्टेशन से सीधे केडिया धर्मशाला पहुंचे ।   उसी कमरे का ताला खुलवाया जिसमें उनके महात्माजी ठहरा करते थे ।   रात में जो सोये सो सोये ही रह गए ।   कालनिद्रा ने अपने आगोश में उन्हें समा लिया था ।   सुबह शुकुलजी जगे ही नहीं, हमेशा के लिए! लोगों की भीड़ जमा हो गयी ।   चन्दा किया गया अंतिम संस्कार के लिए ।   रामबाबू के बगीचा में चंदे के पैसों से गाँधी के इस चाणक्य का अंतिम संस्कार स्थानीय लोगों ने किया । 
उनके पुश्तैनी गाँव, सतवरिया, में  उनका श्राद्ध कर्म आयोजित हुआ ।   ब्रजकिशोर बाबू, राजेन्द्र बाबू औए मुल्क तथा इलाके के बड़े-बड़े नेता पहुंचे हुए थे ।   थोड़ी ही देर में बेलवा कोठी के उस अत्याचारी अँगरेज़ ज़मींदार एमन का एक गुमश्ता वहाँ पहुंचा तीन सौ रूपये लेकर ।   'साहब ने भेजे हैं सराद के खरचा के लिए ।' उसने बताया ।    राजेंद्र बाबु का माथा चकरा गया ।   ''अत्याचारी एमन! जिंदगी भर इससे लोहा लेते रहे राजकुमार शुक्ल ।   चंपारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि ही थी इन दोनों की लड़ाई! मोहनदास को महात्मा बनाने का निमित्त! शुक्लजी ने एमन की आत्याचारी दास्तानों को पूरी दुनिया के सामने बेपरदा कर दिया और उसकी ज़मींदारी के महल को ढाहकर पूरी तरह ज़मींदोज़ कर दिया..........................भला, उसी एमन ने तीन सौ रूपये भेजे हैं, शुक्लजी के श्राद्ध के खर्च के निमित्त!''  खबर घर के अन्दर शुकुलजी की पत्नी, केवला कुंवर, के कानों में पिघलते गर्म लोहे की तरह पड़ी ।   वह आग बबूला हो गयी ।   उनकी वेदना उनके विलाप में बहने लगी ।   उन्होंने पैसे लेने से मना कर दिया ।   
 इसी बीच एमन स्वयं वहाँ पहुँच गया ।   वह गहरे सदमे की मुद्रा में था ।   उसने शुकुलजी के दामाद, सरयुग राय भट्ट जी से विनम्र याचना की ।   उसे शुकुलजी की पतली माली हालत की जानकारी थी कि किस तरह इस स्वतन्त्रता सेनानी ने उससे लड़ाई में अपना सब कुछ गँवा दिया था ।   उसने सरयुग राय जी को काफी समझाया-बुझाया और फिर एक सिफारशी पत्र मोतिहारी के एस पी के नाम लिखकर दिया । 
 यह दृश्य देख पहले से चकराए माथे वाले राजेन्द्र बाबू की आँखे अब चौधियाँ गयी ।   उनकी जुबान लड़खड़ाई, 'अरे आप!............आप तो शुकुलजी के जानी दुश्मन ठहरे! पूरी दुनिया के सामने आपके घुटने टेकवा दिए थे उन्होंने! अब तो  उनके जाने पर आपको तसल्ली मिल गयी होगी ।'
'चंपारण का अकेला मर्द था, वह!' काँपते स्वर में एमन बोला, 'पच्चीस से अधिक वर्षों तक वह अकेला अपने दम पर मुझे टक्कर देता रहा ।   वह अपनी राह चलता रहा और मैं अपनी राह! विचारों का संघर्ष था हमारा! शहीद हो गया वह! अब तो मेरे जीने का भी कोई बहाना शेष न रहा!' उसकी आँखों से आंसुओं का अविरल प्रवाह हो रहा था । 
बड़ी भारी मन से वह अंग्रेज एमन अपने घर लौटा ।   शुकुल जी के दामाद को पुलिस में उस सिफारशी पत्र से सहायक अवर निरीक्षक (जमादार) की नौकरी मिल गयी ।   और, करीब तीन महीने बाद एमन ने भी अंतिम साँस ले ली । 

गाँधी की जयंती के एक सौ पचासवें वर्ष में इस कहानी को नवयुग के सोशल साईट पर पढ़ते-पढ़ते उस जिज्ञासु और अन्वेषी साइबर-पाठक की भी आँखें गीली होने लगी थी ।   अब उसकी अन्वेषी आँखें इतिहास के पन्नों को खंगालकर राजकुमार शुक्ल की लाश के इर्द-गिर्द गाँधी की आकृति ढूढ़ रही थी अपने चाणक्य को श्रद्धा सुमन चढाने की मुद्रा में! किन्तु, शुकुलजी के 'अग्नि-स्नान से श्राद्ध' तक गाँधी की छवि तो दूर, उस महात्मा की ओर से संवेदना के दो लफ्ज़ भी उस दिवंगत के प्रति उसे नहीं सुनाई दे रहे थे ।   वह अवाक था "'महात्मा' की इस संवेदनहीनता पर या फिर 'इतिहासकारों की कुटिलता' पर जिन्होंने उस 'महात्मा' की संवेदना वाणी को लुप्त कर दिया था!"  हाँ, उलटे उस 'दुरात्मा' अँगरेज़ एमन की छवि में उसे सत्य और अहिंसा की संवेदना के दर्शन अवश्य हो रहे थे । इतिहासकारों की इस चूक से वह 'दुरात्मा' संवेदनशील छवि उस 'महात्मा' असंवेदनशील बुत को तोपती नज़र आ रही थी ।   


Friday, 23 August 2019

गांधी को महात्मा बना दिया

सींच रैयत जब धरा रक्त से
बीज नील का बोता था।
तिनकठिया के ताल तिकड़म में
तार-तार तन धोता था।

आब-आबरू और इज़्ज़त की,
पाई-पाई चूक जाती थी।
ज़िल्लत भी ज़ालिम के ज़ुल्मों ,
शर्मशार झुक जाती थी।

बैठ बेगारी, बपही पुतही,
आबवाब गड़ जाता था।
चम्पारण के गंडक का,
पानी नीला पड़ जाता था।

तब बाँध कफ़न सर पर अपने,
पय-पान किया था हलाहल का।
माटी थी सतवरिया की,
और राजकुमार कोलाहल का।

कृषकों की करुणा-गाथा गा,
लखनऊ को लजवा-रुला दिया।
गांधी की काया-छाया बन,
अपना सब कुछ भुला दिया।

काठियावाड़ की काठी सुलगा,
चम्पारण में झोंक दिया।
निलहों के ताबूत पर साबुत
कील आखिरी ठोक दिया।

'सच सत्याग्रह का' सपना-सा,
भारत-भर ने अपना लिया।
राजकुमार न राजा बन सका,
गांधी को महात्मा बना दिया।

(शब्द-परिचय:-
राजकुमार - पंडित राजकुमार शुक्ल (१८७५-१९२९)
कोलाहल - श्री कोलाहल शुक्ल, राजकुमार शुक्ल के पिता
चम्पारण सत्याग्रह की नींव रखने वाले राजकुमार शुक्ल गांधी को
चम्पारण बुलाकर लाये और सबसे पहले सार्वजनिक तौर पर उन्हें 'महात्मा' संबोधित कर जनता द्वारा 'महात्मा गांधी की जय' के नारों से चम्पारण के गगन को गुंजित किया। आगे चल के महात्मा गांधी ही प्रचलित नाम बन गया।
तिनकठिया - एक व्यवस्था जिसमें किसानों को एक बीघे अर्थात बीस कट्ठे में से तीन कट्ठे में नील की खेती के लिए मजबूर होना।
आबवाब - जहांगीर के समय से वसूली जाने वाली मालगुजारी जो अंग्रेजो के समय में चम्पारण में पचास से अधिक टैक्सों में तब्दील हो गयी। जैसे:-
बैठबेगारी - टैक्स के रूप में किसानों से अंग्रेज ज़मींदारों द्वारा अपने खेत मे बेगार, बिना कोई पारिश्रमिक दिए, खटवाना,
बपही - बाप के मरने पर चूंकि बेटा घर का मालिक बन जाता थ, इसलिए अंग्रेजो को बपही टैक्स देना होता था।
पुतही- पुत्र के जन्म लेने पर अंग्रेज बाप से पुतही टैक्स लेते थे।
फगुआहि- होली में किसानों से वसूला जाने वाले टैक्स)




Tuesday, 30 July 2019

सिऊंठे

मां!
कैसी समंदर हो तुम!
तुम्हारी कोख के ही केकड़े
नोच-नोच खा रहे है
तुम्हारी ही मछलियां।
काट डालो न
कोख में ही
इनके सिऊंठे!
जनने से पहले
इनको।
या फिर मत बनो
मां!




सिऊंठा - केंकड़े के दो निकले चिमटा नुमे दांत जिससे वह काटता या पकड़ता है, भोजपुरी, मैथिली, वज्जिका, अंगिका और मगही भाषा मे उसे सिऊंठा कहते हैं।

Thursday, 25 July 2019

कारगिल की यहीं कहानी।

सिंधु की धारा में धुलता
'गरकौन' के गांव में।
था पलता एक नया 'याक'
उस चरवाहे की ठाँव में।

पलता ख्वाबों में अहर्निश,
 उस चौपाये का ख्याल था।
सर्व समर्पित करने वाला,
वह 'ताशी नामोग्याल' था।

सुबह का निकला नित्य 'याक',
संध्या घर वापस आ जाता।
बुद्ध-शिष्य 'ताशी' तब उस पर,
करुणा बन कर छा जाता।

एक दिन 'याक' की पथ-दृष्टि,
पर्वत की खोह में भटक गयी।
इधर आया  न देख  शाम को,
'तासी' की सांसें अटक गई।

खोज 'याक' ही दम लेगा वह,
मन ही मन यह ठान गया।
खोह-खोह कंदर प्रस्तर का,
पर्वत मालाएं छान गया।

हिमालय के हिम-गह्वर में,
ताका कोना-कोना 'ताशी'।
दिख गए उसको घात लगाए,
छुपे बैठे कुछ परवासी।

पाक नाम नापाक मुल्क से,
घुसपैठी ये आये थे।
भारत माँ की मर्यादा में,
सेंध मारने आये थे।

सिंधु-सपूत 'ताशी' ने भी अब,
 'याक' को अपने भुला दिया।
लेने लोहा इन छलियों से,
सेना अपनी  बुला लिया।

वीर-बांकुड़े भारत माँ के,
का-पुरुषों पर कूद पड़े।
पट गयी धरती लाशों से,
थे बिखरे ज़ुल्मी मरे गड़े।

स्वयं काली ने खप्पर लेकर,
चामुंडा हुंकार किया।
रक्तबीजों को चाट चाटकर,
पाकिस्तान संहार किया।

'द्रास', 'बटालिक' बेंधा हमने
'तोलोलिंग' का पता लिया।
मारुत-नंदन 'नचिकेता' ने
यम का परिचय बता दिया।

पाकिस्तान को घेर-घेर कर,
जब जी भर भारत ने छेंका।
होश ठिकाने आये मूढ़ के,
घाट-घाट घुटने टेका।

करे नमन हम वीर-पुत्र को,
और सिंधु का जमजम पानी।
'पगला बाबा' की कुटिया से,
कारगिल की यहीं कहानी।




'पगला बाबा' की कुटिया --  कारगिल के 'बीकन' सैन्य-संगठन क्षेत्र में एक ऊपरी तौर पर मानसिक रूप से अर्द्धविक्षिप्त साधु बाबा अपनी कुटिया बनाकर रहते थे। कहते हैं कि कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तान की ओर से दागे गए जो भी गोले उस कुटिया के आस-पास गिरते, वे फट ही नहीं पाते। युद्ध समाप्ति के बाद सेना ने उस क्षेत्र को उन जिंदा गोलों से साफ किया। बाद में बाबा की मृत्यु के बाद सेना ने उनके सम्मान में सुंदर मंदिर बनवाया जहाँ आज भी नित्य नियमित रूप से पूजा-अर्चना होती है।


Friday, 12 July 2019

चाचा की जुबानी : परदादी माँ से सुनी एक कहानी




पिछले दिनों विक्रम सक्सेना का बाल उपन्यास 'चाचा की जुबानी : परदादी माँ से सुनी एक कहानी' अमेज़न पर लोकार्पित हुआ। 137 पृष्ठों के इस उपन्यास को पढ़ने में लगभग सवा तीन घंटे लगते हैं। इस पुस्तक का आमुख मेरे द्वारा लिखा गया।
आमुख
साहित्य के अभाव में समाज हिंसक हो जाता है. भावों में सृजन के बीज का बपन बचपन में ही होता है. जलतल की हलचल उसकी तरंगों में संचरित हो सागर के तीर को छूती है. वैसे ही चतुर्दिक घटित घटनाओं से हिलता डुलता मन संवेदना की नवीन उर्मियों को अनवरत उर के अंतस से उद्भूत करते रहता है. बाह्य बिम्ब और अंतस में उपजे तज्जन्य संवेदना के तंतु बाल मन में सृजन के संगीत की धुन बनाते हैं. उसी धुन में कल्पना के सुर, चेतना का ताल और अभिव्यंजना के साज सजकर नवजीवन के अनुभव का गीत बन जाते हैं. फिर धीरे-धीरे अक्षर और शब्दों के संसार से साक्षात्कार के साथ ज्ञान का अनुभव से समागम होता है और बाल मन रचनात्मकता के पर पर सवार होकर सत्य के अनंत के अन्वेषण की यात्रा पर निकलने को तत्पर हो जाता है.
आदि-काल से ही श्रुति और स्मृति की सुधा-धारा ने अपनी सरल, सरस और सुबोध शैली में हमारी ज्ञान परम्परा को समृद्ध किया है. माँ की गोद में सुस्ताता और उसके आँचल के स्पर्श से अघाता बालक उसकी लोरियों में अपने मन के तराने सुनते-सुनते सो जाता है. मन को गुदगुदाते इन तरानों में वह अपनी आगामी ज़िन्दगी के हसीन नगमों के राग और जीवन के रस से रास रचाता है. दादी-नानी की कहानियां उसके बाल-मन में कल्पना तत्व का विस्तृत वितान बुनती हैं. इन कहानियों से ही उसका रचनात्मक मन अतीत की गोद में सदियों से संचित बिम्बों, परम्पराओं, मूल्यों और प्रतिमानों के मुक्तक चुनता है. इन्ही मोतियों के हार में गुंथी फंतासी और सपनों की सतरंगी दुनिया उसे कल्पना का एक स्फटिक-फलक प्रस्तुत करती है. प्रसिद्द रसायन-वैज्ञानिक केकुल ने सपने में एक सांप को अपने मुंह में पूंछ दबाये देखा और इस स्वप्न चित्र ने कार्बनिक रसायन की दुनिया को बेंजीन की चक्रीय संरचना दी. कहने का तात्पर्य यह है कि सपनों के सतरंगे कल्पना-लोक की कोख से विचारों की नवीनता, शोध की कुशाग्रता, अनुसंधान की अनुवांशिकता और जिज्ञासा की जिजीविषा का जन्म होता है.
बालकों की कल्पना-शक्ति के उद्भव, विकास और संवर्द्धन में बाल-साहित्य का अप्रतिम योगदान रहा है. पंचतंत्र, रामायण, महाभारत, जातक-कथाएं, दादी-नानी की कहानियों में उड़ने वाली परियों की गाथा, भूत-प्रेत-चुड़ैलों की चटपटी कहानियां, चन्द्रकान्ता जैसी फंतास और तिलस्म के मकड़जाल का वृत्तांत और स्थानीय लोक कथाओं के रंग में रंगी रचनाएँ सर्वदा से बाल मन को कल्पना के कल्पतरु की सुखद छाया की शीतलता से सराबोर कराती रही हैं. किन्तु, दुर्भाग्य से इधर विगत कुछ वर्षों से साहित्य की यह धारा इन्टरनेट और सूचना क्रांति की चिलचिलाती धुप में सुखती जा रही है. न केवल संयुक्त परिवार का विखंडन प्रत्युत, एकल परिवारों में भी भावनात्मक प्रगाढ़ता और संबंधों की संयुक्तता के अभाव ने बालपन को असमय ही कवलित करना शुरू कर दिया है. बालपन की कोमल कल्पनाओं के कोंपल का असमय ही मुरझा जाना नागरिक जीवन में अनेक विकृतियों का कारण बनता जा रहा है. मूल्य सिकुड़ते जा रहे हैं, परम्पराएं तिरोहित हो रही हैं, आत्महीनता के भाव का उदय हो रहा है, मानव व्यक्तित्व अवसाद के गाद में सनता जा रहा है, जीवन की अमराई से कल्पना की कोयल की आह्लादक कूक की मीठास लुप्त होती जा रही है और जीवन निःस्वाद हो चला है.
ऐसे संक्रांति काल में विक्रम सक्सेना का यह बाल-उपन्यास ' चाचा की जुबानी : परदादी माँ से सुनी एक कहानी' शैशव की शुष्क मरुभूमि में मरीचिका के भ्रम में मचलते मृगछौने के लिए शीतल जल के बहते सोते से कम नहीं. उपन्यास का नाम ही इस देश की उस महान संयुक्त-परिवार व्यवस्था का भान कराता है जहाँ परम्परा से प्राप्त परदादी की कहानी को चाचा अपने भतीजे-भतीजी को सुना रहा है. इस नाम से उपन्यास की कथा का वाचन मानों गीता में भगवान कृष्ण के उस भाव को इंगित करता है:
" हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने विधिपूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से वह परम-श्रेष्ठ विज्ञान इस संसार से प्रायः छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया. आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग तुझसे कहा जा रहा है....."
इस उपन्यास की कथावस्तु में इस तथ्य के योगदान को भी नहीं नकारा जा सकता कि उपन्यासकार, विक्रम, ने बाल-मन की कल्पना-धरा पर वैज्ञानिकता के बीज बोने का अद्भुत पराक्रम दिखाया है. आईआईटी रुड़की से धातु-कर्म अभियांत्रिकी में स्नातक इस कथाकार ने अपनी रचना में सोद्देश्यता के पक्ष का पालन तो किया ही है , साथ-साथ रचना की प्रासंगिकता के तत्व को भी बनाए रखा है जो बड़े आश्चर्यजनक रूप में रचना के अंत में प्रकट होता है. कहानी में जहाँ-तहां लेखक पीछे से छुपकर अजीबो-गरीब घटनाओं के प्रकारांतर से प्रमुख वैज्ञानिक अवधारणाओं और ज्ञानप्रद सूचनाओं की घुट्टी भी डाल देता है. बात-बात में वह सांप के एनाकोंडा प्रजाति की सूचना  देता है. छोटू-मोटू द्वारा तलवार से दो भाग करने के उपरांत कटा पूंछवाला खंड अनेक फनों वाले स्वतंत्र सांप में बदल जाता है. इस घटना द्वारा मानों लेखक अपने बाल-पाठकों को जीव विज्ञान में कोशिका विभाजन 'मिओसिस' और 'माईटोसिस' की सम्मिलित प्रक्रिया का भान करा रहा है. फिर उस तलवार की विशेषता भी जान लीजिये. 'ये कोई साधारण तलवार नहीं है. ये एक विशेष धार वाली तलवार है. इसको गर्म कोयले की आंच पर तपाया हुआ है. अति सूक्ष्म कार्बन के कण इसकी सतह पर हैं.'
सर से आग के गोला के उछालने का एक अन्य प्रसंग भी ध्यातव्य है, 'तब वो प्राणी बोला, मुर्ख! न तो ऊर्जा का नाश हो सकता है और न ऊर्जा उत्पन्न ही हो सकती है. ऊर्जा सिर्फ रूप बदलती है.' कितनी सहजता से ऊर्जा के संरक्षण के सिद्धांत को इस तिलस्मी घटना में पिरो दिया गया है! प्रकाश के परावर्तन के सिद्धांत को ये पंक्तियाँ बखूबी व्याख्यायित कराती हैं, 'आग का गोला दर्पण के सीसे से टकराकर वापस डायनासोर की ओर परावर्तित हो जाता है.' कथा धारा अपने अविरल प्रवाह में किसिम-किसिम के किरदारों के साथ फंतास और तिलस्म के जाल को बुनते और सुलझाते चल रही है. राजा कड़क सिंह द्वारा अपने उचित उत्तराधिकारी चुनने की अग्नि परीक्षा में अपने सभी भाइयों में अपेक्षाकृत सबसे निर्बल छोटू-मोटू उपन्यासकार की तिलस्मी योजना के तीर पर सवार होकर सांप, परी, चुड़ैल, भालू, डायनासोर, कछुआ, हाथी, कौआ, दरियाई घोड़ा और बन्दर सहित अन्य चरित्रों से रूबरू होता रोमांच के कई तालो को लांघता एक जादुई छड़ी के विलक्षण टाइम-सूट पर सवार हो जाता है, जहाँ से अब वह अप्रत्याशित रूप से समय के पीछे की ओर जा सकता है. आज के विज्ञान के लिए भी 'स्पेस-टाइम-स्लाइस' में समय को पीछे की ओर काटना सबसे बड़ी चुनौती है जिसमें प्रवेश कर वह अतीत की यात्रा पर निकल सकता है.
कथा की मजेदार इति-श्री रवि के मस्तिष्क की उन हलचलों के रहस्योद्घाटन से होती है जिसे बीजगणित के अध्याय 'परमुटेशन और कम्बीनेशन' की उलझाऊ समस्यायों ने मचा रखा है. व्यवस्था के संभावित समस्त क्रम और व्यतिक्रम के भ्रम और विभ्रम का जंजाल है यह अध्याय जिसमें जकड़ा है रवि का मन. लोमड़ी की उठी और गिरी पूंछ की संभावनाओं के सवाल ने उसे सपनों के उस लोक में धकेल दिया जहाँ वह स्वयं 'छोटू-मोटू' बनकर कुँए के एक तल से दुसरे तल में अपने जीवन के समतल की तलाश कर रहा है. यह उलझनों में भटकते बाल-मनोविज्ञान का मनोहारी आख्यान है.
                                                              विश्वमोहन
                                    साहित्यकार, कवि एवं ब्लॉगर
                                        पटना     





   
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