Wednesday, 10 April 2024

पात पात पर पखेरू गात


मृण्मयी भू, आज अजर-अजिर!
चिन्मय चेतन घर आया है।
क्षिति जल पावक गगन समीर संग,
पुरुष तत्व भर आया है।

पुलकित तरु के पात-पात पर,
चिड़ियाँ चंचल चहक रही हैं।
पवन मचाए उधम दम भर,
कुंज लताएँ बहक रही हैं।

संग अनंग वसंत मधुरास रत,
आरक्त कानन का आनन है।
उलझी बेल द्रुम प्रेम खेल में,
ऋतु हाला में अवगाहन है।

शुक, सारिका, हारिल, श्यामा,
रति - राग और प्रीत की बात।
उपवन सघन सरस मद छात,
पात पात पर पखेरू गात।


 

Thursday, 22 February 2024

भाटिन अंगुरिया छूंछ




 
माला वर्मा का कहानी संग्रह ‘भाटिन अंगुरिया छूंछ’ की कहानियाँ पाठकों के मन में सुदूर अतीत के पन्नों में खोयी उन मधुर स्मृतियों का सुवास बनकर छा जाती हैं जिसे आज की प्रौढ़ पीढ़ी ने अपने बचपन के दिनों में जिया है। पचास-साठ के दशक के सामाजिक जीवन पर तनी-बनी ये कहानियाँ समकालीन जीवन की शीतल  बयार-सी मन को सहलाती हैं। भोजपुरिया समाज की मोहक मिठास पाठकों को एक अद्भुत रस से सराबोर कर देती हैं। परिवार का प्रेम, पड़ोस का अपनापन, पति-पत्नी के प्रतियोगी भाव, रिश्तों का रस, जीवन की खटपट, अल्हड़ बालपन, आचार-व्यवहार की आत्मीयता और  सामाजिक समरसता से लेकर परंपराओं की संजीवनी तक का प्रवाह इन कहानियों में हुआ है। हर कहानी में अपनी अद्भुत मानवीयकरण शैली में कथावाचक माला जी  पाठकों के मन की चौखट पर खड़ी हो जाती हैं और आप बीती सुनाने लगती हैं। 
कहानियों की छाजनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के आसपास ही छायी हुई है। सुबह की चाय, पति से रार, सहेलियों का इनकार, सब्ज़ी-बाज़ार, मुहल्ले का मोड़, जानवरों और पंछियों का आलोड़, नईहर की यादों की हिलोर - सबकुछ छितराया हुआ मिलता है यहाँ। मानवीय संवेदना के धरातल पर एक नयी चेतना का उच्छवास है। कहानी की शैली इतनी सुघड़ है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक ऐसी मनोदशा को प्राप्त कर लेता है मानों वह ख़ुद अपनी बात किसी से बतिया रहा  हो – एकदम बिंदास मिज़ाज में देसी ठाट के साथ। बातें मध्यमवर्गीय नागरी शैली में निकलती हैं लेकिन जल्दी ही अपने स्वाभाविक मीठे देहाती संस्कार के मनभावन गर्भ-गृह में थसक के बैठ जाती हैं। फिर तो पाठक कहानी के रस को पीने लगता है। इतिवृतात्मकता का स्वच्छंद प्रवाह है। गाँव-देहात का भोलापन है और शहर में समायी ज़िंदगी को डोर से बाँधे दूसरे सिरे पर मुसकाती-गुनगुनाती ग्रामीण तान का अनहद राग है। भोजपुरी जीवन-रस से सराबोर कहानियाँ अभी-अभी नईहर लौटी किसी अल्हड़ नवविवाहिता की अपनी सखियों के साथ उछलती-कूदती चुलबुली चहक- सी गूँजती हैं।
‘अम्मा, अम्मी, बाज़ी’ कहानी समाज में बेटे और बेटी के बीच के भेदभाव की भावना को बड़ी संजीदगी से उठाती है। बेटे को अधिक तरजीह दिए जाने पर कहानीकार का यह संदेह बड़ी प्रखरता से प्रतिध्वनित होता है कि क्या इस ‘तरजीह’ को ये पुत्र उसी फ़िक्रमंदी  से अपने माँ-बाप को लौटाते हैं!
परिग्रह का संस्कार इस मानव-मन को इस क़दर दबोचे हुए है कि लालच और मोह की रस्सी में आदमी अंत तक जकड़ा रह जाता है। ‘कम्बल’ में यह मानव-मनोविज्ञान बड़ी  सजीवता से उभरकर सामने आता है।
दिनकर की पंक्तियों (‘श्वानों को मिलता दूध भात  भूखे बालक अकुलाते हैं’) और निराला की पंक्तियों (‘चाट रहे वे जूठी पत्तल कहीं सड़क पर खड़े हुए’) का जीवंत कथात्मक चित्र है – ‘नौनिहाल’। 
‘सॉरी, नहीं तो नहीं!’ कहानी में पुरुष-दर्प और नारी-अधिकार का द्वंद्व टपक पड़ता है। ‘रिटायरमेंट के बाद क्या लोग सचमुच सठिया जाते हैं’ इन पंक्तियों में चौथेपन में नए-नए प्रवेश किए पति पर पत्नी का स्वाभाविक अट्टहास गूँजता है। ‘औरतें ग़ुस्से में खाना-पीना छोड़ देती हैं। उन्हें भूख नहीं लगती। किंतु, अधिकतर मर्दों को उस झगड़े वाली स्थिति में भी कड़ाके की भूख लगती है।‘ – यही चौथेपन की चौखट पर चपर-चपर करते पति-पत्नी का सच है। 
‘खीर’ कहानी महज़ एक कहानी न होकर एक चौपाए की संवेदना का सरगम है। ‘मिसेज़ सिन्हा’ कहानी में मिसेज़ चौधरी का मिसेज़ वर्मा को बीच में ही रोककर फट पड़ना, ‘सच कहा मिसेज़ तालुक़दार, बहुएँ घर का काम करना पसंद नहीं करतीं। उनके तेवर अलग होते हैं। नौकरी-पेशा बहु लायिए तो और झमेला। किसी को कुछ समझती नहीं। बेटा भी देख-सुन अनसुना बना रहता है। मैं तो कई वर्षों से यही सब झेल रही हूँ। बहुएँ तो विचित्र आ रही हैं। अब तो बेटियों के तेवर भी बदलते जा रहे हैं। ऊँची शिक्षा, नौकरी क्या मिली, घर के कामों में हाथ बँटाने को तैयार नहीं’ – भौतिक विकास की आँधी में उधियाते समाज की झाँकी है। इसी तरह ‘बीस रुपए’ में भी बात महज़ बीस रूपए की नहीं है। यह भीतर और बाहर की लड़ाई है। यह मन और भावना का द्वंद्व है। यह अपने मौलिक संस्कारों का अवगाहन है जहाँ सांसारिकता के द्वारा मानवीय मूल्यों को दबोचने की पीड़ा अतीत से पसरकर वर्तमान पर छितरा गयी है। 
शादी- बियाह में पाणिग्रहण तो दो व्यक्तियों के मध्य होता है, किंतु संस्कारों का आदान-प्रदान और बौद्धिकता का विनिमय एक बड़े फ़लक पर होता है। बारात में शास्त्रार्थ इसी परंपरा के वाहक थे और तब का भोजपुरिया ग्रामीण समाज अपने ‘मोहन भैया’ सरीखे पढ़निहारों में ही अपना नायक ढूँढता जो अपनी तर्किकता और प्रत्युत्पन्नमतित्व से प्रतिद्वंदी के छक्के छुड़ाकर उसे ‘बुड़बक-बकलोल’ तक साबित कर देता था। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहानी पाठकों तक भोजपुरिया ग्रामीण समाज के  इस संदेश को पहुँचा जाती है। 
और अंत में संग्रह की शीर्षक कथा – ‘भाटिन अंगुरियां छूंछ!’
यह कहानी अपने आप में एक पूरे युग को समेटे है। जातिगत भेद पर बँटे समाज में हर जाति की भूमिका भी तय है। वह भूमिका व्यक्ति विशेष में अपने किरदार की अपेक्षित कुशलता (जिसे आप कुछ ख़ास जगहों पर उसकी विशेष चलुअयी या धुर्तता भी कह सकते हैं) आरोपित कर देती है। कैथी भाषा के जानकार कायस्थ जाति के लाला भी ज़मीन के दस्तावेज़ लिखने के हुनर में माहिर हैं। उनके इस हुनर को लेखिका ने बड़ी सहज अभिव्यक्ति दी है – ‘यानि इधर का माल उधर।‘ कथा के परिवेश की परिधि पर घूमती लेखिका ‘लाला को बुलाएँ क्या!’ इस पंक्ति के साथ शीघ्र कथा पर वापस लौट जाती हैं। यह रचनाकार के बौद्धिक संतुलन, भटकाव की नयूनता और और अपने कथा-वाचन पर पूर्ण नियंत्रण का द्योतक है। दादाजी के मरने के उपरांत उनकी किताबों में दीमक लगना हमारी सांस्कृतिक विरासत के अनवरत क्षरण की करुण गाथा है। घर का मालिक आडंबरहीन सादे जीवन के प्रतीक पुरुष के रूप में उभरता है। आँधी आने पर दउरा लेके दादाजी के साथ बगईचा जाना और भर दौरी आम लेके माथा पर वापस लौटने की घटना से वह प्रत्येक पाठक रोमांचित हो जाता है जिसने इस गँवई गौरव को जीया है। कहानी अपने साथ समकालीन समाज के पूरे परिदृश्य को साथ लेकर चलती है। दादाजी की मायूस बोली, ‘एतना लछमी ख़ाली हमरे अंगना उतरिहन’ हमारे परिवार में बेटियों के दोयम दर्जे की तखती लटका देती है। बेटियों से भरे घर में एक बेटे ने क्या जन्म ले लिया, मानों चाँद ही आँगन में उतर आया हो! यह पुरुषवादी सोच आज भी जस का तस है। बात जो भी हो, ग़रीब औरतों की तो इस पुत्र जन्मोत्सव में चाँदी है। सोहर गाने वाली इन औरतों के कई महीनों के सूखे चुपड़े बालों को रस्म-अदायगी के नाम पर सरसों का तेल नसीब हो गया है। वह माँग-माँगकर तेल थोप रही हैं। मिठाई ऊपर से अलग! लालाजी अपनी व्यवहार कुशलता से पंडितों से दुहाने से तो बच जाते हैं लेकिन कहानी में इसी मोड़ पर एक ऐसी पात्र का प्रवेश होता है जो इसके कथानक में चार चाँद लगा देती है। वह है – अनारकली!  कवित्ताई में निपुण चुकन मियाँ की बेटी। शादीशुदा यौवना। सिर पर सिंदूर और लिलार पर लाल टिकुली। लाला के पोते होने की ख़बर उसे यहाँ खींच लायी है। आज लालाजी से उसे भी अपना बख्शीस लेना है। महाभारत और रामायण को अपनी अनूठी शैली में गाने वाले चुकन मियाँ और मुन्ना मियाँ की  गंगा-जमुनी धारा की मृदुलता में डूबने-उतराने वाली अनारकली की ज़ुबान भला अपने बाप-पितिया से कम धार वाली कैसे हो सकती है! वह नाच-नाचकर लाला के सामने अपनी मोहक भंगिमा में अपनी तान छेड़ देती है, “टोला-महल्ला के कंठा गढ़वल, भाटिन अंगुरिया छूंछ – ऐ लाला, हमरो अंगुरिया छूंछ।‘ अब आगे क्या होता है, यह पाठक ख़ुद पढ़कर जान लें।
देसी और गँवई शब्दों की अनुपम छटा है इन कहानियों में। एक बानगी देखिए – ‘सपरा लें’, ‘हमार किरिया’, ‘पिनक’, ‘हुमच-हुमच’, ‘बुड़बक’, ‘बकलोल’, ‘नईहर’, ‘थूर दिया’, ‘हबकने’, ‘अटर-पटर’, ‘महटिया दिया’, ‘फींचना’, ‘ज़िला-जवार’ आदि आदि।
 हिंदी भाषा में लेखन की वर्तनी से चंद्रबिंदु का लोप भी उसी गति से होता जा रहा है जिस गति से भारतीय जीवन से मूल्यों का लोप! इस बात को यह कहानी संग्रह पूरी तरह साबित करती है। प्रकाशन और सम्पादन की यह कमी दिल को दुखाती है।
अंजनी प्रकाशन (फ़ोन  ८८२०१२७८०६) से प्रकाशित यह संग्रह पठनीय और संग्रहरणीय दोनों है। मालाजी को इस सरस और सार्थक कृति के लिए हार्दिक बधाई और भविष्य की अशेष शुभकामनाएँ!!!

Monday, 1 January 2024

‘साक्षी हैं शब्द’


 ‘साक्षी हैं शब्द’ ग्लोबल के ऑन-लाइन साक्षात्कार मंच पर हमसे 29 दिसम्बर, 2023 को रू-ब-रू होते वरिष्ठ साहित्यकार/नाटककार डॉ. किशोर सिन्हा और साथ में को-होस्ट के रूप में कार्यक्रम को संचालित करती वैशाली (ग़ाज़ियाबाद) से डॉ. रेणु श्रीवास्तव जौहरी जी।

Youtube लिंक है-
सुंदर संवाद, आनंदमय वार्तालाप।

Tuesday, 5 December 2023

'किलकारी' (काव्य संग्रह) लोकार्पण







 आकाशवाणी क्लब, पटना में मेरे काव्य संग्रह ' किलकारी ' का लोकार्पण समारोह संपन्न हुआ। देश के नौनिहालों को समर्पित इस पुस्तक के मुखपृष्ट रूपांकन से लेकर आंतरिक चित्रकला तक का मनोहर कार्य किलकारी बाल संस्था, दरभंगा के बच्चों ने किया है। इस अवसर पर देश के नामचीन साहित्यकार, लेखक और पटना शहर के बुद्धिजीवी उपस्थित थे। श्री भगवती प्रसाद द्विवेदी, डा उषा सिन्हा, डा शिवदयाल, डा शिवनारायण, डा किशोर सिन्हा और पूनम मोहन ने इस अवसर पर अपने प्रेरक विचार रखे। साहित्य और समाज के प्रति जागरूक करती संस्था ' लेख्य मंजूषा ' के तत्वावधान में आयोजित इस समारोह का संचालन संस्था की अध्यक्ष डा विभा रानी श्रीवास्तव ने किया और धन्यवाद ज्ञापन प्रवीण ने किया। अध्यात्म, जीवन दर्शन, प्रकृति दर्शन, प्रेमिल भावोच्छवास, माटी की सुगंध, समसामयिक समाज और शीर्षक रचना में वर्गीकृत यह संग्रह देश के बच्चों को अपनी परंपरा, संस्कार और मूल्यों से जोड़ने का प्रयास है। इस अवसर को अपने आशीर्वचनों से पवित्र करने वाले सभी पूज्य एवं महान साहित्यकारों के प्रति हम अपना आदर भाव समर्पित करते हैं। इनके द्वारा किए गए मार्गदर्शन को आत्मसात करते हैं ।
पुस्तक का प्रकाशन 'विश्वगाथा प्रकाशन ' , गोकुल पार्क सोसायटी, 80 फीट रोड, सुरेंद्रनगर 363002, गुजरात ने किया है।
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Thursday, 9 November 2023

सृजन सवेरा


 जल के तल पर,

स्वर्ण रेखा से, 

पथ बन सूरज

सो गया।

मस्तुल पर मस्त

अन्यमनस्क मन ,

अकेलेपन में

खो गया।


तट से दूर,

अंदर जाकर,

पानी भी रंग

बदल लेता!

फिर क्यों मन

चंचल होकर भी,

आज अचेत सा

यूँ  लेटा?


बस पल भर,

बीत जाते ही,

कंचन वीथि

खो जाएगी।

गागर में

रजनी अपनी,

सागर समेट

सो जाएगी।


नीचे तम,

और ऊपर भी तम,

और क्षितिज भी,

चहुँ मुख हो सम।

अँधियारे  लिपटे

अन्हार को,

भी न खुद

होने का भ्रम!



दृश्य जगत का,

छल प्रपंच,

अदृश्य अमा के

तिमिर काल।

न होगा ऊपर

नील गगन,

न नीचे रत्ना

गर्भ ताल।


फिर खोए नितांत

एकांत में,

जागे मानस,

इच्छा तत्व।

तीन गुणों में

सूत्र आबद्ध,

राजस, तमस

और सृजन सत्व।


' न होने ' से 

'हो जाने ' , के,

' प्रत्यभिज्ञा ' अंकुर-मुख 

खोलेगा।

कालरात्रि के

छोर क्षितिज,

सृजन सवेरा

डोलेगा।















Monday, 6 November 2023

सागर बता क्यों?

 


सागर बता क्यों तू,

गंभीर इतने?

तूने देखे घात

प्रतिघात कितने!



सुनी है ये हमने

पुरातन कहानी।

कि सृष्टि का स्त्रोत

तुम्हारा ही पानी।


तुम थे, तुम थे,

और केवल तुम थे।

जो जड़ थे, चेतन थे,

सब तुम में गुम थे।


भ्रूण में तुम्हारे,

रतन ही रतन थे।

निकले सब बाहर,

मंथन  जतन से।


सृष्टि को भेजा था,

जल से तू थल पर।

तेरे परलय टंगी,

धरती शूकर पर।


आगे बही फिर,

सभ्यता की धारा।

प्रतिकूलता को,

हमने संहारा।


ऊपर, और ऊपर

चढ़ते गए हम।

प्रतिमान नए और

गढ़ते गए हम।


पशुओं को मारे,

और पशुता को धारे।

जटिल जिंदगानी,

इंसान हारे।


पियूष प्रकृति बूंद,

बूंद हमने पीया।

संततियों को,

बस जहर हमने दिया।


लहरें ही लहरों में,

जा के यूं उलझे।

श्रृंग-गर्त्त भंवर बन,

रह गए अनसुलझे।


तुमसे ही अमृत,

तुमसे गरल भी!

बता क्यों है क्लिष्ट,

अब ये सृष्टि सरल सी?






Tuesday, 12 September 2023

छोड़ो बक- बक

 मेरी खरी और तेरी खोटी,

इसमें जीवन बीता।

इसी उलझन में फंसे रहे,

कौन हारा, कौन जीता।


छोड़ो बक- बक,

हो जा चुप अब।

बोलोगे तो,

सोचोगे कब।


नहीं रहेगा,सुननेवाला,

महफिल ये छोड़ेंगे सब।

आगे नाथ न पीछे पगहा,

तो तू क्या करेगा तब?


आँखों में न साजो सपने,

न हसरत हो सीने में।

जो सुख अंजुरी भर पानी में

नहीं मदिरा पीने में।


नहीं रहेगा मेला हरदम,

न ये खुशबू भीनी।

' आए अकेले, जाओ अकेले '

भ्रम भेक भूअंकिनी।


जो मुक्ति अंतस के घट में,

नहीं काशी मदीने में।

दुनिया जितनी छोटी हो,

उतनी अच्छी जीने में।

Tuesday, 15 August 2023

मृच्छकटिकम


 देखो मिट्टी गाड़ी कैसे,

मेरे पीछे नाचे।

देह देही की यही दशा है,

यही संदेश यह बांचे।


सब सोचें मैं इसे नचाऊं,

किंतु नहीं यह सच है।

सच में ये तो मुझे नचाए,

यही बड़ा अचरज है।


श्रम सारा तो मेरा इसमें,

फिर कैसे यह नाचे!

रौरव शोर घोल मेरी गति में,

मेरी ऊर्जा  जांचे।


चकरघिन्नी सा नाचता पहिया,

मेरी गति को नापे।

हर चक्कर पर चक्का चर-पर,

चर-पर राग अलापे।


मैं भी दौडूं सरपट उतना,

जितना यह चिल्लाए।

कठपुतली सा नचा- नचा के,

बुड़बक हमें बनाए।


हर प्राणी की यही गति है,

मृच्छ कटिकम में अटका।

ता- ता- थैया करता थकता, 

पर भ्रम में रहता टटका।












Monday, 17 July 2023

भावार्थ

 अबूझ प्यास क्या बुझे,

तू और इसे कुरेदती।

प्रकृति तू! प्रति तत्व को,

पुरुष के उद्भेदती।


डूबकर मैं रूप में,

अरूप को संधानता।

हर शब्द आहत नाद में,

अनाहत ही अनुमानता।


सरस स्पर्श में तेरे,

मैं नीरस, नि: स्पृह-सा।

गंधमादन गेह देह,

मेरे शुष्क गृह -सा।


तर्क तूण तीर तन,

आखेटता मैं भाव को।

भाव भव सागर में,

तलाशता अभाव को।


कणन कंचन कामना तू,

मैं पुलक पुरुषार्थ का।

वासना के पार मैं,

वैराग्य के भावार्थ -सा।


Sunday, 16 July 2023

चंदा मामा के साथ चार दिन




चंदा मामा दूर  के,
बड़ी पकाये  गुड़  के।
अपने  खाये  थाली मे,
मुन्ने  को  दे  प्याली में।
.......... दादी माँ  की लोरिओं में अघाते और ऊँघते चंदा मामा कब मेरी कल्पनाओं के अंतस मे प्रवेश  कर  गये , मुझे पता भी न चला। वह पल-पल मेरी पलकों पर मेरे हसरतों के पालने मे झूलते, मुझे सोते से जगाते, दादी माँ  के कौरों में अपनी चाँदनी  की  मिठास घोलते और मुझे मेरी चिंतन क्षमता की परिपक्वता का आभास दिलाते कि अब तक  मैं  यह समझ चुका था कि वह धरती माता के भाई होने के नाते हम पृथ्वीवासियों के सगे मामा लगते हैं। दादी माँ   ने  यह भी बता दिया था कि सुरज चंद्रमा के अग्रज हैं। अपनी मां को पीड़ा की तपन देने की सजा में सुरज तपते हैं और माँ  को सुख-स्नेह देने के आशीष स्वरुप चंद्रमा शीतलता व सौंदर्य का पीयुष परिधान  धारण करते हैं। बात जो भी हो, अपने सांसारिक मामा में मुझे वो आकर्षण या निमंत्रण-सामर्थ्य कभी बिम्बित  नहीं  हुआ जो नील गगन के प्रशस्त प्रांगण मे निहारिकाओं से रास रचाते चंदा मामा की कमनीय कलाओं के कण-कण में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होता।
बाल सुलभ मन न केवल इस मामा से मिलने को आतुर रहता बल्कि अपने प्रतियोगी संस्कारों के कारण इस मिलन में अपने शेष मित्रों को पीछे छोड़ने का सपना पाले रहता।
ध्यायतो विषयान पुंसः....... गीता की इन पंक्तियों का मर्म मेरा बाल मन समझने लगा था। तथापि, योगस्थ: कुरु कर्माणि की मुद्रा मे मेरी चंद्र-मिलन की कामनाओं ने घुटने नहीं टेके थे।
अब नील आर्मस्ट्रौंग हमारे आराध्य नही, प्रत्युत हमारे प्रतियोगी और ईर्ष्या-इष्ट थे। नाहि सुप्तस्य सिन्हस्य प्रविशंति मुखे मृगा से प्रेरित मैंने इसरो को अपनी इच्छा का सुविचारित पत्र भेजा और मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, जब इसरो  ने अपने चन्द्रयान की  चंद्रयात्रा के अभियान में  मेरा चयन कर तय तिथि को आने की ताकीद कर दी। इस प्रसंग मे मुझे प्रदत्त प्रशिक्षण के वृतांत वर्णन से बचते हुए मैं  सीधे अपनी यात्रा की ओर बढता हूं।
यह अत्यंत सुखद क्षण था जब मेरी कल्पना(चावला) की आत्मा सजीव हो उठी और मैंनें अपने सहयात्री  के  साथ यान मे  प्रवेश  किया पलायन-वेग के साथ यान को वैज्ञानिकों ने श्रीहरिकोटा से उपर फेंका। पृथ्वी के वायुमंडल  और बादलों को चीरते हुए यान अंतरिक्ष मे कुदने को तत्पर हुआ और मैं धरती माता के मोह के गुरुत्व-बंधन से अपने को मुक्त करता हुआ मातुल लोक की ओर लपका। यान का वेग मेरी भावनाओं  के  प्रबल  आवेग  के  साथ  अद्भुत साम बिठाये था और मैं  शनैः शनैः भारहीनता की हालत मे खुशियों  के गोते  लगाने  लगा।
मानों, मेरी उत्कण्ठित भावनाओं  ने मेरे समग्र द्रव्यमान को उत्साह और अधीरता की असीम ऊर्जा मे परिणत कर दिया हो!  आइंसटीन द्वारा प्रतिपादित मात्रा-वेग –ऊर्जा  समीकरण स्वतःसिद्ध साबित होने लगा था।उधर पृथ्वी की प्रयोगशाला मे बैठे मेरे वैज्ञानिक चाचा मेरे यान की प्रत्येक गतिविधि को संचालित कर रहे थे। साथ मे कुछ प्रयोग भी संचालित किये  जा रहे थे। हमारी इस यात्रा में पहले के यानों की तुलना में अधिक समय लगाने वाला था। जहाँ अपोलो और चांग ने यह यात्रा क़रीब चार दिनों में और लुना-१ ने ३६ घंटों में तय की थी, वही अब की बार हमें क़रीब ४० दिन के आसपास लगने जा रहे थे। इसका कारण था, हम अपेक्षाकृत कम क्षमता वाले इंजिन से ही एक लंबे किंतु आसान-से  पथ-रेखा का अनुगमन कर रहे थे। अपने अंड-वृत्ताकार पथ में पृथ्वी से अधिकतम दूरी वाले बिंदु, ऐपजी, पर यान की गति न्यूनतम और निकटतम बिंदु, पेरिजी, पर सबसे  तेज़ हो जाती थी। यह एक अत्यंत रोमांचक अनुभव था। हमें यह भी बताया गया कि  पृथ्वी की कक्षा से हमें चंद्रमा की कक्षा में ठीक उसी वक़्त फेंक दिया जाएगा, जब हम चंद्रमा के सबसे नज़दीक होंगे। हमारे वैज्ञानिक चाचाओं की यह चालाकी न केवल उनके गुरुत्वीय ज्ञान का उद्घोष था, बल्कि इससे इंधन और ऊर्जा की अच्छी-ख़ासी बचत भी हो गयी। यात्रा का आनंद गंतव्य पर पहुँच जाने के आनंद से वाक़ई कई गुना होता है और हम अपनी इस यात्रा की इस लंबाई का पूरा लुत्फ़ ले रहे थे।  धरती धीरे-धीरे गोल गेंद-सी  दिखने लगी  थी, जिसकी आकृति भी छोटी होती जा रही थी। इधर अंतरिक्ष के नीले घट में  तेजी से डूबते मेरे यान ने तकरीबन उनचालीस  दिन तेरह घंटे बाद चंद्रमा के मंडल मे प्रवेश किया, जहां से अपने सहयात्री के संग एक लघु यान के सहारे मैंनें चंद्रमा के सतह का स्पर्श किया। मेरे पैर चाँद  पर थे। विचारो ने विश्राम ले लिया। भावनायें  निःशब्द  हो गयी  और  मै अवाक!
अब मैं अपनी  जन्मभूमि से तीन लाख चौरासी हज़ार चार  सौ  बीस  किलोमीटर की दूरी पर ठीक उसी जगह अपने पदचिन्हो को आरोपित कर रहा था, जहां नील साहब सहित बारह अन्य चन्द्रयात्रियों के पदछाप साफ साफ दीख रहे थे। चंद्रमा पर न कोइ वायुमंडल है, न ही हवाओं का अत्याचार!  इसलिये वहाँ  वायु के द्वारा भूक्षरण की प्रक्रिया का नामो-निशान नहीं  है।  सम्भवतः,  इसी कारण आने वाली सदियों  तक ये सारे चरण चिन्ह ऐसे ही अपने मूल स्वरूप  में  संरक्षित  रहेंगे और यह बात हमारे लिये अद्भुत रोमांच  का विषय  था।
अपने चार दिवसीय चारु चंद्रवास की  अवधि  में  मैने चंद्रमा की  सतहों पर एक विशेष वाहन मे सैर का  भरपुर  लुत्फ  उठाया।  इस दौरान  काफी शोधपरक  तथ्यों  को  भी  एकत्रित  किया। चंद्रमा की उत्पति किसी प्रबल  आवेग वाले  खगोलीय पिंड के पृथ्वी  के सतह से आज से करीब साढ़े चार बिलियन वर्ष पुर्व टकराने के  फलस्वरुप हुई थी। इस कारण पृथ्वी के अंदर के लौह द्रव्यों का अनुपात चंद्रमा के हिस्से कम ही पड़ा। यही कारण है कि चंद्रमा की सतहों  पर  रेतीले चट्टानों की  बहुतायत है।  ऐसा प्रतीत होता है  कि  शुरुआती दिनों  में   ही कोई तीव्र वेग  वाले  पिंड  के चाँद  की सतह से टकराहट हुई होगी और इस संघट्ट से कुछ लावा  छलका होगा जो  कलांतर मे जमने  की प्रक्रिया के  दौरान गढ्ढ़े मे  तबदील हो  गया और  इसकी अभिव्यंजना मुक्तिबोध ने इन शब्दों मे की—‘चाँद  का मुँह  टेढ़ा है’! अब सम्भवतः शीतकरण  की  प्रक्रिया पूर्ण हो  गयी  है और  चाँद  के  मुँह  को और ज्यादा टेढ़े  होने की गुंजाइश शेष  न  रही।
पृथ्वी की उपरी सतह की भाँति  चंद्रमा का बाह्य  कवच  भी  औक्सीजन और सिलिकन की बहुलता  से  परिपूर्ण है। इसके टेढ़े मुँह  का एक और  कारण विदित हुआ कि पृथ्वी की  ओर  वाले  सतह की मुटाई १०० मील और पृथ्वी से दूर वाले सतह  की मुटाई ६० मील है। इसका  कारण पृथ्वी के गुरुत्व के कारण चाँद  की सतह  का पृथ्वी  की  ओर  खिंचाव  है। एक और  रोचक तथ्य प्रकाश मे  आया कि चंदा मामा हमारी धरती से चार सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से दूर होते जा रहे हैं। विलगाव  की ये  प्रक्रिया पचास  बिलियन वर्षों  तक  चलेगी। विरह  की इस व्यथा की वेदना में  हमारी धरती अपनी तय उम्र सीमा पाँच  बिलियन वर्ष मे ही दम  तोड़  देगी। भाई से  अलग होने के दुख में बहन के असमय प्राणांत की इस वैज्ञानिक व्याख्या से मन व्याकुल  हो  उठा।
जब भाई चाँद  अपनी बहन पृथ्वी से निकटतम दूरी पर  होता है, बहन की भावनायें हिलोरें लेती है और उसकी छाती पर समुंदर में  ज्वार  उठने लगते हैं।  भावनाओं  की ज्वार-भाटा की यह वैज्ञानिक मीमांसा भारतीय मान्यताओं को पुष्ट करती हैं।
चंदा मामा सुरज की ज्योति  से  ही  ज्योतित  होते  है।. ये अपनी  धरती बहिन के  नैसर्गिक  प्रेम के  गुरुत्व  बंधन  मे  बंधकर  उसकी परिक्रमा लगभग साढे सत्ताइस दिनों  मे पूरी  करते  है।  इस  अवधि  को  एक  चंद्रमास  कहते  हैं.
इस दौरान एक बार मिलन की प्रसन्नता की आभा से इनका समग्र स्वरुप देदीप्यमान हो  उठता है जिससे वसुंधरा बहन पूनम की रात के  रुप मे सुसज्जित होती है। फिर एक समय  आता है,  जब चंद्रमा प्रकाशहीन होता है और वसुधा पर अमावस की उदासी छा जाती है।
स्वयं अल्प गुरुत्व होने  के  करण वायुमंडल मे तैरते कणों को बांध कर थामे रखने की क्षमता से हीन  है चंद्रमा!  इसलिये  इसका कोइ  वायुमंडल नही। फलस्वरुप प्रकाश  के  परावर्तन,  अपवर्तन, विष्फरण या छिटकने जैसी कोइ क्रिया यहाँ नहीं  होती। यही  कारण है  कि  इसकी  सतहों  पर  घोर  तमस  का साम्राज्य रहता है।
चंद्रमा का गुरुत्व पृथ्वी के  गुरुत्व का मात्र  सत्रह  प्रतिशत  है। पृथ्वी पर बत्तीस किलो का वजन यहां मात्र साढ़े  पांच  किलो  होता है। ये हुई न, बिना व्यायाम के वजन घटने का विलक्षण संजोग!
अंधकार के साये मे लिपटे , अल्प गुरुत्व वाले रेतीले चट्टान पर न हवाओं का शोर, न वनस्पति की झुमर और न प्रवहमान धारा का कलकल छलछल संगीत!  अम्बर के  प्रशस्त  प्रांगण मे अपनी प्रणय रंजित रजत चाँदनी  का चंदोवा  छाकर नीलांक विहार करने वाले चंदा मामा का अंतस कितना शुष्क , नीरस और तमोमय है, इसका भान होते ही आँखें  छलछला गयी। यहीं कारण शायद  रहा हो  कि  हलाहल पान कर विश्व का  कल्याण करनेवाले नीलकण्ठ ने इन्हे शिरोधार्य किया और शशिशेखर कहलाये। भले ही, रजनीश की इस सरलता का उपहास लोककवि  तुलसी ने  यह  कहकर उड़ा दिया कि – यमाश्रितो हि वक्रोअपि चंद्रः सर्वत्र वंद्यते ‘!
समय एक क्षण विश्राम नहीं लेता। हम इसरो  से प्राप्त निर्देशों  के  अनुसार आवश्यक शोधपरक सामग्री और जानकारी एकत्रित किये जा रहे थे। सौर वायु, मृदा-संरचना,  चंद्रमा की सतह की बनावट से जुड़े ढ़ेर सारी प्रयोग-सामग्रियाँ, वहाँ  के चुम्बकीय क्षेत्र से सम्बद्ध प्रायोगिक तथ्य, चंद्रमा एवम सूर्य की भिन्न-भिन्न कलाओं का पृथ्वी पर प्रभाव, पृथ्वी के अक्ष के झुकाव में चंद्रमा का योगदान, चंद्रमा और ऋतु परिवर्तन और ऐसे अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं की जॉच-परख एवं उनके संगोपांग अध्ययन के परितः हमारी गतिविधियां केंद्रित थीं।   

इन चार दिनों के चंद्र प्रवास में मेरे मनोवैज्ञानिक अवयवों को एक त्रासदीपूर्ण संक्रमण का सामना करना पड़ा। जैसे-जैसे तथ्यों की जानकारी होती रही, मेरे हृदय के गह्वर में  संजो कर सजाये गये चंदा मामा शनैः-शनैः इस सौरमंडल के पाँचवे  सबसे बड़े प्राकृतिक उपग्रह में परिवर्तित होते  जा  रहे  थे। इस मानसिक व्याघात ने हृदय में एक अव्यक्त आंदोलन को स्फुरित  कर  दिया था। इस चंद्र-विजय ने मेरी कल्पनाओं की निर्झरिणी को रसहीन कर दिया था। चंदा पर रचे गये वे गल्प, कथा-कहानियां , वे गीत,  कवितायें,  साहित्य सामग्रियां और उनसे निःसृत सुधा रस – इन सबको उस रेतीले चट्टान पर पसरा तमिस्त्र मुँह  चिढ़ा रहा था। चंदा मामा की गोद में ही बौद्धिकता के धरातल  पर मेरे मामा मुझसे विदा ले  रहे  थे और मैं  भी वापस अपने चंद्रयान में बैठकर अश्रूपुरित पलकों  संग पृथ्वी वापस लौट रहा था। अब मै अंतरिक्ष  मे चंदा से काफी दूर आ गया था।  फिर, राकेश अपनी समस्त कलाओं  को  सहेजकर अपने वैभव की पराकाष्ठा पर आसीन हो  चुके  थे। दुधिया चाँदनी की अमृत वर्षा हो  रही थी। तारक दल उधम  मचा रहे  थे। इस नयनाभिराम चंद्र-भंगिमा का अवलोकन कर मेरे मन के चंदा मामा फिर  से जी उठे थे  और उनको समर्पित मेरी चिर संचित कोमल आत्मीय भावनायें मेरी नवजात बौद्धिकता को ताने मार  रही थी --- चार दिन की चाँदनी , फिर अँधेरी रात !
मेरा बालपन मचलने लगा था - 
चान मामा, चान मामा,
हँसुआ द ।
ऊ हँसुआ काहेला?
मड़ई छवावेला 
......................
......................
बऊआ के मुँह में,
दूध भात घुटुक! 
                                 -----विश्वमोहन
    

Tuesday, 6 June 2023

शंकर सागर और यादों के दरीचे



१९८४ का साल। आई आई टी रूड़की तब का विख्यात रूड़की विश्वविद्यालय। अखिल भारतीय युवा महोत्सव ‘थोम्सो-८४’ का आयोजन। समूचे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों की युवा कला-प्रतिभाओं का विशाल जमघट। संस्कृति कर्मियों का अद्भुत समागम। नाटक, शास्त्रीय गायन, ग़ज़ल, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अद्भुत कलाकारों की विलक्षण प्रस्तुति। युवा दर्शकों से खचाखच हॉल। शोरगुल से सराबोर फ़िज़ा। कोई मनचला सीटी बजा रहा है, कोई काग़ज़ का हवाई जहाज़ उड़ा रहा है। अचानक मंच से आवाज़ गूँजती है – ‘हम पटना विश्वविद्यालय से शंकर प्रसाद बोल रहे हैं।‘ माइक में घुसती नियंत्रित साँसों के हल्के झीने स्वर परिधान में लिपटी एक मीठी आवाज़ पूरे हॉल को अपनी चाशनी में ऐसे भिगो देती है कि पूरे प्रेक्षागृह में मानों वक़्त एकबारगी समूचे दर्शकों के साथ चकित-विस्मित-सा ठहर जाता है। सारा वातावरण स्तंभित! सन्नाटा! जो जहाँ जिस स्थिति में, उसी स्थिति में हतशून्य-सा! आवाज़ों के जादूगर से यह पहला परिचय था हमारा। तब मैं युवा महोत्सव की इस आयोजन समिति का संयोजक सदस्य था। पटना सायन्स कॉलेज से इंटर पास कर मैं  रूड़की में सिविल  इंजीनियरी का छात्र था। हम बिहारियों की आदत होती है कि  हर जगह विशेषकर बिहार के बाहर किसी भी मंच पर हम अपने को हमेशा अगुआ के रूप में देखना चाहते हैं। हमने विशेष प्रयास कर इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय को आमंत्रण भेजवाया था। शंकर प्रसाद के नेतृत्व में इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय की टीम ने जो जलवा बिखेरा वह अब एक स्वर्णिम इतिहास है। उनके शानदार प्रदर्शन ने हमारे अंदर के बिहारीपन के भाव को पूरी तरह संपुष्ट किया। आगे कई दिनों तक रूड़की का प्रांगण शंकर प्रसाद और उनकी टीम की गाथाओं से गुंजित होते रहा और हम आपने भाग्य को अनथक सराहते रहे।

शंकर सर से मुलाक़ात फिर कई दशकों के बाद  दूरदर्शन की साठवीं जयंती पर एक पैनल चर्चा में हुई। पीछे का पूराना दृश्य अचानक चलचित्र की तरह घूम गया। बिलकुल नहीं बदले थे शंकर सर! अदाओं की वहीं लटक, आवाज़ में वहीं खनक और व्यक्तित्व में वहीं मिठास! तबतक डुमराँव से पटना के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका था। ज़िंदगी के अनेक दुरूह ऊबड़-खाबड़ को समतल बनाती  उपलब्धियों का विजय-केतन थामे उन्होंने एक ऐसे मुक़ाम को छू लिया था जो न केवल दर्शनीय ही था प्रत्युत बहुत लोगों के लिए ईर्ष्य भी था।

अल्पायु में ही यतीम हो गया एक  बालक अपने अदम्य संघर्ष बल और जीवट जिजीविषा से किस तरह जीवन के झंझावातों  को चीरता हुआ नवोंमेष  और सफलता का एक चमकता सूरज रोप लेता है अपनी अंगनाई में – यह सत्यकथा है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉक्टर शंकर  प्रसाद के जीवन-चरित की। इनके व्यक्तित्व को किस रूप में परिचय कराएँ आपसे – अभिनेता, प्रोफ़ेसर, प्रशासक, लेखक, उद्घोषक, संपादक, पत्रकार, गीतकार, फ़नकार, संगीतकार, नाट्य-कलाकार, ग़ज़लकार!!! इनके जीवन के आँगन में अनुभवों और उपलब्धियों की धूल जमती ही रही। जीवन पथ पर आनेवाले सभी तत्वों को इन्होंने बड़ी संजीदगी से समेटा। हर उपलब्धि इनके व्यक्तित्व में नम्रता का एक नया नगीना जड़ देती और इनका व्यक्तित्व और अधिक दमक उठता। भले ही, इन्होंने अध्यापन में अपना देहांतरण कर लिया हो, इनकी आत्मा कला और रेडियो में ही बसती रही। संगीत और नाटक इनके दिल में अहरनिश धड़कते रहे। लिखने को इनकी कलम कुलबुलाती रही। ग़ज़ल में इनका मन मचलता रहा। आवाज़ की माधुरी इनके होठों से अविरल झरती रही। इनका वैदुष्य पल-पल बिंबित होते रहा। इनकी वाग्मिता बहती रही। और, इनकी हर अदा पर माँ सरस्वती मुस्कुराती रही।

 शंकर की जटा से निकली गंगा की पतली धारा पर्वतीय उपत्यकाओं की बीहड़ता और दुर्गम  चट्टानों से  दो-दो हाथ करती, घाट- घाट को पानी पिलाती, विशाल भूभाग में पसरी परंपराओं, आर्यावर्त के अंगना के लोक मूल्यों, जीवन-संस्कृति, भू-संपदा और सभ्यताओं को अपने में समाहित करती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है। सच कहूँ, तो कुछ ऐसी ही फ़ितरत वाले हैं  संगीत नाटक अकादमी के भूतपूर्व अध्यक्ष और बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान उपाध्यक्ष अपने  ‘शंकर-सागर’ भी!  ‘सजना के अंगना’ वाले शंकर की जटा से स्मृतियों की गंगा हहराती हुई फूटती है। यह जीवन की दुरूह पथरीली घाटियों में लहालोट होती है। चट्टानों और शिला-खंडों से टकराती-रगड़ाती है।  अपने अनुभवों के कांकड-पाथर समेटती है। घाट- घाट का स्पर्श करती है। रास्ते की माटी के कण- कण का स्वाद चखती है। हर मोड़ पर उठने वाली नयी तरंगों से निकले सुर ताल से अपने सरगम की लय साधती है। अंत में, अपने विश्राम की कला को उद्धत होती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है।

स्मृतियों के लेखा के इस विशाल सागर में शंकर की लेखनी ने अपनी रोशनाई के अद्भुत वर्ण को बिखेरा है। इस स्मरणीय स्मृतिका को बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने चार खंडों में प्रकाशित किया है। ‘यादों के दरीचे’ पहला खंड है। शंकर के इस सरस सागर का श्री गणेश शंकर सागर की धुन पर ‘सजना के अंगना’ से होता है। इसी फ़िल्म से कला जगत में इस नायक, लेखक और संगीत के फ़नकार की बोहनी होती है। धीरे-धीरे ‘यादों के दरीचें’  में जीवन के इस सौंदर्य-उपासक के  संस्मरणों की सुरीली तान का जादुई वितान जब फैलना शुरू होता है, पाठक बरबस मुग्ध हो उठता है। उसकी तन्मयता का आलम तो यह है कि लेखक की सरल सरस बातचीत की शैली में बहता हुआ पाठक लेखक के बहुआयामी व्यक्तित्व के चित्र में यूँ रंग जाता है कि उसकी आँखें  एक साथ इस जादुई व्यक्तित्व में गायक, संगीतज्ञ, उद्घोषक, पत्रकार संपादक, लेखक, शायर, प्रशासक, अध्यापक, नाटककार, लोककर्मी, लोक संस्कृति का सूत्रधार और न जाने किन किन चमत्कृत आभाओं से चकाचौंध हो जाती हैं। लेखक का बहुआयामी व्यक्तित्व अत्यंत सशक्त रूप में पाठकों के समक्ष उभरकर आता है। समूचा वृतांत इतिवृतात्मक  और बातचीत की शैली में है। लेखक के कहने के ढब में एक कलाकार की कोमलता, एक बालक-सी सरलता, भारतीय आँचलिक जीवन का भोलापन, आत्मीयता का ठेठ गँवईपन, अभिव्यक्ति का टटकापन,  और जीवन समर की तपिश है। किस्सागोई के अद्भुत मीठे प्रवाह की गति में गुदगुदाती कहानियाँ पाठक को कभी हंसाती हैं, कभी रुलाती हैं और फिर अपने बतरस से बरबस ऐसे नहला जाती हैं कि पाठक को यह बतियाना छोड़ने का मन नहीं करता। समूची बातचीत में एक विस्तृत कालखंड का इतिहास बिखरा हुआ है।  लेखक के शब्दों में ही, “जब से होश संभाला यह अनुमान मुझे हो गया था कि मुझे बहुत कुछ मिलेगा इस संसार में। छोटी उम्र में ही वह सब कुछ होने लगा जिसकी उम्मीद वह बेटा तो नहीं कर सकता, जिसका पिता दो वर्ष की उम्र में ही चला गया। इसलिए यह आशा जाग उठी थी कि मुझे कुछ अलग होना ही चाहिए।“

लेखक ने अपनी स्मृतियों के लेखे-जोखे को चार सोपानों में बाँटा है- ‘माया नगरी की धूप-छाँह’, ‘डुमराँव की गलियों से लंबी उड़ान’, ‘आकाशवाणी से मंच और पत्रकारिता में चकाचौंध की ज़िंदगी’ तथा ‘सफ़र में डॉक्टर शंकर प्रसाद’। पाठक भी लेखक के साथ उसकी कथा-यात्रा में यूँ आगे बढ़ता चला जाता है, मानों कोई पक्षी किसी सीढ़ी पर फुदक-फुदक कर सोपान-दर-सोपान चढ़ता जा रहा हो और हर सोपान पर आगे ‘और कुछ’ पाने का आकर्षण उसमें फिर से फुदकने की ललक पैदा करते जा रहा हो! फ़िल्म ‘सजना के अंगना’ और इसके निर्देशक अकबर बालन के प्रसंग से कथा का श्री गणेश होता है। इस फ़िल्म के निर्माण में शंकर ‘प्रसाद’ शंकर ‘सागर’ बन जाते हैं और  इस सागर से समकालीन रंगीन दुनिया की तमाम धाराओं का मिलन होता है। उन सभी धाराओं का अपना अलग  राग, अलग ताल, अलग छंद और अलग उछाह है। फ़िल्मी दुनिया के कई नामचीन किरदार और उनकी ज़िंदगी के अनछुए प्रसंग बड़े रोचक ढंग से उभरते चले आते है। प्रसंगों को इतनी मिठास से पिरोया गया है कि पाठक को लगता है कि वह भारत के चित्रपट के इतिहास का चलचित्र ही देख रहा है।

‘’१ अगस्त १९३३ को दादर में मीना जी अली बख़्श के घर पैदा हुई - उनके पिता अली बख़्श पारसी थिएटर में काम करते थे और डान्सर थे।उनकी पत्नी इक़बाल बेगम थीं यानि मीना जी की माँ। बहुत छोटी उम्र में मीना जी ने काम करना शुरू किया- महजबी  नाम था उनका।……….अली बख़्श बहुत नाराज़ हुए क्योंकि कमाल अमरोही  की ऊम्र ५० वर्ष थी और मीना जी की ऊम्र १६ वर्ष ………………….     मोहब्बत ऊम्र नहीं देखती …………………  वह बूढ़े थे और उनको मीना जी पर भरोसा नहीं था ………… एक  दिन कमाल अमरोही  ने गुंडों को भेजकर धर्मेन्द्र जी पर हमला करवा दिया…….. उधर वहीदा जी बढ़ती गयीं और गुरुदत्त बिखरते गए……….यह संस्मरण बहुत ख़तरनाक है ………….सुनील दत्त के लिए ‘मुझे जीने दो’ फ़िल्म शूट कर रही थीं तब शूटिंग स्थल पर गुरुदत्त ने जाकर वहीदा जी को एक थप्पड़ मारा और पलट कर सुनील दत्त ने गुरुदत्त को थप्पड़ मारा…………………….         रेणु जी शादी शुदा थे और उन्हें टीबी की बीमारी थी। मुँह से ख़ून आता था और जिस हॉस्पिटल में भर्ती हुए, वहीं लतिका जी नर्स थीं। प्रेम संबंध बढ़ा। यह अलौकिक प्रेम संबंध है। प्रेमिका जान रही है कि जो बीमारी है, वाह जानलेवा है। प्रेमी जान रहा है कि कभी भी मर सकता है। फिर भी, यह प्रेम हुआ और ख़ूब हुआ। जब  फेरे लग रहे थे तब रेणु जी ख़ून की उल्टियाँ कर रहे थे। यह सब जया जी सुन रही थीं और रो रही थीं………………………उन्होंने बताया कि उनका रिश्ता बिहार से है, दानापूर में रहती थीं। यहीं रेलवे स्टेशन पर उनके पिताजी काम करते थे,इसलिए जब बिहारी उपन्यासकार का नाम आया तब उन्होंने ‘हाँ’ कर दिया।“ 

इस तरह के अनगिन प्रसंगों से यह स्मृतिका लबरेज़ है। मौरिशस यात्रा की कहानी बहुत ही रोचक और मन को मिठास से भर देनेवाली है – “उस समय राष्ट्रपति थे, शिवसागर रामगुलाम।………………..वह भोजपुरी में बात कर रहे थे और वह भी विंध्यवासिनी देवी को मौसी की जगह भौजी कह रहे थे और बोल रहे थे कि, ‘आप ऐसन लागी ले, जय सन हमार भौजी लागत रही। असहीं घूँघटा में रहत रही।“  अपनी आत्मा को रेडियो की दुनिया में छोड़कर अध्यापन के संसार में लेखक की देह के  अंतरण की कथा मन को छू जाती है। लेखक की यह संस्मरण-कथा जीवन के दर्शन का अद्भुत दस्तावेज़ है। सचमुच में,

“यह जो ज़िंदगी की किताब है

यह किताब भी क्या किताब है

कहीं एक हसीन-सा ख़्वाब है

कहीं जानलेवा अजाब है।“


Wednesday, 24 May 2023

बड़े घर की बेटी ( लघु कथा )


सरकारी नौकरी लगते ही बड़े-बड़े घरों की बेटियों के रिश्ते आने लगे। और, एक दिन एक बड़े घर की बेटी इस सरकारी बाबू की बहू बनकर आ भी गयी। आते ही बहू ने अपनी सतरंगी आभा का विस्तार किया। नौकर, चाकर, मुवक्किल, मुलाजिम, ठेकेदार, देनदार, अमले, फैले, भूमि, जनसंख्या, सरकार, सब साहब के। लेकिन, संप्रभुता बहू की! और, सबकी आज्ञाकारिता का भाव बहू के प्रति समर्पित। अरमान और फरमान दोनों बहू के। साहब तो इस व्यवस्था के 'श्री कंठ' मात्र थे जिससे मेमसाहब के स्वर निःसृत होते थे।  सारा कंट्रोल बड़े घर की इस बेटी के हाथ में ही था। दिन पर दिन घर की इकॉनमी और मेम साहब का शारीरिक शौष्ठव शेयर मार्किट की तरह उछाल पर आने लगा था।
दुर्भाग्य ने अचानक साहब के शरीर में सेंध लगा दी। उनके किडनी ख़राब हो गए। बदलने की नौबत आ गयी। सत्रह लाख रुपयों  की दरकार थी। साहब ने चारों तरफ नज़रें घुमा ली। एड़ी चोटी एक कर दी। हाथ पाँव मार लिए। सबसे चिरौरी कर ली। कहीं दाल न गली। हाथ पाँव फूलने लगे। कहाँ से जुगाड़े इतनी रकम! सात लाख तक ही जुटा पाए थे। भाई लाल बिहारी ने दिलासा दी। उसने खेत बेचे। मंगेतर के गहने गिरवी रखे और किसी तरह भीड़ा ली जुगत अतिरिक्त दस लाख रुपयों की। ऑपरेशन सफल रहा। साहब की जान बच गयी।
सरकार ने अचानक बिजली गिरा दी। नोटबंदी की घोषणा हो गयी। अफरा-तफरी मच गयी जमाखोरों में। मेमसाहब ने भी सत्रह लाख रुपये मजबूरी में साहब के हाथों में धर दिए। साहब ने पथराई आँखों से कागज़ के उन टुकड़ों को बिखेर दिया।
आज कचहरी की दहलीज़ से हाथों में तलाक़ का अदालती फरमान लिए साहब सामने घंटा घर की बंद घड़ी  की सुइयों को  निहार रहे थे और उन सुइयों पर प्रेमचन्द की 'बड़े घर की बेटी' लटकी हुई थी!  


Monday, 1 May 2023

रेस्जुडिकाटा!

जिंदगी की फटी पोटली से झांकती,
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
.......    ......     .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले  गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और  तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
.....    ......       .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!

Wednesday, 22 March 2023

देश मेरा रंगरेज



 देश मेरा रंगरेज 

(व्यंग्य संग्रह)

पुस्तक समीक्षा



पुस्तक का नाम – देश मेरा रंगरेज 

लेखक – प्रीति ‘अज्ञात’

प्रकाशक – प्रखर गूँज, एच ३/२, सेक्टर- १८, रोहिणी,  दिल्ली -११००८९, 

दूरभाष – ०११-४२६३५०७७, ७९८२७१०५७१, ७८३८५०५८९९

मूल्य- २५० रुपए 



हमारे अध्यात्म का आसव है – आनंद! जब अस्तित्व (सत) में चेतना (चित) खिल उठे तो अंतर्भूत आनंद का आविर्भाव होता है।  इसे ही सच्चिदानंद की स्थिति कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने का सौभाग्य  प्राणी जगत में मात्र मनुष्य योनि को ही प्राप्त है। ऐसा हो भी क्यों नहीं! विवेक और भाव की जुगलबंदी  तथा तदनुरूप माँसपेशियों की हरकत अर्थात मन की मुस्कान के साथ होठों के संपुट खुलकर दाँतों का हठात् चीयर जाना मनुष्य होने की एकमात्र कसौटी है। मुस्कानविहीन मुख ख़ालिस मुर्दानिगी  है । अक्सर कोई बड़ी सहजता से कुछ  बात कह जाता है। उसकी बात  अंतस के तार को गहरे में जाकर यूँ छेड़ देती है  कि मुख पर एक सहज मुस्कुराहट और उस मुस्कुराहट के हर हर्फ़ में बातों की गंभीरता का मिसरा बिखरा रहता है। उस मुस्कुराहट से  न केवल मन का पोर-पोर भीग जाता है बल्कि कभी कभी तो  नयनों के कोर तक भी नम हो जाते हैं। कथन या लेखन  की इसी विधा को व्यंग्य कहते हैं जहाँ अन्योक्ति और वक्रोक्ति से उसके  सीधे सपाट अर्थ  ऐसे लहालोट हो जाते हैं कि पाठक या श्रोता का मन आनंद  से अचानक चिंहुक उठता है। बातों का तीर अपने लक्ष्य को चीरते हुए निकल जाता है। बातों  के मर्म को पकड़े पाठक  का अकबकाया मन तो कभी-कभी साँप-छछून्दर की दशा प्राप्त कर लेता है। और, लहजे में यदि मुहावरों को दाख़िला मिल जाय तो फिर कहना ही क्या! न केवल व्यंग्य के ये प्रखर बाण विसंगतियों को छलनी कर देते हैं बल्कि दमघोंटू वातावरण में समाज को प्राण वायु भी सूँघा जाते हैं। प्रीति ‘अज्ञात' का व्यंग्य-संग्रह ‘देश मेरा  रंगरेज’ भी बहुत कुछ ऐसा ही है।


ऋग्वेद में इंद्र और अहल्या के कथित संवाद  व्यंग्यालाप के अद्भुत नमूने हैं। पिता के बंजर सिर पर बाल, आश्रम की बंजर भूमि और अपनी बंजर कोख में हरियाली की माँग!  इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी का दुर्योधन पर व्यंग्य महाभारत रच जाता है। गोपियों की उलाहना में घुले  व्यंग्य के प्रहार से उद्धव के ज्ञान का दंभ भरभरा कर धूल चाटने लगता है। देखिए न, ‘मृछकटिकम’ में  जनेऊ को शुद्रक ने क़सम खाने और चोरी करने के लिए दीवार लाँघने में काम आने वाले एक उपयोगी उपकरण के रूप में माना है। अपने मायके पर शिव के व्यंग्य से बिफरी पार्वती विद्यापति  के मुख से महादेव को भली भाँति धो देती हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब सैयद अहमद साहब की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी के शब्दों की धार देखिए :

“शैख़ ने गो लाख बढ़ाई सन की सी 

मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी।“

‘दांते’ के  ‘डिवाइन कॉमेडी’ में व्यवस्था के मज़ाक़ की गूँज सुनायी देती है।  भारतेंदु, अकबर इलाहाबादी, क्रिशन चंदर, काका हाथरसी, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्री लाल शुक्ल, रविंद्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के पी सक्सेना, लतीफ़ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, विवेकरंजन श्रीवास्तव, हरिमोहन झा, गोपेश जसवाल, के के अस्थाना आदि अनेक नाम ऐसे हैं जिनकी लेखनी ने लेखन की इस विधा में अपने-अपने रंग भरे हैं। किसी भी समाज, समुदाय या साहित्य में हास्य-व्यंग्य तत्व की उपथिति की प्रचुरता उसकी  प्रगतिवादी, विकसीत, आधुनिक और सुसंस्कृत सोच को दर्शाती  है। व्यंग्य बाणों को उदारता से देखना एक उर्वर आध्यात्मिक दृष्टि का लक्षण है।  जैसे हास्य-विहीन जीवन शमशान-तुल्य है वैसे ही व्यंग्य के प्रति उदारता और स्वस्थ दृष्टिकोण का अभाव एक मृत समाज का भग्नावशेष  है। समय-समय पर ये तत्व हममें  ख़ुद पर हँसने की चेतना भरते हैं और आत्म-निरीक्षण हेतु तैयार करते हैं। 


वैदिक युग से अद्यतन भारतीय साहित्य में हास्य-व्यंग्य के तत्वों की एक समृद्ध परम्परा का अनवरत प्रवाह होता रहा है। इस प्रवाह की चिरंतनता को गति देने की दिशा में प्रीति ‘अज्ञात’ रचित ‘देश मेरा रंगरेज’ एक महत्वपूर्ण और सशक्त कृति बनकर उभरी है। हमारे देश की  लोकजीवन-शैली  ने हमारी राष्ट्रीयता को नित-नित नए रंगों में रंगने की अपनी कला को शाश्वत बनाए रखा है। उन रंगों को प्रीति जी ने एक प्रखर समाज सचेतक की भाँति सहेजकर बड़ी कुशलता से अपनी कूँची में भरा है। उनके कैन्वस का वितान अत्यंत विस्तृत है। व्यवस्था की त्रुटियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ, फ़ैशन परस्ती, जीवन शैली की विद्रूपता, गिरते सामाजिक मूल्य, बढ़ता भ्रष्टाचार, भौतिक विकास से चोटिल सामाजिक जीवन, नागरिक मूल्यों का निरंतर क्षरण, साहित्य में जुगाड़ तंत्र, लेखकों की दयनीय दशा, मुँहज़ोर मुँह के जुमलों का ज़ोर, समय के सफ़र में स्पेस में घुलता ज़हर, कमर तोड़ती महँगाई, कुर्सी पर क़ब्ज़े की क़वायद, रिश्तों की चुहलबाज़ी, बीते दिनों के स्कूली दिनों की मर्मांतक किंतु आज गुदगुदाती गाथाएँ, बचपन के पिता की ख़ौफ़नाक तस्वीर, ‘मर्द का दर्द’, कोरोना काल का समाजशास्त्र, मास्कपरस्ती का मनोविज्ञान, आशिक़ों के अगणितीय समीकरण – इन तमाम वर्णों को अत्यंत  बलखाती मोहक वर्णमाला में अपने चित्रपट पर उन्होंने पसार दिया है। भावों के हास्य-तत्व से उनके शब्द गलबहियाँ करते दिखते हैं। अनूठे शब्दों के औज़ार से उनके व्यंग्य  की तीव्रता मारक बन जाती है। शब्दों की छटा का अवलोकन कीजिए – ‘खिलंदड़पना’, ‘परवरिशपंती’, ‘जलीलत्व’, ‘सेल्फ़ियाने’,  ‘इश्कियाहट’, घिघियावस्था आदि, आदि! उनके बतरस में समकालीन समाज की बोली की पांडुलिपि का रूह-अफ़जा है। 


उनके कुछ वाक्यों की धार देखिए, “अच्छा! गिरे हुए इंसान (जमीन पर, ज़मीर से नहीं) को चोट से अधिक  चिंता और दुःख पहले इस बात का होता है कि उसे किसी ने गिरते हुए तो नहीं देखा!”, “छरहरा होना राष्ट्रीय स्वप्न है”, “वो तो अच्छा है कि प्रश्वास के समय कार्बन डाई आक्सायड निकलती है। कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमण्डलीय ऑक्सिजन से मिलकर सब किए-कराए पर पानी फेर देती।“, “जी, हाँ अतृप्त लेखकीय आत्मा प्रायः पुस्तक मेले में भटकती पायी जाती है।“, “पर, जो मान  जाए तो वह कवि ही क्या!”, “दुर्गति वही, जगह नयी।“, “ये टीवी का अकेला चैनल तब सबको जोड़ता था। आज सैकड़ों चैनल मिलकर एकता स्थापित नहीं कर पा रहे।“, “चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते।“, उस दिन आपके नसीब से वो रायता/गुलाबजामुन ऐसे उड़ जाता था जैसे कि ग़रीबों के घर से शिक्षा, नेताओं से नैतिकता और समाज से मानवता उड़ चुकी है।“, “विकास तो हो रहा है बस ज़रा दिशा बदल गयी है।“, होता क्या है कि जैसे बहू गृहप्रवेश के साथ ही घर संभालने लगती है, इसके ठीक उलट दामाद जी के चरण पड़ते ही पूरा घर उन्हें संभालने लगता है।“,  “आज के ज़माने में जहाँ लोग घर के अंदर से ही बाय कर मुँह पर दरवाज़ा बंद कर देते हैं वहाँ यह ‘कुत्ता’ ही है जो आपको स्पीड के साथ गंतव्य तक छोड़कर आता है।“  इस तरह के लज़ीज़ ‘व्यंजनों’ से यह पूरी पुस्तक पटी हुई है। 


नवपरम्परावाद  की चाशनी में पगे  समाज  का स्वाद प्रीति की  लेखनी के हास्य-तत्व को एक अप्रतिम कलेवर देता है। पुस्तक की कथावस्तु के केंद्र में पिछली सदी के आठवें दशक से आजतक अर्थात पिछले तीस चालीस वर्षों के भारतीय समाज का जीवन चरित है। यही वह  कालखंड है जब विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों पर आरूढ़ एक पीढ़ी  हौले-हौले अपने बचपन की चुहलबाज पगडंडियों पर उछलते-कूदते कैशोर्य  के राजमार्ग होकर यौवन के इक्स्प्रेस्वे पर पहुँच जाती है। किंतु पगडंडी की धीमी गति की मिठास के आगे इक्स्प्रेसवे की द्रुत गति बड़ी ठूँठ-बाड़ और अराजक-सी लगती है। व्यंग्य के इस कुशल चितेरे ने उन मनभावन यादों से अपनी ‘प्रीति’ को ‘अज्ञात’ नहीं होने दिया है। स्मृतियों को सहेजना ही बुद्धि और विवेक की चिरंजीविता के लक्षण हैं। जैसा कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, “स्मृति भ्रंशात बुद्धि नाश:, बुद्धि नाशात प्रणश्यति ।“  अतीत की स्मृतियों के आलोक में वर्तमान की विसंगतियों पर अचूक निशाना साधने में प्रीति अत्यंत खरी उतरी हैं। उनकी लेखनी की प्रांजलता, विचारों का  प्रवाह, चिरयौवना भाषा का अल्हड़पन, शब्दों का टटकापन, भावों की मिठास, हास्य का सुघड़पन, व्यंग्य की धार और दृष्टि की तीव्रता किताब की छपाई के फीकेपन को पूरी तरह तोप  देती है और पाठक शुरू से अंत तक प्रीति के बंधन से बँधा रह जाता है।

--------- विश्वमोहन


Sunday, 22 January 2023

आँचल

तेरे आँचल से भी छोटा,

चाहे जितना फैले अंबर।

सारी सृष्टि से भी संकुल

माँ घनियारा तेरा आँचर।


सात समुंदर भी डूब जाते,

नील नयन माँ तेरे घट में।

बेचारी नदियाँ  बंध जाती,

मैया तेरे नेह के तट में।


पवन प्रकंपित थम जाता माँं!

लट में तेरे अलकों के।

और दहकती अग्नि ठंडी,

तेरी शीतल पलकों में।


ब्रह्मा-विष्णु-शिव शिशु-से,

अनुसूया के आँगन में।

माँ के कान पकड़ते मिट्टी,

विश्व मोहन के आनन में।


अब दुनिया ये छोड़ गई तुम,

नेह से नाता तोड़ गई तुम।

ममता से मुँह मोड़ गई तुम,

मन का घट हिलोड़ गई तुम।


माँ, शव  मैने ढोया तेरा,

शोक नहीं ढो पता।

नहीं मयस्सर आँचल तेरा,

पल भर को खो जाता!

Tuesday, 17 January 2023

गंगा को सागर होना है।

 काल चक्र के महा नृत्य में,

नहीं चला है किसी का जोर।

जितना नाचें उतना जाने,

जहाँ ओर थी, वहीं है छोर।


 जिस बिंदु से शुरू सड़क थी,

है पथ का अवसान वही।

अभी निकले थे, अभी पहुंच गए,

होता तनिक भी भान नहीं।


यात्रा के अगणित चरणों में

इस योनि का चरण भी आता।

पथ अनंत पर जब निकले थे,

जन्मदिवस है याद दिलाता,


पथ वृत पर पथिक भ्रमित है,

गुंजित गगन, ये कैसा शोर!

बजे बधाई, मंगल वाणी,

संगी साथी मची है होड़।


सत्य यही, इस गतानुगतिक का,

जड़ चेतन सब काल के दास।

एक बरस पथ छोटा होकर,

गंतव्य और सरका पास।


अब तक मन है बहुत ही भटका,

अब न और भ्रमित होना है।

सच जीवन का समझ में आया,

गंगा को सागर होना है।





Friday, 30 December 2022

काल प्रवाह

साल यूँ  ही जब जाना तुझको,

क्यों हर साल चले आते हो।

साल-दर-साल सरक-सरक कर,

बरस -बरस  बरसा जाते हो।


नया बरस बस कहने का है,

धारा बन जस बहने का है।

आज नया, कल बन पुराना

काल-प्रवाह में दहने का है।


मौसम की फिर वही रीत है,

और जीवन का वही गीत है।

अवनी आलिंगन अंबर के,

सूरज पट और धरती चित है।


गोधूलि  में धूल-धूसरित-सा,

तेजहीन हो रवि विसरित-सा।

औंधे मुँह  सागर में गिरता,

फिर तिमिर से जग यह घिरता।


अर्द्धरात्रि के अंधियारे में,

एक साल काल का डूबता।

क्षण में दूर क्षितिज से उसके,

नये साल का सूरज उगता।


समय अनादि और अनंत है,

यहाँ  तो बस भ्रम की गिनती है।

साल! बनो न नए पुराने,

तुमसे यह ख़ालिस विनती है।



🙏🙏

Sunday, 30 October 2022

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर

आज फिर थाम लिया है माँ ने,
छोटी सी सुपली में,
समूची प्रकृति को।
सृष्टि-थाल में दमकता पुरुष,
ऊंघता- सा, गिरने को,
तंद्रिल से क्षितिज पर पच्छिम के,
लोक लिया है लावण्यमयी ने,
अपने आँचल में।
हवा पर तैरती
उसकी लोरियों में उतरता,
अस्ताचल शिशु।
आतुर मूँदने को अपनी
लाल-लाल बुझी आँखें।
रात भर सोता रहेगा,
गोदी में उसके।
हाथी और कलशे से सजी
कोशी पर जलते दिए,
गन्ने के पत्तों के चंदवे,
और माँ के आंचल से झांकता,
रवि शिशु, ऊपर आसमान की ओर।
झलमलाते दीयों की रोशनी में,
आतुर उकेरने को अपनी किरणें।
तभी उषा की आहट में,
माँ के कंठों से फूटा स्वर,
'केलवा के पात पर'।
आकंठ जल में डूबी
उसने उतार दिया है,
हौले से छौने को
झिलमिल पानी में।
उसने अपने आँचल में बँधी
सृष्टि को खोला क्या!
पसर गया अपनी लालिमा में,
यह नटखट बालक पूर्ववत।
और जुट गया तैयारी में,
अपनी अस्ताचल यात्रा के।
सब एक जुट हो गए फिर
अर्घ्य की उस सुपली में
"क्षिति जल पावक गगन समीर।"


Sunday, 16 October 2022

दंभ दामिनी

 खुद कपटी थे, क्या समझो तुम!

निश्छलता क्या होती है।

तेरी हर खुदगर्जी पर,

बस टीस-सी दिल में होती है।


मेरी तो हर बात में तुमको,

केवल व्यंग्य झलकता है।

जबकि हर हर्फ वह तेरा,

मुझको पल-पल छलता है।


बात बात तेरी घुड़की कि,

मुझे छोड़ तुम जाओगे।

मेरी यादों की गलियों में,

नहीं कभी तुम आओगे।


तुम भी सुन लो, नहीं मिटेगी,

गलियों की पद जोड़ी रेखा।

मेरा रंग तो सदा एक-सा,

रंगहीन नेह तेरा देखा।


हम कहते, छोड़ो हठात हठ,

और दंभ का दामन अपना!

अहंकार को आहूत कर दो,

हसरतों का बुनों सपना।


हुई दग्ध तुम, दर्प निदाघ में

और न दहको, दंभ दामिनी।

देखो, दूधिया दमके चांदनी

राग यमन में झूमे यामिनी।









Saturday, 8 October 2022

पगले बादल!

हाँ, हाँ, गरजो,

बादल, गरजो!

बरस भी रहे हो,

अब तो! 

मूसलाधार! 

और असमय भी! 

बेमौसम ।

हो गयी है  अब तो,

धरती भी,

शर्म से पानी-पानी।



'गरजना' तुम्हारी भावनाएँ हैं ।

और फ़ितरत है, तुम्हारी।

'बरसना', 

उन भावनाओं में।

कहना क्या  चाह रहे हो? 

कोई अवस्था नहीं होती 

भावोद्वेग की! 

कोई उम्र नहीं होती,

वश में करने और 

बहने बहकने की! 



तो जान लो!

एक भाव होता है,

हर 'अवस्था' का भी।

और एक पड़ाव,

हर 'भाव' का भी!

पहले पैदा करो

मन में अपने,

भावना, नियंत्रण की! 

पाओगे नियंत्रण तब,

अपनी भावनाओं पर!



नहीं बरसोगे, 

फिर  बेमौसम, ग़ैर उम्र।

ना ही तड़पोगे तब,

और ना ही गरजोगे।

पहले बीज तो डालो, 

करने को क़ाबू में,  ख़ुद को।

नहीं होता नाश कभी, 

कर्म के बीज का!

यही तो योग है।

पगले बादल!


Sunday, 11 September 2022

उगना के मालिक - विद्यापति

"घन घन घनन घुँघर कत बाजय
हन हन कर तुअ काता
बिद्यापति कवि तूअ पद सेवक
पुत्र बिसरी जनु माता..."
 श्री हनुमान सतबार पाठ समारोह में कीर्तन गायन की तैयारी के क्रम में 'माइक चेक' करते मेरे शतकवय बाबा (दादाजी) ने बिना किसी साज-संगीत के जब इन पंक्तियों की तान भरी तो मैं अनायास पवन तरंगों पर तैरती इन मधुर स्वर-लहरियों में गोते लगाने लगा। भक्ति की अद्भुत भाव भंगिमा में पगी इन पंक्तियों ने मानो सहज साक्षात माँ भवानी को सम्मुख उपस्थित कर दिया हो ! विद्यापति की रचनाओं का भक्ति रस बरबस अपनी मिठास  से मन प्रांतर के कण-कण को आप्लावित कर देता है। बाद में, मैंने उनसे विद्यापति के कुछेक दूसरे भजन भी बड़े चाव से सुने।
ये गीत अब भी मेरे कर्ण-पटल को अपनी स्वाभाविक मधुरता और भक्ति-भाव से झंकृत करते रहते हैं।
      इसीलिए, जब दरभंगा से सीतामढ़ी जाने के क्रम में मेरी दृष्टि सडक पर लगी पट्टिका पर पड़ी " विद्यापति जन्म स्थान 'बिसपी' 7 किलोमीटर " तो भला मै उस पुण्य भूमि को देखे बिना आगे न बढ़ जाने का लोभ कैसे न संवरण कर पाता ! तबतक गाडी थोड़ी आगे सरक चुकी थी। मैंने वाहन चालक को आग्रह किया कि वह गाड़ी को पीछे लौटाए और बिसपी गाँव की ओर मोड़ लें। चालक महोदय मिथिलांचल के ही थे। उनकी आँखों में मैंने एक अदृश्य गर्व भाव के दर्शन किये कि कोई व्यक्ति उनकी भूमि की महिमा को आत्मसात कर रहा है।
 रास्ते में एक डायवर्सन को पार कर हम प्रधानमंत्री सड़क-निर्माण योजना के तहत एक नवजात वक्रांग सड़क पर रेंगते हुए करीब बीस मिनट की यात्रा कर भवानी के इस भक्त बेटे महाकवि बिद्यापति के अवतार स्थल पर पहुंचे. चाहरदिवारियों से घिरा एक अलसाया परिसर और उसके बड़े गेट पर लटका ताला ! गेट की दूसरी ओर परिसर के अन्दर विद्यापति की पाषाण मूर्ति साफ़ साफ़ दिख रही थी। हम बाहर से ही दर्शन कर अघाने की प्रक्रिया में थे, किन्तु भला ड्राईवर साहब कहाँ मानने वाले थे इस बात से कि वो बाहर से ही हुलका के हमें लौटा ले जाएँ ! वह मुझे झाँकते  छोड़ गाँव की ओर निकल गए और करीब दस मिनट बाद चाभी लिए एक अर्धनग्न कविनुमा व्यक्ति को लेकर पहुंचे, जिन्होंने बड़ी आत्मीयता से हमारा दृष्टि-सत्कार किया और गेट खोलकर हमें अन्दर ले गए।  हमारे इस ग्रामीण गाइड ने  धाराप्रवाह अपनी मीठी बोली में हमें विद्यापति की कहानी सुनानी शुरू की। मेरे मानसपटल पर शनैः शनैः उनकी साहित्यिक आकृति उभरनी शुरू हो गयी।
     दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में विद्यापति से मेरा नाता बस अंक बटोरने तक रहा था। किन्तु, बाद में जब उनकी सृजन-सुधा का पान करने का अवसर फुर्सत में मिला तब जाके लगा कि साहित्य की सतरंगी आभा क्या होती है! सरस्वती के इस बेटे ने विस्तार में बताया कि भक्ति, श्रृंगार और लोक जीवन आपस में किस कदर गूँथ जाते है और इस बात का तनिक आभास भी नहीं मिलता कि भावनाएँ  जब अपनी प्रगाढ़ता के अंतस्तल में मचलती हैं, तो कब श्रृंगार-भावना भक्ति के परिधान में सज जाती हैं!  उनकी रचनाएँ भावनाओं के विशुद्धतम फलक पर अवतरित होती हैं, जो पांडित्यपूर्ण पाखण्ड और बौद्धिक छल से बिलकुल अछूती रहती हैं। राधा-कृष्ण का श्रृंगार जब वे रचते हैं,  तो पूरी तन्मयता से वह स्वयं उसमे रच बस जाते हैं।  जब वह राधा का चित्र खींचते हैं, तो कृष्ण बन जाते है:
' देख देख राधा रूप अपार।
अपरूब के बिहि आनि मेराओल खित-तल लावनि सार॥
अंगहि अंग अनंग मुरछाएत हेरए पड़ए अथीर।
मनमथ कोटि-मथन करू जे जन से हेरि महि-मधि गीर॥"

चढ़ती उम्र की बालिकाओं में  शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य उन्नयन की भौतिक प्रक्रिया के साथ-साथ उनकी बिंदास अल्हड़ता में नित-नित  नवीन कलाओं के कंगना खनकते रहते हैं और तद्रूप मनोभाव  उनके श्रृंगारिक टटके नखड़े में नख-शिख झलकते रहते हैं। कवि की दिव्य दृष्टि से राधारानी के ये लटके झटके अछूते नहीं रहते और उनकी अखंड सुन्दरता अपनी सारी सूक्ष्मताओं की समग्रता के साथ उनके सौन्दर्य वर्णन में समाहित हो जाते हैं, मानों ये वर्णन और कोई नहीं, स्वयं प्रियतम कान्हा ही अपनी प्रेयसी का कर रहे हों!
" खने-खने नयन कोन अनुसरई;खने-खने-बसन-घूलि तनु भरई॥
खने-खने दसन छुटा हास, खने-खने अधर आगे करु बास॥
.............................................................................................
बाला सैसव तारुन भेट, लखए न पारिअ जेठ कनेठ॥
विद्यापति कह सुन बर कान, तरुनिम सैसव चिन्हए न जान॥ "

विद्यापति की रचनाओं में राधा की सौन्दर्य सुधा का पान करते साक्षात् कृष्ण ही नज़र आते हैं।
सहजि आनन सुंदर रे, भऊंह सुरेखलि आंखि।
पंकज मधु पिबि मधुकर रे, उड़ए पसारल पांखि॥
ततहि धाओल दुहु लोचन रे, जेहि पथममे गेलि बर नारि।
आसा लुबुधल न तजए रे, कृपनक पाछु भिखारी॥ "

 और, जब विद्यापति  कृष्ण की छवि उकेरते हैं तो राधा की आँखे ले लेते हैं। अपने प्रिय के अलौकिक सौन्दर्य पर रिझती राधा कान्हा को अपने नयनों में बसाए घुमती रहती हैं:

  " ए सखि पेखलि एक अपरूप। सुनईत मानब सपन-सरूप॥
कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजल तरुन तमाला॥
तापर बेढ़लि बीजुरि-लता। कालिंदी तट धिरें धिरें जाता॥
साखा-सिखर सुधाकर पांति। ताहि नब पल्लब अरुनिम कांति। "

राधा-कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन पर ही कवि का चित्रकार चित विराम नहीं लेता। एक दूसरे के अपूर्व प्रेम में छटपटाते प्रेमी युगल के साथ प्रकृति की सहभागिता में भी कवि ने मानवीय प्राण डाल दिए हैं। यहाँ मौसम की छटा प्रेम का वितान नहीं तानती, प्रत्युत गगन में गरजती घटा अपने विघ्नकारी रूप में उपस्थित होकर प्रिय से मिलने निकली प्रेयसी का रास्ता रोक लेती है और प्रिय-दर्शन को आकुल-व्याकुल आत्मा विरह-व्यथा में चीत्कार कर उठती है:

"  सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर सुन मंदिर मोर॥
झांपि घन गरजति संतत, भुवन भरि बरंसतिया।
कन्त पाहुन काम दारुन, सघन खर सर हंतिया।
कुलिस कत सत पात, मुदित, मयूर नाचत मातिया।
मत्त दादुर डाक डाहुक, फाटि जायेत छातिया।
तिमिर दिग भरि घोरि यामिनि, अथिर बिजुरिक पांतिया।
विद्यापति कह कैसे गमाओब, हरि बिना दिन- रातिया॥"

फिर, जब मिलन की वेला आ जाती है तो प्रेयसी के सारे उपालंभ तिरोहित हो जाते हैं।  मन में इसी प्रकृति के प्रति उसके मन में अभिराम भाव अंकुरित हो उठते हैं:  
   "    हे हरि हे हरि सुनिअ स्र्वन भरि, अब न बिलासक बेरा।
गगन नखत छल से अबेकत भेल, कोकुल कुल कर फेरा॥
चकबा मोर सोर कए चुप भेल, उठिअ मलिन भेल चंद।
नगरक धेनु डगर कए संचर, कुमुदनि बस मकरंदा। "
मैंने विद्यापति का अवलोकन सर्वदा एक आम लोक गायक के रूप मे ही किया है।  उनके गीतों या पदावलियों में एक आम आदमी का उछाह है। कहीं कोई कृत्रिमता या वैचारिक प्रपंच नहीं दिखता। सब कुछ सजीव! सब कुछ टटका ! जैसा है वैसा है. बिकुल जीवंत! लगता है, कोई जीता जागता चित्र सामने से गुजर रहा है। 
 मानवीकरण से ओत प्रोत. भगवान् शिव को एक गृहस्थ शिव के रूप में खडा कर दिया है उन्होंने जहाँ  गृहिणी गौरा उपालंभ के तीर मारती हैं। अपने निकम्मे-से पति को हल-फाल लेकर खेती करने जाने को उकसाती हैं। घर में हाथ पर हाथ धर बैठने से कुछ होने वाला नहीं! खटंग को हल और त्रिशूल को फार बनाकर बसहा बैल लेकर खेती करने वे जाएँ अन्यथा उनकी निर्धनता और आलस्य लोगों के उपहास का विषय बन जायेगी! अब मै कोई साहित्य समीक्षक या सामजिक चिन्तक तो हूँ नहीं कि इन पंक्तियों में मैं वामपंथ की प्रगतिवादी जड़ खोज लूँ,  किन्तु इतना अवश्य है कि अपने आराध्य भोले और गौरा के प्रकारांतर में कवि ने आम लोक जीवन में निर्धनता का दंश झेल रही एक गृहिणी के उसके नशेड़ी आलसी पति के प्रति व्यथित उद्गारों को वाणी प्रदान की है:

बेरि बेरि सिय, मों तोय बोलों
फिरसि करिय मन मोय
बिन संक रहह, भीख मांगिय पय
गुन गौरव दूर जाय
निर्धन जन बोलि सब उपहासए
नहीं आदर अनुकम्पा
तोहे सिव , आक-धतुर-फुल पाओल
हरि पाओल फुल चंदा
खटंग काटि हर हर जे बनाबिय
त्रिसुल तोड़ीय करू फार
बसहा धुरंधर हर लए जोतिए
पाटये सुरसरी धार.
यहाँ कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकृति रूपिणी शक्ति अपने पुरुष में प्रेरणा के स्वर भर सृष्टि का सन्देश दे रहीं हो ! शक्ति के बिना शिव शव मात्र रह जाते हैं।  कहीं इसीसे सृजन का बीज लेकर कामायनी में जयशंकर प्रसाद की ' श्रद्धा ' अपने मनु को यह सन्देश देते तो नहीं दिखती कि :
"कहा आगंतुक ने सस्नेह , अरे तुम हुए इतने अधीर
हार बैठे जीवन का दाँव , मारकर जीतते जिसको वीर."
 जो भी हो, इन लोक लुभावन लौकिक पंक्तियों में विद्यापति ने एक ओर भक्ति की सगुन सुरसरी की धारा बहायी है, तो फिर उसमें उच्च कोटि के आध्यात्मिक दर्शन की चाशनी भी घोल दी है ।
हमारे ग्रामीण गाइड महोदय हमें महत्वपूर्ण सूचनाएँ  दे रहे थे। अभी हाल में बिहार सरकार के सौजन्य से विद्यापति महोत्सव का आयोजन होने लगा है।  उनके जन्म के काल के बारे में कोई निश्चित मत तो नहीं है लेकिन यह माना जाता है कि चौदहवीं शताब्दी के उतरार्ध में उनका जन्म हुआ था।  कपिलेश्वर महादेव की आराधना के पश्चात श्री गणपति ठाकुर ने इस पुत्र रत्न को पाया था। उनकी माता का नाम हंसिनी देवी था।  बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के स्वामी विद्यापति को अपने बालसखा और राजा शिव सिंह का अनुग्रह प्राप्त हुआ। उनके दो विवाह हुए।  कालांतर में उनका परिवार बिसपी से विस्थापित होकर मधुबनी के सौराठ गाँव में बस गया। उनकी कविताओं में उनकी पुत्री ' दुल्लहि ' का विवरण मिलता है।
 हमारे सरस मार्गदर्शक बड़ी सदयता से हमें विद्यापति से जुडी किंवदंतियों की जानकारी दे रहे थे। धोती-गमछा लपेटे ऊपर से साधारण-से  दिखने वाले सज्जन की आतंरिक विद्वता अब धीरे धीरे प्रकाश में आने लगी थी। उन्होंने बताया कि विद्यापति शिव के अनन्य भक्त थे।  उनकी भक्ति की डोर में बंधे शिव उनके दास बनने को आतुर हो उठे। वह 'उगना' नाम के सेवक के रूप में उनके यहाँ नौकरी मांगने आये। विद्यापति ने अपनी विपन्नता का हवाला देकर उन्हें रखने से मना कर दिया। उगना बने शिव कहाँ मानने वाले! उन्होंने उनकी पत्नी सुशीला की चिरौरी कर मना लिया और उनके नौकर बन उनकी सेवा करने लगे।  एक दिन उगना अपने मालिक के साथ चिलचिलाती धुप में राजा के घर जा रहा था। रास्ते में मालिक को प्यास लगी। आसपास पानी नहीं था। उन्होंने उगना को पानी लाने को कहा। उगना पानी लाने गया। थोड़ी दूर जाकर उगना बने शिव ने अपनी जटा से गंगा जल निकाला और पात्र में लेकर मालिक को पीने के लिए दिया। माँ सुरसरी के अनन्य सेवक, भक्त और पुजारी बेटे विद्यापति को गंगाजल का स्वाद समझते देर न लगी।  उन्हें दाल में कुछ काला नज़र आया और लगे जिद करने कि 'बता! ये गंगा जल कहाँ से लाया!'  मालिक की जिद के आगे उगना की एक न चली।  उसे अपने सही रूप में आकर रहस्योद्घाटन करना पड़ा, लेकिन एक शर्त पर कि मालिक भी यह भन्डा किसी के सामने नहीं फोड़ेगा। नहीं तो,  शिव अंतर्धान हो जायेंगे ! दिन अच्छे से कटने लगे।  मालिक भक्त और सेवक भगवान !  एक दिन मालकिन सुशीला ने उगना को कुछ काम दिया। ठीक से नहीं समझ पाने से वो काम उगना से बिगड़ गया। फिर क्या! मालकिन भी बिगड़ गयी और 'खोरनाठी' (आग से जलती लकड़ी) से उगना की पिटाई शुरू हो गयी।  विद्यापति ने ये नज़ारा देखा तो रो पड़े. उनके मुँह  से बरबस निकल पड़ा " अरे ये क्या कर डाला? ये तो साक्षात शिव हैं!" बस इतना होना था कि शिव अंतर्धान हो गए।  उगना के जाते ही विद्यापति विक्षिप्त हो गए और महादेव के विरह में पागलों की तरह विलाप करने लगे। निश्छल भक्त की यह दुर्दशा देखकर महादेव की आँखों में आँसू आ गए। वह फिर प्रकट हुए और भक्त से बोले " मैं तुम्हारे साथ तो अब नहीं रह सकता लेकिन प्रतीक चिन्ह में लिंग स्वरुप में तुम्हारे पास स्थापित हो जाउंगा। मधुबनी जिले के भगवानपुर में अभी भी उगना महादेव अपने भक्त शिष्य को दिए गए वचन का निर्वाह कर रहे हैं।
हमें इस कहानी को सुनाने के बाद ग्रामीण महोदय ने एक लोटा मीठा जल पिलाया । इसे  हमने मन ही मन उगना का गंगाजल ही माना। फिर उन्होंने विद्यापति के माँ गंगा से अनन्य प्रेम और उत्कट भक्ति की अमर कथा सुनायी। काफी वय के हो जाने के बाद विद्यापति ठाकुर (मिथिला के इस कोकिल कवि का पूरा नाम) रुग्ण हो चले थे । अपना अंतिम समय अपनी परम मोक्षदायिनी माँ भागीरथी के सानिद्ध्य में वे बिताना चाहते थे। इसे यहाँ गंगा सेवना कहते हैं। कहारों ने विद्यापति की पालकी उठायी और सिमरिया घाट की ओर चल पड़े । पीछे-पीछे पूरा परिवार। रात भर चलते रहे। भोर की वेला आयी। अधीर विद्यापति ने पूछा "कितनी दूर और है"? कहारों ने बताया "पौने दो कोस". पुत्र विद्यापति अड़ गया. "पालकी यहीं रख दो. जब पुत्र इतनी लम्बी दूरी  तय कर सकता है तो माँ इतनी दूर भी नहीं आ सकती?"  पुत्र की आँखों से अविरल आँसू बह रह थे।  माँ भी अपनी ममता को आँचल में कब तक बाँधे  रह सकती थी!  हहराती हुई पहुँच गयी अपने लाल को अपने आगोश में लेने ! अधीर पुत्र ने अपनी पुत्री दुल्लहि से कहा:
दुल्लहि तोर कतय छठी माय
कहुंन ओ आबथु एखन नहाय
वृथा बुझथु संसार-बिलास
पल पल भौतिक नाना त्रास
माए-बाप जजों सद्गति पाब
सन्नति काँ अनुपम सुख पाब
विद्यापतिक आयु अवसान
कार्तिक धबल त्रयोदसी जान.
पुत्र विद्यापति को उसके जीवन का सर्वस्व मिल चुका था। उसका पार्थीव शरीर अपनी माँ की गोद में समा चुका था। उसके अंतस्थल से माता के चरणों में श्रद्धा-शब्दों का तरल प्रवाह फूट रहा था:
बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे
छोड़इत निकट नयन बह नीरे
करजोरी बिलमओ बिमल तरंगे
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे
एक अपराध छेमब मोर जानी
परसल माय पाय तुअ पानी
कि करब जप ताप जोग धेआने
जनम कृतारथ एकही सनाने 
माँ गंगा अपने बेटे को गोदी में लिए बहे जा रही थी। नयनों में स्मृति-नीर लिए हम वापस अपने गंतव्य को चले जा रहे थे............." उगना के मालिक, विद्यापति, अपनी अंतिम गति को प्राप्त कर रहे थे!"