Saturday, 22 June 2019

मेरा पिया त्रिगुणातीत!

मेरे कण-कण को सींचते,
सरस सुधा-रस से।
श्रृंगार और अभिसार के,
मेरे वे तीन प्रेम-पथिक।

एक वह था जो तर्कों से परे,
निहारता मुझे अपलक।
छुप-छुपकर, अपने को भी छुपाये,
मेरे अंतस में, अपने चक्षु गड़ाए।

मैं भी धर देती 'आत्म' को अपने,
छाँह में शीतल उसकी, मूंदे आंखें।
'मन' मीत  बनकर अंतर्मन मेरा,
गुनगुनाता सदा राग 'सत्व' - सा!

और वह,दूसरा,'बुद्धि'मान!
यूँ झटकता मटकता।
मेरा ध्यान उसके कर्षण में भटकता,
निहारती चोरी-चोरी उसे निर्निमेष।

किन्तु तार्किक प्रेमाभिव्यक्ति उसकी,
मुझे तनिक भी नही देखती!
परोसती रहती मैं अपना परमार्थ,
उसके स्वार्थी 'रजस'-बुद्धि-तत्व को।

.... और उसकी तो बात ही न पूछो!
प्रकट रूप में पुचकारता, प्यार करता।
छुपने-छुपाने के आडंबर से तटस्थ
'मैं' मय हो जाता 'अहंकार'-सा!

बन अनुचरी-सी-सहचरी उसकी,
एकाकार हो उसके महत 'तमस' में।
महत्तम तम के महालिंगन-सा, सर्वोत्तम!
पसर जाती 'स्व' के अस्तित्व-आभास में।

आज जा के हुई हूँ 'मुक्त' मैं,
इस त्रिगुणी प्रेम त्रिकोण से ।
'अर्द्धांग' का मेरा तुरीय प्रेम-नाद,
 हिलकोरता प्रीत का आह्लाद।

रचाया है आज महारास,
मुझ बिछुड़ी भार्या  'आत्मा' से।
निर्विकार-सा वह निराकार
पूर्ण विलीन, तल्लीन, निर्विचार।

अनंत-विराट 'परम-आत्मा',
गाता चिर-मिलन का  गीत।
शाश्वत-सत्य,' सत-चित-आनंद'
मेरा पिया त्रिगुणातीत!!!









Wednesday, 5 June 2019

'लेख्य मञ्जूषा' में गद्य-पाठ : आलोचना की संस्कृति

'लेख्य मञ्जूषा' के गद्य-पाठ साहित्यिक समागम  कार्यक्रम में भारतीय साहित्य में आलोचना की संस्कृति पर मेरा उद्बोधन ! 

Saturday, 1 June 2019

सेनुर की लाज ( चम्पारण सत्याग्रह के सूत्रधार राजकुमार शुक्ल से जुड़ी एक सत्य लघुकथा)

राम बरन मिसतिरि अपनी पगड़ी उतार के शुकुल जी के गोड़ पर रख दिये। सिसकते-सिसकते मुंह मे घिघ्घी बंध गयी थी। आवाज नहीं निकल पा रही थी। आंखों में उस जानवर एमन साहब की घिनौनी शक्ल घूम रही थी। बड़ी मुश्किल से रामबरन ने एक कट्ठा का कोला बन्धकी रख के बेटी का बिआह ठीक किआ था। रात ही हाथ पीले किये थे उसके।  बिदाग़री की तैयारी कर ही रहा था कि कलमुहें एमन का फरमान लेकर उसके जमदूत उतर  गए थे। उस पूरे जोवार में किसी गरीब की बेटी की डोली उठती तो वह पहले एमन की हवेली होकर जाती जहां रात कुंआरी तो चढ़ती  लेकिन उतरती नहीं। इस अँगरेज दरिंदे की हबस में पूरा जोवार सिसकता था। निलहे साहब की  वहशी कहानियों को सुनकर ब्याहता बनने की कल्पना मात्र से क्वांरियों का रक्त नीला पड़ जाता।
'मालिक, पूरे गांव की आबरू का सवाल है। बचा लीजिये।' रोते-रोते रामबरन ने निहोरा किया।
शुकुल जी खेत का पानी काछते-काछते थम से गये। पूरा माज़रा समझते उन्हें देर न लगी। निलहों के विरुद्ध उन्होंने बिगुल पहले से ही फूंक रखा था। एमन उनसे खार खाता था और बराबर इस जोगाड़ में रहता कि उनको  मौका मिलते ही धोबिया पाठ का मज़ा चखाये। किन्तु शुकुलजी के ढीठ सत्याग्रही मिज़ाज़ के आगे उसकी योजनाएं धरी रह जाती।
रामबरन की कहानी सुन उनका खून खौल उठा। हाथ धोया। गमछे से मुंह पोछा। फेंटा कसा। सरपट घर पहुंचे और मिरजई ओढ़ने लगे। अंगौछे को कंधा पर रख घर से बहरने ही वाले थे कि शुकुलाइन को भनक लग गयी और दौड़ के आगे से उनका रास्ता छेंक ली। शुकुलजी ने उनको सारी बात बताई और एमन से इस बार गांव की लाज के खातिर जै या छै करने की ठान ली। एमन के नाम से समूचे जिला जोवार का हाड़ कांपता था। मार के लास खपा देना उसके बाएं हाथ का खेल था। पुलिस, हाकिम, जज, कलक्टर सब उसी की हामी भरते थे।
शुकुलाइन ने उनको भर पांजा छाप लिया और अपने सुहाग की दुहाई देकर उनको नहीं जाने की चिरौरी करने लगी। उनकी मांग का सेनुर उनकी आंखों के पानी मे घुलकर शुकुलजी के मिरजई में लेभरा गया। शुकुलजी के खौलते खून को भला शुकुलाइन कब तक रोकती।
वह हनहनाते हुए एमन की हवेली पर चढ़ बैठे। पूरी उत्तेजना में एमन को ललकार दिया शुकुल जी ने। गांव वाले भी जोश में आ गए थे। रामबरन की बेटी की विदाई हो गयी। कुटिल एमन कसमसा के रह गया।
शुकुल जी को फुसला के बैठा लिया और उसने पुलिस बुला ली। शुकुलजी पर रामबरन की बेटी के साथ बलजोरी का आरोप लगा। उनकी मिरजई में लिपटी सुकुलाइन के सेनुर के दाग को साक्ष्य बनाया गया। शुकुल जी को इक्कीस दिन की सजा हो गयी।
आज इक्कीस दिन का जेल काटकर शुकुलजी घर पहुंचे थे। शुकुलाइन ने टहकार सेनुर लगाकर शुकुलजी की आरती उतारी।आखिर इसी सेनुर ने तो गांव की बेटी के सेनुर की लाज रख ली थी।




आंचलिक शब्दों के अर्थ :
                                       सेनुर- सिन्दूर,   गोड़ - पैर,   कोला - खेत,  बिआह- व्याह,  बिदाग़री -विदाई,  जोवार - क्षेत्र,  निहोरा - आग्रह, जै या छै  - अंतिम रूप से निपटारा,  भर पांजा छाप लेना - पूरी तरह से दोनों बाहों में भर लेना, टहकार - गाढ़ा

Saturday, 11 May 2019

फूल और कांटा

सूख रहा हूँ मैं अब
या सूख कर
हो गया हूँ कांटा।
उसी की तरह
साथ छोड़ गया जो मेरा।
गड़ता था
सहोदर शूल वह,
आंखों में जो सबकी।
सच कहूं तो,
होने लगा है अहसास।
अलग अलग बिल्कुल नही!
वजूद 'वह' और 'मैं ' का।
कल अतीत का  खिला
फूल था मैं,
और आज सूखा कांटा
वक़्त का!
फूल और काँटे
महज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
पलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!
मानो चिरंजीवी
समेटे सारी आयु
मन और बुद्धि के संघर्ष का।

Wednesday, 17 April 2019

अजगर - ए - ' आजम '

फड़फड़ा रहा है
फाड़कर
बीज, विषधर का।

भ्रूण,
कुसंस्कारों की
जहरीली सांपीन का।

ओढ़े 'अधोवस्त्र'
केंचुल का, निकला
संपोला।

फूलकर फैल गया है
फुंफकारता अब, काढ़े फन।
अजगर - ए - ' आजम '!

.......... ..........

श्श.. श्श... श्श....
सांप सूंघ रहा है
सर्प संप्रदाय को अब!

Saturday, 13 April 2019

काठमांडू, पशुपति-निवास हूँ!


सद्यःजात, तत्पुरुष, वामदेव
अघोर चतुर्दिश महाकाश हूँ।
शीर्ष ईशान हूँ निराकार-सा,
काठमांडू, पशुपति निवास हूँ।

धड़ केदार, सर डोलेश्वर मैं,
हिम-किरीट है सागरमाथा।
चंद्रह्रास-खड्ग रिक्त सरोवर
स्वयंभू-पुराण, मंजुश्री-गाथा।

कांति-विलास के  महत-अंश में।
'काष्ठमंडप' का अपभ्रंश 'यें'।
गुणकामदेव-दीप्त विश्व-धरोहर।
'कांतिपुर' अक्षय, अजर-अमर।

प्रहरी अनथक आठो पहर का,
शैल-शक्तिपीठ, अष्ठ-मात्रिका।
छलके अमृत तीन दिशा में,
टुकचा, विष्णु-बागमती का।

पुलकित 'येंला' चन्द्र-पूनम का,
'येंया पुन्हि', इंद्रजात्रा।
प्रफुल्लित, पुलुकिसी-ऐरावत
थिरकी ललना लाखोजात्रा।

नेपामी मैं, मल्ल-काल का,
तंत्र वास्तु का, चैत्याकार हूँ।
हनुमान-ढोका, आकाश-भैरव,
गोर्खली का सिंह-दरबार हूँ।

बागमती की लहरों में मैं,
छंद मोक्ष के लहराता हूँ।
माँ गुह्येश्वरी की गोदी में,
मुक्ति की लोरी गाता हूँ।

मैं प्रकृति का अमर पालना,
पौरुष का मैं उच्छवास हूँ।
खंड-खंड प्रचंड भूकंप से,
नवनिर्माण, अखंड उल्लास हूँ।

आशा का मैं अमर उजास हूँ।
सृष्टि का सुरभित सुवास हूँ।
सृजन का शाश्वत इतिहास हूँ।
काठमांडू, पशुपति-निवास हूँ।

इस कविता का नेपाली अनुवाद हमारे नेपाली कवि मित्र डी पी जैशी ने किया जो नेपाली पत्रिका सेतोपाटी में प्रकाशित हुई .लिंक है 
https://setopati.com/literature/178714?fbclid=IwAR1qomleZMOOtSDUMxxx7-3Mw20FR2z8PImNRrknEZi0g5yvrPzfG7s-1Vs
रुडकी विश्वविद्यालयका हाम्रा सहपाठी मित्र विश्वमोहन जी ले काठमाडौं को बारेमा हिन्दीमा लेखेको कविताको नेपाली अनुवाद गर्न अनुरोध गर्नु भएकोले उक्त कविताको नेपाली अनुवाद गरी वहाँकै सल्लाह बमोजिम यहाँ राखेको छु ।
काठमाण्डौँ, पशुपति-निवास हुँ !
नवजात, तत्पुरुष, वामदेव
अघोर चतुर्दिश महाकाश हुँ ।
शीर्ष ईशान हुँ, निराकार जस्तै,
काठमाण्डौँ, पशुपति निवास हुँ ।
शरिर केदार, शिर डोलेश्वर,
हिम-किरीट हो सगरमाथा ।
चन्द्रह्रास-खड्ग रिक्त सरोवर
स्वयंभू पूराण, मंजुश्री गाथा ।
कांति-विलास को महत-अंश मा
काष्ठमाण्डप को अपभ्रँस ‘येँ’ हुँ ।
गुणकामदेव-दीप्त विश्व-धरोहर,
‘कान्तिपुर’ अक्षय, अजर-अमर ।
आठै प्रहरका अथक प्रहरी,
शैल-शक्तिपीठ, अष्ठ-मात्रिका ।
छल्किन्छ अमृत तीनै दिशामा
टुकुचा, बिष्णु-बागमती को ।
पुलकित ‘येँला’ चन्द्र-पूनम को
‘येँया पुन्हि’ इन्द्रजात्रा ।
प्रफुल्लित, पुलुकिसी-ऐरावत
नाच्छन् ललना लाखौँ जात्रा ।
‘नेपामी’ म, मल्ल-कालका,
तंत्र वास्तु को चैत्याकार हुँ ।
हनुमान-ढोका, आकाश-भैरव
गोर्खाली को सिँह-दरबार हुँ ।
बागमती को लहरमा म,
छन्द मोक्ष लहराउँछु ।
आमा गुहेश्वरी को काखमा,
म मुक्ती को गित गाउँछु ।
म प्रकृतिको अमर पालना,
पौरुष को म उच्छ्वास हुँ ।
प्रचण्ड भूकम्पले खण्ड खण्ड,
म नवनिर्माण, अखण्ड उल्लास हुँ ।
म आशाको अमर उज्यालो हुँ,
सृष्टिको सुरभित सुवास हुँ ।
सृजनको शाश्वत इतिहास हुँ
काठमाण्डौँ पशुपति-निवास हुँ ।


Sunday, 10 March 2019

फद्गुदी


दौड़ रहा है सरपट सूरज
समेटने अपनी बिखरी रश्मियों को.

घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
नदियाँ अपने ही तीर को.

खेल रही हैं हारा-बाजी टहनियाँ
अपनी पत्तियों से ही.

फूंक मार रही हैं हवाएं,
जोर जोर से अपने ही शोर को.

जला रही है बाती,
तिल-तिल कर अपने ही तेल को.

दहाड़ रहा है सिंह सिहुर-सिहुर कर,
अपनी ही प्रतिध्वनि पर.

लील रही है धरोहर, धरती
काँप-काँपकर अपनी ही कोख की.

पेट सपाट-सा सांपिन ने,
फूला लिया है खाकर अपने ही संपोलो को.

चकरा रही है चील, लगाये टकटकी,
अपनी ही लाश पर.

सहमा-सिसका है साये में इंसान,
 आतंक के, अपने ही साये के.

और फुद्फुदा रही है फद्गुदी,
चोंच मारकर अपनी ही परछाहीं पर!

Monday, 4 March 2019

शिवरात्रि सुर संगीत सुनो

कल्प आदि का महाप्रलय था,
अंकुर बीज में अबतक लय था.
प्रकृति अचेत और पुरुष गुप्त था,
चेतन शक्ति निष्प्राण सुप्त था.
शक्ति हीन शिव सोया शव था,
दिग्दिगंत निःशब्द नीरव था.
चक्र चरम था आरोहण का,
परम शिव सिरजन ईक्षण का.
'प्रत्यभिज्ञा', पूर्ण विदित सुनो,
शिवरात्री सुर संगीत सुनो.


अब निर्गुण संग सगुण होगा,
भक्ति में ज्ञान निपुण होगा.
रस ज्ञान में भक्ति घोलेगी,
नव सूत्र सृजन का खोलेगी.
अनहद में आहद कूजेगा,
त्रिक ताल तुरीय गूंजेगा.
अद्वैत में द्वैत यूँ निखरेगा,
स्पंद-सार स्वर बिखरेगा.
कल्प-काल-क्रिया की रीत सुनो,
शिवरात्री सुर संगीत सुनो.



अब सुन लो डमरू शंकर की,
ये है बारात प्रलयंकर की.
शिव ने शक्ति समेटी है,
अपनी जटा लपेटी है.
चित और आनंद मिलेंगे,
कैलाश में किसलय खिलेंगे.
सृष्टि का होगा स्पंदन,
कल्प नया, करो अभिनन्दन.
नव चेतन,  चिन्मय गीत सुनो,
शिवरात्रि सुर संगीत सुनो.

Friday, 8 February 2019

सहमी क्यों, मुसका ना !

नयन नील अम्बर पनघट सा 
श्याम हीन कालिंदी तट सा .
पथ अनंत आशा अनुराग का 
पलक पुलक पल प्रेम पराग का.

"ऊपर से हो नारिकेल सा
अंतस नवनीत सा बहता है.
प्रीत पंथ का अथक पथिक 
गुह्यात गुह्यतम गहता है"..

है ऐसी कौन बात प्रिये
जो मन विचलित कर जाती है।
वो टीस वेदना की कैसी
जो मन मे नित भर जाती है।

अनायास ये दर्द कैसा ?
कर जाता जो पलको को नम !
करूँ श्रृंगार खुशियों से तेरा
पीकर मैं सारा वो गम।

अपने अधरों को मीठा कर ले
ले सारे मुस्कान मेरे।
अब कर ले आतुर जगने को
खोये उमड़े गीत तेरे।


स्पंदन उर का तेरा,
सपनों का चतुर चितेरा ।
छुप छुपकर छवि तुम्हारी,
हृदय में हमने उकेरा।


स्वपन सजन बन नयनो के ,
चिलमन में आ जाना ।
प्रीत की पाती की बतियों पे ,
सहमी क्योंमुसका ना !

Thursday, 7 February 2019

पुरुष की तू चेतना

भाव तरल तर,
अक्षर झर-झर,
शब्द-शब्द मैं,
बन जाता हूँ.

धँस अंतस में,
सुधा सरस-सा,
नस-नस में मैं,
बस जाता हूँ.  

पुतली में पलकों की पल-पल,
कनक कामना कमल-सा कोमल.

अहक हिया की अकुलाहट,
मिचले मूंदे मनमोर मैं चंचल.

शीत तमस तू,
सन्नाटे में,
झींगुर की,
झंकार-सी बजती.

चाँदनी में चमचम,
चकोर के,
दूध धवल,
चन्दा-सी सजती.

धमक धरा धारा तू धम-धम,
छमक छमक छलिया तू छमछम.

रसे रास यूँ महारास-सा,
चुए चाँदनी, भींगे पूनम.


छवि अगणित,
कंदर्प का,
शतदल सरसिज,
सर्प-सा.

काढ़े कुंडली,
अधिकार का,
अभिशप्त मैं
अभिसार का.

मैं छद्म बुद्धि विलास वैभव
 मनस तत्व, तू वेदना.

मैं प्रकृति का पञ्च-तत्व,
और पुरुष की तू चेतना.

Thursday, 31 January 2019

द्वीप

बीच बीच में
उग आते हैं ,
द्वीप।
जड़वत।
हमारे
चिंतन प्रवाह की तरलता
में विचारो के
जड़ तत्व की तरह,
जिन पर छा जाता है
अरण्य  अहंकार का।

चतुर्दिक फैली जलधि
प्रशांत मन की
करती प्रक्षालित
विचार द्वीपों को
चंचल बौद्धिक लहरियों से।
 करती अठखेली
अहंकार की अमर वेलि।
लहरियों के लौटते ही
अपनी शुष्कता में सूख
ठूंठ सा होने लगता अहंकार।

किन्तु चंचल चाल है
मन से लहकी इन लहरों की
ढालती है
 बुद्धि का हलाहल
अहंकार में
मनोरम मायावी ममत्व से!
मन, बुद्धि और अहंकार
यह स्पर्श छल जाल।
सागर, लहर और अरण्य
जीवन देते हैं टापू को,

एक पेड़ की जड़ में
पनपते हैं कई पौधे
छोटे छोटे अहंकार के।
गिरते ही,बड़े के, ठूंठ होकर
फिर तन के खड़ा हो जाता दूसरा!
फिर सुनामी महाकाल का।
धो -पोंछ देता है
इस रक्तबीज वंश अरण्य को।
शेष रहता है प्रशांत सागर, लीलते
हिलती-डुलती लीलावती लहरों को!







Sunday, 27 January 2019

अवसाद

छा जाता अंधेरा,
चाँद पर।
रुक जाती किरणें,
सूरज की।
पीठ पर थामे भारी,
बोझिल रश्मिपुंज।
पसर जाता अवसाद,
धरती का।
बन कर चन्द्र ग्रहण,
अंतरिक्ष में।
कराहती कातर राका,
कारावास में।
छा जाती झाँई आँखों में ,
याद की।
चाँद, धरा और रवि,
सीध में।
रोती लहरें सागर की,
उछल उछल।
ग़म के गहरे तम में ऊँघता,
अमावसी अवसाद।
डाले डेरा यह खगोलीय बिम्ब जब ,
मन में।
गूंजता मन की मौन मांद में मंद मंद,
मायूस महानाद।
चेतन-अवचेतन-अचेतन  की ची-ची-पो-पो में,
उगता अवसाद।
हार में हर्ष व विजय में विषाद का छोड़ जाता है,
अहसास अवसाद।
किन्तु घूमते सौरमंडल में क्षणिक है,
ग्रहण काल।
रुकता नहीं राहु ग्रसने को, खो देता,
वक्र चाल।
फट जाते भ्रम, मिट जाता मन का,
उन्मत्त उन्माद।
गूंजता चेतना का अनहद नाद, होता
नि: शेष अवसाद।



Thursday, 24 January 2019

प्रकृति का खेल

विकर्षण में होता है
अपनापन।
बढ़ जाता है
जुटना
ठेलने में एक दूसरे को।

नहीं होता डर
टूटकर
खोने का स्वत्व।
जैसे कि आकर्षण में,
खींचकर तोड़ने में।

छीन गया था स्वत्व
आपाधापी में दो पिंडो के
एक दूसरे को
अपनी ओर
खींचने में

टूट गई थी
पिंड से विलग
सघन खगोलीय राशि
बनने को धरती
पृथ्वी की।

कितनी रोई थी
पृथ्वी उस दिन।
आंसूओं का खारा जल
ठहर गया था
बन समंदर।

एक ओर
हो रहा था
तार तार
तपन तारे का।
खोकर अपना प्रकाश।

और समय की
शीत में
जमती जा रही थी
जिद जिजीविषा की
जमीन बनकर।

आने लगी थी घुमरी
और खाने लगी थी चक्कर,
चारो ओर अपने जच्चा की
गिन गिन कर
दिन,रात, महीने और साल।


दूसरी ओर फुफकार रही थी
ज्वालामुखी वेदना विरह की
दो तिहाई आंसुओं में
डूबी तरल तप्त लावा सी
बनकर आग्नेय आस्तित्व!

 खारा जल आंसूओं का,
अपने अंदर का ही,
लहरा रहा है
बनकर अब भी,
भावनाओं का समंदर।

हर बार उर के
गहवर से, गहराती।
लहरें लहराती, लपलपाती,
भागती हैं छूने।
जिजीविषा की जमीन।

फिर लगता है पीने उन्हें,
तट के जमीन का रेत।
और लौट जाती है,
उल्लसित लहरें।
लुटाकर लालसा!

सजा है वीतान,
प्रकृति के खेल का!
लहरों के लास का
समंदर के हास का
तटों के विलास का।


Tuesday, 22 January 2019

दीदी के भाई जी


'बड़का मामा' चले गए। 'दीदी (हम माँ को ‘दीदी’ ही कहते थे) के भाई जी' चले गए । रात उतर चुकी थी । चतुर्दशी का चाँद पूरणमासी की चौखट पर पहुँच रहा था । तभी इस खबर ने मानों इस धवल धरती को टहकार कजरौटे से लीप दिया और हमारी आँखें अतीत के सुदूर अन्धकार में भटकने लगी । सोचने लगा कि यदि दीदी होती तो कैसे सहती यह वज्रपात! मैं अनायास अपने बचपन में उतर गया था जिसने मुझे दीदी का आँचल ओढ़ा दिया था और उसी आँचल से मुँह तोपे मैं कभी दीदी को निहारता तो कभी उसके भाई जी को ! ‘भाई जी’ और ‘काकाजी’ दो ऐसे किरदार दीदी के जीवन में थे जो उसके अहंकार को पोसने वाले मन और बुद्धि थे । उसके अस्तित्व के ये दो ऐसे अमरज्योति- पुंज थे जो उसकी चेतना के मूलभूत स्त्रोत-से प्रतीत होते थे। इन दोनों के मुख से निकली कोई वाणी उसके लिए कृष्ण के मुख से निकली गीता से ज्यादा प्रासंगिक और तात्विक थी । मुझे याद है कि कैंसर के इलाज़ के लिए उसे जब बम्बई ले जाया गया तो वह बार-बार मुझे बड़े संतृप्त भाव से कहती कि 'काकाजी बोललथिन ह इहाँ आवेला', मानो उसकी रूचि अपने इलाज में कम और काकाजी के इस कथन के गौरव को व्याखायित करने में ज्यादा हो !
मेरा बोझिल तन उस शोक संतप्त भीड़ का हिस्सा था जो ‘बड़का मामा’ की देह को अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर रहा था । लेकिन मेरा बाल मन दीदी  के आँचल में छिपकर 'अंतरिक्ष-समय-स्लाइस' से अतीत के छिलके उतार रहा था...........तब दालान में मकई के बालों का ढेर लगता था। ढेर सारे सहयोगियों के साथ ‘भाई जी’ मकई के बाल के दानों को निकालने में जुट जाते । ढेर सारी कहानियों का दौर चलता । मैं देर रात बैठ बड़ी तन्मयता से कहानियों को सुनता और अपने भविष्य के लिए रचनात्मकता के तिनके-तिनके बटोरता.......... 'एक चिड़ी आयी, दाना ली और... फुर्र',...... जैसी कभी ख़तम न होने वाली कहानी भी पहले इसी बैठक में सुनी थी जो बाद में अंग्रेजी कहानी बनकर मेरे ऊपर की कक्षा में जब आयी तो उसके मूल रचनाकार मुझे दीदी के भाई जी ही लगे और जब पहली बार 'पायरेसी' शब्द से परिचय हुआ तब भी मुझे अंगरेजी की वह 'द एवर लास्टिंग स्टोरी' भाई जी की मूल कहानी का 'पायरेटेड वर्शन' ही लगी.....
.... इसी बीच रुदन का एक तीव्र स्वर उभरता है और मेरी तंद्रा भंग होती है । लोगों के आने का क्रम जारी है। बाँस  की खपाची से बनी शायिका पर उन्हें लिटा दिया गया है । ऊपर से एकरंगा का ओहार भी तान दिया गया है । उनके निष्प्राण किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल पर फूलों के पराग भी निश्चेत लुढ़के हुए हैं और मेरी निश्चेष्ट आँखें एक बार फिर बड़का मामा की धराशायी देह में डूबती अतीत की गहराई में उतर जाती हैं.....
कल दीदी की विदाई है । ससुराल जायेगी । मायके में उसके भाई जी बड़ी बारीकी से उसकी विदाई के इंतज़ाम में एक-एक चीज की निगरानी कर रहे हैं । मेहमान के लिए खैनी की पैकिंग पर उनकी विशेष नज़र है । हवा लगने से खैनी के मेहराने का डर है । रामाशीष साव के साथ मिलकर बड़ी करीने से पुआल में खैनी को लपेटा जा रहा है । फिर उसे सुतरी से बांधकर सरिआया जा रहा है । मुझे देखते ही बताते हैं कि इसको जाते ही पापा को दिखा देना है । चुटकी भी लेते हैं चेताते हुए, 'अपने पापा जी को बता देना कि घीव सत्ताईस रुपये सेर है और खैनी बत्तीस रुपये ।' और विशेष हिदायत कि ' हे, देखिह. कहीं पापा के बदले बाबा ना देख लेस!' आँखों मे लोर और मुख पर मुस्कराहट ढ़ोती दीदी अपने भाई जी के इस तत्व-ज्ञान से हर्षित और गर्वित है । मैं भी उनकी इस सहृदयता पर मन ही मन उनके भगीना होने का गर्व लूट रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि मेरे खपरैल घर के लिए अपने छत-पीट्टा घर की छत भी भेजने की कूबत है तो मेरे इस बड़े दिल वाले बड़का मामा में ही । लेकिन याचना करने में इस बालमन के स्वाभिमान को सहज संकोच होता है और बस मन मसोसकर संतोष कर लेता है……..
 अचानक शोर उठता है, 'राम नाम सत है, माटी में गत है।' ट्रेक्टर बैक हो रहा है । अर्थी सज गयी है । उसे ट्रेक्टर पर लादा जाएगा । बचपन में मुझे कंधे पर लादकर बथान ले जाने वाले शरीर को मात्र ट्रेक्टर पर चढ़ाने  हेतु कंधा देने की कल्पना से मन सिहुर जाता है । नम आँखों में फिर से अतीत के छिलके छलक उठते हैं.....
........ उबहन में लोटा बाँधकर चुपके से मेरे नन्हे पाँव इनार पर पानी भरने चल गये हैं । नन्ही हथेली ने रस्से को कसकर पकड़ कर लोटा डुबा दिया है और उबहन को  गोलाई में नचा-नचा कर लोटा में पानी भरने का उपक्रम कर रहा है । अचानक उबहन में हल्कापन महसूस होता है । तब तक आर्कीमिडीज से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । अगर रहता तब भी कोई फ़ायदा नहीं था । उबहन खींचने पर हाथ में केवल रस्सा था । लोटे ने जल-समाधि ले ली थी । मेरा तो साथ में मानों दिल ही डूब गया । घोर संकट सामने था..... उसी लोटे से प्लेट में चाय ढारकर नानाजी चाय पीते थे......
... अचानक बड़का मामा का वह लोहई लंगर याद आया जो  वह दालान के कोने में रखते थे । जब भी किसी की बाल्टी कुँए में डूबती तो वह मामाजी से माँगने आता और उसे कुँए में डुबाकर उस सामान को फँसाकर  निकाल लिया जाता । मैंने भी धीरे से उसे खोज निकाला और अबकी बार लोटे की बांध से भी मजबूत और कठोर बांध अपने थरथराते कोमल हाथों से उसमें बाँधा और लोटे की दिशा में उबहन को लटका दिया । सूरज देवता भी तेजी से अपनी सहानुभूति की  किरणें समेट रहे थे...... मैं बड़ी तेजी से उबहन से कुँए की छाती को हलकोर रहा हूँ कि वह लोटा उगल दे । किन्तु, इनार ने तो मानों मेरी तकदीर को ही ताकीद कर उसकी भी लुटिया डुबो दी हो! हाथ से उबहन छूट जाता है और पश्चिम का सूरज भी उसी कुँए में डूब जाता है । मेरी आँखों में अन्धेरा छा जाता है । दूर से दीदी मेरी शरारत पर खिसियाती हुई मेरी ओर बढ़ती है । मैं प्रत्याशित पिटाई की आशंका को  अपने रोदन रव से उच्चरित करने का श्री गणेश ही करता हूँ कि बड़का मामा आकर मुझे बचा लेते हैं........
.............. ट्रेक्टर स्टार्ट होने की ध्वनि में मैं वापस लौटता हूँ । 'उबहन' और 'लंगर' दोनों अब मेरे हाथ से   छूट गए हैं और मैं अभी भी अन्दर-अन्दर सिसक रहा हूँ । शवयात्रा प्रारम्भ होकर गाँव के दक्खीन करीब दो कोस पर गंडक के किनारे रुकती है । उत्तरे-दक्खिन शव को लिटा दिया गया है । ज़मीन पर शव के समानांतर ही एक क्यारीनुमा गड्ढा और उसके लम्बवत दो क्यारियाँ ऊपर और नीचे खोदी जाती हैं । करीने से लकड़ी के खम्भे डालकर उस पर लकड़ी की सेज सजा दी गयी है । सेज पर शव को लिटाकर अग्निदाह की क्रिया संपन्न हो रही है.....
...... माटी काटती गंडक की धार में तेज़ी है । तट के पार खर के जंगल में आग लगी हैं । पट-पट की तेज आवाज़ से जीभ लपलपाती उस पार की लपटें मानों इस पार जलते शव से उठती लपटों से लिपट जाना चाह रही हों । क्षितिज पर टँगे सूरज का मुँह  भी रूँआसा-सा  लाल भुभुक्का हो गया है। हवा सनसना रही है और आकाश धुँए  से भर गया है । हम सभी हाथ में चावल-तिल लिए तिलांजलि दे रहे हैं ।
"क्षिति जल पावक गगन समीरा 
पञ्च तत्व रचित अधम शरीरा।"
उधर सूरज गंडक की रेत में समा रहा है, इधर दीदी के भाई जी अपने पञ्च तत्वों को त्याजे पवन की तरंगों पर सवार हो दीदी की दिशा में महाप्रयाण कर रहे हैं....... अचानक झटके से हवा मे आँचल उड़ता है और हमारे दृष्टिपथ पर स्मृतियों की सतरंगी रेखा खींचते अंतरिक्ष में वह आँचल तिरोहित हो जाता है । आज ही के ही दिन तो मेरे सर से वह आँचल भी उड़ गया था । दीदी को भी गए आज सताईस साल हो गए...........!!!!!      

Thursday, 17 January 2019

जनम- दिन

मां धरित्री!
पूरी होने पर
हर परिक्रमा
 सूरज की
तुम्हारी।
मैं मना लेता
अगला जनम दिन।
अपने अपने जतन
दोनों मगन।
धरे जाने पर
धरा के........

धाव रहा हूं
अनवरत।
गुजरता पड़ावों के
जयंतियों के।
खो देता हूं
हर हिस्से को
जिंदगी की।
दरम्यान
दो सालगिरह के,
बंधते ही अगली गिरह।
कला भी है...….

गजब, गति के विज्ञान की।
छूटती  जाती हैं
तेज़ी से पीछे।
निकट की चीजे
गतिमान पिंड के।
पिघल जाते हैं
परवर्ती पूर्ववर्ती बनकर।
किन्तु साथ चलते
बिम्ब दूर के।
पेड़ पौधे,
चांद सितारे......

बादल, सूरज।
कुछ ऐसा ही होता है
पार करने में,
पड़ावों को
जनम दिन के ।
छूट जाते हैं
किरदार
संगी संघाती
नजदीक के।
और साथ चलती हैं
बारात यादों की......

सुदूर के।
सरपट भागती
जिंदगी की नजदीकियां,
और धीरे धीरे बीतती
स्मृतियां दूर अतीत की,
गुजरते लमहे गिन गिन।
भौतिकी के
ऐसे ही
 ' पैरेलेक्स - एरर '
का अध्यात्म है
जनम दिन।

Saturday, 12 January 2019

मैडम ( लघु कथा )


मैं आई.सी.सी. के समक्ष लज्जावत सर झुकाए खड़ा था. मुझ पर 'वर्क-प्लेस पर वीमेन के सम्मान को आउटरेज' करने का इलज़ाम था. यह आरोप मेरे लिए बिलकुल अप्रत्याशित था.मेरी शुचिता और मेरे निर्मल चरित्र का सर्वत्र डंका बजता था. स्वयं आई.सी.सी. के सदस्य हैरान थे. लोगों की अपार भीड़ भी आहत मुद्रा में बाहर खड़ी थी. मुझे तो काठ मार गया था . अभियोग की बात तो दूर, अभियोग लगाने वाली माननीय महिला को मैं पहचानता तक नहीं था. उन्हें भी पहली बार ही देख रहा था. मैंने अपनी नीची पलकों में कातर सलज्ज निगाहों से उनकी आँखों में झांका मानो मेरी रूह उनके रूह से पूछ रही ही, "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगी."
पता नहीं. कोई ईश्वरीय चमत्कार हुआ. उसने बयान दिया, यह आरोप मैंने 'मैडम' के इशारे पर लगाया है. अब मामला बिलकुल साफ़ था.
'मैडम' मेरी प्रिय सहकर्मी थी. साहित्य कला और संस्कृति पर उनके अद्भुत व्याख्यान के शब्द-शब्द से सरस्वती झांकती थी. करीने से पहने उनके वस्त्र और आभूषणों में लक्ष्मी विराजती  थी. उनकी रूप-सज्जा और नैन-नक्श की अपलक पलक कलाओं में सहस्त्रों रतियाँ कंदर्प आमंत्रण का आमुख लिखती. हाँ, उनके अधरों के विलास और नयनों की थिरकन से मेरी अन्यमनस्कता अवश्य बनी रहती.
महिला के रहस्योद्घाटन से तो मैं हतप्रभ रह गया. भावनाओं की इस हतशून्यता में मैंने समीप ही खड़े मैडम का हाथ पकड़ लिया और उनकी बरबस अनुराग दीप्त आँखों में आत्म-ग्लानि की लौ का अवलोकन करने लगा. मैं सपने से जाग चुका था  और आहत मन से अपने दु:स्वप्न की कथा उन्हें सुनाने लगा. मैडम ने मेरे हाथों को और जोर से पकड़ लिया और चहक उठी, "मैं तो बहुत आह्लादित हूँ. कम से कम कारण जो भी हो आपके सपनों में आयी तो! मेरे लिए तो यह अद्भुत क्षण है." उनकी पकड़ मजबूत होते जा रही थी.
इधर मेरी पत्नी जोर जोर से झकझोर कर मुझे जगा रही थी, "मुंगेरी लाल जी, उठो, उठो, मोदीजी का बायो-मेट्रिक अटेंडेंस' तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है. आँखे मलता हुआ मैं उठा और जल्दी से तैयार होकर दफ्तर की ओर भागा.