अम्बर के आनन में जब-जब,
सूरज जल-तल से मिलता है।
कण-कण वसुधा के आंगन में,
सृजन सुमन शाश्वत खिलता है।
जब सागर को छोड़ यह सूरज,
धरती के ' सर चढ़ जाता है!'
ढार-ढार कर धाह धरा पर,
तापमान फिर बढ़ जाता है।
त्राहि- त्राहि के तुमुल रोर से,
दिग-दिगंत भी गहराता है।
तब सगर-सुत शोधित सागर
जल-तरंग संग लहराता है।
गज-तुण्ड से काले बादल,
जल भरकर छा जाते हैं।
मोरनी का मनुहार मोर से,
दादुर बउरा जाते हैं।
दमक दामिनी दम्भ भरती,
अंतरिक्ष के आंगन में।
वायु में यौवन लहराता,
कुसुम-कामिनी कण-कण में।
सूखा-सूखा मुख सूरज का,
गगन सघन-घन ढ़क जाता।
पश्चाताप-पीड़ा में रवि की,
'आंखों का पानी' छलक जाता।
पहिले पछुआ पगलाता,
पाछे पुरवा पग लाता ।
सूखी-पाकी धरती को धो,
पोर-पोर प्यार भर जाता ।
सोंधी-सोंधी सुरभि से,
शीतल समीर सन जाता है।
मूर्छित-मृतप्राय,सुप्त-द्रुम भी,
पुलकित हो तन जाता है।
पुरुष के प्राणों के पण में,
प्रकृति लहराती है।
शिव के सम्पुट खोलकर शक्ति,
स्वयं बाहर आ जाती है।
तप्त-तरल और शीतल ऋतु-चक्र,
आवर्ती यह रीत सनातन।
शक्ति में शिव, शिव में शक्ति,
चेतन में जड़, जड़ में चेतन।
सूरज जल-तल से मिलता है।
कण-कण वसुधा के आंगन में,
सृजन सुमन शाश्वत खिलता है।
जब सागर को छोड़ यह सूरज,
धरती के ' सर चढ़ जाता है!'
ढार-ढार कर धाह धरा पर,
तापमान फिर बढ़ जाता है।
त्राहि- त्राहि के तुमुल रोर से,
दिग-दिगंत भी गहराता है।
तब सगर-सुत शोधित सागर
जल-तरंग संग लहराता है।
गज-तुण्ड से काले बादल,
जल भरकर छा जाते हैं।
मोरनी का मनुहार मोर से,
दादुर बउरा जाते हैं।
दमक दामिनी दम्भ भरती,
अंतरिक्ष के आंगन में।
वायु में यौवन लहराता,
कुसुम-कामिनी कण-कण में।
सूखा-सूखा मुख सूरज का,
गगन सघन-घन ढ़क जाता।
पश्चाताप-पीड़ा में रवि की,
'आंखों का पानी' छलक जाता।
पहिले पछुआ पगलाता,
पाछे पुरवा पग लाता ।
सूखी-पाकी धरती को धो,
पोर-पोर प्यार भर जाता ।
सोंधी-सोंधी सुरभि से,
शीतल समीर सन जाता है।
मूर्छित-मृतप्राय,सुप्त-द्रुम भी,
पुलकित हो तन जाता है।
पुरुष के प्राणों के पण में,
प्रकृति लहराती है।
शिव के सम्पुट खोलकर शक्ति,
स्वयं बाहर आ जाती है।
तप्त-तरल और शीतल ऋतु-चक्र,
आवर्ती यह रीत सनातन।
शक्ति में शिव, शिव में शक्ति,
चेतन में जड़, जड़ में चेतन।