Thursday, 31 January 2019

द्वीप

बीच बीच में
उग आते हैं ,
द्वीप।
जड़वत।
हमारे
चिंतन प्रवाह की तरलता
में विचारो के
जड़ तत्व की तरह,
जिन पर छा जाता है
अरण्य  अहंकार का।

चतुर्दिक फैली जलधि
प्रशांत मन की
करती प्रक्षालित
विचार द्वीपों को
चंचल बौद्धिक लहरियों से।
 करती अठखेली
अहंकार की अमर वेलि।
लहरियों के लौटते ही
अपनी शुष्कता में सूख
ठूंठ सा होने लगता अहंकार।

किन्तु चंचल चाल है
मन से लहकी इन लहरों की
ढालती है
 बुद्धि का हलाहल
अहंकार में
मनोरम मायावी ममत्व से!
मन, बुद्धि और अहंकार
यह स्पर्श छल जाल।
सागर, लहर और अरण्य
जीवन देते हैं टापू को,

एक पेड़ की जड़ में
पनपते हैं कई पौधे
छोटे छोटे अहंकार के।
गिरते ही,बड़े के, ठूंठ होकर
फिर तन के खड़ा हो जाता दूसरा!
फिर सुनामी महाकाल का।
धो -पोंछ देता है
इस रक्तबीज वंश अरण्य को।
शेष रहता है प्रशांत सागर, लीलते
हिलती-डुलती लीलावती लहरों को!







Sunday, 27 January 2019

अवसाद

छा जाता अंधेरा,
चाँद पर।
रुक जाती किरणें,
सूरज की।
पीठ पर थामे भारी,
बोझिल रश्मिपुंज।
पसर जाता अवसाद,
धरती का।
बन कर चन्द्र ग्रहण,
अंतरिक्ष में।
कराहती कातर राका,
कारावास में।
छा जाती झाँई आँखों में ,
याद की।
चाँद, धरा और रवि,
सीध में।
रोती लहरें सागर की,
उछल उछल।
ग़म के गहरे तम में ऊँघता,
अमावसी अवसाद।
डाले डेरा यह खगोलीय बिम्ब जब ,
मन में।
गूंजता मन की मौन मांद में मंद मंद,
मायूस महानाद।
चेतन-अवचेतन-अचेतन  की ची-ची-पो-पो में,
उगता अवसाद।
हार में हर्ष व विजय में विषाद का छोड़ जाता है,
अहसास अवसाद।
किन्तु घूमते सौरमंडल में क्षणिक है,
ग्रहण काल।
रुकता नहीं राहु ग्रसने को, खो देता,
वक्र चाल।
फट जाते भ्रम, मिट जाता मन का,
उन्मत्त उन्माद।
गूंजता चेतना का अनहद नाद, होता
नि: शेष अवसाद।



Thursday, 24 January 2019

प्रकृति का खेल

विकर्षण में होता है
अपनापन।
बढ़ जाता है
जुटना
ठेलने में एक दूसरे को।

नहीं होता डर
टूटकर
खोने का स्वत्व।
जैसे कि आकर्षण में,
खींचकर तोड़ने में।

छीन गया था स्वत्व
आपाधापी में दो पिंडो के
एक दूसरे को
अपनी ओर
खींचने में

टूट गई थी
पिंड से विलग
सघन खगोलीय राशि
बनने को धरती
पृथ्वी की।

कितनी रोई थी
पृथ्वी उस दिन।
आंसूओं का खारा जल
ठहर गया था
बन समंदर।

एक ओर
हो रहा था
तार तार
तपन तारे का।
खोकर अपना प्रकाश।

और समय की
शीत में
जमती जा रही थी
जिद जिजीविषा की
जमीन बनकर।

आने लगी थी घुमरी
और खाने लगी थी चक्कर,
चारो ओर अपने जच्चा की
गिन गिन कर
दिन,रात, महीने और साल।


दूसरी ओर फुफकार रही थी
ज्वालामुखी वेदना विरह की
दो तिहाई आंसुओं में
डूबी तरल तप्त लावा सी
बनकर आग्नेय आस्तित्व!

 खारा जल आंसूओं का,
अपने अंदर का ही,
लहरा रहा है
बनकर अब भी,
भावनाओं का समंदर।

हर बार उर के
गहवर से, गहराती।
लहरें लहराती, लपलपाती,
भागती हैं छूने।
जिजीविषा की जमीन।

फिर लगता है पीने उन्हें,
तट के जमीन का रेत।
और लौट जाती है,
उल्लसित लहरें।
लुटाकर लालसा!

सजा है वीतान,
प्रकृति के खेल का!
लहरों के लास का
समंदर के हास का
तटों के विलास का।


Tuesday, 22 January 2019

दीदी के भाई जी


'बड़का मामा' चले गए। 'दीदी (हम माँ को ‘दीदी’ ही कहते थे) के भाई जी' चले गए । रात उतर चुकी थी । चतुर्दशी का चाँद पूरणमासी की चौखट पर पहुँच रहा था । तभी इस खबर ने मानों इस धवल धरती को टहकार कजरौटे से लीप दिया और हमारी आँखें अतीत के सुदूर अन्धकार में भटकने लगी । सोचने लगा कि यदि दीदी होती तो कैसे सहती यह वज्रपात! मैं अनायास अपने बचपन में उतर गया था जिसने मुझे दीदी का आँचल ओढ़ा दिया था और उसी आँचल से मुँह तोपे मैं कभी दीदी को निहारता तो कभी उसके भाई जी को ! ‘भाई जी’ और ‘काकाजी’ दो ऐसे किरदार दीदी के जीवन में थे जो उसके अहंकार को पोसने वाले मन और बुद्धि थे । उसके अस्तित्व के ये दो ऐसे अमरज्योति- पुंज थे जो उसकी चेतना के मूलभूत स्त्रोत-से प्रतीत होते थे। इन दोनों के मुख से निकली कोई वाणी उसके लिए कृष्ण के मुख से निकली गीता से ज्यादा प्रासंगिक और तात्विक थी । मुझे याद है कि कैंसर के इलाज़ के लिए उसे जब बम्बई ले जाया गया तो वह बार-बार मुझे बड़े संतृप्त भाव से कहती कि 'काकाजी बोललथिन ह इहाँ आवेला', मानो उसकी रूचि अपने इलाज में कम और काकाजी के इस कथन के गौरव को व्याखायित करने में ज्यादा हो !
मेरा बोझिल तन उस शोक संतप्त भीड़ का हिस्सा था जो ‘बड़का मामा’ की देह को अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर रहा था । लेकिन मेरा बाल मन दीदी  के आँचल में छिपकर 'अंतरिक्ष-समय-स्लाइस' से अतीत के छिलके उतार रहा था...........तब दालान में मकई के बालों का ढेर लगता था। ढेर सारे सहयोगियों के साथ ‘भाई जी’ मकई के बाल के दानों को निकालने में जुट जाते । ढेर सारी कहानियों का दौर चलता । मैं देर रात बैठ बड़ी तन्मयता से कहानियों को सुनता और अपने भविष्य के लिए रचनात्मकता के तिनके-तिनके बटोरता.......... 'एक चिड़ी आयी, दाना ली और... फुर्र',...... जैसी कभी ख़तम न होने वाली कहानी भी पहले इसी बैठक में सुनी थी जो बाद में अंग्रेजी कहानी बनकर मेरे ऊपर की कक्षा में जब आयी तो उसके मूल रचनाकार मुझे दीदी के भाई जी ही लगे और जब पहली बार 'पायरेसी' शब्द से परिचय हुआ तब भी मुझे अंगरेजी की वह 'द एवर लास्टिंग स्टोरी' भाई जी की मूल कहानी का 'पायरेटेड वर्शन' ही लगी.....
.... इसी बीच रुदन का एक तीव्र स्वर उभरता है और मेरी तंद्रा भंग होती है । लोगों के आने का क्रम जारी है। बाँस  की खपाची से बनी शायिका पर उन्हें लिटा दिया गया है । ऊपर से एकरंगा का ओहार भी तान दिया गया है । उनके निष्प्राण किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल पर फूलों के पराग भी निश्चेत लुढ़के हुए हैं और मेरी निश्चेष्ट आँखें एक बार फिर बड़का मामा की धराशायी देह में डूबती अतीत की गहराई में उतर जाती हैं.....
कल दीदी की विदाई है । ससुराल जायेगी । मायके में उसके भाई जी बड़ी बारीकी से उसकी विदाई के इंतज़ाम में एक-एक चीज की निगरानी कर रहे हैं । मेहमान के लिए खैनी की पैकिंग पर उनकी विशेष नज़र है । हवा लगने से खैनी के मेहराने का डर है । रामाशीष साव के साथ मिलकर बड़ी करीने से पुआल में खैनी को लपेटा जा रहा है । फिर उसे सुतरी से बांधकर सरिआया जा रहा है । मुझे देखते ही बताते हैं कि इसको जाते ही पापा को दिखा देना है । चुटकी भी लेते हैं चेताते हुए, 'अपने पापा जी को बता देना कि घीव सत्ताईस रुपये सेर है और खैनी बत्तीस रुपये ।' और विशेष हिदायत कि ' हे, देखिह. कहीं पापा के बदले बाबा ना देख लेस!' आँखों मे लोर और मुख पर मुस्कराहट ढ़ोती दीदी अपने भाई जी के इस तत्व-ज्ञान से हर्षित और गर्वित है । मैं भी उनकी इस सहृदयता पर मन ही मन उनके भगीना होने का गर्व लूट रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि मेरे खपरैल घर के लिए अपने छत-पीट्टा घर की छत भी भेजने की कूबत है तो मेरे इस बड़े दिल वाले बड़का मामा में ही । लेकिन याचना करने में इस बालमन के स्वाभिमान को सहज संकोच होता है और बस मन मसोसकर संतोष कर लेता है……..
 अचानक शोर उठता है, 'राम नाम सत है, माटी में गत है।' ट्रेक्टर बैक हो रहा है । अर्थी सज गयी है । उसे ट्रेक्टर पर लादा जाएगा । बचपन में मुझे कंधे पर लादकर बथान ले जाने वाले शरीर को मात्र ट्रेक्टर पर चढ़ाने  हेतु कंधा देने की कल्पना से मन सिहुर जाता है । नम आँखों में फिर से अतीत के छिलके छलक उठते हैं.....
........ उबहन में लोटा बाँधकर चुपके से मेरे नन्हे पाँव इनार पर पानी भरने चल गये हैं । नन्ही हथेली ने रस्से को कसकर पकड़ कर लोटा डुबा दिया है और उबहन को  गोलाई में नचा-नचा कर लोटा में पानी भरने का उपक्रम कर रहा है । अचानक उबहन में हल्कापन महसूस होता है । तब तक आर्कीमिडीज से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । अगर रहता तब भी कोई फ़ायदा नहीं था । उबहन खींचने पर हाथ में केवल रस्सा था । लोटे ने जल-समाधि ले ली थी । मेरा तो साथ में मानों दिल ही डूब गया । घोर संकट सामने था..... उसी लोटे से प्लेट में चाय ढारकर नानाजी चाय पीते थे......
... अचानक बड़का मामा का वह लोहई लंगर याद आया जो  वह दालान के कोने में रखते थे । जब भी किसी की बाल्टी कुँए में डूबती तो वह मामाजी से माँगने आता और उसे कुँए में डुबाकर उस सामान को फँसाकर  निकाल लिया जाता । मैंने भी धीरे से उसे खोज निकाला और अबकी बार लोटे की बांध से भी मजबूत और कठोर बांध अपने थरथराते कोमल हाथों से उसमें बाँधा और लोटे की दिशा में उबहन को लटका दिया । सूरज देवता भी तेजी से अपनी सहानुभूति की  किरणें समेट रहे थे...... मैं बड़ी तेजी से उबहन से कुँए की छाती को हलकोर रहा हूँ कि वह लोटा उगल दे । किन्तु, इनार ने तो मानों मेरी तकदीर को ही ताकीद कर उसकी भी लुटिया डुबो दी हो! हाथ से उबहन छूट जाता है और पश्चिम का सूरज भी उसी कुँए में डूब जाता है । मेरी आँखों में अन्धेरा छा जाता है । दूर से दीदी मेरी शरारत पर खिसियाती हुई मेरी ओर बढ़ती है । मैं प्रत्याशित पिटाई की आशंका को  अपने रोदन रव से उच्चरित करने का श्री गणेश ही करता हूँ कि बड़का मामा आकर मुझे बचा लेते हैं........
.............. ट्रेक्टर स्टार्ट होने की ध्वनि में मैं वापस लौटता हूँ । 'उबहन' और 'लंगर' दोनों अब मेरे हाथ से   छूट गए हैं और मैं अभी भी अन्दर-अन्दर सिसक रहा हूँ । शवयात्रा प्रारम्भ होकर गाँव के दक्खीन करीब दो कोस पर गंडक के किनारे रुकती है । उत्तरे-दक्खिन शव को लिटा दिया गया है । ज़मीन पर शव के समानांतर ही एक क्यारीनुमा गड्ढा और उसके लम्बवत दो क्यारियाँ ऊपर और नीचे खोदी जाती हैं । करीने से लकड़ी के खम्भे डालकर उस पर लकड़ी की सेज सजा दी गयी है । सेज पर शव को लिटाकर अग्निदाह की क्रिया संपन्न हो रही है.....
...... माटी काटती गंडक की धार में तेज़ी है । तट के पार खर के जंगल में आग लगी हैं । पट-पट की तेज आवाज़ से जीभ लपलपाती उस पार की लपटें मानों इस पार जलते शव से उठती लपटों से लिपट जाना चाह रही हों । क्षितिज पर टँगे सूरज का मुँह  भी रूँआसा-सा  लाल भुभुक्का हो गया है। हवा सनसना रही है और आकाश धुँए  से भर गया है । हम सभी हाथ में चावल-तिल लिए तिलांजलि दे रहे हैं ।
"क्षिति जल पावक गगन समीरा 
पञ्च तत्व रचित अधम शरीरा।"
उधर सूरज गंडक की रेत में समा रहा है, इधर दीदी के भाई जी अपने पञ्च तत्वों को त्याजे पवन की तरंगों पर सवार हो दीदी की दिशा में महाप्रयाण कर रहे हैं....... अचानक झटके से हवा मे आँचल उड़ता है और हमारे दृष्टिपथ पर स्मृतियों की सतरंगी रेखा खींचते अंतरिक्ष में वह आँचल तिरोहित हो जाता है । आज ही के ही दिन तो मेरे सर से वह आँचल भी उड़ गया था । दीदी को भी गए आज सताईस साल हो गए...........!!!!!      

Thursday, 17 January 2019

जनम- दिन

मां धरित्री!
पूरी होने पर
हर परिक्रमा
 सूरज की
तुम्हारी।
मैं मना लेता
अगला जनम दिन।
अपने अपने जतन
दोनों मगन।
धरे जाने पर
धरा के........

धाव रहा हूं
अनवरत।
गुजरता पड़ावों के
जयंतियों के।
खो देता हूं
हर हिस्से को
जिंदगी की।
दरम्यान
दो सालगिरह के,
बंधते ही अगली गिरह।
कला भी है...….

गजब, गति के विज्ञान की।
छूटती  जाती हैं
तेज़ी से पीछे।
निकट की चीजे
गतिमान पिंड के।
पिघल जाते हैं
परवर्ती पूर्ववर्ती बनकर।
किन्तु साथ चलते
बिम्ब दूर के।
पेड़ पौधे,
चांद सितारे......

बादल, सूरज।
कुछ ऐसा ही होता है
पार करने में,
पड़ावों को
जनम दिन के ।
छूट जाते हैं
किरदार
संगी संघाती
नजदीक के।
और साथ चलती हैं
बारात यादों की......

सुदूर के।
सरपट भागती
जिंदगी की नजदीकियां,
और धीरे धीरे बीतती
स्मृतियां दूर अतीत की,
गुजरते लमहे गिन गिन।
भौतिकी के
ऐसे ही
 ' पैरेलेक्स - एरर '
का अध्यात्म है
जनम दिन।

Saturday, 12 January 2019

मैडम ( लघु कथा )


मैं आई.सी.सी. के समक्ष लज्जावत सर झुकाए खड़ा था. मुझ पर 'वर्क-प्लेस पर वीमेन के सम्मान को आउटरेज' करने का इलज़ाम था. यह आरोप मेरे लिए बिलकुल अप्रत्याशित था.मेरी शुचिता और मेरे निर्मल चरित्र का सर्वत्र डंका बजता था. स्वयं आई.सी.सी. के सदस्य हैरान थे. लोगों की अपार भीड़ भी आहत मुद्रा में बाहर खड़ी थी. मुझे तो काठ मार गया था . अभियोग की बात तो दूर, अभियोग लगाने वाली माननीय महिला को मैं पहचानता तक नहीं था. उन्हें भी पहली बार ही देख रहा था. मैंने अपनी नीची पलकों में कातर सलज्ज निगाहों से उनकी आँखों में झांका मानो मेरी रूह उनके रूह से पूछ रही ही, "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगी."
पता नहीं. कोई ईश्वरीय चमत्कार हुआ. उसने बयान दिया, यह आरोप मैंने 'मैडम' के इशारे पर लगाया है. अब मामला बिलकुल साफ़ था.
'मैडम' मेरी प्रिय सहकर्मी थी. साहित्य कला और संस्कृति पर उनके अद्भुत व्याख्यान के शब्द-शब्द से सरस्वती झांकती थी. करीने से पहने उनके वस्त्र और आभूषणों में लक्ष्मी विराजती  थी. उनकी रूप-सज्जा और नैन-नक्श की अपलक पलक कलाओं में सहस्त्रों रतियाँ कंदर्प आमंत्रण का आमुख लिखती. हाँ, उनके अधरों के विलास और नयनों की थिरकन से मेरी अन्यमनस्कता अवश्य बनी रहती.
महिला के रहस्योद्घाटन से तो मैं हतप्रभ रह गया. भावनाओं की इस हतशून्यता में मैंने समीप ही खड़े मैडम का हाथ पकड़ लिया और उनकी बरबस अनुराग दीप्त आँखों में आत्म-ग्लानि की लौ का अवलोकन करने लगा. मैं सपने से जाग चुका था  और आहत मन से अपने दु:स्वप्न की कथा उन्हें सुनाने लगा. मैडम ने मेरे हाथों को और जोर से पकड़ लिया और चहक उठी, "मैं तो बहुत आह्लादित हूँ. कम से कम कारण जो भी हो आपके सपनों में आयी तो! मेरे लिए तो यह अद्भुत क्षण है." उनकी पकड़ मजबूत होते जा रही थी.
इधर मेरी पत्नी जोर जोर से झकझोर कर मुझे जगा रही थी, "मुंगेरी लाल जी, उठो, उठो, मोदीजी का बायो-मेट्रिक अटेंडेंस' तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है. आँखे मलता हुआ मैं उठा और जल्दी से तैयार होकर दफ्तर की ओर भागा.

Thursday, 10 January 2019

जल समाधि

सागर के बीच
उसकी छाती पर,
आसमान में चमकते
सूरज के ठीक नीचे,
खो जाती हैं दिशाएं,
अपनी सार्थकता खोकर।
आखिर शून्य के प्रसार की इस
अनंत निस्सीमता
जिसका न ओर
न छोर।
 नीचे जल
अतल।
ऊपर अंतरिक्ष
परिणति से निरपेक्ष।
दोनों हाथों फैलाए नाच जाता हूं
पूरी परिक्रमा
हवा, भर बांह।
चतुर्दिक, अनंत।

बस चमकते थाल की तरह
माथे का सूरज
अहसास कराता है
अस्तित्व का।
वो भी ढुलक रहा
तेजी से
समेटता अपनी किरणों को
लेने को जल समाधि
और छाने को, अन्धकार।
घटाटोप!
सब कुछ अदृश्य!
सिर्फ बचेगा 
अदिशअहसास ,
खुद के होने का।
जिसकी दिशा
उगेगी फिर,
क्षितिज पर सागर के
सूरज के ही साथ।

इस रोज
उगती
डूबती
दिशाओं के बंधन से मुक्त,
होने को बनना
होगा,
मुझे खुद
सूरज।
बस !
मेरा काम होगा
चलना,
अंत की ओर
अपने  अनंत के।
और सब देखेंगे
दिशाएं
मेरी
करवटों में
अनंतता की!

Friday, 28 December 2018

बहुरिया का ज़बान (लघुकथा)


"कातिक नहान के मेले में रघुनाथपुर के जमींदार, बाबू रामचन्नर सिंह, की परपतोह बहुरिया पधारी थी. मेले के पास पहुंचते ही चार साल के कुंवरजी को दिसा फिरने की तलब हुई. बैलगाड़ी वहीँ खड़ी कर दी गयी. गाडी को उलाड़ किया गया. ऊपर और साइड से तिरपाल का ओहार तानकर बहुरानी का तम्बू तैयार किया गया. नौड़ी ने बिछावन बिछा दिया. नौकर-चाकर कुंवरजी को दिसा फिरा लाये. बगल में ही बिसरामपुर का एक सजातीय गरीब परिवार अपना डेरा डाले था. बिसरामपुर रघुनाथपुर का ही रैयत था.
बगल का ओहार उठाकर एक नन्ही कली बहुरिया के शिविर में समाई और कुंवरजी के साथ अपनी बाल क्रीडा में मशगुल हो गयी. दोनों का खेल और आपसी संवाद बहुरिया का मन मोहे जा रहा था. उस मासूम बालिका को खोजते खोजते उसकी माँ भी इस बीच पहुँच गयी. लिहाज़ वश मुंह पर घूँघट ताने माँ ने बहुरिया से माफ़ी मांगी. बहुरिया ने उसे बिठाया, बताशा खिलाया और पानी पिलाया. "लगता है गंगा मैया अपने सामने ही इनसे गाँठ भी जुड़वा लेंगी."  उस बाल जोड़े की मोहक क्रीड़ा भंगिमा को निहारती पुलकित बहुरिया ने किलकारी मारी.
'इस गरीब के ऐसे भाग कहाँ, मालकिन!'
"गंगा मैया के इस पूरनमासी के परसाद को ऐसे कैसे बिग देंगे. हम जबान देते हैं कि इस जोड़ी को समय आने पर हम बियाह के गाँठ में बाँध देंगे." बहुरिया ने जबान दे दिया.
मेले के साथ बात भी आई, गयी और बीत गयी.
कुंवर जी की वय अब सात साल हो गयी थी. एक दिन शादी के लिए लड़की वाले पहुँच गए. उनकी हैसियत का पता चलते ही रामचन्नर बाबू ने नाक भौं सिकोड़ लड़की वालों को अपनी 'ना' की ठंडई पिला दी. बुझे मन से लड़की वालों ने अपनी बैलगाड़ी जोत दी.
कचहरी से उठकर रामचन्नर बाबु दालान से लगी कोठली में लेट गए और ठाकुर उनकी मालिश करने लगा.
" मालिक, इन बीसरामपुर वालों को बहुरिया ने बियाह का जबान दे दिया था, गंगा नहान के मेले में." चम्पई करते ठाकुर ने उनके कान में धीरे से बुदबुदा दिया. 'उनका ठाकुर हमको बता रहा था'.
ज़मींदार साहब उठ खड़े हुए. भागे भागे अंगना में बहुरिया के पास पहुंचे .बहुरिया ने सहमते सहमते सर हिला दिया.
तुरत दो साईस छोड़े गए. एक बिसरामपुर वालों की बैलगाड़ी को घेर कर वापिस लाने के लिए और दूसरा पंडितजी को लाने के लिए.
"हमारी बहुरिया ने ज़बान दे दिया था, इस बात का हमें इल्म न था," रामचन्नर बाबू हाथ जोड़े जनमपतरी सौंप रहे थे और बीसरामपुर वालों से माफी मांग रहे थे.
जिस घर की बहुरिया के ज़बान का इतना परताप हो उस घर में अपनी लाडली के बहुरिया बनने का सच बीसरामपुर वालों की आँखों में गंगाजल बनकर मचल रहा था."
नानी अपने बियाह ठीक होने की कहानी सुना रही थी और दोनों नातिने उनके शरीर पर लोट लोट कर मुग्ध हो रही थी.    

Tuesday, 25 December 2018

सुन लो रूह की


दिल भी दिल भर,
दहक दहक कर
ना बुझता है,
ना जलता है.

भावों की भीषण ऊष्मा में,
मीता, मत्सर मन गलता है.

फिर न धुक धुक
हो ये धड़कन
और ना,
संकुचन, स्पंदन.

खो जाने दो, इन्हें शून्य में.
हो न हास और कोई क्रंदन.

शून्य शून्य मिल
महाशून्य हो
शाश्वत,
सन्नाटे का बंधन!

सब सूना इस शून्य शकट में
क्या किलकारी, क्या कोई क्रंदन.

मत डुबो,
इस भ्रम भंवरी में,
मन, माया की
मृग तृष्णा है.

दृश्य-मरीचिका! मिथ्या सब कुछ,
कर्षण ज्यों कृष्ण और कृष्णा हैं.

चलो अनंत
पथिक पथ बन तुम!
बरबस बाट
जोहे बाबुल डेरे.

रुखसत हो, सुन लो रूह की,
तोड़ो भ्रम जाल, मितवा मेरे!

Saturday, 8 December 2018

पुरखों का इतिहास

बिछुड़ गया हूं
खुद से।
तभी से,
जब डाला गया था,
इस झुंड में।
चरने को,
विचरने को,
धंसने को,
फंसने को,
रोने को,
हंसने को।

डाले जाते ही
निकल गई थी,
मेरी मर्मांतक चीख!
छा गई थी,
खुशियां।
झुण्ड में।
और झुंड ने मनाया था
उल्लास,
मेरे आगमन का!
(बिछुड़ने
की तैयारी में!)

मुझसे
अरसो पहले भी
काफी लोग
बिछुड़ चुके है
पूर्वज बनकर।
जा के लटक गए हैं
आसमान में नक्षत्रों संग।
आने को हर साल।
अपने पक्ष का
तर्पण पाने
और पानी पीने!

कुछ तैयारी में है
अग्रज वृंद,
बनने को तारे।
फिर बारी हमारी,
और अनुज गणों की।
मिलेंगे खुद से, बनकर
मातम पुरसी पुरित पुरखे
बिछुड़कर झुंड से।
तब मेरी चीख पर,
उलटा होगा
झुंड के उल्लास का!


अर्थात!
मेरे उल्लास पर
झुण्ड की चीख।
मेरी चीख से झुंड की चीख
के बीच पसरा है
झुण्ड के उल्लास से
मेरे उल्लास के
बीच का भ्रम पाश।
यहीं तो टंगा है आकाश में
बनकर
पुरखों का इतिहास!

Monday, 19 November 2018

टहकार!

भींगी रात यादों की। 
सूखा रही अब धूप, विरह की ।  
निगोड़ी रात अलमस्त! 
सुखी! न सूखी।  
उल्टे, भींगती रही धूप। 
खुद ! रात भर। 
ढूंढता रहा आशियाना सूरज।
 धुंध में चांदनी की । 
और अकड़ गया है चांद, एहसासों का। 
आसमान मे, होकर और टहकार


टहकार - गहरा चमकीला रंग।

Friday, 9 November 2018

अकेले ही जले दीए!

अकेले ही जले दीए
मुंडेर पर इस बार।
न लौटे जो कुल के दीए
गांव, अबकी दिवाली पर।
भीड़ गाड़ी की
आरक्षण की मारामारी
सवारी पर गिरती सवारी
भगदड़ में भागदौड़।
और किराए की रकम,
लील जाती जो लछमी को!

उधर उम्मीदों के दीयों को
आंसूओं का तेल पिलाती
 'व्हाट्सअप कॉल '
में खिलखिलाती
पोते- पोती सी आकृति
अपने पल्लुओं से
पोंछती, पोसती
बारबार बाती उकसाती!
पुलकित दीया लीलता रहा
अमावस को।

उबारता गुमनामी से
गांव - गंवई को ,
सनसनाती हवाओं की
शीतल लहरी पर,
तैरता सुदूर बिरहे का स्वर।
उधर गरजता, दहाड़ता
पूरनमासी - सी
सिहुराती रोशनी में,
दम दम दमकता
दंभी शहर!

Sunday, 21 October 2018

अर्ध्य अश्रु -अनुराग नमन


उठती गिरती साँसों में,
खयालों में अहसासों में।
पलकर पल-पल पलकों में,
भाव गूँथ गुंफ अलकों में।

सपनों में श्वेत शुभ्र कुंद,
मंद-मंद मन मुकुल मुंद।
निष्पंद नयन नम सन्निपात,
धूमिल धूसरित  धुलिसात।

महाशून्य-से सन्नाटे में,
गहराते गर्त में भाटे के।
तुमुल नाद से आर्त तमस,
धँस जाते तुम उर अंतस।

ले प्राणों का प्रिय प्रकम्पन,
अर्पित कामना कनक कुंदन।
हर विरह में रह-रह कर,
दाह दुस्सह दुःख सह-सह कर।

पाषाण हृदयी हे निर्दया, 
तू चिर जयी मै हार गया।
निश्छल मन मेरा गया छला,
अलबिदा! निःशब्द,निष्प्राण चला।

अवशोषित शोणित के कण में,
पार प्रिये प्राणों के पण में।
आज उड़े जब पाखी मन के,
ढलके हो तुम आँसू  बन के।

ले अर्ध्य अश्रु अनुराग नमन,
पावन आप्लावन जनम-जनम।
नीर प्रकृति क्षय क्षार गरल,
बहूँ पुरुष भव भाव तरल।.


Saturday, 29 September 2018

आने दो, माँ को, मेरी!


मैं अयप्पन!
मणिकांता, शास्ता!
शिव का सुत हूँ मैं!
और मोहिनी है मेरी माँ!

चलो हटो!
आने दो
माँ को मेरी.
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
छाया में
ममता से भींगी
मातृ-योनि की अपनी!

अब जबकि
 सुलझा दिया है सब कुछ
माँ ने ही मेरी
बांधे पट्टी
आँखों में और
लिये तुला हाथों में.
लटके रहे जिसके
हर पल!
पकड़कर कस के
तुम एक पलड़े पर!

क्या कहा!
है वय
उसकी
दस से पचास!
माहवारी मालिन्य,
नारीत्व का नाश!

तीन लहरों से धुलती
तीर पर सागर के
निरंतर
'कन्याकुमारी'.
माँ नहीं तुम्हारी!
पूजते हो,
या ढोंगते हो केवल!

कैसा 'धरम' है रे तुम्हारा!
कहता है
अपवित्र
'धरम' को!
मेरी माँ के!

जो है
जैविक, स्वाभाविक और
'मासिक'!
जिसका
'होने के श्री-गणेश'
और
'न होने के पूर्ण विराम'
के मध्य
किसी विराम-बिंदु पर
'न होना'
बीज-वपन है
कुक्षी में.
तुम्हारे
'होने'
का!

कवलित कुसुम हो न,
तुम
'अधरम-काल' के!

दो मुक्ति
अपनी मरियल मान्यताओं से!
बेचारी 'माँ' को.
कर्कश कुविचार कश
में कसी.
या, फिर पोंछ दो
मुंडेरों से मेरी
'तत्त्वमसि'!

है यह गेह मेरा,
पेट भरे थे
माँ शबरी ने
तुम 'पुरुष'-उत्तम के!
जूठे बेर से!
यहाँ!

अब कबतक सहेगा
'बैर' तुम्हारा
मेरी माँ से
यह
'हरिहर-पुत्र'
शबरीमाला का!

छोडो छल!
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
आने दो,
माँ को,
मेरी!

Wednesday, 5 September 2018

'साहित्यिक-डाकजनी'

किसी का जोरन,
किसी का दूध.
मटकी मेरी, 
दही विशुध.

छंद किसी का, 
बंध है मेरा.
'प्लेगरिज्म'
'पायरेसी' का  फेरा.

चौर-चातुर्य, 
रचना उद्योग.
पूरक, कुम्भक, 
रेचक योग.


थोड़ी उसकी पट, 
थोड़ी इसकी  चित.
क्यों लिखे, 
भला, मौलिक गीत!

गर गए पकड़े,
मची हाहाकार,
विरोध में वापस,
पुरस्कार!

कथ्य आयात, 
पात्र निर्यात
'साहित्यिक-डाकजनी' 
सौगात!!!

जोरन -- जामन या खट्टा जिसे मिलाने पर दूध दही में जम जाता है।

Monday, 27 August 2018

प्रेयसी-पी!

मौत! बन ठन के
मीत मेरे मन के
सौगात मेरे तन के!
जनमते ही चला
मिलने को तुमसे।

'प्रेय' पथ की मेरी
प्रेयसी हो तुम।
आकुल आतुर
मिलने को तुमसे
पथिक हूँ तुम्हारा।

तिल तिल कर
हो रहा हूँ खर्च
इस पथ पर
पाथेय बन स्वयं।
छूटती जाती पीछे.....

छवियाँ अनगिन,
और बिम्ब बेपनाह।
गढ़े थे जिनको
'मैं' ने मेरे!
साथ साथ.....

बुनते गुनते रिश्ते,
उन बिम्बों से।
लीक पर
समय की अब।
प्रतिबिम्ब बन....

यदा-कदा यादों के
झलमलाते, फुसलाते
रीझाते, खिझाते।
भ्रम की भँवर में
तिरते उतराते।

खुल रहे हैं
अब शनैः शनैः,
बंधन भ्रम के
गतानुगतिक व्यतिक्रम से।
पथ यह 'प्रेय'.......

बनता अब 'श्रेय'!
मौत! बन ठन के
मीत मेरे मन के
सौगात मेरे तन के!
साध्य श्रेयसी सी
हैं हम प्रेयसी-पी!



Tuesday, 24 July 2018

'मैं'


देह स्थूल जंगम नश्वर 'मैं',
रहा पसरता अहंकार में.
सूक्ष्म आत्मा तू प्रेयसी सी,
स्थावर थी, निर्विचार से.

तत्व पञ्च प्रपंच देह 'मैं',
रहा धड़कता साँसों में.
जीता मरता 'मैं' माया घट,
फँसा फंतासी फांसों में.

भरम-भ्रान्ति 'मैं' भूल-भुलैया,
मायावी, छल, जीवन-मेला
लिप्त लास में 'मैं' ललचाया
आँख मिचौली यूँ खेला !

त्यक्ता 'मैं', रीता प्रीता से,
मरणासन्न मरुस्थल में.
नि:सृत नीर नयन नम मेरे,
फलक पलक 'मैं' पल पल में.

सिंचित सैकत कर उर उर्वर,
प्रस्थित प्रीता, अपरा प्रियवर.
विरह विषण्ण विकल वेला 'मैं'!
महोच्छ्वास, निःशब्द, नि:स्वर!