१५ मई २०२० को हमारे प्रिय शिक्षक प्रोफेसर एस के जोशी नहीं रहे। उनका जाना हमारे मन में अनुभूतियों के स्तर पर एक विराट शून्य गहरा गया। अतीत का एक खंड चलचित्र की भाँति मानस पटल पर कौंध गया। कुछ बातें मन के गह्वर में इतनी गहरायी से पैठ जाती हैं कि न केवल गाहे-बेगाहे यादों के गलियारों में अपनी चिरंजीवी उपस्थिति का अहसास दिलाती रहती हैं, बल्कि अचेतन में बैठकर हमारे चैतन्य व्यवहार को संचालित भी करती हैं। डॉक्टर जोशी से हमारा सान्निध्य भी कुछ ऐसा ही रहा। १९८३ में अपने घर (उस समय डाल्टनगंज, आज का मेदिनीनगर, झारखंड, तब मेरे पिताजी वहीं पदस्थापित थे) से रुड़की के लिए निकला था ‘पल्प ऐंड पेपर इंजीनियरिंग’ में अपना नामांकन रद्द कराने। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि मुझे ‘मकैनिकल’ इंजीनियरिंग मिल गया है और मेरे इंटर के मित्र शांतमनु भी मिल गए जिन्हें ‘सिविल’ मिल गया था। अब हमने तय कर लिया कि रजिस्ट्रेशन करा लेना है। रजिस्ट्रेशन के वक़्त मेरा विभाग ‘सिविल’ हो गया और शांतमनु का ‘मकैनिकल’! हमें छात्रावास भी आवंटित हो गया – गंगा भवन, कमरा संख्या बी जी ८। मेरे पास कोई सामान तो था नहीं क्योंकि हम तो एड्मिशन रद्द कराने पहुँचे थे। ठीक अगले दिन से सेमेस्टर की नियमित कक्षाएँ प्रारम्भ हो जानी थी। रैगिंग का कार्यक्रम भी बदस्तूर जारी था। मैं अपने कमरे में प्रवेश कर अभी खिड़की-कुर्सी-मेज़ देख ही रहा था कि एक सौम्य आकृति ने कमरे में हल्के से प्रवेश किया और मुझसे औपचारिक परिचय से बात-चीत शुरू की। उस कम उम्र में अपने घर से इतनी दूर बाहर निकलने पर विरह विगलित चित्त की वेदना को उनकी मधुर वाणी ने बड़े प्यार से सहलाया। मुझे वापस घर लौटना था अपने आवश्यक सामान लेकर लौटने के लिए। वे मुझे वार्डन के पास लेकर गए और मुझे घर जाने की तत्काल अनुमति उन्होंने दिलायी। मुझे यथाशीघ्र लौटने की सलाह दी और विलम्ब होने पर मेरी पढ़ाई में होने वाली मेरी क्षति का पूर्वानुमान कराया। मेरा कोमल मन उनके इस अपनेपन से आर्द्र हो गया। यह थे भारत के प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी ‘डॉक्टर श्री कृष्ण जोशी’ जो उस समय प्रथम वर्ष के नव नामांकित छात्रों के समन्वयक हुआ करते थे।
फिर मेरे घर से लौटने के बाद भी कई दिनों तक नियमित रूप से मेरे कमरे में वह आते रहे और अपने पिता-सुलभ वात्सल्य की वाटिका में हमें घुमाते रहे। कभी कभार फ़िज़िक्स प्रैक्टिकल के दौरान लेबोरेटरी में उनकी मधुर और सौम्य मुस्कान का सामना हो जाता और वे बड़ी आत्मीयता से हमारा कुशल-क्षेम पूछ लेते। १९८५-८६ में मैं छात्र संघ का सिनेटर और कोषाध्यक्ष चुना गया। सीनेट की हर मीटिंग में वह संस्थान के डीन की हैसियत से सिरकत करते और हमारा रचनात्मक मार्गदर्शन करते। फिर अचानक वह दौर भी आया जब हमारी उनसे एक छात्र नेता के तौर पर भिड़ंत हो गयी। ‘इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग' में एक छात्रा के परीक्षा फल में अप्रत्याशित और अनियमित उछाल पर गहराते रोष ने आंदोलन का रूप ले लिया और उस आंदोलन के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में मैं खड़ा था। कई छात्र भूख हड़ताल पर चले गए। सिंचाई अभियांत्रिकी की जानी-मानी अन्तर्राष्ट्रीय हस्ती डॉक्टर भरत सिंह वाइस-चांसलर थे। उनकी ओर से मुख्य निगोशिएटर की भूमिका में डॉक्टर जोशी थे। औपचारिक मीटिंग के बाद कई बार हम दोनों ने अकेले में उस मसले पर लम्बी और गम्भीर मंत्रणायें की और उस घटना क्रम को अंततः एक तार्किक परिणती के मुक़ाम पर पहुँचाया। सही कहें, तो उन दिनों के हमारे गहराए रिश्तों ने मेरे ऊपर न केवल जोशी सर के मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत एक निष्पक्ष और पवित्र व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी, प्रत्युत हमारे अचेतन मन में चारित्रिक आदर्शों के कई प्रतिमानों का बीजारोपण भी चुपके-से वह कर गए। सम्भवतः उसी के बाद वह नैशनल फ़िज़िकल लेबोरेटरी के निदेशक बनकर दिल्ली चले गए थे और फिर हमारा सम्पर्क-विच्छेद हो गया।
कुमायूँ के एक सुदूर गाँव में जन्मे जोशी सर ने बचपन में न जाने कठिनाइयों की कितनी पहाड़ियाँ लाँघकर अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की।अपने गाँव से प्रतिदिन तीन घंटे की पहाड़ी रास्ते की दूरी तय कर वह पैदल स्कूल आते थे। उनका स्कूली जीवन अत्यंत विपन्नता में कटा। ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही उनके माथे से पिता का साया उठ गया। अपने हाथों से अपने फटे कपड़ों को वह सिलकर और टाँके लगाकर पहनते थे। अपने हाथों से ही खाना बनाते थे। ट्यूशन पढ़ाकर अपने तथा अपने छोटे भाई की पढ़ाई और जीविकोपार्जन का ख़र्चा बड़ी मुश्किल से वह जुटा पाते थे। रात में मिट्टी के तेल के दीये से फैलते प्रकाश और उनके अद्भुत जीवट ने धीरे-धीरे उनके जीवन में ज्ञान का आलोक भरना शुरू किया। उन्हें प्रतिभा छात्रवृत्ति मिलने लगी। मितव्ययी जोशी सर ने उसमें से पाई-पाई बचाकर जी आई सी अल्मोड़ा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक में अपने नामांकन का जुगाड़ किया।
बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से फ़िज़िक्स में स्नातकोत्तर में स्वर्ण-पदक प्राप्त किया। मात्र ३२ वर्ष की आयु में रुड़की विश्वविद्यालय (आज का आइआइटी रुड़की) में फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर बने। उससे पहले दो वर्षों तक वह कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में विज़िटिंग लेक्चरर रहे। ‘इलेक्ट्रॉनिक बैंड स्ट्रक्चर’ और ‘डी-इलेक्ट्रॉन वाले धातुओं’ के ‘लैटिस-डायनामिक्स’ पर उनके द्वारा किए गए शोध अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं। उन्हें शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, मेघनाथ साहा पुरस्कार और न जाने कितने पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म-श्री और पद्म-भूषण से सम्मानित किया। वह भारतीय विज्ञान कोंग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और अन्य कई वैज्ञानिक संस्थानों के अध्यक्ष रहे। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) के महानिदेशक के रूप में उन्होंने भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को गति देने में अहम भूमिका अदा की। बाद में भारतीय प्रयोगशालाओं के मानकीकरण की शीर्ष संस्था एनएबीएल के अध्यक्ष रहे।
अपनी सरलता और निश्छलता से हज़ारों हृदय पर राज करने वाले, अपनी करिश्मायी मुस्कान से मन की पीड़ा हर लेने वाले और अपने जादूयी व्यक्तित्व से विस्मित कर देने वाले इस माटी के महान भौतिक वैज्ञानिक हमारे प्रिय जोशी सर, भले अपने भौतिक रूप में आज आप हमारे बीच नहीं रहे, किंतु आपकी आध्यात्मिक और दार्शनिक उपस्थिति को हमारा मन अपने समय के अंत तक सर्वदा महसूस करते रहेगा! सर, प्रणाम!!!
अपनी सरलता और निश्छलता से हज़ारों हृदय पर राज करने वाले, अपनी करिश्मायी मुस्कान से मन की पीड़ा हर लेने वाले और अपने जादूयी व्यक्तित्व से विस्मित कर देने वाले इस माटी के महान भौतिक वैज्ञानिक हमारे प्रिय जोशी सर, भले अपने भौतिक रूप में आज आप हमारे बीच नहीं रहे, किंतु आपकी आध्यात्मिक और दार्शनिक उपस्थिति को हमारा मन अपने समय के अंत तक सर्वदा महसूस करते रहेगा! सर, प्रणाम!!!
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