वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२५
(भाग – २४ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (फ)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
८ – गायों का साक्ष्य
अब अंत में हम उस मवेशी की बात करते हैं जो भारोपीय जनजीवन की आत्मा में बसता है और जो घोड़ों से भी अधिक अहम है। वह पशु है – गाय। ‘आर्य’ और उनके घोड़ों के बारे में तमाम शोर-गुल और वक्रवाक्पटुताओं के बावजूद गाय ही वह पशु है जो उनके जीवन में एक केंद्रीय भूमिका निभाती आयी है। घूमंतु और चरवाहे आर्यों के जन-जीवन की गाय एक मुख्य पहचान रही है। किंतु, सबसे हैरत की बात यह है कि आर्यों की मूलभूमि के प्रश्न पर जितने भी विद्वानों ने अपनी वाकपटुता और तर्कों का ताना-बाना बुना है उन्होंने वनस्पति और जंतु-जगत के सभी तन्तुओं को तो समेट लिया है, लेकिन लगता है कि जानबूझकर इन गायों को छोड़ दिया है। पालतू कुत्तों के सिवा प्राक-ऐतिहासिक काल में गाय/बैल/साँड़ एकमात्र ऐसे पशु हैं जिनके नाम के कोई न कोई अपभ्रंश रूप आद्य-भारोपीय परिवार की सभी शाखाओं में पाए जाते हैं। आद्य-भारोपीय – गॉस, भारतीय-आर्य संस्कृत – गौ, ईरानी अवेस्ता – गौश, अर्मेनियायी – कोव, ग्रीक (यूनानी) – बोऊस, अल्बेनियायी – का, अनाटोलियन हीर, लुव – ववा, टोकरियन – क्यू, इटालिक लैटिन – बोस, सेल्टिक प्राचीन आइरिश – बो, जर्मन – कुह, बाल्टिक लिथुयानवी – गुओव्स, स्लावी ओसीएस – गोवेदो।
'अनाटोलियन मूल-भूमि-अवधारणा' के हिमायती गमक्रेलिज का कहना है कि, ‘दूध देने वाली गाय के आर्थिक महत्व के आलोक में इसे उस पुरातन काल की अमूल्य निधि के रूप में समझा जा सकता है (गमक्रेलिज १९९५:४८५)। पालतू जानवर के रूप में गाय, बैल और साँड़ का समय जंगली घोड़ों को पालतू बनाए जाने से काफ़ी पहले तक जाता है। नव-पाषाण युग के आदि काल में ही पालतू गाय, बैल और साँड़ के सबूत मिल जाते हैं (गमक्रेलिज १९९५ : ४८९)।‘ लेकिन बाद में कुछ बेमेल बातें उनके 'अनाटोलियन मूलभूमि अवधारणा' के परिप्रेक्ष्य में प्रवेश कर जाती हैं।गमक्रेलिज हमें बताते हैं कि, ‘यूरेशिया में जानवरों के पालतू बनाए जाने के दो प्रमुख केंद्र हैं : एक यूरोप का वह क्षेत्र जहाँ वंशानुगत जंगली गायों के रूप में विशाल आकृति वाले यूरोपीय जंगली भैंस (बोस प्राइमिजिनियस बोज) थे, और दूसरा पश्चिमी एशिया का वह भूभाग जहाँ वंशानुगत जंगली गायों की अपनी एक विशिष्ट प्रजाति थी [………….] पश्चिमी एशिया को ही वह जगह माना जाता है जहाँ सबसे पहली बार जंगली गायों को पालतू बनाया गया (गमक्रेलिज १९९५ :४८९-४९०)।‘ वह इसका बार-बार ‘जानवरों को पालने-पोसने के दो बड़े केंद्र’ के रूप में उल्लेख करते हैं (गमक्रेलिज १९९५ :४९०)। बाद में वह तुरुप का इक्का फेंकते हैं, ‘भारोपीय बोलियाँ एक ही स्त्रोत से अपने शब्द गढ़ती हैं -*ठौरो-। भारोपीय भाषाओं में इसका मूल अभिप्राय ‘जंगली गाय/बैल/साँड़’ है जो क़रीब-क़रीब एक ‘पूरबिया घूमंतु शब्द’ है। यह इस बात को दर्शाता है कि इन बोलियों को बोलने वाले लोग विशेष रूप से पूरब के पास पाए जाने वाली जंगली गायों से वाक़िफ़ थे (गमक्रेलिज १९९५:४९१)।
ऊपर की बातों में भ्रम और मिथ्या का इतना विशद जाल है जिनका शीघ्र ही स्वतः उच्छेदन हो जाएगा और सही तथ्यों के उद्घाटन से फिर एक बार भारत की मूल भूमि होने की अवधारणा को बल मिलता दिखायी देगा :
१ – यह बात विवादों से बिल्कुल परे है कि गायों (अर्थात पालतू पशुओं) के पालने-पोसने के दो बड़े केंद्र थे। मवेशियों को समर्पित विकिपीडिया के स्तम्भ में कहा गया है कि “जंतु-विज्ञान और आनुवंशिकी के पुरातात्विक विद्वानों का इस बात की ओर संकेत है कि सबसे पहले क़रीब ईसा से १०५०० वर्ष पूर्व जंगली औरोक्स (बॉस पराइमिज़िनियस) को पालतू जानवर बनाया गया। औरोक्स जिसे यूर या युरस भी कहा जाता है,एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में रहने वाले जंगली जानवरों की एक विलुप्त प्रजाति है। १६२७ तक यह प्रजाति यूरोप में देखी गयी, जब पोलैंड के जाकटोरो जंगल में अंतिम औरोक्स के दम तोड़ने की घटना को दर्ज किया गया। इस जंगली जानवर को पालने के दो बड़े केंद्र थे। पहला केंद्र आज का टर्की था जहाँ से ‘टौरस-वंश (tauras line)’ का उदय हुआ। दूसरा केंद्र आज का पाकिस्तान था जहाँ से ‘इंडिसाइन वंश (indicine line)’ का उदय हुआ। यूरोपीय मवेशी बहुधा टौरस वंश से संबंधित हैं।“ बाक़ी के शोध इस बात को दर्शाते हैं कि ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ इन जानवरों को पालने के महत्वपूर्ण केंद्रों में एक थी। (यह घूमंतु चरवाहे ‘आर्यों’ और सभ्य नागरिय हड़प्पा निवासियों के बीच के एक महत्वपूर्ण अंतर को उजागर करता है)।
२ – ऋग्वेद गायों की चर्चा से भरा-पूरा ग्रंथ है। न केवल गाय का उल्लेख घोड़े सहित बाक़ी किसी भी मवेशी की तुलना में सबसे अधिक बार हुआ है, बल्कि ‘गौ/गो’ शब्द का प्रयोग अनेक चमत्कारिक अर्थों में भी हुआ है। कहीं सूरज की किरणों के लिए, कहीं पृथ्वी के लिए, कहीं तारों के लिए तो कहीं प्रकृति के अन्य रहस्यमय उपादानों के अर्थ में यह शब्द ऋग्वेद में यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। ऋग्वेद के धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक जीवन के मुख्य संबल के रूप में गाय चित्रित होती दिखती है। किंतु भाषायी दृष्टिकोण से सबसे प्रमुख बात तो यह है कि गाय से संबंध रखने वाले वे सारे साझे भारोपीय शब्द तो संस्कृत भाषा में मिल जाते हैं लेकिन गमक्रेलिज के शब्दों में यहूदियों से उधार लिए गए वे ‘पूरबिया घूमंतु शब्द’ कहीं नहीं पाए जाते। पुरब की तीनों शाखाओं में इस शब्द का नहीं पाया जाना इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि इन बोलियों को बोलने वाले लोग विशेष रूप से पूरब के निकट पाए जाने वाले जंगली गायों से वाक़िफ़ नहीं थे (गमक्रेलिज १९९५ :४९१)।
मेल्लोरी ने बताया है कि भारोपीय भाषाओं में गाय के लिए तीन अलग-अलग शब्द हैं – *ग़ोऊस- (*gwous-), *हे- (*h1egh-), और *वोकेह- (*wokeh-)। पहले दोनों शब्द सभी बारह शाखाओं में पाए जाते हैं। गाय, बैल और साँड़ के लिए भारतेय आर्य भाषाओं में अन्य शब्दों का वृतांत इस प्रकार है :
क - *हे- (*h1egh-), ‘गाय’। संस्कृत - *अहि-, अर्मेनियायी – एज्न, सेल्टिक (प्राचीन आइरिश) – अग
ख - *वोकेह- (*wokeh-) ‘गाय’। संस्कृत – वसा। इटालिक (लैटिन) – वक्का।
ग – ‘फेखु’ – ‘मवेशी’। संस्कृत – पशु। ईरानी (अवेस्ता) – पसु। इटालिक (लैटिन) – पेचु। जर्मन (प्राचीन अंग्रेज़ी) – फेओह। बाल्टिक (लिथुयानवी) – पेकुस।
घ - *उक्सेन- ऑक्स (बैल)। संस्कृत – उक्षाम। ईरानी (अवेस्ता) – उक्षाम। टोकारियन – औक्षो। जर्मन (अंग्रेज़ी) – ऑक्स। सेल्टिक (प्राचीन आइरिश) – औस्स।
ङ – वृसेन ‘साँड़ (बुल)’। संस्कृत – वृष्णि। ईरानी (अवेस्ता) – वरेष्ण।
च – *उश्र- ‘गाय/साँड़’। संस्कृत – उस्त्र/उस्त्रा। जर्मन – ऊरो (ऊरोच्सो से)।
छ - *डोम्ह्योस- ‘बछड़ा’। संस्कृत – दम्य। सेल्टिक (प्राचीन आयरिश) – डैम। अल्बानियन – डेम। ग्रीक (यूनानी) – डमलेस।
ऊपर की अंतिम पंक्ति में दी गयी जानकारी ध्यान आकर्षित करती है। गमक्रेलिज इस बात की ओर संकेत करते हैं कि, “ जंगली जानवरों को पालतू बनाने वालों में प्रोटो भारोपीय भाषी लोगों के भी होने की झलक इस बात में स्पष्ट दिखायी देती है कि इनकी भाषा में साँड़ के लिए एक अलग से शब्द है, जो ‘*टेम्ह-‘ क्रिया से व्युत्पन्न है। इसका अर्थ होता है – पालना (tame), अपने मातहत करना (subdue), लगाम कसना (bridle), ज़बरन (force)। वैदिक संस्कृत – ‘दम्य’ का अर्थ बछड़े को पालना है या बधिया किए जाने योग्य पशु से है। अल्बेनियायी : ‘डेम’ – बछड़ा (मेयरहोफ़र १९६३ :II.३५)। जर्मन : ‘डमालेस’ – शिशु बछड़ा जिसका बधिया किया जाना है, ‘डमाले’ – जवान बछिया जो अभी ब्यायी नहीं (गमक्रेलिज १९९५:४९१)।
उपलब्ध साक्ष्यों का प्राबल्य, तथापि, इसी बात को पुष्ट करता है कि पशुओं को वश में करने और उनको पालने-पोसने का काम वैदिक लोगों के इलाक़े में ही हुआ। यह सिंधु सरस्वती का क्षेत्र था न कि पश्चिमी एशिया का भूभाग जिसे बार-बार गमक्रेलिज ने साबित करने की कोशिश की है। इसके अलावा दो और ऐसे शब्द हैं जो आद्य-भारोपीय दुनिया में दुग्धालयों या गव्यशालाओं के जन्म लेने या फिर डेरीकरण की प्रक्रिया के प्रचलन के विकास की कहानी की ओर संकेत करते हैं।
क - संस्कृत के शब्द ‘गोष्ठ-‘ (वैदिक काल में पशुओं को चारागाह से निकालकर सुरक्षा की दृष्टि से एक जगह पर एकत्र करने के लिए प्रयुक्त शब्द ‘गोष्ठी’ था) और सिलतिक भाषा की एक लुप्त प्रायः बोली, सेल्टीबेरियन का शब्द ‘बुस्टम’ (जानवरों को रखने का स्थान)।
ख – आद्य-भारोपीय भाषाओं का साझा शब्द ‘अडर’ (थन, udder)। संस्कृत – ‘उदर’, ग्रीक (यूनानी) – ‘ओऊथर’, लैटिन – ‘ऊबर’, जर्मन (अंग्रेज़ी) – ‘अडर’। यहाँ फिर यहीं दिखता है कि भारतीय आर्य तत्व सभी भाषाओं में साझे रूप से विद्यमान है।
३ – उत्तर-पश्चिमी भारत में अपनी स्थिति से संबंधित उपलब्ध प्राचीनतम ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से स्पष्ट है कि वैदिक भारतीय-आर्य और ईरानी शाखाओं ने मूल क्रिया ‘दूहना’ (to milk) को संजो कर रखा है : वैदिक संस्कृत – ‘दूह-‘/’दुग्ध-‘ और ईरानी – ‘दोक्ष-’। यह क्रिया बाक़ी सभी शाखाओं में विलुप्त हो गयी है। किंतु इसके मूल ‘क्रिया’ होने का प्रमाण यह है कि प्रोटो- भारोपीय संसार की दुग्ध-संस्कृति में प्रचलित शब्दों की व्युत्पति के केंद्र में यह मूल सर्व व्यापी है। इस मूल को समझने के लिए ‘डॉटर’ (daughter) शब्द के लिए भिन्न-भिन्न बोलियों में प्रचलित शब्दों पर ध्यान देना रोचक होगा। संस्कृत – ‘दुहितर-‘, अवेस्ता –‘दगेडर-‘, अर्मेनियायी – ‘दत्र-‘, यूनानी – ‘तगाटेर-‘, अंग्रेज़ी – ‘डॉटर-‘, …. आदि (गमक्रेलिज १९९५:४८६, fn ४१)। बहुत दिनों तक इस शब्द का अर्थ दूध दुहनेवाली महिला से लिया जाता रहा जो इस बात की ओर संकेत करता है कि प्रोटो-भारोपीय घरों में महिलाओं की दैनंदिनी में गायों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था। दूध के लिए वैदिक भारतीय-आर्य भाषा भी अपना शब्द इसी मूल ‘दुग्ध-‘ से ही ग्रहण करती है।
ईरानी भाषा,दूसरी ओर, दो शब्दों का प्रयोग करती है। अवेस्ता में ‘श्विद-‘ (आधुनिक पारसी भाषा में ‘शिर-‘) और ‘पिमां-‘ (आधुनिक पारसी भाषा में ‘पिनु-‘)। इन दोनों के समानार्थी शब्द वैदिक भाषा में ‘क्षीर’ और ‘पायस’ हैं जिसका अर्थ दूध होता है।इन शब्दों के समानार्थक शब्द अन्य शाखाओं में भी हैं, जैसे - अल्बानी भाषा में ‘हिर्रे’ (मट्ठा) तथा बाल्टिक लिथुयानवी भाषा में ‘स्विस्ता’ (मक्खन) और ‘पिनास’ (दूध)। अन्य वैदिक शब्द ‘घृत’ (घी, मलाई या मक्खन) सेल्टिक भाषा में ‘गर्त’ के रूप में पाया जाता है। एक अन्य उदाहरण ‘दध्न’ से व्युत्पन्न वैदिक शब्द ‘दधि-‘ (दही, खट्टा दूध) है जो बाल्टिक में ‘ददन’ (दूध) और अल्बानी में ‘दाती’ (मक्खन) रूप में पाया जाता है।
फिर भी, आठ शाखाओं में ‘’दूहना’ क्रिया के लिए दूसरे व्यापक शब्द हैं : प्रोटो-भारोपीय –‘मेल्क’, टोकारियन – ‘माल्क्लन’, सेल्टिक आइरिश – ‘ब्लिगिम’, इटालिक (लैटिन) – ‘मुल्गेओ’, जर्मन (अंग्रेज़ी) – ‘टु मिल्क’, बाल्टिक (लिथुयानवी) – ‘मेल्ज़ती’, स्लावी (प्राचीन रूसी) – ‘म्लेस्टि’, यूनानी – ‘अमेलगो’, अल्बानी – ‘म्जेल’। उसमें से चार में दूध के लिए संज्ञात्मक शब्द की व्युत्पति भी इसी मूल से हुई है : टोकारियन – ‘मल्के’/मल्क़वे’, सेल्टिक (पुराना आइरिश) – ‘मेल्ग’/’म्लीच’/’ब्लिच’, जर्मन (अंग्रेज़ी) –‘मिल्क’, स्लावी – ‘म्लेको’, रूसी – ‘मोलोको’। इन परिस्थितियों में गमक्रेलिज ने इसी मूल को ‘मिल्क’ अर्थात दूध शब्द की व्युत्पति का मूल माना है। वह लिखते हैं – ‘यह उल्लेखनीय है कि भारतीय-ईरानियों ने दोनों मूल क्रिया शब्द ‘मिल्क’ और ‘*मेल्क-‘ तथा मूल संज्ञा शब्द ‘मिल्क’ के बदले दूसरे शब्दों को ले लिया है। इसका मुख्य कारण इन लोगों के अन्य भारोपीय जनजातियों से अलग होने के बाद ‘दुग्ध-संस्कृति’ के उद्भव की अपनी विशेष गति की अवस्था हो सकती है(गमक्रेलिज १९९५ : ४८६)। किंतु, उनकी यह धारणा कि मूल क्रिया और संज्ञा शब्द वही थे, इस आधात पर पूरी तरह ध्वस्त हो जाती है कि :
क – ईरानी शाखा के साथ-साथ भारतीय-आर्य शाखा में यह पूरी तरह से अनुपस्थित है, जबकि इन शाखाओं ने पशु-पालन और दुग्ध-उद्योग से संबंधित समस्त साझे शब्दों को संजो कर रखा है। यहीं नहीं, यह क्षेत्र दो सबसे बड़े पशु-पालन केंद्रों के मध्य में भी अवस्थित है (जैसा कि गमक्रेलिज, १९९५:४८५, ने स्वयं स्वीकारा है कि संस्कृत और प्राचीन ईरानी भाषा में हम गायों और उनके दुग्ध उद्योग से जुड़े अत्यंत विकसित शब्दावलियों को पाते हैं)। फिर तो, यह बड़ी ही विचित्र बात होगी कि वे (भारतीय-आर्य और ईरानी) ‘मिल्किंग’ और ‘मिल्क’ शब्दों को पूरी तरह भूल बैठें।
ख – सबसे पहले अपनी जगह छोड़ने वाली अनाटोलियन (हित्ती) भाषा-शाखा में यह पूरी तरह से ग़ायब है।
ग – भारतीय शब्द-बीज ‘दूह’ ‘डॉटर’ शब्द की भी व्युत्पति का बीज है। इसका अर्थ भारोपीय जनजाति में गाय का दूध निकालने वाली महिला से लिया जाता था। यह प्रमाणित हो चूका है कि बीज-शब्द ‘दूह’ अपेक्षाकृत ज़्यादा पुराना और सबसे पहले प्रयोग हुआ तथा गहरे तक पैठा हुआ शब्द है। अतः यह स्पष्ट है कि प्रोटो भारोपीय शब्द ‘मेल्क’ अपेक्षाकृत नया शब्द है जो आगे चलकर प्रोटो भारोपीयों के पश्चिमोत्तर भारत से बाहर निकलने पर मध्य एशिया की उनकी नयी बसावट में बाद में विकसित हुई।
दूध के लिए अन्य शब्द भी मिलते हैं। ग्रीक (यूनानी) में ‘गाल-‘ (व्युत्पति – गालक्टोस) और इटालिक (लैटिन) में ‘लक-‘ (व्युत्पति -लैक्टिस), इन दोनों का अर्थ दूध ही होता है। इस संदर्भ में ‘गेलेक्सी’ अर्थात आकाशगंगा शब्द का हठात् ध्यान आ जाता है। हित्ती भाषा में ‘गलट्टर’ शब्द का अर्थ सुंदर स्वाद वाले पौधों के रस से लिया जाता है। यूनानी भाषा में ‘गाल-‘ का अर्थ पौधों का रस भी होता है, जैसा कि लैटिन में ‘लक हरबारम’ (lac herbarum) का होता है। यह शब्द भी संभवतः स्वतंत्र रूप से मध्य एशिया में हाई जनमा होगा। हालाँकि यह पूरी तरह से एक काल्पनिक बात होगी, किंतु संस्कृत के ‘गोरस’ शब्द से यह ज़्यादा दूर नहीं दिखता जिसका अर्थ भी ‘गो’ अर्थात गाय और ‘रस’ अर्थात पौधे के तने के अंदर का जल होता है।
इन सबमें, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मवेशियों और पशुओं पर हुए आनुवंशिक (जेनेटिक) शोधों से यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि आर्यों का भारत से बहिर्गमन हुआ था। इन जेनेटिक पड़तालों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि ऊपर मांसल लोथड़े की कूबड़ वाले भारतीय जानवर, ’जेब्यू’, हड़प्पा के पालतू मवेशी थे। ये २२०० ईसापूर्व के आस-पास पश्चिमी और मध्य एशिया में भी अचानक प्रकट होने लगे थे। २००० ईसापूर्व के आते-आते भारतीय ‘जेब्यू’ की प्रजाति ‘बॉस इंडिकस (bos indicus)’ का बड़े पैमाने पर अपने से आनुवांशिक पैमाने पर बिलकुल भिन्न पश्चिम एशिया में मवेशियों की पश्चिमी प्रजाति, ‘बॉस टौरस (bos taurus)’ के साथ विलय होने लगा। इस तरह से हमारे सामने भारत के घरेलू मवेशियों और जानवरों की तीन विशिष्ट प्रजातियाँ आती हैं – हाथी, मोर और पालतू भारतीय जेब्यू पशु। इन तीनों की उपस्थिति के चिह्न भी बाद में पश्चिमी एशिया में उसी काल में मिलते हैं जब वहाँ मित्ती जनजाति की बसावट का समय होता है। इससे यह बात तो बिलकुल साफ़ हो जाती है कि मित्ती जनजाति भारत से ही निकलकर २२०० ईसापूर्व के आस-पास पश्चिम एशिया में जा बसी थी।
अब आइए हम एक अपराजेय और निर्विवाद साक्ष्य की बात करें। आज तक भारत में पाए जाने वाले मवेशी, जेब्यू, की एक ही शुद्ध प्रजाति, ‘बॉस इंडिकस’ मौजूद रही है। इसमें किसी भी प्रकार से पश्चिम एशिया की अन्य प्रजाति, ‘बॉस टौरस’ की कोई मिलावट नहीं पायी गयी है। यह दूसरी प्रजाति यूरोप और रूस के मैदानी भागों में ही पाए जाते रहे हैं। अब यह बात पूरी तरह से हैरत में डालने वाली है कि यूरोप के उन मैदानी भागों से जब आर्य भारत की ओर विस्थापित होकर चले तो दूध से संबंधित केवल शब्दावली लेकर तो वे भारत में प्रवेश कर गए लेकिन अपने दुग्ध उत्पादक पशुओं को या तो वे वहीं छोड़कर चले आए या फिर अपनी हज़ार से भी अधिक मीलों की लम्बी यात्रा में उन जानवरों को रास्ते में ही मारकर खा गए! यहाँ तक कि उनकी हड्डियाँ भी वे चबाते चले गए ताकि उनका भी उस यात्रा पथ पर कोई अवशेष न मिले! भारत में जैसे ही उन्होंने प्रवेश किया, हड़प्पा के सारे पशु उन अप्रवासियों के पशु में बदल गए जो कथित तौर पर उनके साथ अकस्मात् प्रकट हो गए!
जहाँ तक आनुवांशिक शोधों और उनसे प्राप्त निष्कर्षों का सवाल है, तो ये भिन्न-भिन्न लोगों या प्रजातियों के भ्रमण और विस्थापन की दिशा और दशा पर तो प्रकाश डाल सकते हैं किंतु उनकी भाषा और बोली पर इनसे कुछ नहीं निकल सकता है। अगर यह मान भी लिया जाय की अलग-अलग क्षेत्रों के जानवरों की भाषाएँ या उनके कंठ से निकलने वाले स्वर की कम्पन-आवृतियाँ या तीव्रताएँ एक दूसरे से भिन्न होती हैं तो इस तरह का भी कोई आनुवांशिक निष्कर्ष उपलब्ध नहीं है। अबतक डीएनए के परीक्षण से प्राप्त जेनेटिक साक्ष्यों के आधार पर ऐसा कोई सूत्र हाथ नहीं लग पाया है जिससे यह पता चल सके कि ‘बॉस टौरस’ प्रजाति के पश्चिमी मवेशियों का कभी भारत में प्रवेश हुआ हो। लेकिन इस बात के संकेत अवश्य मिले हैं कि ईसापूर्व तीसरे सहस्त्राब्द के उत्तरार्द्ध में भरातीय मवेशी, ‘बॉस इंडिकस’ का प्रवेश मध्य और पश्चिमी एशिया में हुआ था। यही संभवतः वह काल था जब भारोपीय अपनी मूलभूमि भारत से अपने उत्प्रवासित स्थलों की ओर उत्प्रवासन के पहले चरण में थे। जैसे ही इन अप्रवासियों को नए क्षेत्र में ‘बॉस टौरस’ बहुतायत में मिलने शुरू हो गए इन्होंने ‘बॉस इंडिकस’ को ले जाना बंद कर दिया।
कुल मिलाकर वनस्पति और जंतु-जगत के इन तमाम सूत्रों की भारतीय-आर्य, भारोपीय क्षेत्रों तथा उनके भूगोल के संदर्भ में पड़ताल करने पर हम भारत को ही आर्यों की मूल भूमि के रूप में पाते हैं जहाँ से वे बाहर निकलकर पश्चिमोत्तर में अफ़ग़ानिस्तान, मध्य एशिया और आगे अन्य क्षेत्रों की ओर गए। तथ्यों के इस समूचे प्रोटो-भारोपीय परिदृश्य में भारत का हाथी एक अनमोल संकेत के रूप में व्याप्त है।
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